22. पत्र अपने पास रख लिया-
शिशिरगढ़ चामुण्डराय ने घेर लिया, यह सूचना प्राप्त होते ही महाराज परमर्दिदेव चिन्तित हो उठे। उन्होंने अपने मन्त्रियों से विचार विमर्श किया। सभी को यह आशंका हो रही थी कि चाहमान सेनाएँ महोत्सव की ओर भी प्रस्थान कर सकती है। मन्त्रिवर माहिल ने कहा कि वे महाराज पृथ्वीराज के मित्र हैं। उन्हें अपने पक्ष में कर लेंगे ब्रह्मजीत एवं समरजीत दोनों राजकुमारों को लगा कि मातुल पर बहुत विश्वास करना उचित नहीं है पर वे किसी विकल्प पर नहीं पहुँच सके। महारानी मल्हना ने महाराज से कहा कि आल्हा एवं उदयसिंह का निष्कासन उचित नहीं था। माहिल ने प्रस्ताव रखा कि उनके बेटे अभयी को बुला लिया जाए। वे महोत्सव की सुरक्षा का दायित्व सँभाल लेंगे। महाराज ने अभयी को महोत्सव की सुरक्षा के लिए नियुक्त कर दिया।
चन्द्रा ने प्रस्ताव किया कि शिशिरगढ़ पर चामुण्डराय के आक्रमण की सूचना उदयसिंह को भेज दी जाए। महाराज परमर्दिदेव उदयसिंह को पत्र लिखने में संकोच कर रहे थे।उन्हें लग रहा था कि उनके पत्र का पहले जैसा प्रभाव अब नहीं होगा। महारानी के भी बल देने पर वे एक पत्र महाराज जयचन्द को लिखने के लिए तैयार हुए। इस पत्र में उन्होंने यह संकेत किया कि चामुण्डराय ने शिशिरगढ़ पर आक्रमण कर दिया है। ऐसी स्थिति में उदयसिंह का शिशिरगढ़ पहुँचना आवश्यक है। वे महोत्सव के आसन्न संकट का उल्लेख नहीं करना चाहते थे।
दूत पत्र लेकर कान्यकुब्ज नरेश महाराज जयचन्द के पास गया। महाराज ने पत्र ले लिया और कहा कि आवश्यक कार्यवाही करेंगे। पर उदयसिंह इस समय गाँजर प्रदेश के राजाओं से कर उगाहते और महाराज की सेवा में भेजते जाते। उन्हें इस कार्य में संलग्न हुए एक मास बीत गया था। महाराज प्रसन्न थे। उनका कोष उदयसिंह द्वारा भेजे गए उपहारों से दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। उन्होंने विचार किया कि यदि इस समय उदयसिंह को सूचना दी गई तो कर उगाहने का कार्य बीच में ही छोड़, वे शिशिरगढ़ पहुँचना चाहेंगे। उन्हें कर उगाही अधिक आवश्यक प्रतीत हुई। पत्र उन्होंने अपने पास रख लिया।
गाँजर के राजाओं से कर उगाहना सरल नहीं था। कोई भी राजा स्वेच्छा से कर देने के लिए तैयार न होता। उदयसिंह से युद्ध में परास्त होने पर ही वे कर देते। उदयसिंह की भी यह परीक्षा थी। वे धूप छाँह, भोजन विश्राम की चिन्ता किए बिना अपने अभियान में निरन्तर लगे रहे। वर्षा आगमन के पूर्व ही उन्हें अपना अभियान सम्पन्न कर लेना था। इसीलिए दिन रात वे चलते रहते। कभी-कभी अश्वों की काठी उतारी नहीं जाती, तंग ही नहीं छूटते। पर उदयसिंह ने रक्तपात बचाया। कम से कम लोग हताहत हुए।
23. पर कदम्बवास दुःखी थे चामुण्डराय ने अपनी सेना का आकलन किया। उन्होंने महामन्त्री कदम्बवास की सहायता से सैन्यबल को पुनर्गठित किया। जो सैनिक घायल हो गए थे, उनके लिए औषधि का प्रबन्ध हुआ। चामुण्डराय निरीक्षण कर रहे थे कि माहिल आ गए। दोनों के बीच गोपनीय परामर्श हुआ। सैनिकों को विश्राम करने के लिए कह दिया गया। उनसे कहा गया कि कुछ तैयारियाँ करनी हैं। तैयारी हो जाने पर ही आक्रमण किया जाएगा। विश्राम की सूचना मिलते ही सैनिकों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सैनिक गण मनोरंजन के विभिन्न साधनों के साथ मग्न हो गए।
दो प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर चामुण्डराय ने अति विश्वसनीय सैनिकों को खन्दक खोदने के लिए लगा दिया। उन्हें निर्देश दिया गया कि सम्पूर्ण कार्य रात्रि में ही सम्पन्न किया जाएगा। जितनी खन्दकें खोदी जाएंगी, रात्रि के पिछले प्रहर तक उनमें भाले धँसाकर पाट दिया जाएगा। खन्दक पर पर्याप्त सुरक्षाबल लगा दिया गया जिससे कोई उधर न जा सके। कुछ समय में यह कार्य सम्पन्न कर लिया गया।
पुरुषोत्तम यद्यपि सलक्षण की अन्त्योष्टि आदि में व्यस्त थे किन्तु वे जानते थे कि चामुण्डराय पूरी तैयारी से पुनः आक्रमण करेगा। वे अपनी सेना को भी सन्नद्ध करते रहे। पर वे आमने-सामने युद्ध के समर्थक थे, किसी तरह के छद्म का सहारा लेना वे उचित नहीं समझते थे।
चामुण्डराय ने व्यूह रचना की। उन्होंने सैनिकों का एक दल आगे भेज दिया। खन्दक के तीन ओर उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति को विभक्त कर लगा दिया। महामन्त्री खन्दक के पीछे अपने सैन्य बल के साथ आ गए। वीर भुगन्ता और ताहर ने खन्दक के बाएँ एवं दाएँ सैन्य बलों का नेतृत्व सँभाल लिया। चामुण्डराय ने आगे की पंक्ति में आकर घौंसा बजवा दिया। पुरुषोत्तम के आगे बढ़ते ही वीर भुगन्ता सामने आ गए। उनकी ढाल का एक औझड़ लगते ही वीर भुगन्ता का घोड़ा भाग चला। यह दृश्य देखते ही ताहर सामने आ गए। पुरुषोत्तम और ताहर में घमासान युद्ध छिड़ गया। दोनों वीर थे। कोई भी पग पीछे रखने को तैयार न था। पुरुषोत्तम ने पूरी शक्ति लगाकर एक साँग ताहर पर मारी। ताहर की ढाल फट गई और साँग ताहर के हाथ बेधती हुई पार हो गई । ताहर के हटते ही चामुण्डराय आ गए। रणनीति के अनुसार पुरुषोत्तम को खन्दक में ले आना था। इसीलिए योजनानुसार चामुण्डराय की सेना खन्दक की ओर बढ़ती रही। पुरुषोत्तम जब खन्दक के निकट पहुँच गए तो कदम्बवास ने खन्दक के उस पार से ललकारा। पुरुषोत्तम ने घोड़ी को एड़ लगाई, उसी के साथ अनेक अश्वारोही खन्दक में कूद गए। कपोती सहित पुरुषोत्तम ने घोड़ी को पुचकारा। वह पूरी शक्ति लगाकर उछली। खन्दक से निकल तो आई पर तब तक चामुण्डराय की साँग पुरुषोत्तम के शरीर में धँस गई। घोड़ी को उन्होंने शिशिरगढ़ की ओर मोड़ दिया। उसी के साथ सेना छिन्न-भिन्न हो गई। शिशिरगढ़ के द्वार पर पहुँचते ही पुरुषोत्तम घोड़ी से उतरे। उनके उतरते ही घोड़ी धरती पर गिर पड़ी। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। पुरुषोत्तम के शरीर में भी व्रण का प्रभाव बढ़ने लगा था। उन्होंने शय्या पकड़ी तो फिर उठ नहीं सके। चामुण्डराय के सैनिकों ने लूट-पाट की। पर कदम्बवास दुःखी थे। उनकी दृष्टि में खन्दक खुदवाना और खन्दक में साँग चलाना दोनों अनैतिक था। उन्होंने आदेश दिया कि कोई भी सैनिक पुरुषोत्तम के परिवार को स्पर्श नहीं करेगा।