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हौसला

हौसला

Divya Vidhani

कहते हैं जहा माँ सरस्वती का वास होता है वहा, चाहे देर से ही सही पर लक्ष्मीजी अवश्य पधारती हैं। इसी बात की जीती जागती मिसाल है दीपा नन्दलाल आतवाणी। 26 वर्षीय दीपा गुजरात के हिंमतनगर जिल्ले के एक सरकारी कॉलेज मे सेकन्ड क्लास स्टाफ की श्रेणी मे बतौर लेक्चरर कार्यरत हैं। दीपा का बचपन से लेक्चरर तक का सफर खूब संघर्षपूर्ण रहा। 1991 मे अहमदाबाद के एक गरीब परिवार मे दीपा का जन्म हुआ। पिता एक बिस्कुट की फैक्टरी मे नौकरी करते थे। पर उनको रोजाना काम नही मिलता था। ऐसे मे दीपा की मां भी दोनो छोर एक करने के लिए ब्रेजियर्स ( होजियरी ) की सिलाई का काम किया करती थी। जैसे तैसे दिन कट रहे थे। दीपा दो साल की हुई भी न थी कि परिवार मे एक बेटे ने जन्म लिया और दीपा के सात साल के होते होते वह दो छोटे भाईयो की दीदी बन चुकी थी। घर के हालात और छोटे भाईयो की बडी बहिन होने के अहेसास ने दीपा को समय से पहले जिम्मेदार और समझदार बना दिया था। परिवार की हालत अब और खस्ता थी। पति पत्नी अब और ज्यादा महेनत करने लगे। ढेर सारी समस्याएं उनके सामने मुंह बाये खडी थी जैसे बच्चो का पालन पोषण, पढाई, घर का किराया, रिश्तेदारी निभाना। बहरहाल, समय अपनी रफतार से चल रहा था।

दीपा का दाखिला घर के पास वाले सरकारी स्कूल मे करवाया गया। पढने मे वह शुरू से तेज थी इसलिए हर कक्षा मे अव्वल आती थी। सारे टीचर उसे बहुत प्यार करते थे कयोंकि वह पढाई मे तेज होने के साथ-साथ बहुत ही सरल, शांत व समझदार लडकी थी। अब दीपा की प्राथमिक शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी और माध्यमिक शिक्षा के लिए उसे घर से थोडा दूर एक स्कूल मे दाखिला दिलाया गया। जहा वह पैदल जाया करती थी। यहा भी दीपा ने अपने मिलनसार स्वभाव की वजह से सबका दिल जीत लिया।। क्लास के वे बच्चे जो पढने मे कमजोर थे,दीपा उनको भी मदद किया करती थी। स्कूल से घर जाने के बाद वह मां को भी घर के काम मे मदद करती, अपने दोनो भाईयो का ध्यान रखती, उन्हे पढाती और अगर मां को बाहर से कुछ मंगवाना हो तो वो भी ला देती थी। समय के बहाव को भला कौन रोक पाया है ? दीपा अब दसवी कक्षा मे पहुंच चुकी थी, और इस बार बोर्ड की परीक्षा होनी थी। उसने शुरू से ही महेनत करना प्रारंभ कर दिया था, पढाई मे तेज तो वह थी ही, पर फिर भी उसे लगा कि अच्छे नंबर लाने के लिए उसे ट्यूशन लेनी ही होगी। उसने मां से बात की, मां ने उसे आश्वासन देते हुए कहा “ तू चिंता मत कर, सिर्फ अपनी पढाई पर ध्यान दे। मैं और ज्यादा महेनत करुगीं, सब ठीक हो जायेगा। ” परीक्षाएं पूर्ण हो चुकी थी और दीपा की सारी परीक्षाएं बहुत अच्छी गयीं थीं। और अब परीक्षा के परिणाम के लिये करना था दो ढाई महिने का लंबा इंतजार। इन ढाई महिनो मे उसने कम्प्यूटर का कोई कोर्स कर लिया था और तब तक इंतजार की घडियां भी समाप्त हो चुकी थी। दीपा को उसकी महेनत का फल मिला। वह दसवी की परीक्षा मे 83% लेकर उत्तीर्ण हुई। घर के सभी लोग बहुत खुश थे। नाते रिश्तेदार और पडोसी बधाई देने आने लगे। उन मे से कुछ तो सचमुच खुश थे पर कुछ ऐसे भी थे जो दबी आवाज मे कह रहे थे “ लडकी अच्छे नंबरो से पास हुई है, चलो ठीक है, लडकी जात है, इसे ज्यादा पढाकर कया करना है, करना तो इसे चूल्हा- चौका ही है। इन सब बातो को नजरअंदाज करके दीपा अपना परिणाम पत्र लेकर, अपने टीचर व सहेलियो से मिलने स्कूल चली गई। वहा जाकर उसे पता चला कि वह अपनी कक्षा मे अव्वल आई है। सारे टीचर उसके परिणाम से खुश थे और उसे आगे अपनी पढाई जारी रखने की सलाह दे रहे थे। कोई उसे साईन्स लेकर इंजीनियर, डॉक्टर बनने का मशवरा दे रहा था तो कोई उसे कॉमर्स लेकर सी.ए बनने के फायदे गिना रहा था और उसे इन सब पाठ्यक्रमो की ट्यूशन फीस और बाकी खर्चो के बारे मे अवगत करा रहे थे। उसने सब की बातें गौर से सुनी। स्कूल से घर जाते-जाते भी उसके दिमाग मे वही बातें घूम रही थीं। घर जाकर उसने सब कुछ मां को बताते हुए कहा “ मां मुझे तो साईन्स लेकर आगे की पढाई करनी है। आपकी कया राय है ?” मां ने कहा “ इन सब मे बहुत खर्चा करना पडेगा जो अपने बस की बात नही, और वैसे भी तुझे कहां नौकरी करनी है, तेरे पापा तो तुझे आगे पढाने के लिए भी राजी नही पर उसके लिए मैं उन्हे मना लूगीं, तू कोई और कोर्स कर लेना। ” मां की बात सुनकर वह उदास हो गई। कुछ दिनो के बाद स्कूल का पहेला सत्र शुरू होने वाला था। माँ से दीपा की उदासी देखी न गई। और दीपा के साथ टीचर से मिलने स्कूल जा पहुंची और उनको दीपा की इच्छा और अपने घर के हालत से अवगत कराया। स्कूल प्रशासन और टीचर ने दीपा के हौसले व द्रढ निश्चय को देखते हुए न सिर्फ दीपा की ट्यूशन फीस माफ की पर उसके साथ-साथ दीपा को पढाई मे हर संभव मदद करने का वादा भी किया। दोनो मां बेटी खुशी-खुशी घर लौंटी। इस बारे मे जानकर दीपा के पिताजी बहुत नाराज हुए और कहने लगे “ ये सब अमीरो के चोंचले है, ये सब अपने लिए नही है और कल को अगर स्कूल वालो ने फीस भरने से मना कर दिया तो हम कहां जायेंगे ? पता चला न तो खुदा मिला न विसाले सनम। और वैसे भी बडे-बुड्ढो ने कहा है कि पाँव उतने ही फैलाने चाहिएं जितनी अपनी चादर हो।” देखा जाए तो पिताजी की नाराजगी भी जायज थी पर वो ज्यादा दिनो तक नाराज न रह सके, मां ने उन्हे समझा बुझाकर मना लिया था। मां-बाप और अध्यापको का सहयोग पाकर दीपा के फैसले को और बल मिला और वो अपने ध्येय को हासिल करने के लिए कडी महेनत करने मे जुट गयीं। समय से कदम मिलाने के लिए वह बस घर से स्कूल, स्कूल से ट्यूशन भागती रहती थी। मां-बाप व अध्यापको का समय और हौसला उसे लगातार मिल रहा था। सब की कोशिशे और महेनत रंग लाई। दीपा इस बार 79% लेकर उत्तीर्ण हुई। फिर एक बार घर मे खुशी का माहौल था। दीपा के अध्यापक भी उससे काफी खुश थे। एक बडा पडाव दीपा ने पार कर लिया था अब तकलीफें बस कुछ ही दिनो की महेमान थीं। इस बार फिर नाते- रिश्तेदारो की प्रतिक्रिया आई कि आगे पढने की कया जरूरत है, कॉलेज बहुत दूर है, अकेली लडकी कैसे जायेगी। हमारी मानो तो अब इसके हाथ पीले करने की तैयारी करो। इन सब बातो को दीपा की मां अब सुना-अनसुना करने लगी थी कयोंकि उसे अब कुछ नही सुनना था सिर्फ अपनी बच्ची की खुशी देखनी थी। और दीपा तो पहले ही इन बातों के लिए बहरी थी कयोंकि उसका संकल्प बिलकुल द्रढ था। दीपा के अच्छे नंबरो की वजह से उसे सरकारी कॉलेज मे दाखिला मिल गया। सुबह से शाम तक उसका कॉलेज होता, फिर शाम को घर आकर घर के कुछ काम करती और अपने छोटे भाई को पढाती थी। उसके एक भाई ने मन न लगने के कारण पढाई छोड दी थी। और किसी नौकरी पर लग गया। दीपा के पापा से भी अब काम नही होता था। और उसकी मां ने भी सिलाई का काम छोड कर खाना बनाने का काम ले लिया था। शादी, सगाई, ग्रहप्रवेश जैसे प्रसंगो मे खाना बनाने का कार्य किया करती थी। परिवार का संघर्ष अभी भी जारी था। दीपा भी काफी महेनत कर रही थी। कहते हैं न कि वक्त अच्छा हो या बुरा गुजर ही जाता है। आठ सेमेस्टर पूरे हो चुके थे और अब दीपा सिविल इंजीनियर बन चुकी थी। वह बहुत खुश थी उसको उसकी मंजिल मिलने जा रही थी, उसका संघर्ष अब हर्ष के आंसुओ मे तबदील हो रहा था। जान-पहचान वालो मे मिठाईयां बांटी गयीं। वे भी अब समझने लगे थे कि यहा अपनी दाल नही गलनी। अब दीपा नौकरी के लिए इन्टरव्यू देने लगी। काफी जगहो पर इंन्टरव्यू देने के बाद उसे एक कॉलेज से लेक्चरर के पद के लिए प्रस्ताव आया, पर यह प्रस्ताव अस्थायी तौर पर था। उसने घर पर बताया। माँ ने कहा “अस्थायी नौकरी है तो कोई बात नही फिलहाल हां कर दे, कुछ काम करने का अनुभव तो मिलेगा” पिताजी भी माँ की बात से सहमत थे। फिर कया था दीपा ने भी हामी भर दी और घर का माहौल खुशायों से भर गया। माँ तो खुशी के मारे रोने ही लगीं। उसने नौकरी ज्वाईन कर ली। आत्मनिर्भरता के अहेसास ने उस के अंदर आत्मविश्वास संचार कर दिया था। उसके जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो गया था और अपने नये जीवन मे वह रचने-बसने लगी थी। अपने से एक दो वर्ष ही छोटे छात्रो के साथ उसे मजा आने लगा था, और छात्र भी अपनी हमउम्र लेक्चरर से नि:संकोच सवाल-जवाब करते थे। उसका व उसके परिवार का जीवन स्तर अब बदलने लगा था। उसने अपना बैंक खाता भी खुलवा दिया था और पैसो के आने से घर के लोगो की छोटी-मोटी जरूरते भी अब आसानी से पूरी हो रहीं थी। दीपा भी अब अपनी लडकपन से दबी छुपी ख्वाहिशे पूरी करने लगी। उसे लगने लगा अपने पैरो पर खडे रहने की की बात ही कुछ और है, उसने महसूस किया कि पैसो के आने से सब के सामने अपनी इज्जत बढ जाती है, जो पहले सीधे मुंह बात नही करते थे वो भी अब हमारी हां मे हां मिलाने लगे हैं।

चूंकि दीपा की यह नौकरी अस्थायी थी इसलिए उसे अब आगे की चिंता सताने लगी थी। उसने कई और कंपनीओ मे भी नौकरी के लिए आवेदन कर दिये थे। कुछ कंपनीओ मे उसने इन्टरव्यू भी दिये। पर कही बात नही बनी। फिर कॉलेज से ही उसे पता चला कि एम-टेक करने से लेक्चरर की जॉब स्थायी हो सकती है, और अगर गेट ( GATE ) की परीक्षा के बाद एम-टेक मे दाखिला लिया तो स्टाईपेन्ड मिलने की भी संभावना रहती है। पर परीक्षा काफी कठिन होती है। यह जानने के बाद उसने बिना देर किए गेट परीक्षा के बारे मे संपूर्ण जानकारी हासिल कर ली और साथ-साथ उस परीक्षा की तैयारी भी शुरू कर दी। पर नौकरी और परीक्षा की तैयारी एक साथ करना संभव नही था इसलिए दीपा ने नौकरी छोड दी और जीजान से परीक्षा की तैयारी मे जुट गयी थी। उसकी इस तैयारी मे उसके परिवार विशेषकर माँ का पूरा सहयोग उसके साथ था। उसने गेट की परीक्षा दी और अच्छे अंको मे पास भी हो गई। गेट के परीक्षाफल के आधार पर उसे एम-टेक मे स्टाईपेन्ड के साथ दाखिला मिल गया। अब उसे अपना सुनहरा भविष्य स्पष्ट दिख रहा था। एक बार कॉलेज मे एक प्रतियोगिता हुई, जिस मे भाग लेने वालो को कुछ चुने हुए विषयो पर पाँच मिनट तक बोलना था। दीपा ने भी उस प्रतियोगिता मे भाग लिया और उसे जिस विषय पर बोलना था, वो था ‘ आपकी नजर मे आपके जीवन की सफलता व असफलता ’ विषय सुनकर वह कुछ भावुक हो गई फिर अपने आप को संभालते हुए उसने बोलना शुरू किया और पाँच मिनट तक बोलती रही। पूरा हॉल तालीयों की आवाज से गूंज उठा। उसने कहा कि जब मैंने ‘गेट’ की परीक्षा पास करके एम-टेक मे एडमिशन लिया था तब मुझे जीवन मे सफलता का अहेसास हुआ, पर ये तो अभी शुरूआत ही है, अभी तो कई मकाम हासिल करने हैं। जहा तक असफलता की बात है, मेरे ख्याल से ऐसा कोई शब्द अथवा ऐसी कोई स्थति है ही नही हम खुद ही संघर्षो से मुंह मोडकर ऐसे शब्द व स्थतियां बना लेते हैं।

समय अपनी गति से बहता रहा और देखते ही देखते उसने एम-टेक भी कर लिया। अब उसे किसी भी सेल्फ फाईनेन्स कॉलेज मे आसानी से लेक्चरर के पद पर स्थायी नौकरी मिल सकती थी। पर परिवार का आग्रह था कि वह सरकारी नौकरी करे परिवार के निर्णय का सम्मान करते हुए दीपा ने जीपीएससी (GPSC) की परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। इस परीक्षा के लिए नंबर जब दूसरे शहेर मे लगता तब दीपा की माँ भी उसके साथ जाती थी। आखिर संघर्ष का ये लंबा सफर अपने मकाम पर पंहुचा। और दीपा को एक सरकारी कॉलेज मे बतौर लेक्चरर स्थायी नौकरी मिल गई। दीपा और उसका परिवार अब बहुत खुश है। उसकी इस कामयाबी से नाते-रिश्तेदारो के मुंह पर भी ताले लग गये। दीपा ने साबित कर दिया कि इंसान संघर्ष और हौसले के बल पर जो चाहे वो हासिल कर सकता है। भविष्य मे दीपा की पीएचडी करने की ईच्छा है।