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Sikandar ki Sapath

सिकन्दर की शपथ

जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ

जयशंकर प्रसाद


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सिकन्दर की शपथ

सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमकसे ‘मिंगलौर दुर्ग’ घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़ने वाले यन्त्र दुर्गकी दीवालों से लगा दिए गए हैं और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता केसाथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियं कीसेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी, पर वह उसी समयपहाड़ से टकराए हुए समुद्र की तरह फिरा दी गई और भारतीय युवकवीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकन्दर उनकेप्रचण्ड अस्त्रघात को रोकता पीछे हटने लगा।

अफगानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीर कहाँ से आगए? यह आशंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वे निमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिए सुदूर से आए हैं, जो कि संख्या में केवल सात हजारहोने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं।

सिकन्दर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिन व्यतीत होगए। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकन्दर उदास होकर कैम्प में लोट गया और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। गाजा और परसिपोलिसआदि के विजेता को अफगानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतनापरिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उल्टे कई बार उसेअपमानित होना पड़ा।

बैठे-बैठे सिकन्दर को बहुत देर हो गई। अँधकार फैलकर संसारको चिपाने लगा, जैसे कोई कपचाटारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो।

केवल कभी-कभी दो-एक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावहशब्द को सुना देते हैं। सिकन्दर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एकवीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकन्दर ने उससे कुछ गुह्रश्वत बातें कीं औरवह चला गया। अंधकार घनीभूत हो जाने पर सिकन्दर भी उसी ओरउठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था। दुर्ग के उस भागमें, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुतशीघ्र कल की लड़ाई के लिए प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्रामकरने के लिए चले गए। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकरकुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनाप्रकाश फैलाने वाली मशाल को लिए हुए दूसरी ओर चला जाता है। उससमय उस घोर अँधकार में वह उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया औरभी स्पष्ट हो जाती है। उसी छाया में छिपा हुआ सिकन्दर खड़ा है। उसकेहाथ में धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुखयदि कोई इस समय प्रकाश में देखता तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ीभयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समयविचित्र भावों से भरा है। अकस्मात्‌ उसके मुख से एक प्रसन्ता का चीत्कारनिकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।

समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा, जिसने आकरसिकन्दर से कहा - देर न कीजिए, क्योंकि यह वही है।

सिकन्दर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ाऔर उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा। लक्ष्यठीक था, वह मनुष्य लुढ़ककर नीचे आ रहा। सिकन्दर और उसके साथीने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु उसके चीत्कार से दुर्ग पर का एकप्रहरी झुककर देखने लगा। उसने प्रकाश डालकर पूछा - कौन है?

उ्रूद्गार मिला - मैं दुर्ग से नीचे गिर पड़ा हूँ।

प्रहरी ने कहा - घबड़ाइए मत, मैं डोरी लटकाता हूँ।

डोरी बहुत जल्द लटका दी गई, अफगान वेशधारी सिकन्दर उसकेसहारे ऊपर चढ़ गया। ऊपर जाकर सिकन्दर ने उस प्रहरी को भी नचेगिरा दिया, जिसे उसके साथी ने मार डाला और उसका वेश आप लेकरउस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाने के पहले उसने अपनी छोटी-सी सेनाको भी उसी जगह बुला लिया और धीरे-धीरे उसी रस्सी की सीढ़ी सेवे सब ऊपर पहुँचा दिए गए।

दुर्ग के प्रकोष्ठ में सरदार की सुन्दर पत्नी बैठी थी। मदिरा-विलोलदृष्टि से कभी दर्पण में अपना सुन्दर मुख और कभी अपने नवीन नीलवसन को देख रही है। उसका मुख लालसा की मदिरा से चमक-चमककरउसकी ही आँखों में चकाचौंध पैदा कर रहा है। अकस्मात्‌ ‘ह्रश्वयारे सरदार’कहकर वह चौंक पड़ी, पर उसकी प्रसन्नता उसी क्षण बदल गई, जबउसने सरदार के वेश में दूसरे को देखा। सिकन्दर का मानुषिक सौन्दर्यकुछ कम नहीं था, अबला-हृदय को और भी दुर्बल बना देने के लिएवह पर्याह्रश्वत था। वे एक-दूसरे को निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे, परअफगानरमणी की शिथिलता देर तक न रही, उसने हृदय के सारे बलको एकत्र करके पूछा - तुम कौन हो?

उ्रूद्गार मिला - शहंशाह सिकन्दर।

रमणी ने पूछा - यह वस्त्र किस तरह मिला?

सिकन्दर ने कहा - सरदार को मार डालने से।

रमणी के मुख से चीत्कार के साथ ही निकल पड़ा - क्या सरदारमारा गया?

सिकन्दर - हाँ, अब वह उस लोक में नहीं है।

रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढँक लिया, पर उसी क्षण उसकेहाथ में एक चमचमाता हुआ छुरा दिखाई देने लगा।

सिकन्दर घुटने के बल बैठ गया और बोला - सुन्दरी! एक जीव केलिए तुम्हारी दो तलवारें बहुत थतीं, फिर तीसरी की क्या आवश्यकता है?

रमणी की दृढ़ता हट गई और न जाने क्यों उसके हाथ का छुराछिटककर गिर पड़ा, वह भी घुटनों के बल बैठ गई।

सिकन्दर ने उसका हाथ पकड़कर उसे उठाया। अब उसने देखा किसिकन्दर अकेला नहीं है, उसके बहुत-से सैनिक दुर्ग पर दिखाई दे रहेहैं। रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और सन्दूक खोलकर एक जवाहरातका डिब्बा ले आकर सिकन्दर के आगे रखा। सिकन्दर ने उसे देखकरकहा - मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है,दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया,इतना ही बहुत है।

दुर्ग के सिपाही यह देखकर कि शत्रु भीतर आ गया है, अस्त्र लेकरमारपीट करने पर तैयार हो गए, पर सरदार-पत्नी ने उन्हें मना किया,क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकन्दर की विजयवाहिनी दुर्ग केद्वार पर खड़ी है।

सिकन्दर ने कहा - तुम घबराओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छाहोगी, उसी प्रकार सन्धि के नियम बनाए जाएँगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।

अब सिकन्दर को थोड़ी दूर तक सरदार-पत्नी पहुँचा गई। सिकन्दरथोड़ी सेना छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया।

सन्धि हो गई। सरदार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग सिकन्दरके अधीन होगा। सिकन्दर ने भी उसी को यहाँ की रानी बनाया औरकहा—भारतीय योद्धा, जो तुम्हारे यहाँ आए हैं, वे अपने देश को लौटकरचले जाएँ। मैं उनके जाने में किसी प्रकार की बाधा न डालूँगा। सबबातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली गइर्ं।

राजपूत वीर अपने परिवार के साथ उस दुर्ग से निकल पड़े, स्वदेशकी ओर चलने के लिए तैयार हुए। दुर्ग के समीप ही एक पहाड़ी परउन्होंने अपना डेरा जमाया और बोजन करने का प्रबन्ध करने लगे।भारतीय रमणियाँ जब अपने ह्रश्वयारे पुत्रों और पतियों के लिए भोजनप्रस्तु कर रही थीं, तो उनमें उस अफगान-रमणी के बारे में बहुत हो रहीथीं और वे सब उसे बहुत घृणा की दृष्टि से देखने लगीं, क्योंकि उसनेएक पति-हत्यारे को आत्मसमर्पण कर दिया था। भोजन के उपरान्त जबसब सैनिक विश्राम करने लगे, तब युद्ध की बातें कहकर अपने चि्रूद्गा कोप्रसन्न करने लगे। थोड़ी देर नहीं बीती थी कि एक ग्रीक अश्वारोही उनकेसमीप आता दिखाई पड़ा, जिसे देखकर एक राजपूत युवक उठ खड़ा हुआऔर उसकी प्रतीक्षा करने लगा।

ग्रीक सैनिक उसके समीप आकर बोला - शहंशाह सिकन्दर ने तुमलोगों को दया करके अपनी सेना में भरती करने का विचार किया है।

आशा है कि इस संवाद से तुम लोग बहुत प्रसन्न होगे।

युवक बोल पड़ा - इस दया के लिए हम लोग बहुत कृतज्ञ हैं,पर अपने भाइयों पर अत्याचार करने में ग्रीकों का साथ देने के लिएहम लोगो कभी प्रस्तुत नहीं हैं।

ग्रीक - तुम्हें प्रस्तु होना चाहिए, क्योंकि यह शहंशाह सिकन्दर कीआज्ञा है।

युवक - नहीं महाशय, क्षमा कीजिए। हम लोग आशा करते हैं किसन्धि के अनुसार हम लोग अपने देश को शान्तिपूर्वक लौट जाएँगे, इसमेंबाधा न डाली जाएगी।

ग्रीक - क्या तुम लोग इस बात पर दृढ़ हो? एक बार औरविचारकर उ्रूद्गार दो, क्योंकि उसी उ्रूद्गार पर तुम लोगों का जीवन-मरणनिर्भर होगा।

इस पर कुछ राजपूतों ने समवेत स्वर से कहा - हाँ-हाँ, हम अपनीबात पर दृढ़ हैं, किन्तु सरदार, जिसने देवताओं के नाम से शपथ लीहै, अपनी शपथ को न भूलेगा।

ग्रीक - सिकन्दर ऐसा मूर्ख नङइर्ँ ङऐ खइ आए हुए शत्रुओं कोऔर दृढ़ होने का अवकाश दे। अस्तु, अब तुम लोग मरने के लिए तैयारहो।

इतना कहकर वह ग्रीक अपने घोड़े को घुमाकर सीटी मारने लगा,जिसे सुनकर अगणित ग्रीक-सेना उन थोड़े से हिन्दुओं पर टूट पड़ी।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्होंने प्राण-पण से युद्ध कियाऔर जब तक कि उनमें एक भी बचा, बराबर लड़ता गया। क्यों न हो,जब उनकी ह्रश्वयारी स्त्रियाँ उन्हें अस्त्रहीन देखखर तलवार देती थीं औरहँसती हुई अपने ह्रश्वयारे पतियों की युद्धक्रिया देखती थीं। रणचण्डियाँ भीअकरमण्य न रहीं, जीवन देकर अपना धर्म रखा। ग्रीकों की तलवारों नेउनके बच्चों को भी रोने न दिया, क्योंकि पिशाच सैनिकों के हाथों सभीमारे गए।

अज्ञात स्थान में निराश्रय होकर उन सब वीरों ने प्राण दिए। भारतीलोग उनका नाम नहीं जानते!