udan in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | उड़ान (5)

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उड़ान (5)

दिव्या की ट्रेन नई पोस्टिंग की ओर बढ़ रही थी। अगला जिला—एक छोटा-सा पहाड़ी इलाका, जहां सड़कें संकरी थीं और हवा में चीड़ की ताजगी भरी खुशबू।
प्रोबेशन का दूसरा चरण। रेस्ट हाउस यहां भी पुराना था, लेकिन अब उसे आदत हो चुकी थी। सूटकेस खोलते ही सबसे पहले श्वेत साड़ी निकाली, और खिड़की से बाहर देखा। दूर पहाड़ों पर बादल छाए थे, जैसे उसका मन।
“यहां भी अकेली हूं,” उसने बुदबुदाया, “पर अब अकेलापन मेरा साथी है।”
पहले हफ्ते में ही काम की रफ्तार पकड़ ली। गांवों में दौरा, महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों की मीटिंग, बाढ़ राहत का काम। शाम को रेस्ट हाउस लौटकर डायरी में लिखती—“आज फिर याद आई वो शाम, जब अविनाश ने कहा था ‘तुम सफेद हाथी नहीं…’ लेकिन मैंने खुद को उड़ना सिखा लिया। फोन क्यों करूं? वो अब अतीत है।”
धीरे-धीरे दिन बीतते गए, और प्रोबेशन का यह चरण भी पूरा हुआ। ट्रेनिंग के दौरान सीखी गई बातें अब व्यावहारिक रूप ले रही थीं— लोगों की समस्याओं को सुनना, योजनाओं को लागू करना, और खुद को मजबूत बनाए रखना।
अगला जिला एक मैदानी इलाका था, जहां नदियां बहती थीं और खेत लहलहाते। यहां रेस्ट हाउस में एक छोटा बागीचा था। शाम को टहलते हुए वो सोचती, “कितनी जगहें बदलीं, लेकिन मन का बोझ नहीं बदला। अविनाश की याद आती है, बच्चों की हँसी… लेकिन फोन नहीं करूंगी। मैं अब अपना आकाश हूं।”
सोचते ही उनकी उदास आंखें उसका पीछा करने लगतीं। अविनाश से जितना दूर जाने की कोशिश करती, बच्चों की यादें उतना ही अधिक खींचतीं। लेकिन काम में डूबकर वह इन यादों को दबाती जाती।
दूसरे साल में चौथा जिला— एक व्यस्त शहर, जहां ट्रैफिक की आवाजें और बाजारों की चहल-पहल। काम ज्यादा था—शहरी विकास, महिलाओं के लिए योजनाएं। रात को थककर सोती, लेकिन सुबह उठकर फिर वही रूटीन।
मां का फोन आया, “बेटी, पापा ठीक हैं, लेकिन तुम्हारी याद करते हैं।”
दिव्या ने कहा, “मैं भी। लेकिन अभी नहीं आ सकती।”
भाई का फोन आया, काट दिया। किंतु मन में पिता की चिंता बढ़ती जा रही थी। शहर की भागदौड़ में भी वह कभी-कभी रुककर सोचती कि परिवार से इतनी दूरी क्यों? लेकिन अतीत की कड़वाहट— मां के थप्पड़, भाई-भाभी के ताने, और अविनाश का धोखा, उसे आगे बढ़ने की ताकत देती।
तीसरे साल का आखिरी जिला— एक दूरदराज का गांवों वाला इलाका, जहां बिजली भी कम आती। यहां प्रोबेशन पूरा होने वाला था। शाम को लालटेन जलाकर पढ़ती, और याद करती— घर की वो चीखें, अविनाश की वो रातें, बच्चों की मासूमियत। मां का फोन कभी-कभी आ जाता।
“बेटी, कैसी हो?”
मां की आवाज में अब डर नहीं, गर्व था। दिव्या बात करती, हाल पूछती, लेकिन कभी घर की बात आती तो टाल देती।
“मैं ठीक हूं, मां। काम में व्यस्त हूं।”
एक बार भाई का फोन आया, “दीदी, घर आ जाओ न…”
दिव्या ने बिना कुछ कहे काट दिया। भाभी का नंबर तो पहले से ब्लॉक था। दिल में कड़वाहट थी, लेकिन अब वो उसे छूती नहीं।
पिता की तबीयत के बारे में मां बताती रहती।
“पापा की सांस फूलती है, डॉक्टर कहते हैं दिल कमजोर हो रहा है।”
दिव्या चिंतित होती, लेकिन कहती, “मैं प्रार्थना करूंगी।”
रविवार को जिनालय जाती, नमोकार मंत्र जपती, और घुंघरू बांधकर नृत्य करती। लोग देखते, लेकिन अब वो उनके शब्दों से ऊपर उठ चुकी थी। इन पलों में उसे खुद पर गर्व होता, और वह सोचती कि यह सफर कितना कठिन था— पढ़ाई की रातें, परीक्षा की तैयारी, और परिवार से अलगाव। लेकिन यही सब उसे मजबूत बना रहा था।
...
प्रोबेशन खत्म हुआ और स्थायी पोस्टिंग मिली, सहायक कलेक्टर के रूप में। अपना बंगला, अपनी गाड़ी, अपना चेम्बर और अपना स्टाफ। यह एक मैदानी जिला था, जहां नदियां बहतीं और खेत लहलहाते। बंगले में एक छोटा बागीचा भी। जहां शाम को टहलते हुए वो सोचती, “कितनी जगहें बदलीं, लेकिन मन का बोझ नहीं बदला। अविनाश की याद आती है, बच्चों की हँसी… इच्छा हो आती, अपनी उपलब्धि बताने की। लेकिन खुद से कहती, ‘फोन नहीं करूंगी।’” बेड शेयरिंग के बावजूद मन में भारी कड़वाहट थी। तभी तो अविनाश का नंबर प्रोबेशन की शुरुआत में ही ब्लॉक कर दिया था उसने।
कलेक्टर (सहायक) की हैसियत से यह पहला जिला— एक व्यस्त शहर, जहां ट्रैफिक की आवाजें और बाजारों की चहल-पहल। काम ज्यादा था— शहरी विकास, महिलाओं के लिए योजनाएं। रात को थककर सोती, लेकिन सुबह उठकर फिर वही रूटीन। तहसीलों/ब्लॉकों का दौरा। काम ही काम। इस दौरान इलेक्शन आया तो वहां रात-दिन की ड्यूटी। कलेक्टर तो बादशाह, जो उसे सहायक कलेक्टर मिला हुआ है...!
दिव्या ने सोचा नहीं था कि IAS के नाम पर इतनी चक्करघिन्नी हो जाएगी। पहले तो तैयारी में ही निचुड़ गई, फिर ट्रेनिंग और परीक्षाओं में, और फिर बची-खुची प्रोबेशन पीरियड में। लेकिन अब भी चैन कहां! 36 की हो गई, जवानी का सुख, फुर्सत के क्षण जाने ही नहीं। सहेलियां कब की ब्याह रचा, ऐशो-आराम कर, बाल-बच्चेदार भी हो गईं, और वह अब तक बैचलर बनी घिसट रही है...।
लेकिन दूरदराज के गांवों में शिविर लगते, जहां बिजली भी कम आती। वहां शासन की योजनाएं पहुंचाने और जरूरतमंदों की सहायता करने में जो सुख मिलता, वह गृहस्थी में कहां रखा था? वहां जानबूझकर स्टे कर लेती। शाम को लालटेन जलाकर पढ़ती, और याद करती— घर की वो चीखें, अविनाश की वो रातें, बच्चों की मासूमियत।
“क्यों फोन करूं?” सोचती, “वो जीवन अब मेरा नहीं।”
लेकिन उन रातों में कभी-कभी आंसू निकल आते। काम की व्यस्तता में वह खुद को खो देती, लेकिन अंदर ही अंदर परिवार की चिंता सताती रहती।
...
एक शाम मां का फोन आया, आवाज कांप रही थी, “बेटी, पापा की हालत बहुत खराब है। अस्पताल में हैं। दिल का दौरा पड़ा है।”
दिव्या का दिल धक्क से रह गया। छुट्टी लेकर अगली सुबह ही फ्लाइट से वह घर जा पहुंची। पूरे छह साल बाद घर की देहलीज लांघी। पूरा नगर इकट्ठा था— फूलमालाएं, स्वागत, लोग कहते, “हमारी बेटी आईएएस बन गई!”
पिता बिस्तर पर थे, आंखें बंद, लेकिन दिव्या को देखकर मुस्कुराए, “बेटी… तू आ गई।”
दिव्या ने उनके हाथ थामे, “पापा, मैं हूं।”
मां रो रही थी, जिसके थप्पड़ ने कभी मुंह सुजा दिया था। बात-बेबात ताना मारने वाले भाई-भाभी सिर झुकाए खड़े। नगर के लोग सम्मान करते, जो कभी उसे सेपरेट रूम में रहते देख छींटाकशी करते थे, अपनी बच्चियों को उसकी छाया से भी बचाते थे! ऊपर से उसके मन में अविनाश की याद घुमड़ आई, जो पहली बार उसके इसी गृह नगर में मिला था...।
“क्या वो अब भी इंतजार करता होगा? बच्चों को मेरी याद आती होगी?”
लेकिन फोन नहीं किया उसने, क्योंकि अब वह बोझ नहीं, अपना सहारा खुद थी। छह साल बीते, जगहें बदलीं, लेकिन वह नहीं बदली। उसका आकाश और बड़ा हो गया, जो इसी शहर के दस-बाय-दस के एक कमरे से शुरू हुआ था।
रात भर पिता के पास बैठी, जो कभी चीखे थे, ‘इस घर में तेरी इज्जत नहीं बची। निकल जा।’
सुबह डॉक्टर ने कहा, “खतरा टल गया।”
दिव्या ने मां को गले लगाया, “मैं जा रही हूं। काम है।”
भाई ने रोकना चाहा, लेकिन वो चली गई। सिर्फ एक दिन रुकी, क्योंकि ज्यादा रुकती तो शायद टूट जाती।
ट्रेन में लौटते हुए डायरी में लिखा—“पिता की आंखों में गर्व देखा, लेकिन अविनाश की याद ने फिर दिल दुखाया, जो इसी शहर में अरबी घोड़े पर बिठाने के बाद साफ मुकर गया था: ‘सॉरी दिव्या… बच्चे तैयार नहीं। मां की भी यही ताकीद कि तीस साल की करियर वाली लड़की घर नहीं चला सकेगी। और सच कहूं… हमने जल्दबाजी की। हम अच्छे दोस्त हैं न? Take care."
अब दिव्या जानती थी कि उसका सफर अभी जारी है— नई चुनौतियां, नई जगहें, लेकिन एक मजबूत इरादा। वह अब सिर्फ एक अधिकारी नहीं, अपनी कहानी की नायिका थी।
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