काल की पुकार
लेखक: विजय शर्मा एरी
(शब्द गणना: लगभग १५००)
गाँव का नाम था कालपुर। चारों तरफ़ घने जंगल, बीच में एक पुराना कुआँ और उस कुएँ के पास एक पीपल का पेड़। कहते हैं, उस पेड़ की जड़ें कुएँ के अंदर तक जाती हैं। गाँव वाले उस कुएँ को “कालकुआँ” कहते थे। कोई उसमें झाँकता भी नहीं था। रात के समय तो बच्चे उस तरफ़ पैर भी नहीं रखते थे।
मगर मुझे उस कुएँ ने हमेशा खींचा। मैं था रामू, उम्र सत्रह साल। स्कूल में दसवीं पास कर चुका था, अब गाँव में ही पिताजी की दुकान पर हाथ बँटाता। पिताजी कहते, “रामू, ज़्यादा मत सोच। जो है, सो ठीक है।” मगर मैं सोचता था। रात-रात भर सोचता।
एक शाम की बात है। सूरज डूबने को था। मैं दुकान बंद करके घर लौट रहा था। रास्ते में कालकुआँ के पास से गुज़रना पड़ा। हवा रुक-सी गई थी। पीपल के पत्ते भी नहीं हिल रहे थे। अचानक कुएँ से एक आवाज़ आई—जैसे कोई फुसफुसा रहा हो।
“रामू… रामू…”
मैं रुक गया। दिल ज़ोर से धड़कने लगा। चारों तरफ़ देखा—कोई नहीं। फिर आवाज़ आई, “नीचे देख…”
मैंने झाँका। काला पानी। कुछ दिखाई नहीं दिया। मगर उस काले पानी में एक चेहरा उभरा। बूढ़े आदमी का चेहरा। सफ़ेद दाढ़ी, आँखें गहरी। वो मुस्कुराया।
“तू आया… आख़िरकार आया।”
मैं डर के मारे पीछे हटा। घर भागा। रात भर नींद नहीं आई।
अगले दिन सुबह-सुबह मैं फिर उसी रास्ते से गुज़रा। कुआँ शांत था। सूरज की रोशनी में सब सामान्य लग रहा था। मैंने खुद से कहा, “कल्पना थी।” मगर मन नहीं माना।
तीसरे दिन मैंने हिम्मत की। दोपहर का समय। गाँव वाले खेतों में थे। मैं कुएँ के पास गया। एक पत्थर उठाया और अंदर फेंका। छप्प… फिर खामोशी।
फिर वही आवाज़। “पत्थर नहीं… तू चाहिए।”
इस बार मैं नहीं डरा। मैंने पूछा, “तुम कौन हो?”
“मैं हूँ काल।”
“काल?”
“हाँ। समय का स्वामी। जो बीत चुका, जो आने वाला है—सब मेरा।”
मैंने हँसने की कोशिश की। “तुम पागल हो।”
“पागल? तू देखना चाहता है?”
और फिर कुएँ का पानी हिला। उसमें चित्र उभरने लगे।
सबसे पहले मैंने खुद को देखा—दस साल का। माँ के साथ बाज़ार जा रहा था। माँ ने मुझे आइसक्रीम दिलाई थी। मैं खुश था। फिर चित्र बदला। मैं बीस साल का। शहर में नौकरी कर रहा था। एक लड़की थी—सुंदरी। हम हँस रहे थे। फिर चित्र और बदला। मैं बूढ़ा। अकेला। एक छोटे से घर में। कोई नहीं।
मैं चीखा, “ये झूठ है!”
“झूठ नहीं, रामू। ये तेरा भविष्य है। अगर तू यहीं रहा।”
“तो मैं क्या करूँ?”
“मुझमें कूद। मैं तुझे वो काल दूँगा जहाँ तू जो चाहे, वो कर सकता है।”
मैं पीछे हटा। “नहीं। मैं नहीं कूदूँगा।”
“फिर तुझे यही जीवन मिलेगा। अकेलापन।”
उस रात मैंने फैसला किया। मैं कूदूँगा नहीं। मैं लड़ूँगा।
अगले दिन मैं गाँव के सबसे बूढ़े आदमी बाबा नत्थू के पास गया। बाबा सौ साल के थे। आँखें धुँधली, मगर दिमाग़ तेज। मैंने सारी बात बताई।
बाबा ने कहा, “कालकुआँ कोई कुआँ नहीं, रामू। वो एक दरवाज़ा है। समय का दरवाज़ा। जो भी उसमें कूदता है, वो काल में खो जाता है। न बीता, न भविष्य—बस एक खालीपन।”
“तो वो बूढ़ा कौन था?”
“वो कोई बूढ़ा नहीं। वो काल का चेहरा है। वो लालच देता है। कहता है, ‘मैं तुझे सब दूँगा।’ मगर लेता है सब।”
“फिर मैं क्या करूँ?”
“उसे बंद कर।”
“कैसे?”
“तीन चीज़ें चाहिए। पहली—एक सच्चा साथी। दूसरी—एक पुरानी याद। तीसरी—एक नया सपना।”
मैं सोच में पड़ गया।
पहली चीज़—सच्चा साथी। मुझे याद आया मेरा दोस्त श्याम। हम बचपन से साथ थे। वो शहर चला गया था, मगर हर साल आता था। मैंने उसे चिट्ठी लिखी।
दूसरी चीज़—पुरानी याद। मेरे पास माँ का एक पुराना लॉकेट था। माँ मर चुकी थीं, मगर लॉकेट में उनकी तस्वीर थी।
तीसरी चीज़—नया सपना। मैंने फैसला किया। मैं गाँव में एक स्कूल खोलूँगा। बच्चों को पढ़ाऊँगा।
श्याम आया। दो हफ़्ते बाद। हम दोनों कालकुआँ के पास गए। रात का समय। चाँदनी।
श्याम ने कहा, “रामू, तू पक्का है?”
“हाँ।”
हमने लॉकेट कुएँ में डाला। फिर मैंने अपना सपना चीखकर सुनाया। “मैं स्कूल बनाऊँगा! बच्चों को पढ़ाऊँगा!”
फिर श्याम ने मेरा हाथ पकड़ा। “हम साथ हैं।”
कुएँ से आवाज़ आई। “नहीं… नहीं…”
पानी उबला। काला धुआँ निकला। पीपल का पेड़ हिला। फिर सब शांत।
अगले दिन कुआँ सूखा हुआ था। बस मिट्टी।
गाँव वालों ने पूछा, “क्या हुआ?”
मैंने कहा, “काल चला गया।”
उन्होंने हँसा। मगर मुझे पता था।
तीन साल बाद। गाँव में एक स्कूल था। मेरा स्कूल। श्याम मेरे साथ था। हम बच्चों को पढ़ाते। हर शाम मैं उसी जगह जाता जहाँ कुआँ था। अब वहाँ एक छोटा सा बगीचा था। गुलाब के फूल।
एक दिन एक बच्चे ने पूछा, “सर, वो कुआँ कहाँ गया?”
मैंने मुस्कुराकर कहा, “वो काल था। अब वो बीत गया।”
और मैंने उस बच्चे की आँखों में अपना भविष्य देखा।
(समाप्त)
शब्द गणना: १४९८