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देह के दायरे - 1

देह के दायरे

भाग - एक

“पूजा...”

बराबर के कमरे से आयी अपने पति देव बाबू की आवाज पूजा को अनजान-सी लगी| पिछ्ले तीन महीनों में अपने लिए पति की यह पहली पुकार उसके लिए आश्चर्य थी | आश्चर्य तो उसे इस बात पर भी हुआ था कि अपने नियम के विरुद्ध कल से देव बाबू सन्ध्या को सात बजे ही घर आने लगे थे | पूजा को पिछ्ले तिन महीनों में एक भी ऐसा दिन याद नहीं था जब कि उसके पति रात्रि को दस बजे से पहले घर लौटे हों |

कुछ सोचकर उसका सोया मान जाग उठा | आश्चर्य को छोड़कर उसने रूठने की सोची तो वह पति की पहली पुकार पर चुप रही |

“पूजा...”

बराबर के कमरे से दोबारा आयी आवाज को वह नकार न सकी | अपने रूठने की बात भूलकर वह सोच उठी कि कहीं ‘वे’ रुष्ट न हो जाएँ |

हाथ का काम वहीँ छोड़कर जब वह दुसरे कमरे की चौखट पर पहुँची तो देव बाबू दरवाजे की ओर पीठ किए कुर्सी में घँसे बैठे थे | उनकी दृष्टि खिड़की की राह बाहर कहीं भटक रही थी |

निरन्तर अपनी ओर आती पाँवो की आहट ने देव बाबू को समझा दिया कि पूजा उसके समीप आ चुकी है |

“कल रात तुमने मुझे कुछ लाने के लिए कहा था |” बिना अपनी पत्नी की ओर दृष्टि उठाए देव बाबू ने यूँ ही खिड़की से झाँकते हुए कहा |

“क्या...?”

“जो तुमने मँगाया था, वही मैं तुम्हारे लिए ले आया हूँ |”

आश्चर्यचकित-सी पूजा चलकर अपने पति के सामने आ गयी | देव बाबू की दृष्टि फिर भी बाहर ही भटकती रही | पूजा ने उनके चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ना चाहा...परन्तु वह भावशुन्य चेहरा था | पूजा कुछ अनुमान न लगा सकी कि आज उसके पति उस पर मेहरबान होकर उसके लिए क्या भेंट लाए हैं |

“क्या लाए हो...देखें तो जरा |” उसने कहा | खुशी के अतिरेक में वह भूल गयी थी कि कल रात उसने अपने पति से क्या लाने के लिए कहा था |

“वह देखो...” कहते हुए मेज पर रखी शीशी को संकेत करती हुई उनकी उँगली ही उठी थी, दृष्टि नहीं |

पूजा ने मेज पर रखी उस छोटी-सी शीशी की ओर देखा जिसमें गहरे लाल रंग का कोई तरल पदार्थ भरा हुआ था |

‘कोई दवा होगी...’ उसने सोचा...मगर उसने तो उनके किसी दवा के लिए नहीं कहा था |

“क्या है इसमें?” वह पूछ बेठी |

“आगे बढ़कर देख लो |” देव बाबू ने कहा |

गहरी दृष्टि शीशी के लेबल पर पड़ी तो आँखे फटी की फटी रह गयीं |

“जहर...” होंठ बुदबुदा उठे और मस्तिष्क झन्ना उठा | कल रात की पूरी घटना उसकी आँखों के समक्ष घूम गयी |

“लो खाना खा लो |” वह थाली में खाना लेकन अपने पति के पास आयी थी |

“रख दो, मुझे अभी भूख नहीं है?”

“ठण्डा हो जाएगा |”

“रोज भी तो ठण्डा ही खाना पड़ता है | एक दिन में क्या फर्क पड़ेगा?”

“हर रोज तो मजबूरी होती है | आप स्कूल से देर से आते हैं |”

“मैं क्या जान-बूझकर देर से आता हूँ?”

“स्कूल तो छः बजे ही बन्द हो जाता है मगर आप कभी दस बजे से पहले नहीं पहुँचते?”

“दस बजे भी घर आने को मेरा दिल नहीं चाहता |”

“क्यों...?” चीख उठी थी पूजा |

“क्योंकि मुझे इस घर से नफरत है |”

“घर से या मुझसे?”

“दोनों से ही |” वे एक ही साँस में कह गए |

हाथ से छूटकर थाली फर्श पर झन्ना उठी | जैसे आसमान से बिजली कड़ककर पूजा के दिल में धँस गयी हो | एक पल को वह अवाक् रह गयी |

“हाँ...हाँ...मैं भी आप से तंग आ चुकी हूँ | मैंने पिछ्ले तीन महीनों में आपसे समझोता करने का बहुत प्रयास किया है परन्तु अब मैं थक ही नहीं गयी बल्कि टूट गयी हूँ | पिछ्ले तीन महीने मैंने तीन जिन्दगियों की तरह जिए हैं | इन तीन महीनों का एक-एक पल मुझे अपमानित करके गया | इस अपमान से तो मर जाना अच्छा है | बार-बार अपमान करने की अपेक्षा आप अपने हाथों से मेरा गला क्यों नहीं दबा देते | मुझे जहर ला दो...प्रतिदिन कि मौत से तो एक दिन मर जाना अच्छा है |” भावावेश में कहती गयी थी पूजा परन्तु देव बाबू पर शायद कोई प्रभाव ही नहीं हुआ था |

“मरना इतना आसान नहीं है...|” कुछ देर के मौन के उपरान्त देव बाबू ने कहा तो एक विषैला तीर जैसे पूजा को बींध गया था |

क्रोध के अतिरेक ने सिसकियों पर नियन्त्रण कर लिया |

“जिन्दा रहकर ही मैं कौन-सा सुख भोग रही हूँ |” स्वंय पर से नियन्त्रण जैसे हटता जा रहा था-“पल-पल तड़पाकर मारने की अपेक्षा यदि आप एक बार ही मेरी जान ले लें तो यह मुझपर अहसान होगा |”

“तड़पकर जिन्दा रहने की अपेक्षा मृत्यु अधिक भयावनी होती है |” कितना शान्त स्वर था देव बाबू का |

“नहीं...| में इस जीवन के बोझ को और अधिक नहीं ढो सकती | मैं जीना नहीं चाहती...मुझे अपने हाथों से मार डालो...मुझे जहर दे दो...|” आँसुओ का बाँध टूटा तो वह फूट-फूटकर रोने लगी |

“प्रयास करूँगा की तुम्हारे लिए विष जुटा सकूँ |” कहते हुए देव बाबू कुर्सी छोड़कर तेजी से बाहर निकल गए थे |

एक पल को इस प्रहार से सन्न मस्तिष्क कुछ न समझ सका लेकिन धीरे-धीरे मस्तिष्क पर जोर दिया तो वह चिल्ला उठी :

“मुझसे मुक्ति ही पानी थी तो मुझे अपनाया क्यों था? मुझसे शादी क्यों की थी...मुझसे इतना बड़ा धोखा क्यों किया तुमने?”

कौन सुनता उसकी बात को | देव बाबू तो बाहर जा चुके थे | देर तक बैठी सिसकती रही थी पूजा | अपने भाग्य पर आँसू बहाने के सिवा उसके वश में और कुछ भी तो नहीं था | सन्ध्या का स्थान रात्रि ने लिया-धुँधलके के स्थान पर अँधेरा छा गया परन्तु पूजा को इसका ध्यान ही कहाँ था |

आज तीन मास के उपरान्त देव बाबू ने उसे स्वयं अपने कमरे में बुलाया था | आयी थी तो उत्सुकता से तीव्रता भी थी पाँवो में परन्तु कल रात की घटना याद करके जैसे पाँव चिपक गए थे जमीन से | वह किसी बुत की भाँती जड़ हो गयी थी | मेज पर पड़ी शीशी को घूरती आँखें जैसे स्थिर हो गयी थीं |

उसकी चेतना लौटी | देव बाबू मेज से शीशी उठाकर उसकी तरफ बढाकर कह रहे थे, “लो, पी लो और पा लो मुझसे मुक्ति | हाँ, इस जहर का स्वाद भी बुरा नहीं है | तुम्हें अधिक कष्ट भी नहीं होगा और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाएगी |”

कहीं कुछ भी तो भाव नहीं थे देव बाबू के मुख पर | खुशी, गम, चिन्ता या घबराहट कुछ भी तो नहीं था उनकी आँखों में | कितने सहज थे वे इस समय | सदैव की भाँती गम्भीरता और दृढ़ निश्चय की झलक उनकी आवाज में थी |

पूजा की दृष्टि सिर्फ एक ही स्थान पर स्थिर होकर रह गयी थी | उसकी दृष्टि के दायरे में था वह हाथ जिसमें पकड़ी वह गहरे लाल रंग के तरल पदार्थ की शीशी उसे अपनी ओर खिंच रही थी | शीशी का आकार जैसे बढ़ता जा रहा था | मौत का दैत्य जैसे शीशी में से उसे पुकार रहा था | भय से पसीना छलक आया उसके मुख पर | कितना प्रयास कर रही थी वह हाथ बढाने का परन्तु साहस साथ छोड़ता जा रहा था |

देव बाबू एकटक पूजा की आँखों में देख जा रहे थे | उसके मुख पर उभरते एक-एक भाव को वह गहराई से परख रहे थे |

पूजा की आँखों की पुतलियाँ घूमीं | दृष्टि देव बाबू की आँखों से टकराई तो उसे लगा कि जैसे वहाँ तिरस्कार के सिवा और कुछ नहीं है | घमण्ड ने साहस किया और उसने एक झटके के साथ वह शीशी देव बाबू के हाथों से छीन ली |

शीशी छीनने के बाद भी वह इतना साहस नहीं जुटा पा रही थी कि उसका तरल पदार्थ अपने गले में उतार ले |

अपने पति द्वारा किए गए इस अपमान ने पूजा को प्रताड़ित ही नहीं किया था अपितु भीतर गहराई तक हिला भी दिया था | कितना बड़ा अपमान था यह | उसका पति स्वयं उसे अपने हाथों से जहर दे रहा था पीने के लिए | क्या दोष था उसका? वह यह भी तो नहीं जानती थी कि उसे यह किस अपराध की सजा दी जा रही है | क्रोध में कौन पत्नी अपने पति को आत्महत्या की धमकी नहीं दे देती | क्या यह उचित है कि उनके पति उन्हें आत्महत्या के लिए जहर लाकर दे दें?

पूजा सोच रही थी |

‘यह तो अपमान की पराकाष्ठा है | अब शेष क्या बच गया है जिसे भोगने के लिए वह जिन्दा रहे | बार-बार के इस अपमान से तो मर जाना अच्छा है | क्या वह दिन-रात अपनी लाश को अपने कन्धों पर उठाए नहीं घूम रही है?’

सोचते-सोचते एक निश्चय से शीशी की डाट खुली और हाथ अधरों की तरफ बढ़ गए |

विष को गले में उतारने से पूर्व पूजा ने एक दृष्टि देव बाबू पर डाली | वे एकटक उसी की ओर देख रहे थे...निश्चिन्त, बिना कोई उतेजना लिए वे शान्त खड़े थे |

क्रोध से या मौत के भय से पूजा का हाथ अधरों से हट गया | मुख पर उभरे भाव परिवर्तित होने लगे | शीशी के गहरे लाल द्रव को घूरते हुए वह सोच उठी,

‘आत्महत्या तो पाप है | मैं यह पाप क्यों करूँ? मेरा अपराध क्या है? क्या मेरा अपराध यह है की मैं नारी हूँ? नारी होना कोई अपराध नहीं | मुझे सिर्फ इसलिए अपमानित किया जाता है कि मैं अपने पति...एक पुरुष का सहारा चाहती हूँ | मेरे पति शायद सोचते है कि बिना उनके सहारे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं रहेगा | क्या वास्तव में ही मैं इतनी निरीह हूँ? क्या मैं इतनी कमजोर हूँ जो किसी के सहारे के बिना जीवित ही न रह सकूँ? नहीं...मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ | मैं स्वयं अपने पाँवों पर चल सकती हूँ, मुझे सहारे के लिए किसी भी बैसाखी की आवश्यकता नहीं है |’

“नहीं...मैं क्यों मरुँ...मैं मरना नहीं चाहती | मैं जिन्दा रहूँगी |” सोचते-सोचते वह एकाएक चिल्ला उठी और शीशी को उसने जोर से मेज पर पटक दिया | छलक जाने के कारण कुछ तरल पदार्थ मेज पर बिखर गया |

देव बाबू ने शीशी को सँभाल नहीं लिया होता तो वह अवश्य ही गिरकर टूट गयी होती |

“मैं जानता था पूजा, कि तुम मर नहीं सकतीं | मैंने तुम्हें कहा था कि मरना इतना आसान काम नहीं है |”

“मैं क्यों मरुँ...?” पूजा चीख उठी |

“मारना तो मैं भी तुम्हें नहीं चाहता था | इस शीशी में सिर्फ शर्बत है |” कहते हुए देव बाबू ने वह शीशी मुँह से लगाकर एक साँस में ही खाली कर दी |

पूजा ने विष नहीं पिया था परन्तु उसपर विषपान का-सा असर हुआ था | उसका पुनः अपमान हुआ था | उसे लगा जैसे उसके पति ने कपड़े उतारकर उसे नंगा कर दिया है | उसके पास कहने या करने को कुछ शेष न बचा था | तेजी से पलटकर उसने कमरा छोड़ दिया |

देव बाबू कुछ देर यूँ ही हाथ में खाली शीशी लिए खड़े कुछ सोचते रहे और कुछ देर पश्च्यात मुसकराकर खाली शीशी को एक कोने में फेंक, घर से निकल गए |