The Love That Was Incomplete - Part 14 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 14

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 14

वहाँ दिखा—
रुखसाना का चेहरा।
लेकिन ये कोई सपना या वहम नहीं था।
 ये एक पुरानी फिल्म रील जैसी दिख रही थी, जो किसी छिपे मैकेनिज्म से शुरू हो गई थी।
वो देख रहा था—रुखसाना को सज़ा दी जा रही थी।
 उस पर इल्ज़ाम था—बेवफाई का, राज़ खोलने का, गद्दारी का।
 लेकिन जिसने ये सज़ा दी थी, वो कोई और नहीं—आगाज़ ख़ान था।
अपूर्व ठिठक गया।
"नहीं... ये मैं नहीं था...!"
पर हर फ्रेम, हर चीख़, हर आँसू उसे उसी अतीत में खींच रहा था।
और आखिरी दृश्य में—आग में जलती हुई को उसी हवेली के तहखाने में बंद किया जाता दिखाया गया... एक दरवाज़े के पीछे, जिस पर लिखा था—
"जिसने प्रेम किया, उसने दंड पाया।"
अचानक दरवाज़ा अपने आप खुल गया।
वो अंधेरा था।
 ठंडा, भयावह, और बुलाता हुआ।
"अगर अन्वेषा वहीं है, तो मुझे जाना ही होगा..."
अपूर्व ने कदम बढाए ... और जैसे ही वो अंधेरे में दाख़िल हुआ, दरवाज़ा उसके पीछे खुद-ब-खुद बंद हो गया।
ऊपर की मंज़िल के दरवाज़े अब फिर से बंद थे।
पूरा हवेली का ऊपरी हिस्सा अब जैसे सो चुका था।
नीचे गहराई में कहीं, अपूर्व एक भूलभुलैया में फँसा था...
 जहाँ उसका अतीत, उसका प्रेम, और उसका अपराध—एक साथ उसका इंतज़ार कर रहे थे।
और अन्वेषा...?
 वो वहाँ है... या सिर्फ एक परछाईं बन चुकी है?
अंधकार गहरा था।
दीवारों से रिसती नमी, हवा में सडी लकडी और पुराने धूपबत्ती की गंध... और हर तरफ़ पसरा एक ऐसा सन्नाटा जो सुनाई देता था।
अपूर्व अब हवेली के उस तहखाने में था, जहाँ ना कोई रास्ता सीधा था, ना दीवारें स्थिर। जैसे हर मोड के पीछे एक नई दुनिया पल रही हो, और हर दीवार किसी दूसरे समय की गवाही दे रही हो।
उसके कदम जैसे ज़मीन पर नहीं, किसी धडकते हुए अतीत पर पड़ रहे थे।
"अन्वेषा...? तुम... सुन सकती हो?"
एक सिहरन उसकी रीढ से नीचे उतरी। जवाब में गूँजा एक धीमा, लहराता स्वर—
"क्यों लौटे हो...? जिसे दफ़न किया गया, उसे जगाने क्यों आए हो?"
अपूर्व ने झपट कर पीछे देखा। कोई नहीं था।
पर सामने... सामने की दीवार पर अब उभर रहा था एक चेहरा।
 सांवला, आँसुओं में डूबा... रुखसाना का।
"तू आया है फिर... उसी गुनाह के साथ।"
"मैं वो नहीं हूँ!"
 अपूर्व चीख़ पड़ा, उसकी सांस तेज़ हो गई।
 "मैं वो नहीं जो तुम्हें छोड आया था... मैं अपूर्व हूँ, आगाज़ नहीं!"
पर तभी दीवारें ज़ोर से गूँज उठीं—
"आगाज़! आगाज़! आगाज़!"
हवेली ने उसका नाम नहीं, उसका अपराध पुकारा।
भूलभुलैया में दीवारें अब सरकने लगी थीं।
 एक रास्ता खुलता, तो दो बंद हो जाते।
 हर बार जब वो मुडता , सामने एक नया चेहरा दिखता—
एक बार रुखसाना का,
 एक बार खून से लथपथ नसीर,
 एक बार एक औरत जो पहचान में नहीं आती थी... पर उसकी आँखें बिलकुल अन्वेषा जैसी थीं।
"मैं कौन हूँ...?"
 अपूर्व ने खुद से पूछा, और एक दीवार पर उभरी एक पुरानी लिखावट —
 "जो प्रेम में हारा, वही रूह में फंसा।"
तभी अचानक गलियारे में से तेज़ हवा का झोंका आया।
उसके सामने की दीवार फटी।
वो एक और कोठरी में दाख़िल हुआ, जहाँ बीचोंबीच एक पुराना झूला लटक रहा था।
 और उस पर बैठी थी... एक छोटी बच्ची।
उस बच्ची ने पूछा - "तुम अपूर्व हो?"
अपूर्व ने हैरानी से जवाब दिया - "हाँ, और तुम...?
उस बच्ची ने कहा - "मैं भी रुखसाना थी... जब वो पहली बार मरी थी..."
"क्या मतलब?"
 अपूर्व अब हिल गया था।
वो बच्ची बोली - "रुखसाना हर सौ साल में लौटती है... और आगाज़ भी।
 लेकिन इस बार कहानी बदलनी थी, इसलिए अन्वेषा आई।
 वो सिर्फ़ प्रेम नहीं, तुम्हारी परीक्षा भी है।"
बच्ची ने आंखें बंद कीं, और झूला अपने-आप ज़ोर से झूलने लगा—
"अगर तुम उसे बचा सके,
 तो रुखसाना मुक्त हो जाएगी...
 वरना... वो भी रूह बन जाएगी... इस हवेली की!"
अपूर्व चिल्लाया - "नहीं! मुझे बताओ वो कहाँ है!"
 
"तहख़ाने के आख़िरी दरवाज़े से दूर ... वहाँ जहाँ रोशनी कभी नहीं पहुंची।
 लेकिन वहाँ से लौटना... हर जन्म में मुमकिन नहीं होता..."
उस बच्ची ने कहा और बच्ची का चेहरा धीरे-धीरे पिघलने लगा।
उसकी आंखों से काले आँसू निकलने लगे।
और झूला अब हवा में नहीं, खून के कुंड के ऊपर झूल रहा था।
"तुम देर से आए हो... अपूर्व..."
वो वही आवाज़ थी—जो उसने पहली बार सुनी थी।
 दीवारों पर अब खून से उकेरे गए चिन्ह उभरने लगे—
"आगाज़... लौट आया।
 अब निर्णय होगा।"
अचानक, हवेली की ज़मीन हिलने लगी।
 एक गहरी दरार फर्श में बनी और अपूर्व उस अंधेरे में गिरने लगा...
गिरता गया... गिरता गया...
 जैसे समय के गर्भ में प्रवेश कर रहा हो।
नीचे...
 एक विशाल पत्थरों की बनी कोठरी थी, जिसमें सिर्फ एक लालटेन जल रही थी।
और सामने—
एक लोहे का तख़्त।
 जिस पर बैठी थी... अन्वेषा।
 आँखें खुली, लेकिन जैसे किसी और की रूह उसमें हो।
अपूर्व ने कांपती आवाज़ में कहा -
"अन्वेषा...?!"
और तभी—
अन्वेषा ने गर्दन घुमाई। उसकी आँखें लाल थीं। मुस्कान में दहशत ।
"अपूर्व... आख़िर तुम भी वहीं आ गए जहाँ हर प्रेमी आता है—बलि के लिए..."
अपूर्व ने जैसे ही वो आवाज सुनी और पीछे मुड़ा तो अब अन्वेषा उस लोहे के तख्त पर नहीं थी । वहां फिर से अँधेरा छा गया ।
अब अपूर्व पूरी तरह उस अंधेरे में था—जहाँ न रोशनी की कोई परछाई थी, न समय की कोई परिभाषा। केवल साँसों की आवाज़, दीवारों की नमी, और एक धीमा-सा गूंजता हुआ सन्नाटा।
उसने जेब से टॉर्च निकाली। टॉर्च जलती, फिर बुझ जाती।
 बैटरी जवाब दे रही थी।
लेकिन तभी एक क्षीण सी रोशनी दूर कहीं दीवार पर टिमटिमाई।
 अपूर्व धीरे-धीरे उस ओर बढा । हर कदम पर फर्श ज़्यादा ठंडा और हवा ज़्यादा भारी होती जा रही थी।
वो एक बहुत पुराना कमरा था, पत्थर की दीवारों से घिरा, जैसे किसी कब्र का विस्तार।
 बीचोंबीच ज़मीन पर एक गोल आकृति बनी थी — जैसे किसी तांत्रिक विधि का मंडल। उसके ठीक पास…
अन्वेषा पडी थी।
आँखें बंद, साँसें धीमी, और चेहरा पीला।
 उसके चारों ओर चूडियो के टूटे टुकडे , सिंदूर की लकीरें और किसी पुराने इत्र की तीखी सुगंध फैली थी।
“अन्वेषा!”
 अपूर्व घुटनों के बल गिरा।
 उसने उसे झकझोरा।
 “उठो… मैं आ गया हूँ… सुनो…”
लेकिन तभी...
 एक औरत की आवाज़ गूंजी।
“तुम देर से आए…”

 गहरी, भारी, और बेहद जानी-पहचानी।
अपूर्व ने मुडकर देखा—कोने में एक धुंधली छाया खडी थी।
 धीरे-धीरे वह आकार लेने लगी।
रुखसाना।
लेकिन यह वो रुखसाना नहीं थी जिसे अपूर्व ने फिल्मों जैसी छवि में देखा था।
 यह एक टूटी हुई, झुलसी हुई आत्मा थी। उसके बाल बिखरे, चेहरा आधा जला हुआ और आँखें—बस गहरे अंधेरे से भरी हुई।
“तुम वही हो… आगाज़…”
 उसने धीरे से कहा।
“नहीं,” अपूर्व काँप गया, “मैं अपूर्व हूँ। मैं अलग हूँ… मैं तुम्हारी मदद करने आया हूँ!”
रुखसाना की हँसी से दीवारें हिलने लगीं।
“मदद?”

 “तुम्हारी मदद ने ही मुझे ये आग दी थी!
 तुम्हारे प्यार ने ही मुझे सज़ा दी थी!”
अपूर्व चीख़ पड़ा- 
“लेकिन मैं वो नहीं हूँ जिसने तुम्हें जलाया!”

 “मैंने… मैंने किसी से वादा नहीं तोड़ा था…”
रुखसाना चुप रही।
 फिर धीरे से बोली,
 “तुम्हारे शरीर में अपूर्व हो सकता है… लेकिन तुम्हारी आत्मा अब भी वही है—आगाज़ की आत्मा। और आत्माएँ… अपने पाप नहीं भूलतीं।”
अचानक ज़मीन पर बना तांत्रिक मंडल चमकने लगा।
 अन्वेषा का शरीर हिलने लगा—लेकिन वो अब भी बेहोश थी।