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देवों की घाटी - 1

देवों की घाटी

लेखक

बलराम अग्रवाल

सांस्कृतिक यात्रापरक बाल उपन्यास

बात बताने की उतावली

दीदी...ऽ...ऽ...दीदी...ऽ...!!

बाहर लॉन में धूप सेंक रहे दादा जी के पास से उठकर निक्की मणिका को पुकार उठा। वहाँ खड़े रहकर उसने एक-दो आवाज़ें और लगाईं, फिर भागकर घर के अन्दर आ गया। यह कमरा, वह कमरा, स्टोर, बाथरूम—उसने सब देख डाले; लेकिन मणिका का कहीं कोई पता न चला ।

‘‘मम्मी! दीदी किधर है ?’’ हताश होकर वह रसोई में गया और ममता से पूछा।

‘‘क्यों, दोनों की कुट्टी दोबारा दोस्ती में बदल गई क्या ?’’ आटा गूँथती हुई ममता ने मुस्कराते हुए पूछा।

‘‘बताओ न मम्मी।’’ निक्की ने पैर पटकते हुए पुनः पूछा।

‘‘पहले तुम बताओ।’’ ममता उसी तरह मुस्कराती रही।

‘‘बताओ न!’’ निक्की रसोई के अन्दर आकर उनकी टाँगों से लिपट गया और नोंचने लगा।

‘‘अरे-अरे, चप्पलें बाहर उतारो।’’

‘‘पहले बताओ।’’

‘‘वह अपनी सहेली के पास गयी है, उसकी एक किताब वापस करने के लिए।’’

‘‘कौन-सी सहेली के पास?’’

‘‘नाम नहीं मालूम। बस, आती ही होगी।’’

‘‘ओफ्फो! यह दीदी भी बस... ।’’

‘‘बात क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं।’’ हताश होकर वह रसोईघर से बाहर जाने लगा था कि तभी हाथ में झाड़ू लिए मणिका सामने से आती दिखाई दी और पलभर में वहाँ आ गयी।

‘‘छतें तो बुहार दी मम्मी।’’ पास आकर वह बोली, ‘‘और क्या करूँ?’’

‘‘बस। अब तुम अपनी सफाई करो, नहाने के लिए जाओ।’’ ममता ने कहा, ‘‘और देखो, भैया तुम्हें ढूँढ रहा है।’’

‘‘दीदी, तू छत पर थी!’’ चकित होकर निक्की ने मणिका से पूछा।

‘‘हाँ।’’

‘‘अपनी सहेली के पास नहीं गई थी?’’

‘‘क्यों?’’

‘‘उसकी किताब वापस करने।’’

‘‘यह किसने कहा तुझसे?’’

‘‘मम्मी ने।’’

‘‘मुझको तो मम्मी ने ही ऊपर भेजा था। छतें बुहारने के लिए ।’’ मणिका बड़े भोलेपन से बोली,‘‘पूछ ले।’’

निक्की का तो पारा ही चढ़ गया उसका जवाब सुनकर। त्यौरियाँ चढ़ाकर उसने ममता की ओर देखा।

‘‘मम्मी...!!’’ गुस्से से चिल्लाता हुआ वह उसकी ओर दौड़ा और उनकी टाँगों से लिपटकर अपने दाँत गड़ा दिये।

‘‘आ...ऽ...!’’ हँसती हुई ममता के गले से हल्की-सी एक चीख निकली और उसे पीटने के लिए ऊपर उठा उसका हाथ आकर जब तक निक्की की कमर पर पड़ता तब तक उसे छोड़कर वह यह जा, वह जा।

‘‘ठहर जा बदमाश!’’ टाँग को सहलाते हुए उसने पीछे से हाँक लगाई।

मौका देखकर मणिका भी निक्की के पीछे-पीछे ही दौड़ गई।

दौड़ता हुआ निक्की सीधा लॉन में बैठे दादा जी के पास जाकर रुका।

‘‘भैया, मैं भी आ गई।’’ पीछे से आकर मणिका ने उसकी आँखों को अपनी अँगुलियों से ढँकते हुए कहा।

‘‘तो मैं क्या करूँ?’’ उसके हाथों को अलग झटककर वह बोला।

‘‘तू मुझे ढूँढ रहा था न!’’

‘‘हाँ...’’ उसके मुँह से निकला, फिर सँभलकर बोला, ‘‘नहीं।’’

‘‘बता न भैया!’’ मणिका उसके एकदम सामने आकर गिड़गिड़ाई।

‘‘हुँह!’’

‘‘दादा जी, आप बताइए न!’’

‘‘नहीं दादा जी! आप नहीं बताना।’’ निक्की ने तुरन्त टोका।

‘‘ठीक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मैं कुछ नहीं बताऊँगा। तुम ही बता दो।’’

‘‘दादा जी ने कहा है दीदी कि...’’ पुलककर निक्की ने बताना शुरू किया लेकिन तुरन्त ही सँभलकर बोला, ‘‘तू पहले दो उट्ठक-बैठक लगा कान पकड़कर।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘मैंने जोर-जोर से इतनी बार पुकारा, तुझे क्या सुनाई नहीं दिया होगा?’’ वह बोला, ‘‘जवाब क्यों नहीं दिया?’’

‘‘अरे बाबा, मैंने एक बार भी तेरी आवाज सुनी हो, तब न!’’ मणिका बोली।

‘‘फिर भी, ’’ वह नाराज़गी-भरे अन्दाज़ में बोला, ‘‘पहले उट्ठक-बैठक लगा।’’

‘‘दो नहीं, सिर्फ एक लगाऊँगी।’’ समझौता करने वाले अन्दाज़ में मणिका ने कहा।

‘‘नहीं, दो।’’ निक्की ज़िद पकड़ता बोला।

‘‘मत बता। मैं दादा जी से पूछ लेती हूँ।’’ मणिका ने धमकी दी और दादा जी की ओर घूम गई, ‘‘बताइए न दादा जी!’’

‘‘नहीं दादा जी...’’ निक्की तेजी-से चिल्लाया और बाजी को अपने हाथ से खिसकने से बचाने की गरज़ से समझौता करता-सा बोला, ‘‘ठीक है, एक ही लगा।’’

मणिका ने अपने दोनों कान पकड़े और झटके-से बैठकर उठ खड़ी हुई। अपनी इस जीत पर निक्की उछल-सा पड़ा और रौबदार आवाज में बोला, ‘‘आगे कभी-भी अगर मेरी एक ही आवाज़ पर नहीं बोली तो मैं दो से कम उट्ठक-बैठक पर नहीं मानूँगा, बताए देता हूँ।’’

‘‘ठीक है, ठीक है...’’ उसकी इस धमकी पर मणिका उसे झिड़कती-सी बोली, ‘‘ज्यादा भाव मत खा। जो भी बताना है, जल्दी बता।’’

‘‘तेरा आखिरी पेपर किस तारीख को है ?’’ सीधे-सीधे न बताकर निक्की ने उससे सवाल किया।

‘‘इसी सोमवार को है।’’ मणिका ने जवाब दिया।

‘‘उसके कुछ दिन बाद रिजल्ट मिलेगा।’’ अपने द्वारा दी जाने वाली सूचना को मणिका के सामने कुछ-और रहस्यात्मक बनाता हुआ निक्की बोला।

‘‘ठीक इकत्तीस मार्च को।’’ मणिका ने स्पष्ट किया।

‘‘उसके बाद, कुछ दिनों तक दोबारा स्कूल चलेगा।’’ उसके स्पष्टीकरण से अप्रभावित निक्की पूर्ववत् बोलता रहा।

‘‘कुछ दिनों तक नहीं बुद्धू,’’ उसके इस अंदाज से चिढ़ने के बावजूद मणिका लगभग शांत स्वर में बोली, ‘‘पूरे अप्रैल भर।’’

‘‘पूरे अप्रैल भर ही सही।’’ निक्की अपनी लय में बोलता गया, ‘‘उसके बाद मई और जून...पूरे दो महीने की छुट्टी।’’

यों कहकर वह ताली बजाता हुआ उछलने लगा।

‘‘वो तो हर साल ही होती है।’’ मणिका नाराज होती-सी बोली, ‘‘इसमें नई बात क्या है?’’

‘‘नई बात यह है कि मई के अन्त में...’’ वाक्य को अधूरा ही छोड़कर निक्की चुप खड़ा हो गया।

‘‘मई के अन्त में क्या ?’’ मणिका ने पूछा ।

‘‘मई के अन्त में...’’ वाक्य को शुरू करके निक्की पुनः चुप खड़ा हो गया ।

रहस्य बुनने के निक्की के इस अतिरेक से चिढ़कर मणिका पैर पटकते हुए जाती हुई बोली, ‘‘मत बता। मैं भीतर जा रही हूँ।’’

उसको इस तरह जाते देख निक्की थोड़ा घबरा गया। उसे रोकने की गरज से दौड़कर वह उसके सामने जा खड़ा हुआ और बोला, ‘‘सॉरी दीदी, बताता हूँ, रुक जा।’’

मणिका रुक गई।

‘‘मई के अन्त में...’’ निक्की ने बताना शुरू किया लेकिन बताने का अन्दाज़ उसका पहले-जैसा किसी गहरे रहस्य पर से परदा हटाने की तरह का ही रहा। मणिका ने इस बार कुछ सब्र से काम लिया। उसने निक्की की चुप्पी पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। कुछ पल बाद अन्ततः निक्की स्वयं ही बोला, ‘‘मई के अन्त में दादा जी हमें ले जाएँगे...ऽ......ऽ...देवभूमि...गढ़वाल यानी...बदरीनाथ धाम की यात्रा पर।’’

‘‘हुर्रे...ऽ...!’’ यह सुनते ही मणिका खुशी से उछल पड़ी । दौड़ती हुई वह वापस दादा जी के निकट जा पहुँची और पूछने लगी, ‘‘निक्की सच कह रहा है दादा जी?’’

‘‘एकदम सच!’’ दादा जी मुस्कराते हुए बोले।

‘‘हुर्रे...ऽ...!’’ दादा जी का जवाब सुनते ही मणिका एक बार पुनः किलक उठी ।

‘‘आप कितने अच्छे हैं दादा जी!’’ दादा जी को अपनी नन्हीं बाहों में घेरने की कोशिश करते हुए वह बोली, ‘‘यह बात मम्मी को बता दूँ?’’

‘‘अभी नहीं।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘पहले अपनी परीक्षाएँ समाप्त करो। अच्छा ग्रेड लेकर अगली कक्षा में पहुँचो। पहले सेशन की एक महीना पढ़ाई करो। उसके बाद गर्मी की छुट्टियों में तय करेंगे कि कहाँ जाना है—बदरीनाथ या कहीं-और!...और, तुम लोगों को साथ ले चलना है या नहीं।’’

‘‘दादा जी!!’’ दोनों बच्चों ने शिकायती स्वर में एक-साथ कहा ।

‘‘अब जाओ। घर की, और अपने शरीर की सफाई करो। खाओ-पीओ और पढ़ो।’’ दादा जी ने हँसते हुए कहा।

निक्की और मणिका दोनों दादा जी के पास से उठ खड़े हुए। एक-दूसरे की गरदन में बाँहें डालकर वे बुझे मन से घर के भीतर की ओर चल दिए। उन्हें इस तरह जाते देखकर दादा जी धीरे-से मुस्कराए और कुर्सी को धूप में खिसकाकर अखबार पढ़ने में तल्लीन हो गए।

स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम

परीक्षाएँ समाप्त हुईं। परिणाम घोषित हुए। मणिका और निक्की दोनों ही अपनी-अपनी कक्षाओं में ए-प्लस ग्रेड लेकर पास हुए। एक भव्य समारोह में स्कूल के प्राचार्य ने उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले सभी छात्र-छात्राओं को पुरस्कार तथा प्रशस्तिपत्र प्रदान किये।

आगामी दिन से स्कूल पुनः खुला। अत्यन्त प्रफुल्लित मन से बच्चे नयी कक्षाओं में जाकर बैठे। नयी पुस्तकों के बीच उनका चहकना उनकी खुशी की गवाही देता था। लेकिन उनके मन पर यह दबाव भी हमेशा बना रहता था कि कब एक महीने का यह नया सेशन समाप्त हो और कब पढ़ाई के इस बंधन से मुक्त हो कुछ दिनों के लिए वे सैलानी बन जाएँ।

इस चिन्ता के चलते दोनों बच्चों ने बड़ी बेसब्री के साथ पहले सेशन की पढ़ाई समाप्त की।

छुट्टियाँ घोषित करने वाले दिन प्राचार्य महोदय के लिखित अनुरोध को स्वीकार कर अधिकतर बच्चे अपने माता-पिता के साथ स्कूल पहुँचे। सभी अभिभावकों को अध्यापकों व स्कूल के अन्य स्टाफ की मदद से आदर सहित स्कूल-भवन के सेमिनार कक्ष में निर्धारित सीटों पर बैठाया गया। छात्र-छात्रएँ अपनी-अपनी कक्षा में बैठे। प्राचार्य महोदय ने सभी छात्रों को पंक्तिबद्ध होकर स्कूल-भवन के सेमिनार कक्ष में इकट्ठा होने का आदेश भिजवाया था। अध्यापकों ने अपनी अनुपस्थिति में इस कार्य को सम्पन्न करने का जिम्मा प्रत्येक कक्षा के मॉनीटर को सौंपा था। लाइन में लगकर सभी बच्चे कक्षा-मॉनीटर्स की देखरेख में वहाँ पहुँच गये। निगम पार्षद और इलाके के विधायक सहित क्षेत्र के कुछ अन्य गण्यमान्य लोग भी स्कूल-प्रशासन के आमन्त्रण पर आए हुए थे। उन सबको मंच के ठीक सामने सोफों पर बैठाया गया था। प्राचार्य एवं अध्यापकगण भी सोफों पर बैठे तथा समस्त छात्र उनके पीछे लगी कुर्सियों पर।

कार्यक्रम शुरू हुआ।

सबसे पहले आमन्त्रित गण्यमान्य लोगों द्वारा विद्या की देवी ‘माँ सरस्वती’ की ताम्र-प्रतिमा के आगे रखे दीपों को प्रज्वलित कर उन्हें पुष्प अर्पित किए गए। तत्पश्चात् विद्यालय की संगीत अध्यापिका के निर्देशन में तैयार कुछ छात्र-छात्रओं द्वारा संगीतमय सरस्वती-वन्दना प्रस्तुत की गई :

माँ शा...ऽ...रदे! वर दे।

वरदे...ऽ...! वर दे।

श्वे...ऽ...त पद्मा......ऽ...सने! चरणों...ऽ... में शरण दे।

वरदे...ऽ...! वर दे।

उसके बाद अन्य छात्र-समूहों ने अनेक रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिनमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि अनेक राज्यों के लोकनृत्य तथा सामयिक, सामाजिक व राजनीतिक समस्याओं पर आधारित कुछ लघु एकांकी लोगों को बहुत भाए।

सांस्कृतिक कार्यक्रम समाप्त हुआ।

निगम पार्षद व विधायक आदि प्रमुख मेहमानों ने अपने-अपने भाषण में स्कूल-प्रशासन के इस सद्प्रयास की, कि बच्चों में पढ़ाई के साथ-साथ उसने कलाओं के प्रति भी उनकी रुचि को बनाए रखने वाले कार्यक्रमों से उन्हें जोड़कर रखा है, भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा कार्यक्रम में भाग लेने वाले सभी बच्चों को उत्साहवर्द्धन हेतु कुछ-कुछ नगद राशि भी भेंट की।

अन्त में, प्राचार्य महोदय ने घर में, विद्यालय में तथा शेष समाज में अनुशासन एवं आचार-विचार संबंधी कुछ बातें बच्चों से कही तथा अभिभावकों व आगन्तुकों का आभार व्यक्त कर जून माह के तीसरे रविवार तक विद्यालय की छुट्टियाँ घोषित कर दीं।

छुट्टियाँ घोषित होते ही सभागार में एकदम मौन बैठे छात्र-छात्रओं में खुशी की लहर दौड़ गई। कुछ बच्चे प्राचार्य महोदय व अपने अध्यापक की अनुशासन बनाए रखने की बात को ध्यान में रखते हुए शान्त बैठे रहे लेकिन अधिकतर छात्र-छात्र कुर्सी से उछल ही पड़े—हुर्रे...ऽ...!

सभागार में उपस्थित अध्यापकगण व मॉनीटर्स भी जैसे इस खुशी में शामिल हो गये हों। उनमें से किसी ने भी उनसे शान्त हो जाने और अनुशासन बनाए रखने का न तो अनुरोध किया और न ही आदेश दिया। प्राचार्य भी गणमान्य लोगों को साथ ले चुपचाप सभागार से बाहर निकल गए, जैसे कि वे भी जानते और मानते हों कि स्कूल की छुट्टियाँ हो जाने की घोषणा सुनकर बच्चों द्वारा प्रफुल्लित होना स्वाभाविक है और अपनी इस खुशी को खुलकर प्रकट करने का उन्हें पूरा अधिकार है।

निक्की और मणिका के साथ मम्मी-पापा के स्थान पर दादा जी स्कूल आए थे। विद्यालय प्रशासन ने बुजुर्ग आगन्तुकों के बैठने का इन्तजाम आमन्त्रित अतिथियों के साथ ही विशेष रूप से डाले गए सोफों पर किया था। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद छुट्टियों की घोषणा होने के साथ ही निक्की और मणिका अन्य बुजुर्ग अभिभावकों के साथ बैठे दादा जी के पास जा पँहुचे और उनकी गरदन में लटक गए।

घर लौटते हुए

दादा जी के साथ स्कूल से घर लौटते हुए दोनों बच्चे रास्तेभर आगामी यात्रा के बारे में ही परस्पर चर्चा करते और खुश होते रहे। घर पहुँचकर वे चहकते हुए ममता के पास पहुँचे और एक-एक कर उन्होंने विद्यालय में हुए सारे रंगारंग कार्यक्रमों के बारे में बताना शुरू कर दिया। कभी निक्की बताते हुए बीच में कुछ भूल जाता तो मणिका उसमें संशोधन करती और मणिका कुछ भूल जाती तो निक्की उसमें संशोधन करता।

दादा जी ने मना न कर रखा होता तो एक ही झटके में वे लम्बी यात्रा पर ले जाने की उनकी बात भी बोल ही चुके होते। सारी बातें मम्मी को बताने के दौरान उन्होंने कैसे अपनी जुबान पर काबू रखा, इसे बस वे ही समझ सकते थे।

मणिका को जब यह महसूस होने लगा कि अब अगर वे थोड़ी देर भी मम्मी के पास रुके तो मन की बात जुबान पर आ ही जायगी, तब बहाना बनाकर वह निक्की को वहाँ से खींचकर बाहर ले गयी।

भाग-2 में जारी…