Anjane lakshy ki yatra pe-1. books and stories free download online pdf in Hindi

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - 1

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

प्रथम भाग

एक व्यापारी और एक कुते वाला बूढ़ा

पुराने ज़माने मे एक देश मे एक व्यापारी था । उसके यहां पाढ़ियों से व्यापार चला आ रहा था । एक बार उस देश मे एक व्यक्ति आया जो बहुत बूढ़ा हो चुका था । उस व्यक्ति के साथ एक कुत्ता था । उस बूढ़े व्यक्ति ने बताया कि वह अपने कुत्ते के साथ दुनिया भर मे घूम-घूम कर गड़े हुये खजाने खोजने का काम करता है । और कई देश के राजे महाराजे उसे इस काम के एवज मे मोटी रकम चुकाते हैं ।

“लेकिन मै सिर्फ़ उनके लिये काम नही करता । मै जहां भी जता हूं, अपने लिये भी खजाने की खोज किया करता हू , और उसे चुपके से अपने घर भिजवा देता हूं ।“ उस बूढ़े ने बताया “अब तक मैने बहुत धन-दौलत जमा करली है । और लग-भग सारी दुनिया घूम चुका हूं ।“

“तो अब कहां का सफ़र है ।“ व्यापारी ने पूछा ।

“क्यों ?” बूढ़े ने संदेह से उसकी तरफ़ देखा “तुम्हे इससे क्या मतलब ? तुम मुझे कमज़ोर बूढ़ा मत समझना । मैने बड़े-बड़े चोर डाकुओं का मुकाबला किया है । और पहली बात तो मै अपने साथ कभी धन लेकर नही चलता । उसे तो मै आगे भिजवा दिया करता हूं ।“

“नही-नही, आप ऐसा मत सोचिये । दरहक़ीक़त मै एक व्यापारी हूं ।“उस व्यापारी ने कहा “और मै आपके इस काम मे धन लगाने को उत्सुक हूं ।“

“लेकिन मुझे आपके धन की कोई ज़रूरत नही । मेरे पास तो इतनी दौलत है कि मै एक देश ही खरीद सकता हूं ।“ वह बूढ़ा बोला ।

“फ़िर आप इस आयु मे यह काम क्यों करते हैं ?” व्यापारी ने पूछा ।

“तुम्हारी उत्सुकता बिल्कुल सहज है । लेकिन यह काम मै धन के लिये नही करता ।“ वह बूढ़ा बोला “मै तो इसे अपनी दुनिया घूमने की प्रवृत्ति के वश मे करता रहा । लेकिन अब कई बार इसे अपने मित्र राजा महाराजाओं के आग्रह पर करना पड़ता है । आखिर सम्बंध भी कोई चीज़ है ।“ वह थोड़ी देर रुका रहा फ़िर आगे बोला “लेकिन बस ! अब बहुत हुआ । अब मेरी उम्र होचली है और मै अब घर जाकर बची ज़िंदगी अपने परिवार के साथ अपने कमाये हुये धन का उपभोग करना चाहता हूं । इस लिये यह मेरा अंतिम सफ़र था और अब मै अपने घर की ओर प्रस्थान कर रहा हूं ।“

“यह विद्या आपने कहां से सीखी ?” उस व्यापारी ने पूछा ।

“यह विद्या मैने सीखी नही बल्कि, मैने अपने इस कुत्ते को इसके लिये प्रशिक्षित किया है । बस मेरा यह कुत्ता अपनी सूंघने की ताकत से छिपे खजाने का पता लगाकर मुझे बता देता है । और मै जाकर वहां खुदाई करके खजाने को निकाल लेता हूं ।“

“वाह ! तब तो यह कुत्ता बहुत कीमती है ।“

“कीमती ? अरे ! मै तो इसके बगैर कुछ भी नही । यह मुझे अपने भाई बंधुओं से भी अधिक प्रिय है ।“

“लेकिन आप तो यह कार्य छोड़ रहे है, फ़िर इसकी आपको क्या आवश्यक्ता है ।“

“अरे मूर्ख व्यापारी ! तू व्यापार के अलावा कुछ भी नही जानता । भला अपने बधु बांधवों की किसे अवश्यक्ता नही होती । और अपने जीवन के अंतिम काल मे तो व्यक्ति अपने बंधु बांधवों के सानिध्य मे ही जीवन काटना चाहता है ।“

“लेकिन यह तो कुत्ता मात्र है ।“ व्यापारी ने समझाया ।

“यह तुम्हारे लिये कुत्ता है, लेकिन मेरे लिये तो यह बंधु बांधओ से कम नही । मै तुम्हारा आशय भली प्रकार समझता हूं, लेकिन मै इसे किसी कीमत पर तुम्हे बेचने वाला नही ।“ वह बूढा व्यक्ति बोला ।

“इस प्रकार तो आप इसकी प्रतिभा को व्यर्थ करना चाहते हैं ।“ व्यापारी बोला ।

“हूं, तुम हो तो व्यापारी, लेकिन बात बुद्धिमानी की कर रहे हो ।“ बूढ़ा व्यक्ति सोचते हुये बोला “लेकिन मै यह प्रतिभाशाली कुत्ता तुम्हे क्यों बेचूं ?”

“क्योंकि मै इसका समूचित मूल्य चुका सकता हूं ।“ व्यापारी बोला ।

“मै कैसे मान लूं कि तुम इसका समूचित मूल्य चुका सकते हो ?” बूढ़े ने प्रश्न किया ।

“आप मेरे साथ मेरे घर चलकर विश्राम कीजिये । वहीं हम इसका मूल्य भी तय कर लेंगे, और वहीं से आपकी आशंका का भी निवारण हो जायेगा ।“

बूढ़ा इस बात पर सहमत हो गया ।

व्यापारी ने बूढ़े की खूब आव भगत की और कुत्ते को भी बहुत अच्छी तरह अलग कमरे मे रखा । और अपने नौकरो को उन दोनो की सेवा मे लगा दिया । आखिर वह बूढ़ा सन्तुष्ट हो गया और उसे अपना कुत्ता बेचने पर राज़ी हो गया ।

लेकिन कुत्ते की कीमत चुकाने मे उस व्यापारी को अपना सारा व्यापार और सारी सम्पत्ति बेचनी पड़ी । अब उसके पास सिर्फ़ वह पुश्तैनी मकान ही बचा रह गया । लेकिन व्यापारी के लिये यह भी कोई घाटे का सौदा नही था । अपने परिवार के रहने का इन्तेज़ाम करके कुछ धन अपने राह-खर्च के लिये साथ रखकर वह कुत्ते को साथ ले चल पड़ा ।

वह पूर्व दिशा की ओर चल पड़ा । धीरे-धीरे आबादी पीछे छूट गई और वीरान बियाबान अपनी बाहें फ़ैलाये उसकी अगवानी को आतुर लगने लगे । अब कुत्ता आगे-आगे और उसका नया मालिक यानि वह व्यापारी पीछे-पीछे चल रहे थे । ऐसा लगता था मानो कुत्ता राह दिखा रहा है और उसका मालिक पीछे-पीछे चल रहा है । वे कभी खेतों की मेढ़ो पर चलते । कभी घास के मैदानो और चारागाहों को पार करते । उन्होने कभी पत्थरो पर पैर जमाते हुये, उथले नालो को पार किया तो कभी लकड़ी के लट्ठों और ठूठों के सहारे बड़ी-बड़ी उफ़नती नदियों को पार किया । कभी लहरो से अठखेलियां की तो कभी अंधेरी रातों मे टूट कर गिरते तारों के पीछे दौड़ लगाई । कभी पहाड़ो की चढ़ाई से लोहा लिया तो कभी ढलानो पर फ़िसलते रहे । आखिर वे उस देश की सीमओ से बहुत दूर निकल गये ।

अभी वे एक घने जंगल के मध्य भाग मे ही पहुचे थे कि कुत्ते ने एक खाई की तरफ़ दौड़ लगा दी । परेशान व्यापारी उसे आवाज़ लगाता हुआ पीछे-पीछे दौड़ा । एक गुफ़ा के मुहाने पर जाकर कुत्ता रुक गया और आस-पास कि ज़मीन को सूंघ-सूंघ कर उछल कूद मचाने लगा । व्यापारी यह सोचकर खुशी से फ़ूला नही समा रहा था कि पहला खज़ाना इतनी जल्दी मिल गया । वह कुत्ते को पुचकारने लगा; लेकिन वह कुत्ता एक गुफ़ा मे घुस गया । व्यापारी बहर बैठा इंतेज़ार करता रहा । बहुत देर तक जब कुत्ता बाहर नही आया तो व्यापारी को लगा कि अंदर जाकर देखना चाहिये । जैसे ही वह अंदर जाने को हुआ तो उस गुफ़ा से कुछ लोगो के भागने की आवाज़ सुनाई दी । इससे पहले कि वह सम्भले कुत्ता भागता हुआ गुफ़ा से बाहर आया और व्यापारी के पैरो से लिपट गया । उसके पीछे-पीछे भागते हुये दो लोग बाहर आये और उसे देख चौंक गये । फ़िर उन्होने कुत्ते को उसके पैरो से लिपटते देखा और उनमे से एक ज़ोर से बोला- “अरे, देखो तो कौन आया है ?”

दूसरा थोड़ा चौका, फ़िर ज़रा अचकचाया और अपने साथी से फ़ुसफ़ुसाते हुये पूछा “तुम्हे पक्का यकीन है ?”

“बिल्कुल !” पहले वाले ने कहा “तुमने इस पिल्ले को नही देखा ?”

फ़िर वह व्यापारी से बोला “और तुम क्या सोचते हो ? तुम भेस बदलकर हमे धोका दे सकते हो ? तुम भूल गये क्या कि हम कौन है ?”

“मुझे कुछ समझ मे नही आ रहा आप लोग कौन हैं ? और मुझे कैसे जानते हैं ?” व्यापारी बोला ।

“लेकिन हम लोग अच्छी तरह जान गये हैं । तू फ़िर हमे चकमा देना चाहता है ।“ एक बोला ।

“इसे पकड़ लो इसे सरदार के पास ले चलते हैं । सरदार खुश हो जायेंगे ।“ दूसरा बोला ।

इस तरह वे लोग उस व्यापारी को पकड़कर अपने सरदार के पास ले गये ।

“सरदार ! देखिये तो हम किसे ले आये ?” वे एक साथ बोल उठे ।

“अरे, किसे ले आये हो ? यह तो कोई व्यापारी लगता है । कुछ माल-वाल मिला कि नही ? अरे छीन छान करके, मार पीट कर वहीं से भगा देते । ख्वामख्वाह इसकी जान लेना पड़ेगा ।“ सरदार चिढ़कर बोला ।

“नही सरदार ! आप इसके इस नकली रूप पे मत जाइये । यह तो वही ठग है, जो हमारा खजाना लेकर भाग गया था । यह अभी तक भेस बदलकर जंगल मे घूम रहा था । हम ने इसे पकड़ लिया । इसी लिये आपके पास लाये है ।“ एक बोला ।

“अबे बेवकूफ़ो, तुम यह क्या कह रहे हो ? तुम्हारी अक्ल घास चरने गई है क्या ? ऐ वह कैसे हो सकता है । वह तो एक बूढा था ।“ सरदार बोला ।

“सरदार ! यह वही है । लगता है यह भेस बदलने मे माहिर है । पता नही वह बूढ़े वाला रूप भी इसका असली रूप न रहा हो ।“

“लेकिन तुम यह कैसे कह सकते हो ?” सरदार बोला ।

“मालिक आप इस कुत्ते को तो पहचान रहे हो न ?”

“अरे हां ! कुत्ता तो वही है । तुम लोग ठीक कहते हो, इसने अपना तो रूप बदल लिया लेकिन कुत्ते का रूप बदल नही पाया है । फ़िर भेस बदलकर आप इनसान को तो धोका दे सकते हो, अपने पालतू जानवर को नही ।“ सरदार ने अपनी सहमति जताई ।

“देखिये सरदार ! कैसे इसकी टांगो मे घुसा जा रहा है ।“ अब सरदार के एक और साथी ने भी अपने सरदार की हां मे हां मिलाई ।

अब तक के घटनाक्रम से व्यापारी यह तो समझ गया कि यह लोग उसे वही बूढ़ा व्यक्ति समझ रहे हैं; लेकिन पूरी बात अब भी उसके पल्ले नही पड़ रही थी ।

“सरदार !” वह बोला “मुझे लगता है आप लोग मुझे कोई और समझ रहे हैं । लेकिन मै वह नही हूं । मै तो एक सीधा-सादा व्यापारी हूं… …”

“हां, और यहां जंगल मे व्यापार करने आया है… “ एक ने कहा और बाकी सरदार सहित उसके सारे साथी ठहाका मार कर हसने लगे ।

“देख भाई खोजी या अन्वेषक या व्यापारी या जो कोई भी है तू । अब झूठ बोलने से कोई फ़ायदा नही ।“ सरदार ने कहा “अब तो तुझे बताना ही होगा हमारा खजाना कहां है । हम तो सीधे सादे डाकू थे । तू हमारे पास आया । एक महीना हमारे साथ रहा । हमे बोला कि इस जंगल मे खजाना है । हमे ढूंढ़ कर देगा । हम मान गये । तूने शर्त रखी उसमे आधा हिस्सा तेरा होगा । हम यह भी मन गये । हमने एक महिना तक तेरी आव-भगत की । तूने जो कुछ मांगा हमने दिया । अब वह हमे कुछ भी खबर देने के बजाय तु भेस बदलकर घूम रहा है । इसका मतलब खजाना तुझे मिल गया है और तू हमे हमारा हिस्सा नही देना चाहता ।“

“लेकिन सरदार मै वह नही हूं; बल्कि यहां से दूर उल्कानगर देश का सबसे बड़ा व्यापारी हूं । और यह कुत्ता मैने उसी बूढ़े व्यक्ति से खरीदा है” फ़िर व्यापारी ने सारी कहानी उन डाकुओ को कह सुनाई । और साथ मे यह प्रस्ताव भी रखा कि उस बूढ़े का अधूरा छोड़ा गया काम वह पूरा कर देगा, और वो भी उससे आधे मे; यानी खजाने का चौथाई हिस्सा लेकर ।

अब वे डाकू बड़े असमंजस की स्थिति मे फ़स गये । उन्हे समझ नही आरहा था कि उसे सच माने या न माने । अब उनमे बहस होने लगी । कुछ डाकुओ का यह भी कहना रहा कि इस पर एक बार विश्वास करने मे कोई नुकसान भी नही । अगर यह अपना काम पूरा कर देता है तो फ़ायदा ही है, अगर नही कर सका तो सज़ा दी जाये ।

आखिर सरदार बोला “ऐ व्यक्ति तू जो कोई भी है; हम लोग अब तक इस बात पर एकमत नही हो सके हैं कि तू वही धोखेबाज़ व्यक्ति है या व्यापारी जैसा कि तू बता रहा है । लेकिन तेरा प्रस्ताव आकर्षक है और हम तुझे एक अवसर देने पर सहमत हैं । लेकिन इस देश मे जिस प्रकार हमारी धाक है, हम धोखा खाकर भी अगर दंड नही देते तो इससे हमारी साख पर बट्टा लगता है । अब तू यह बता कि इस स्थिति मे हम तेरी बात पर क्यों और किस प्रकार विश्वास करें ?”

व्यापारी बोला “हे सरदार ! विश्वास तो मन से आता है और यह मन मे ही उत्पन्न होता है । आप बतायें आपका मन क्या कहता है ?”

सरदार बोला “मन मे तो विश्वास उत्पन्न हो चुका है, किन्तु दूध का जला तो छांछ भी फ़ूंक-फ़ूंक कर पीता है ।“

“आपका कहना बिल्कुल उचित है, सरदार । आप एक बुद्धिमान सरदार जान पड़ते हैं । और क्यों न हो इतना बड़ा गिरोह चलाना और पूरे देश मे अपनी धाक जमाना यह किसी साधारण व्यक्ति का काम तो नही हो सकता ।“ व्यापारी ने कहा । उसने अपनी सहज व्यापारी बुद्धि का इस्तेमाल किया था । वह जानता था प्रशंसा से बड़ा कोई हथियार नही है क्योंकि प्रशंसा तो दुश्मन के हथियार को भी बोथरा कर देती है ।

“बुद्धिमान व्यक्ति तो आप भी हैं वर्ना डाकूराज वितण्ड के मन मे विश्वास उत्पन्न करना तो पत्थर पर फ़ूल उगाने जैसा है ।“ सरदार ने भी उसी शैली मे जवाब दिया तो व्यापारी के मन मे भी आशा जाग उठी । लेकिन सरदार ने आगे कहा “… तुम मुझे यह बताओ कि मै विश्वास क्यों करूं ?”

“मन से बड़ी अदालत दुनिया मे दूसरी नही है; यदि आपका मन विवेकशील है । आप पहले तो यह देखिये कि आपके अंदर नीर-क्षीर विवेक है ? अगर आपका मन विवेकशील है तो अपने मन का कहा मानिये ।“ व्यापारी ने सोचा कि अपने मन को कौन अविवेकशील समझता है । अत: यह तीर तो निशाने पर लगा ही समझो ।

लेकिन सरदार ने आशंका जताई- “इससे पहले भी मैने अपने मन पर विश्वास किया था; लेकिन बदले मे क्या मिला छल ? धोखा ?”

“इसमे आपके मन का कोई दोष नही है ऐ बुद्धिमान सरदार ! क्योंकि जहां योजना के विफ़ल होने मे हमारी कार्यनीति का दोष और साथ ही आकस्मिक संयोग का भी हाथ होता है । वहीं धोखा खाना हमारी सतर्कता की चूक होती है । तो सरदार, इसमे दोष आपके मन का नही है ।“ व्यापारी ने कहा ।

“वाह ! वाह !! क्या बात कही है मेरे बुद्धिमान मित्र । तुमने मेरे मन पर से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया । अब मै निश्चित ही खजाना ढ़ूंढ़ने का तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकर करता हूं । और तुम जैसा विद्वान व्यक्ति कभी विफ़ल नही हो सकता ऐसी आशा करता हूं ।“ सरदार ने खड़े होकर कहा ।

इससे व्यापारी की जान मे जान आई । अब उसे इस खतरे से बच निकलने का विश्वास हो गया था । वह बोला- “निस्संदेह, किसी एक परिस्थिति मे दो बुद्धिमान लोगो का मत हमेशा एक ही होता है ।“

“निस्संदेह ! निस्संदेह !” सरदार ने सहमति देते हुये कहा “जिस प्रकार इस समय हमारा मत है कि, आपको अपनी खोज शुरू करने से पहले एक दो दिन विश्राम कर लेना चाहिये; ताकि आप बिल्कुल तरोताज़ा होकर अपना अभियान शुरू कर सकें । तो आज से दो दिन आप हमारे अतिथि हैं । हमारे साथी हमेशा आपकी सेवा मे उपस्थित रहेंगे और आपकी हर आवश्यकता और सुविधा का ध्यान रखा जा सके ।“

एक बार फ़िर व्यापारी को अपनी मुक्ति की आशा क्षीण होती लगी । लेकिन इतनी मुश्किल से डाकू का विश्वास जीता है तो अब उससे असहमति जताना खतरनाक है । लेकिन अब क्या किया जा सकता है । वैसे भी विपत्ती मे धैर्य ही अपना साथी होता है । वैसे भी कहा जाता है कि धैर्य गया तो परिस्थिति पर नियंत्रण गया । तो बुद्धीमानी इसी मे है कि धैर्य के साथ परिस्थिति का सामना किया जाये । ऐसा सोच कर व्यापारी ने सरदार के प्रति सहमति और आभार प्रकट करते हुये उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया ।

क्रमश:…

द्वितीय भाग मे पढ़ें-

… ऐसे मे और बुरा यह हुआ कि हमारा जहाज भयानक रूप से डोलने लगा । अभी हम परिस्थिति का अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहे थे, तभी हमे लगा कि हमारा जहाज यकायक ऊपर की तरफ़ उठता चला जा रहा है । जब तक हम समझ पाते कि क्या हो रहा है हम तेज़ी से नीचे की ओर आने लगे । धुंध और अंधेरे के कारण हमारे हाथ को हाथ नही सूझ रहे थे । हम बस चीख पुकारों से ही एक दूसरे के बारे मे अनुमान लगा पा रहे थे । अचानक हमारा नीचे गिरना रुक गया और लगा हम एक झूले मे सवार है जो बड़े धीरे-धीरे डोल रहे है । अचानक चारों ओर शांति छा गई । शांति क्या उसे सन्नाटा कहना अधिक उचित होगा । हमने स्थिति को समझने के लिये एक दूसरे को आवाज़ देना शुरू किया लेकिन हमारी आवाज़ें एक तेज़ और कान के पर्दे फ़ाड़ देने वाली चिंघाड़ मे दब गई ।

अगले ही पल हमारा सारा का सारा अस्तित्व उस भयंकर चिंघाड़ की चपेट मे था ।

_मिर्ज़ा हफ़ीज़ द्वारा रचित