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छलिया

छलिया

मार्च का दूसरा पखवाड़ा , सुहावना मौसम , सुहानी धूप लेकिन थोड़ी बहुत शीत लहर का भी असर । बसंत -बहार का मौसम ! बसंत प्रकृति के हर कोने को छू लेता है। चहुँ ओर फूल ही फूल। ऐसे मादक मौसम में मनुष्य तो क्या जानवर भी कहाँ अछूते रह सकते हैं भला !

सुरभि पार्क के एक कोने में बैंच पर बैठी कुछ ऐसा ही सोच रही थी।

सामने एक चबूतरा सा बना था, जिस पर कबूतर दाना चुग रहे थे। सुरभि बहुत गौर से देख रही थी कबूतरों के झुण्ड को। वह देख रही थी कि कबूतर अपनी -अपनी प्रेयसी कबूतरियों को रिझाने में व्यस्त है। कबूतर , कबूतरी के आगे अपनी गरदन वाला हिस्सा फुलाकर सज़दा करने के अंदाज़ में सर झुका रहे थे। फिर गोल-गोल घूम रहे थे। और कबूतरियां ! वो मग्न थी दाना चुगने में जैसे उनको अनदेखा कर रही हो या कनखियों से देख रही हो , यह तो सुरभि को क्या मालूम। लेकिन दृश्य सच में ही दर्शनीय था। वह भूल सी गई कि वह यहाँ क्यों बैठी है। तभी एक कबूतरी इठलाती हुई जैसे ठुमक रही हो झुण्ड से अलग दाना चुगने लगी। कबूतर भी पीछे उसे रिझाने के लिए उसके सामने गोल-गोल घूम रहा था। वह यह देख जोर से हंस पड़ी।

उसे अपनी हंसी खुद को ही सुनाई देती सी लगी। सोचने लगी वह भी तो इन कबूतरियों की तरह ही ठगी गई है । आज ये कबूतर , किस तरह से कबूतरियों के आगे -पीछे घूम रहे है। जब मन भर जायेगा तो दूसरी कबूतरी ढूंढ लेगा।

" ये समूची नर जाति ही छलिया है !! मादा हमेशा छली ही गई है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मनुष्य हो या कोई अन्य प्राणी ! प्रवृत्ति तो एक ही होती है। " रोकते -रोकते आँखे छलक ही पड़ी।

" तो फिर सुरभि ! तुम यहाँ क्या कर रही हो। विवेक को वादा याद है या नहीं , पता नहीं , लेकिन वह बदल गया है ! उसने तो विवाह ही कर लिया ! तुम कैसा वादा निभाने आई हो यहाँ। क्या तुम्हें अब भी कोई आस है !"

" हाँ ! मुझे नहीं पता , उसे आज का वादा याद है या नहीं, लेकिन मुझे याद है ! मैं आज तो उसका इंतज़ार करुँगी ही। उसी ने कहा था कि आज वह जरूर मिलने आएगा। "

खुद से ही सवाल -जवाब कर रही थी सुरभि।

विवेक का ख्याल आते ही सुरभि के होठों पर मुस्कुराहट तैर गई। वफादार हो या बेवफ़ा ; लेकिन स्त्री जिससे प्रेम करती है उसका नाम , ख्याल ही उसके मन को महका देता है और वह मुस्कुरा पड़ती है।

विवेक सहपाठी ही था सुरभि का , लेकिन कभी उसने ध्यान ही नहीं दिया कि विवेक नाम का लड़का उसके साथ पढता भी है ! एक दिन कक्षा में हुए वाकये ने उसका ध्यान विवेक की और खींचा। विवेक ने कक्षा के प्रवेश द्वार पर राम लिख दिया और कहा कि जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता वह इस नाम को लाँघ कर दिखा दे।

अब इतनी किसकी हिम्मत थी की जो भगवान के नाम को लांघ देता। कोई कितना भी आधुनिक होने का दिखावा क्यों न करे वह आप में अंतर्मन से तो धार्मिक होता ही है।

" क्या यार विवेक ! यह क्या मज़ाक है ? ऐसे भी कोई करता है क्या ? लक्ष्मण रेखा सी खींच दी तुम ने तो !!"

" क्यों मज़ाक कैसे है ! तुम सब लोग मुझे हर रोज चिढाते हो , छेड़ते हो कि मैं पंडित जी हूँ ! तिलक लगा कर आया हूँ आदि-आदि। हाँ , मैं रोज़ मंदिर जाता हूँ और हूँ मैं धार्मिक !! अगर तुम लोग नहीं हो तो तुम सब जाओ क्या फर्क पड़ता है। "

" अच्छा बाबा , हाथ जोड़ते हैं , माफ़ कर दो ,अब नहीं चिढ़ाएंगे। "

विवेक ने बड़ी श्रद्धा से , घुटने के बल बैठ कर राम के नाम को माथा नवा कर अपने रुमाल से पोँछ दिया और रुमाल अपनी जेब में रख लिया।

सभी छात्र कक्षा से निकल आये। सुरभि कुछ पल रुकी रही और सारे घटनाक्रम पर विचार करने लगी। दरअसल उसका घटनाक्रम पर कम और विवेक पर ध्यान अधिक था। एक सामान्य सा लड़का। किसी भी लड़की के सपनो का राज़कुमार जैसा तो नहीं था।

" लेकिन कोई तो बात है विवेक में , मुझे इतना क्यों आकर्षित कर रहा है ये लड़का !" सुरभि के मन में उतरता जा रहा था वह।

धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। सुरभि का लक्ष्य कॉलेज -लेक्चरर बनने का था। विवेक आई ए एस अधिकारी बनने की धुन लिए हुआ था। वह हर समय किताबों में डूबा रहता था। समय मिलने पर मंदिर चला जाता। अब थोड़ा सा समय सुरभि के लिए भी निकलता था लेकिन ध्यान अपनी किताबों में ही रहता था।

उच्च -मध्यम वर्ग से था विवेक। पिता भी अच्छे पद पर कार्यरत थे। कोई बड़ी जिम्मेदारी उसके सर पर नहीं थी सिवाय पढाई के। हॉस्टल में रहता था। सुरभि उसी शहर की रहती थी।

दोस्ती कब प्रेम में बदल गई सुरभि को पता ही नहीं चला और पता तो विवेक को भी नहीं पता चला था। मोटी , भारी - भारी किताबें पढ़ता - पढ़ता विवेक ना जाने कब प्रेम की बारीक़ सी ,महीन किताब भी पढ़ गया। लेकिन विवेक के सामने अब भी अपना लक्ष्य ही था।

कॉलेज के बाद दोनों अपनी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लग गए। विवेक हॉस्टल छोड़ कर पेइंग-गेस्ट की तरह रहने लगा था। पढ़ाई और मुलाकातें दोनों ही जारी थी।

विवेक ने आई ए एस की परीक्षा भी दे दी। अब परिणाम का इंतज़ार था।उसे शत-प्रतिशत विश्वास था कि वह अपना पेपर क्लीयर कर लेगा। सुरभि को भी बेसब्री से इंतज़ार था। उसके सफल होने पर ही उन दोनों का भविष्य टिका था।

विवेक की आशा , निराशा में बदल गई। वह पास नहीं हुआ। सुरभि ने फोन पर सांत्वना दी लेकिन विवेक अनमना सा ही बोलता रहा। एक सप्ताह बाद उससे मिलने आने को कहा और फोन बंद कर दिया।

अपने वादे के अनुसार वह एक सप्ताह बाद सुरभि के साथ था। बहुत उदास लग रहा था विवेक। सुरभि ने समझाया कि उसकी तरह और भी प्रतिभागी असफल हुए हैं। और भी मौके हैं अभी। उसे फिर से कोशिश करनी चाहिए।

" मेरा चयन हो जाना था ,अगर मैं ज्योतिषी का उपाय कर लेता तो !"

" उपाय ! ज्योतिषी !! वह क्या करते भला ! मेहनत थी तुम्हारी , हो सकता है दूसरों ने तुमसे कुछ अधिक मेहनत कर ली होगी। "

खीझ गई सुरभि।

" तुम इसे मेहनत कहो और मैं इसे किस्मत कहूँगा। मेरी किस्मत दूसरों से कम अच्छी है शायद। "

" ज्योतिषी ने अब भी वही उपाय बताया है। अब मैं उस उपाय को करने में तुम्हारी सहायता चाहूंगा। "

" हाँ बताओ ; मुझे क्या करना होगा !"

" तुम्हें मुझसे दो साल के लिए दूर जाना होगा। मुझसे खत लिखना ,फ़ोन पर बात सब कुछ बंद करना होगा। भूल जाना होगा की कोई विवेक नाम का व्यक्ति तुम्हारी जिंदगी में आया था। "

सुरभि बहुत हैरान थी। आँखे भर आई। यह कैसी शर्त थी।

वह कुछ बोल नहीं पा रही थी कि क्या कहे !!

विवेक कातर नज़रों से देख रहा था और कह रहा था , " सुरभि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता और मेरा लक्ष्य जो कि मेरा जुनून बन चुका है उसे भी नहीं खोना चाहता हूँ । मुझे सिर्फ दो साल का समय दो। दो साल बाद मैं तुमसे यहीं मिलूंगा। चाहे मैं कामयाब होता हूँ या नहीं। मेरी बात का विश्वास करो। "

सुरभि के पास बहुत सारे शब्द थे लेकिन वह अवाक् थी। बस हाँ में गर्दन ही हिला पाई।

विवेक तो चला गया लेकिन सुरभि को लगा कि उसकी देह से किसी ने प्राण ही खींच लिए हो। कुछ दिन तक निष्प्राण सी रही , फिर खुद ही अपने आप को समझाया कि दो साल तो यूँ ही निकल जायेंगे। वह इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती है। विवेक की राह में अड़चन कैसे बन सकती थी वह।

अब वह भी कॉलेज में पढने लगी थी।शादी की बात पर टाल मटोल करती सुरभि ने एक दिन घर पर सभी को सच बता ही दिया कि वह दो साल से पहले और विवेक के अलावा किसी और से शादी नहीं कर सकती।

और अब !!

अब जबकि विवेक ने ही विवाह कर लिया है तो वह घर वालों को क्या जवाब देगी।भरे मन और आँखों से वह बैठी सोच रही थी।

कबूतरों का नृत्य अब भी जारी था। सुरभि को अब ये नृत्य नहीं भा रहा था। उसने अपनी गर्दन दूसरी तरफ घुमा ली। सामने से उसे विवेक और उसके साथ एक युवती आते दिखाई दिए।

यही तो साथ में थी पिछली रात को विवेक के साथ जब वह रेल गाड़ी में थी। यह संयोग ही था की जिस रेलगाड़ी से वह अपने शहर जा रही थी उसी से बीच रास्ते में विवेक भी चढ़ गया था। और उससे भी बड़ा संयोग कि वह उसी के केबिन में आ रहा था। विवेक को अचानक यूँ सामने पा कर सुरभि आश्चर्य चकित हो कर कुछ कहने को हुई थी कि विवेक ने अपने होठों पर ऊँगली रखते हुए उसे चुप रहने का संकेत किया और घूम गया। उसके पीछे एक युवती थी। शायद वह नव विवाहिता थी क्यूंकि हाथों में चूड़ा पहना हुआ था। विवेक बाहर चला गया और वह युवती सामान व्यवस्थित करने में लग गई। थोड़ी देर में विवेक भी आ गया और गाड़ी चल पड़ी।

सुरभि दो साल पहले की तरह फिर अवाक् रह गई। बहुत सारे प्रश्न थे। लेकिन विवेक का उसे यूँ चुप करना समझ नहीं आया। बल्कि उसे यह समझ आ गया कि विवेक अब उसका नहीं रहा। शादी कर ली उसने ।

कितनी खुश थी वह यह जान कर कि विवेक को अपनी मंज़िल मिल गई है अब उसका भी वनवास ख़त्म हुआ। ख़ुशी -ख़ुशी सामान की पैकिंग की और पन्द्रह दिन की छुट्टी की अर्ज़ी दे कर चल पड़ी थी विवेक से मिलने अपने शहर , जहाँ उसका अपना घर भी था।

और अब रुलाई रोकी नहीं जा रही थी। आँसू छुपाते हुए वाशबेसिन की तरफ गई। रो पड़ी लेकिन निःशब्द ! कैसी मज़बूरी थी, जोर से रो भी नहीं सकती थी कि कोई सुनेगा तो क्या कहेगा । दिल था कि फटने को आ रहा था। आँसू मचल रहे थे। लेकिन रो कर कमज़ोर भी दिखना नहीं चाह रही थी।

अपनी सीट पर आकर अपना कम्बल ओढ़ कर सोने का उपक्रम करने लगी। कुछ खाने -पीने की इच्छा ही मर गई। मुह ढांपे वह , बाहर से आने वाली आवाज़ों को अनसुना कर रही थी। वे आवाज़ें विवेक और उस युवती की थी जो धीरे -धीरे बातें करते हुए हंस रहे थे।

रात काफी हो चुकी थी। यात्री लगभग सो चुके थे। सुरभि के सामने वाली सीट पर वह युवती सो रही थी। ऊपर की सीट पर शायद विवेक था।उसने देखने का भी प्रयत्न नहीं किया। रेल के पटरियों पर दौड़ने की खड़खड़ाहट गूंज रही थी। सुरभि को यूँ लगा कि जैसे रेल उसके ऊपर से ही गुजर रही है और वह टुकड़े -टुकड़े बिखर रही है। तभी उसे एक जोड़ी नज़रों की तपिश स्वयं पर महसूस हुई। उसे गर्दन उठा कर ऊपर की तरफ देखा तो विवेक बहुत ही दयनीय और कातर नज़रों से उसे निहार रहा था। सुरभि को रुलाई फूटने को हुई। उसने कम्बल में मुहं ढाँप लिया।

" छलिया !!" छल ही तो किया था विवेक ने उसके साथ। इससे बेहतर और क्या कहती उसे।

सुबह गाड़ी से उतर कर विवेक को पलट कर भी नहीं देखा उसने। घर पहुँच कर फिर उहापोह में फंस गई कि जाये या नहीं। दिल -दिमाग की जंग चेहरे पर साफ नज़र आ रही थी। माँ-बाबूजी , भाई -भाभी सभी ने पूछना चाहा लेकिन उसने इंतज़ार करने के लिए कहा और घर से पार्क के लिए चल पड़ी।

" हैलो भाभी !"

" भाभी !!!" चौंक पड़ी सुरभि। सामने खड़ी युवती मुस्कुरा रही थी। उसे चौंकते देख विवेक और युवती दोनों जोर से हंस पड़े।

सुरभि फिर से चुप ! बोलती बंद जैसे जीभ तालु के चिपकी हो।

" अरे भाभी !! आप ऐसे हैरान हो कर मत देखो मैं विवेक की चचेरी बहन हूँ। एक महीने पहले ही शादी हुई है। विवेक आते हुए मुझे ससुराल से ले आया कि मैं भी साथ चलूँ। संयोग से हम एक साथ एक ही केबिन में थे तो विवेक को मज़ाक सूझ गया। आपकी हालत पर मुझे तरस आ रहा था लेकिन यह बोला की थोड़ा सा सताने में क्या हर्ज़ है। "

सुरभि की मन स्थिति अजीब थी। ख़ुशी भी थी , यकीन भी नहीं कर पा रही थी। रोके हुए आंसू छलक ही उठे।

" विवेक !!! तुम इतने शैतानी दिमाग कब से हो गए। मुझे कितना सताया तुमने। दो साल का वनवास दे कर भी चैन नहीं मिला। तुम क्या जानो मैंने कल रात कैसे गुजारी। सोचो ! अगर मैं आज ना आती तो ,तुम क्या करते !! "

" कैसे नहीं आती तुम !! मुझे मेरे प्रेम पर विश्वास था। "

तीनो चल पड़े। चलते हुए सुरभि ने कबूतरों के झुण्ड को देखा तो अब भी नृत्य जारी ही था। वह सोच के मुस्कुरा पड़ी कि मेरा विवेक तो इन कबूतरों जैसी छलिया तो नहीं है।

उपासना सियाग