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देह के दायरे भाग - 5

देह के दायरे

भाग - पाँच

रात आधी से अधिक व्यतीत हो चुकी थी | पूजा निंद्रा एवं अनिद्रा के मध्य झूलती अपने अतीत में खोई थी | सहसा उसे लगा, जैसे कोई धीरे-धीरे उसके बालों को सहला रहा है | एक पल को तो उसे लगा जैसे यह भी अतीत की ही कोई सुनहरी याद है परन्तु पुनरावृति पर उसका यह भ्रम टूटा |

“कौन हो सकता है?” उसने सोचा |

स्वप्न का भ्रम समाप्त करने के लिए उसने चुपचाप अपने हाथ पर चिकोटी काटकर देखी | यह सपना नहीं था | वह जाग रही थी...सिर्फ आँखें ही बन्द थीं उसकी |

वह स्वयं पर विश्वास भी तो नहीं कर पा रही थी | करती भी तो कैसे? देव बाबू के अतिरिक्त उस कमरे में किसी दूसरे के होने की सम्भावना ही नहीं थी और देव बाबू...! जो प्रतिक्षण उससे घृणा करते हैं, उसने देखना भी पसन्द नहीं करते, उसके लिए जहर ला लकते हैं, कैसे रात्रि के गहन अन्धकार में प्यार से उसके बाल सहला सकते हैं?

पूजा का मन हुआ कि वह आँखें ही न खोले | यदि यह भ्रम भी था तो वह इस भ्रम को समाप्त नहीं करना चाहती थी | उसे भय था कि यदि यह वास्तविकता है तो देव बाबू उसके आँखें खोलने पर फिर अपना वही रूप धारण कर लेंगे |

उत्सुकता ने जोर पकड़ा और वह आँखें बन्द किए न रह सकी | धीरे-धीरे आँखें खोलते हुए अधखुली आँखों से उसने जो कुछ देखा उससे वह चकित रह गयी | कमरे में नाइट-लैम्प का मद्धिम-सा प्रकाश फैला हुआ था | सामने देव बाबू कुर्सी में घँसे बैठे, किसी गहरी चिन्ता में डूबे; दृष्टि झुकाए धीरे-धीरे उसके बालों का सहला रहे थे |

इसे भ्रम भी समझती तो कैसे? यह सब कुछ जो पूजा की आँखों के समक्ष था, उसे वह झुठलाती भी तो कैसे? हृदय इस सच्चाई को स्वीकार करने की गवाही नहीं दे रहा था और प्रत्यक्ष को वह झुठला भी नहीं सकती थी |

कुर्सी में घँसे देव बाबू! अपने में गहरी पीड़ा समोए, उनकी झुकी हुई आँखें और प्यार से पूजा के बाल सहलाते उनके हाथ! तभी पूजा ने देखा-उनकी आँखों से दो बूँद आँसू लुढ़ककर उनकी गोद में गिरे तो फिर जैसे बाँध-सा टूट गया | कोई आवाज नहीं थी उस रुदन में, सिर्फ अविरल बहते आँसू |

देखकर एक चोट-सी लगी पूजा के मन पर | वह तो सोच भी नहीं सकती थी कि उसका पति इतना संतप्त है | उनके आँसू बहाने की बात भी उसकी कल्पना से परे थी | वह तो समझती थी कि देव बाबू शायद पत्थर हो गए हैं जो किसी प्रकार की कोई भावना नहीं रखता |

एक पति...जो अपनी पत्नी से प्रत्यक्ष में इतनी घृणा करता है कि उसकी आत्महत्या की धमकी पर उसके लिए सहज ही विष का प्रबन्ध करने का आश्वासन दे, वह रात के अन्धकार में उसके सिरहाने बैठकर आँसू क्यों बहा रहा है? प्यार से उसके बालों को क्यों सहला रहा है ? पूजा के लिए पहेली-सी बन गयी थी |

आँखें स्वतः ही पुनः बन्द हो गई और वह सोचने लगी, ‘क्या दुख हो सकता है इन्हें जो अकेले में ही आँसू बहा रहे हैं? ऐसी कौन-सी पीड़ा है जो ये अपनी पत्नी से भी नहीं बाँट सकते | आँखें बगैर पीड़ा के कभी आँसू नहीं बहातीं और फिर इन आँसुओ पर तो शंका करना भी व्यर्थ था | देव बाबू किसीको महसूस कराने के लिए नहीं रो रहे थे अपितु यह तो वास्तव में उनके हृदय को कोई पीड़ा थी जो एकान्त में आँखों की राह बह निकली थी |’

उसका मस्तिक किसी निर्णय पर न पहुँच सका कि क्यों उसके पति इस प्रकार पीड़ा में डूबे अनजाने ही प्यार कर रहे हैं? यह बात तो स्वीकार नहीं की जा सकती थी कि वह चेतनावस्था में अपनी पत्नी से प्यार करें | पिछ्ले तीन महीनों से तो वह एक पल प्यार पाने को तरस गयी थी | प्यार की चाहना करने पर उसे घृणा ही मिल पाती थी |

वह कुछ न समझ सकी और आँखें बन्द किए लेटी रही | यह असीम सुख जो इतने दिनों बाद अनजाने में उसे मिल गया था, वह कैसे छोड़ देती? आत्मसुख से शरीर शिथिल होता जा रहा था |

एकाएक ही वह सुख समाप्त हो गया | सुराही से गिलास में पानी उड़ेले जाने की आवाज से पूजा की आँखें खुलीं |

एक झटके के साथ पूजा ने बिस्तर छोड़कर सुराही अपने हाथों में ले ली | गिलास अभी आधा ही भर पाया था | प्यार से विह्रल जब उसने उनके हाथ से भरने के लिए गिलास लेना चाहा तो दोनों की आँखें टकरा गयीं |

पूजा एक बार फिर चौंकी | कहाँ थी उनकी आँखों में वह पीड़ा और कहाँ खो गया था प्यार? अब तो वहाँ क्रोध के सिवा और कुछ न था |

“लाइए, पानी मैं पिला देती हूँ |” गिलास को लेने का प्रयास करते हुए पूजा ने कहा |

“नहीं...अभी मेरे हाथ नहीं टूटे हैं |” फिर एक थप्पड़-सा मारा उन्होंने पूजा के मुख पर और सुराही हाथों से छीन ली |

एक वज्र प्रहार-सा हुआ पूजा के हृदय पर | बुझी-बुझी आँखों से खड़ी वह उसे देखती रही | पीड़ा से सना धुआँ न जाने मन के किस कोने से उभरने लगा था | फैलते धुएँ ने आँखों के समक्ष जैसे अँधेरा-सा कर दिया था |

कोई और प्रयास करना व्यर्थ था | पूजा जानती थी कि जितना ही वह उनके समीप होना चाहेगी, घृणा उतनी ही तेजी से भड़क उठेगी | कोई और प्रहार सहने का साहस अब नहीं रह गया था उसमें | हृदय में उभरी विवशता की पीड़ा को किसी तरह दबाने का प्रयास करती हुई वह पलंग पर बैठ गयी |

देव बाबू फिर कुर्सी में ही आ बैठे | आज की रात नींद शायद उनसे दूर हो चुकी थी |

पीड़ा तो पीती हुई पूजा किसी तरह अपनी आँखों को मूँद पलंग पर लेट ही गयी |

चिन्ता में डूबा, आँसुओ में भीगा पति का मुख फिर उसकी मूँदी हुई आँखों के समक्ष आकर टंग गया | अपमान को भूल फिर एक दर्द उभरा पूजा के हृदय में-अपने पति की पीड़ा के प्रति दर्द |

दुसरे पलंग के चरमराने से पूजा ने अनुमान लगाया की उसके पति कुर्सी छोड़कर सोने के लिए पलंग पर आ गए हैं |

“आप अभी तक नहीं सोए?” पूजा ने उनकी पीड़ा को किसी तरह कुरेदने का प्रयास किया |

“क्यों, सोने पर भी कोई प्रतिबन्ध लगा है?” देव बाबू के शब्दों में गहराई तक अपेक्षा झलकी |

बचना चाहा था पूजा ने अपमान के इस दुसरे प्रहार से परन्तु अपनी भावुकता-भरी भूल के कारण बच न सकी | कहीं तीसरा प्रहार उसे तोड़ ही न जाए सोचकर वह खामोश हो गयी |

पूजा को क्रोध आ रहा था अपनी विवशता पर | उसके हृदय में एक तूफान-सा, धूआँ-सा उठने लगा | उसका दम जैसे वहाँ घुटने लगा था | आँसू बह निकले और हिचकियों की आवाज कमरे के मौन तो भंग करने लगी | स्वयं पर से जैसे उसका नियन्त्रण समाप्त हो गया था |

कुछ देर वह उसी तरह पड़ी सुबकती रही | कमरे का मौन भंग होता रहा | न जाने कैसी आशा थी उसकी, एक चाह...एक कामना, कि उसके पति बिस्तर पर आएँगे...उसके आँसू पोंछेंगे...उससे प्यार करेंगे...उसे अपनी बाँहों में भर गले से लगा लेंगे...उसके होंठों को अपना समझेंगे...और सब कुछ...तृप्त हो जाएगी वह! उसे व्यर्थ का विश्वास था कि आँखों से बहा दर्द व्यर्थ नहीं जाएगा |

“तुम रो रही हो पूजा?” देव बाबू ने कहा तो उसे लगा जैसे उसकी कामना पूरी हो जाएगी | बहुत मीठा लगा था उसके कानों को पति का यह कहना | कुछ रोमांचित-सी हो उठी थी वह | प्यार के इस झूठे आलम्बन से हिचकियों का वेग कुछ अधिक ही बढ़ गया |

“बोलो पूजा, किसलिए रो रही हो?”

“मेरे रोने से आपको क्या अन्तर पड़ता है?” कुछ रुठते हुए कहा पूजा ने |

“पड़ता है...बहुत अन्तर पड़ता है |”

“क्या...?” पूजा को लगा जैसे मंजिल समीप आती जा रही है |

“तुम्हारे रोने से मेरी नींद भंग हो जाती है | एक तो काम ही अधिकता के कारण दिन-भर चैन नहीं मिलता, दूसरा तुम रात्रि को चैन से सोने भी नहीं देती!” वही सपाट स्वर था उनका |

“मेरे न रोने से आपको नींद आती है?” एक व्यंग्य किया था पूजा ने उनपर | उसे लगा था जैसे मंजिल पास आकर भी खो गयी थी और वह प्यासी की प्यासी ही रह गयी थी |

“मुझसे बहस मत करो | यदि तुम रोना ही चाहती हो तो मैं अपना बिस्तर बाहर लगा लेता हूँ |”

मुँह में साड़ी का पल्लू ठूँस बड़ी कठिनाई से रोका था उसने अपनी रुलाई को | उसने क्या पाना चाहा था और उसे क्या मिला था! चकित थी वह...कहीं उसके पति बहुरुपिए तो नहीं? क्या उनका पीड़ा से सना चेहरा और आँसुओ से भीगी आँखें मात्र आँखों का एक धोखा था? कैसे स्वीकार कर लेती वह की उसके पति का उसके बालों को प्यार से सहलाना एक स्वप्न था |

इसके पश्चात् कोई कुछ न बोला | दोनों की आँखों से ही नींद समाप्त हो चुकी थी परन्तु दोनों ही पलकें मूंदे सोने का उपक्रम कर रहे थे |

कमरे में फैलते सन्नाटे ने एक बार फिर पूजा को उसके अतीत में लौटा दिया |