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हाँ नहीं तो - 2

निवेदन

‘हाँ नहीं तो’

“अगर आपने मेरी पोल खोली तो सच मानिए हम भी चुप नहीं बैठेंगे”, ‘हाँ नहीं तो|’ निवेदन इस वाक्य के साथ प्रारम्भ करने के पीछे मेरी मंशा सिर्फ इतनी सी है कि इस पुस्तक के शीर्षक का अभिप्राय समझ लिया जाए| जी हाँ, जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से विदित होता है, इसकी रचनाओं की अवधारणा के केंद्र में मूलतः व्यंग ही है| व्यंग के बारे में मेरा मत है कि व्यंग में खरी बात खरे तरीके से ही कही गई हो तभी वह व्यंग है, लाग-लपेट से काम लेने पर वह व्यंग न होकर चाटुकारिता भरा हास्य भर रह जाता है| सामाजिक कुरीतियों को उजागर करते समय किसी जाति, वर्ग, स्थान, समाज, पद या व्यक्ति विशेष को धिक्कारने में ही व्यंग का उज्ज्वल पक्ष अपनी मर्यादा का पालन कर पाता है, परंतु जब उसी तरह से दूसरे पक्ष को जरा भी ढिलाइ से पेश किया जाए तो व्यंग अपना मूल चरित्र खो देता है| व्यंग दरअसल हास्य का ज्येष्ठ भ्राता ही है| इसके माने यह बिलकुल भी नहीं है कि हास्य रस की कविताओं में व्यंग होगा ही, हाँ व्यंग की कविता आपके होठों पर स्मित अवश्य ही बिखेर सकती है| श्रेष्ठ व्यंग वही है जो नीट व्हिस्की की तरह किक मारे और लंबे समय तक आपको नशे में बनाए रखे| व्यंग में व्यंजना का प्रयोग बहुतायत से होता है| व्यंजना के माने है किसी खास जाति, वर्ग, स्थान, समाज, पद या व्यक्ति का सीधे-सीधे नाम न लिया जाये पर पाठक उस जाति, वर्ग, स्थान, समाज, पद या व्यक्ति को, कविता पढ़ते ही पहचान जाए| उदाहरण के लिए इसी पुस्तक की एक व्यंगिका है-

“डाकू होते थे

ऐसा सुना है|

प्रत्यक्ष देख रहा हूँ,

जब से उन्हें चुना है|”

आप समझ रहे होंगे कि मैंने इसमें कहीं भी किसी का नाम नहीं लिया है, परंतु आप कविता पढ़ते ही जान गए होंगे कि मैं राजनेताओं बारे में बात कर रहा हूँ| और यही व्यंजना रूपी नीट व्हिस्की है जो पाठक के सिर चढ़ कर बोलती है|

प्रस्तुत पुस्तक में ऐसा नहीं है कि सारी की सारी कवितायें व्यंग की हैं, कहीं कहीं मैंने अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप शब्दों के साथ प्रयोग किए हैं और आशान्वित हूँ, पाठकों को यह प्रयोग भी पसंद आएंगे| इतना खुलासा और करता चलूँ कि कुछ कवितायें समसामयिक होने से वे पाठक को अन्यथा महसूस हो सकती हैं, परंतु समसामयिक कविताओं से बचा भी तो नहीं जा सकता है, अर्थात कविता की रचना करते समय उस समय जो कुरीति बहुतायत में फैली हो कवि की कलम उससे परहेज भी नहीं कर पाती है|

पुस्तक सुधी पाठकों के हाथों में है, और उन्हीं के हाथों में है इसकी विवेचना और व्यंजना| कितना और कहाँ सफल हुआ चाहे पाठकवृंद न बताएं परंतु मेरी असफलताओं पर उंगली अवश्य रखें जिससे उनको भविष्य में दूर कर सकूँ|

छत्र पाल वर्मा

24 - सत्यनारायन की कथा

कथावाचक पंडित की पूजा विधि से,

तंग आकर,

तिलमिलाकर |

दस यजमान

भाग गए,

‘कुल मिलाकर ||’

यह कहते हुये,

कि,

हम तो चले |जिससे बाद में

यह न कहना पड़े,कि,

‘होम करते हाथ जले ||’

क्योंकि,पंडित कभी कहता था,‘आग में,

घी डालें|’तो कभी

कि

‘पानी सिर के ऊपर’

फिरालें ||

फिर पंडित कहता,

जो भी आपके हाथ है,

उसे अग्नि कुंड में

झोंक कर, स्वाहा करेंगे |

जिससे,

अग्निदेव प्रसन्न होकर,

आपका हर वह काम,

पूर्ण करेंगे,

जिसे आप चाहा करेंगे ||

और जब पंडित ने,

विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ

करने को कहा तो

यजमानों को,

कड़ी दुविधा हुई |

आंग्ल भाषा प्रेमी यजमानों को,

संस्कृतनिष्ठ श्लोकों को,

पढ़ने में,

बड़ी असुविधा हुई ||

हद तो जब हो गई,

जब पंडित कहने लगा,

अब आप

‘सुपारी लीजिये,’ और

‘धूप’ जलाइये |’

अंत में तो यहाँ तक

कह दिया

कि, अब आप

तिल-मिलाइये ||

25बेतुकेजब वे अपना बयान दे चुके| तो वकील के यह पूंछने परकि आप उस रात मकतूला के घर,थे रुके?न्यायाधीश महोदय मुस्कुराए,फिर थोड़ा, मुलजिम की ओर झुके|

और वकील की तरफ आँखें तरेरीं,आप भी क्या सवाल करते हैं बेतुके?

26 - कीटनाशक दवा इंसान कितना छली हो गया है,कि कीटों को भी नहीं बख़्शता |

कीड़ों के नाश का इंतजाम,अर्थात जहरीले रसायनों को बनाने और उनको उपयोग करने में प्राप्त कर ली है दक्षता|

और इस दक्षता का यह आलम है किकीड़ों को,लगने भी नहीं देता हवा|

और कीट ना शक करें,इस लिए कहता है,जहरीले रसायनों को,कीटनाशक दवा|

27 - हेमा सबको पता है जिंदगी भर, वे हेमा पर मरते रहे|पर हेमा को न पा सके,क्योंकि मूलभूतभूल करते रहे|और वह यह कि,प्यार करते समय भी,वे हे माँ हे माँ करते रहे|

28 - किस मूँ से आजकल इंसान वैसे ही घबराया हुआ है, दुनियावी हाव-हू से|

अमानवी कृत्यों से,लहू रिस रहा है,इंसानी रू से|

रसातल की ओर बढ़ती धरा को, और भी धक्का देने की जरूरत ही कहाँ रह गई है, प्यास बुझा कर ,इंसानी ख़ूँ से?

अरे नादानो!ख़ुदा का न सही,ख़ुद का ख़याल तो करो,वरना, उसकी अदालत में,अपना पक्ष रखोगे,किस मूँ से?

29 - देहली

दो-चार कदम ही

रह गई थी,

मेरे घर की देहली|

टी वी से आवाज आई,

आतंकी हमले से

दहली देहली|

ऊब कर

संस्कार चैनल बदला,

बाबा कह रहे थे,

छोड़ना पड़ेगी,

जिसने भी देह ली||

नेति-नेति नेता

30 -बुनियाद

भारत की तो बुनियाद ही,

प्रजातांत्रिक है|

देख लीजिये,

इसे चलाते भी

योगी यती और तांत्रिक हैं|

निचले पायदान पर कोई

कितना भी कर्मठ हो,

ऊपरी पायदान पर

पहुँचते ही ,

हो जाता यांत्रिक है|

31-खिल्ली

मतदाता की दुविधा!

किसी को भी “मत” दो!

वही,

पहुँच कर दिल्ली|

समझने लगता है,

अपनेआप को शेखचिल्ली|

मतदाता उसे चूहे,

नज़र आने लगते हैं,

और वह बन बैठता है

खिसियानी बिल्ली|

फिर पाँच साल तक,

चूहे-बिल्ली का खेल

चलता रहता है,

बिल्ली के लॉकर्स में

जुड़ने लगतीं हैं,

सोने-चांदी की सिल्ली|

और जब तक अंतिम,

न ठुक जाए,

बिल्ली ठोकती रहती है,

देश के ताबूत में किल्ली|

लगातार पाँच साल तक,

धता बता कर,

बिल्ली उड़ाती रहती है,

प्रजातन्त्र की खिल्ली|

मतदाता की सुविधा!

किसी को भी “मत” दो!!

32 -पटरी पर

जिसे भी

देश की अर्थव्यवस्था का

थोड़ा सा भी पता है,

उसे पता है,

कि कुछ ही दिनों में

देश,

बैठ जाएगा गठरी पर|

कुछ दिन और ऐसा ही चला,

तो शायद ठठरी पर|

पर सरकारें

फुसलाती रहती हैं,

यह कह कर

कि,

देश की अर्थव्यवस्था,

जल्द ही

लौटेगी पटरी पर||

33- शिखंडी

सरकार के हर अच्छे-बुरे

कार्य पर,

विपक्ष की टीका-टिप्पणी से,

हर सरकार को,

विपक्ष,

लगने लगता है पाखंडी|

इसलिए ऐसे हालात से

निपटने के लिए,

हर बार वह

सामने कर देती है,

एक शिखंडी|

सरकारें बदलती रहती हैं,

पाखंडी सरकार बन बैठता है,

और सरकार पाखंडी|

नहीं बदलते हैं तो,

सिर्फ शिखंडी||

34 - संक्षेप में

ये हों, वो हों या वो हों,

बस यही

सनातन सत्य है संक्षेप में|

कि प्रत्यक्ष हो या परोक्ष में ,

निरपेक्ष हो या सापेक्ष में|

सच्चा विपक्ष वही है

जिसे परम सुख की

प्राप्ति होती हो

सरकार पर लगाए गए

हर आक्षेप में|

और यदि संभव हो तो,

सरकार के विक्षेप में|

इसका एक

नमूना भी देखते चलें,

कोई दम ही नहीं था,

विपक्ष के लगाए आक्षेप में|

पर बात कही गई

सरकार के परिपेक्ष में|

कि जो भी बिलंब हुआ

पृथ्वी मिसाइल के प्रक्षेप में

उसकी जड़ें है,

सरकार के अंदरूनी हस्तक्षेप में|

बाद में थूक कर चाटने की,

नौबत तक आ गई,

और विपक्ष ने भलाई समझी,

आक्षेप के पटाक्षेप में||

35 - तशवीरें बोलती हैं

विपक्ष जानता है कि,

तशवीरें बोलती हैं|

गहरे भेद खोलती हैं|

तशवीरों को बोलने से पहले,

तोलने की आदत नहीं होती,

इसलिए सरकारें डोलती हैं|

विपक्ष जनता के सामने,

सरकार की,

ऐसी तशवीर पेश करता है|

कि सरकार में सामिल हर शख़्स,

जनता की गढ़ी कमाई के,

पैसे से एश करता है|

यदि बिल्ली के भाग्य से,

छींका टूट जाए|

सरकार के हाथ से,

राजसत्ता छूट जाये|

विपक्ष सरकार बन बैठे,

तो सरकार बन बैठा विपक्ष,

तशवीर पेश करता है|

कि विपक्ष की मंशा,

कुर्सी पाने की है,

इसलिए,

बेवजह ही क्लेश करता है||

36 - डाकू

डाकू होते थे,

ऐसा सुना है|

प्रत्यक्ष देख रहा हूँ,

जब से उन्हें चुना है|

डाकुओं के तो फिर भी,

कुछ उसूल होते थे,

पर चुने गए डाकुओं से,

खतरा कई गुना है|

रंग बदलने में ये,

गिरगिट के ताऊ हैं|

आँखें फेरने में,

कबूतराऊ है|

मेरा अनुमान है

कि,

जिस जिस ने इन्हें चुना है|

उस उस के इर्दगिर्द ही,

इन्होने

अपना जाल बुना है|

और यह भी,

कि

हर उस ने ही,

अपना सिर धुना है|

जिसने इन्हें चुना है||

37-डुगडुगी

सरकारें मदारी ही तो होतीं हैं,

जो अपने हर किए या

वाई द वे हो गए,

अच्छे कामों को बढ़ा-चढ़ा कर,

दिखाने के लिये डुगडुगी बजाती हैं |

जब भी नई सरकार आती है,

मदारी की तरह डुगडुगी बजाती है|

पहले तो जनता को गुदगुदाती है,

और जब जनता बुदबुदाती है,

तो सरकार सुगबुगाती है|

साथ ही उसकी धुकधुकी बढ़ जाती है|

जनता तमाशाइयों की तरह सोचती है,

मदारी अब लड़की को काट कर,

फिर से जिंदा कर के दिखलाएगा|

आप को खुद ही अच्छा लगता है,

बने रहना काठ का उल्लू,

इसलिए मदारी कोई भी हो,

आपको तो बस वही दिखेगा,

जो आपको वशीकृत कर,

मदारी दिखलायेगा||

38-सनद

आप उन्हें सनकी कहें,

या फिर समझें झक्की|

उनकी सेहत पर,

कोई फर्क नहीं पड़ता,

बात की तह तक जाने के लिए,

वे तफ़तीश करवाते हैं पक्की|

इकहत्तर के,

भारत पाक युद्ध में,

कई भारतीय शहीद काम आए|

उन्होने सरकार को सलाह दी,

कि केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो से,

जांच करवाएँ|

ताकि सनद रहे,

वक्त पर काम आए|

39-खोल

विपक्ष में,

विपक्षियों का नहीं,

असंतुष्टों का होता है रोल|

तथाकथित वर्तमान विपक्ष

जो कभी,

पक्ष हुआ करता था,

पीट-पीट कर ढ़ोल,

खोलता रहता है,

सरकार की हर वह पोल|

जो कभी हुआ करती थी,

उनका अपना गोल|

ताकि,

खुद उनकी की करतूतों पर,

चढ़ा रहे खोल|

इस तरह खिसियानी बिल्ली,

नोचती रहती है खम्भा,

और वर्तमान पक्ष घूमता रहता है,

उस खम्भे के इर्दगिर्द,

गोल-गोल|

40 -विपक्ष

इंसान अब

विपक्ष की तरह,

होने लगा है|

अधिक पानी बरसे तब भी,

न बरसे तब भी,

कुदरत को रोने लगा है|

पृकृति को खुद ही छेड़ रहा है,

और पृकृति को,

अपराधी ठहराने के लिए,

खुद ही मुंशिफ होने लगा है||

41 - देव-देव आलसी...

हमारा प्यारा भारत,

था सोने की चिड़िया,

यहाँ दूध दही की

नदियां बहती थीं|

यह सिर्फ

पाठ्यपुस्तकों की बात नहीं,

मेरी स्वर्गीया दादी भी कहती थीं|

विदेशी आक्रांताओं ने इसे,

बार-बार लूटा|

पर देश के सपूतों के बूते,

यह मजबूती से खड़ा रहा,

नहीं टूटा|

पर अब तो जयचंद ही,

इसे लूटने लगे|

इसलिए इसके किनारे,

टूटने लगे|

कलमाड़ी, राजा, जगन,

तो कुछ नाम भर हैं,

जो करते हैं इशारा,

जिंदगी फिर न मिलेगी दुबारा|

इसलिए,

लूट लो इसे,

वरना यह कहते हुये,

पछताना पड़ेगा कि,

देव-देव आलसी पुकारा||

42 - दिहाड़ी

यह मजदूर ही तो है,

जो कूबत रखता है,

कि वह समतल कर दे पहाड़ी|

पर हाय री किस्मत,

रोज कुंवा खोदता है,

रोज पानी पीता है दिहाड़ी|

परंतु जब उससे,

यह भी छिनने लगता है,

तो वह,

बनने लगता है तिहाड़ी||

43 - साँप-छछूंदर

पेट्रोल बन चुका है,

सरकारों के गले की हड्डी|

सरकार दाम बढ़ाए तो,

विपक्ष गाँठने लगता है चड्डी|

और यदि न बढ़ाए तो,

मिलना बंद हो जाती है गड्डी|

यहाँ तक कि जनता,

सरकार को कह उठती है,

फिसड्डी|

इस मोर्चे पर सरकार की,

हालत हो जाती है,

साँप छछूंदर सी|

पर सरकार क्या,

कच्ची गोलियां खा कर,

सरकार बनती हैं,

सरकार भी

जनता की तरफ,

आँखें फेर लेती है,

कबूतर सी||

44 - घोटाले

जो,

टाले जा सकते थे,

टाले न गए|

क्योंकि सरकार को,

सरकार भी तो बने रहना होता है,

इसलिए, समय रहते,

सम्हाले न गए|

सरकार को सब दीखता है,

क्योंकि सरकार की,

कई-कई ऑंखें होती हैं,

लेकिन बने रहने की चाह में,

सरकार की आँखों के,

जाले न गए||

45 – भौंपू

चुनाव का मौसम आते ही,

बजने लगते हैं,

दिन रात भौंपू|

और मत दाताओं को,

इतना तंग करते हैं कि,

वह मति-भ्रम में पड़ जाता है,

कि,

किसको मत सौंपूं?

और किसको न सौंपूं?

46 - मतवाला

मौसम आते ही चुनाव का,

मतदाता हो उठे मवाली|

घूरे के भी दिन फिरते हैं,

मतदाता गाते कव्वाली|

नेताजी मंगते से दिखते,

चेहरे पर लेकर कंगाली|

मतदाता दाता सा झूमे,

नेतागण बन गए सवाली|

पहुँच सके न तह तक नेता,

भरसक सारी वजह खंगाली|

मतवाला यदि समझ न पाये,

उसको समझाती घरवाली|

ऐसे तो आते ही रहते,

इस मौसम में करें जुगाली|

देना वोट उसी को प्रीतम,

जो मनवाए हमें दिवाली|

न जाने, भोला मतवाला,

नेता चले कौन सी चाला|

एक बार मत दे मतवाला,

फिर कर ले मन आए सवाला|

ऐसी मार पड़ेगी उसपर,

दर्द न उससे जाए संभाला|

तेरे पास रखा ही क्या है,

बहुत हो चुके नखरे नाला|

जिस को भी तू,

मत डालेगा,

वो ही बुरा करेगा हाला||

47 - खड़े हाथ

चुनाव में जिता कर जनता ने

उनके हाथ मजबूत

और इतने बड़े कर दिये|

कि,

उन्होने घोषणा पत्र में

किए हुये सारे वायदे

भुला कर,

हाथ खड़े कर दिये||

48 - जम्हूरा

बेटा जम्हूरा!

जी उस्ताद!

जनता को सलाम करेगा?

उस्ताद करूँगा|

झोली फैलाकर नोट मांगेगा?

जी उस्ताद मांगूंगा|

तो बेटा पहले करामात दिखा,

दिखाऊँगा,

उस्ताद जरूर दिखाऊंगा|

जम्हूरे!

जी उस्ताद!

अब मुझे भरोसा हो गया,

तू एक

अच्छा नेता बन सकता है|

उस्ताद बनूंगा|

आज नोट मांगता हूँ,

फिर वोट मांगूंगा|

आज खुद नाचता हूँ,

फिर

असली जम्हूरापन

दिखाऊँगा|

और सारी जम्हूरियत को

नचाऊँगा||

49 – भाड़ा

रेल मंत्री ने बढा़ दिया,

रेल का भाड़ा|

इस बात पर सदन में,

हो रहा था राड़ा|

विपक्षी बोला,

भाड़ में जाय भाड़ा|

मुझे तो एक और

मौका मिल गया,

नहीं चलने देने,

संसद का गाड़ा|

एक मंत्री ने

विपक्षी के कान में फूँका,

भाड़ मिट्टी का भांड़ा होता है,

फिर भी फोड़ नहीं पाता है,

अकेला चना |

भाड़ फूटे न फूटे,

पर मैं,

कैसे छोड़ दूँ

अपना संवैधानिक हक,

करने का

असंवैधानिक आलोचना||

50 - पक्ष-विपक्ष

सत्ता पक्ष व विपक्ष की,

तो सीधी सी परिभाषा है|

अपनी-अपनी परिपाटी और

अपनी-अपनी भाषा है|

बिना हारे खेल खेल जाये,

सत्ता पक्ष कहाता है|

जो बिना खेले ही हार जाए,

उसका विपक्ष से नाता है|

सत्ता पक्ष ताक-ताक कर,

फेकता है हर गेंद|

विपक्ष रहता इस ताक में,

कि कब लगाए सेंध||

51 - गठबंधन

गठबंधन सरकार की,

समस्यायों का,

न ओर होता है

न छोर होता है|

क्योंकि उसका तो

आधार ही,

गांठ लगी डोर होता है||

52 - उत्तराधिकारी

देश के उत्तर, यानि कि,

राजधानी में,

जमे बैठे

जो अधिकारी हैं|

अपने उत्तरदायित्व से विमुख,

किसी भी बात का उत्तर,

न देने की कसम खाए,

दुर्भाग्यवश,

देश के

भावी उत्तराधिकारी हैं||

53 - पैसा खाना

किसी को नहीं पता,

कि वे खाना

निरामिष या आमिष,

कैसा खाते हैं?

पर यह सब को पता है,

कि वे,

पैसा खाते हैं||

54 - झोला छाप

एक बड़े नेता ही एक दिन

खोल रहे थे पोल|

तीन जात के नेता मिलते,

छोटे, बड़े, मझोल|

छोटा वो जो सड़कें नापे,

बड़ा सदन बिराजे|

और मझोला झोला-छाप,

काँधे झोला साजे||

55 - हरण

रावण ने,

सीता माता का हरण कर,

दिया था लम्पटता का

उदहारण भर|

धूर्तता में कौरव तो,

उससे भी आगे निकल गए,

द्रौपदी के चीर हरण पर|

लक्ष्मीजी भी तो स्त्री हैं,

फिर इतना हो हल्ला क्यों,

नेताओं द्वारा,

उनके आहरण पर?

56 - आदर्शवाद

भारतीय आज भी करते हैं,

पालन,

परंपरागत आदर्शवाद का|

इसका पुख्ता उदहारण है,

घोटाला,

आदर्श आवास का||

57 - तोबा-तोबा

पल में माशा पल में तोला,

छंद कभी, कभी छप्पय रोला|

गिरगिट जैसा रंग बदलता,

बहुरूपियों सा बदले चोला|

छोटा लंबा कैसा भी हो,

ज्यादातर का कद्द मझोला|

सुरा सुन्दरी इनकी चाहत,

या तो शबनम या फिर शोला|

नीति, धरम से कोसों दूरी,

गटके धन बन जाये भोला|

हार कभी न माने अपनी,

चाहे पड़े बदलना टोला|

ये तो जो हैं सो होने दें,

घर इनके पल रहे सपोला|

हो सकतीं कुछ और खासियतें,

मेरी तोबा जो और मैं बोला||

58 - बेगार

सेवानिवृत राजा भैया,

ने,

ऎसी तरकीब निकाली|

कि सांप मरे लाठी न टूटे,

एक हाथ से बज जाये ताली|

राजनीति में पैर जमाये,

कि,

कुछ दिन भी

यदि सरकार चली|

तो हो जायेंगे बारे-न्यारे,

नहीं तो,

बैठे से बेगार भली||

59 - लकड़ी

हर वर्ष भीषण शीत लहर से,

गरीब,

भेड़-बकरियों की तरह,

मरते रहे|

और सेठ दीनदयाल,

लकड़ियाँ इकठ्ठी करते रहे|

‘आजीवन’,

यही क्रम चलता रहा|

सेठजी का, लकड़ियों का,

व्यापार फूलता-फलता रहा|

सेठजी जब मरे,

टिकटी सजाने को न बचा था,

गरीब कोई|

जो बचे,

सबके सब धनाड्य थे,

न आया

करीब कोई|

सेठजी का शव,

पड़े-पड़े गल गया|

लकड़ियाँ तो न मिलीं,

पश्चाताप से ही जल गया|

मंत्रीजी आये, शोक जताया,

सारी लकड़ियाँ बंधवा लीं,

यह सोच कर|

कहीं ऐसा न हो, कि मुझे भी,

लकड़ी ही न मिले,

मेरी मौत पर|

अब इन सेठों और मंत्रियों को,

कौन समझाए?

कि इंसान ही सब कुछ है,

लकड़ी-बकड़ी सब गौड़ है|

लकड़ी, लड़की,

गुंडी-घुंडी के पीछे,

बेकार अंधी दौड़ है||

60 - शोक सभा

शोक सभा में गाय की, हुए इकठ्ठे ढोर,

आँसू लख गौ नयन में, लगे मचाने शोर|

लगे मचाने शोर, पूछ डाला सूअर ने,

बहिन बताओ दुःख, पहुंचाया किस सूअर ने?

हम बस थोड़े से भी थोड़े, जंगली हो जाएँ,

याद दिला दें नानी उनको, जो हमसे टकराएँ|

फफक-फफक कर लगी जताने, अब क्या होय हमारा?

नेता नाम का प्राणी जग में, खा गया मेरा चारा|

झट से पलटा निकला बाहर, घर भागा वाराही,

चिंता हुई कहीं खा ले न, नेता उसका चारा ही|

ले जाएँ हम इस मसले को, दिल्ली लोक सभा में,

पारित हुआ प्रस्ताव, गाय की शोक सभा में||

61 – तपाक से

कभी मिले हो उनसे

सौभाग से?

मिलोगे तो रह जाओगे

अवाक से|

क्या?

पहचानोगे कैसे?

अरे वे तो शक्ल से ही

दिखते हैं घाघ से|

नजदीक पहुँचते ही

उनके तन से

इतनी बास आएगी

मज़लूमों के लहू की,

उनकी आहों की,

कि लगेगा जैसे उन्होने

नहाया न हो माघ से|

अब भी न पहचान पाओ तो

ध्यान से सुनना, समझना

वे क्या बोलते हैं

उन्हें भी पता नहीं होता,

बस बोल देते है बेवाक से|

कारण कि वे मुंह से नहीं,

बोलते हैं सड़ियल दिमाग से|

और गौर से सुनोगे

तो लगेगा

जैसे आवाज

आ रही हो ढाक से|

कपड़े भी पहने होंगे उन्होने

साफ पाक से|

पर उनके शरीर पर

लगेंगे बेढंगे और चाक से|

और नज़र ऐसी कि

मुक़ाबला करे काक से|

आप को देखते ही वे

भाँप लेंगे कि,

आप उनके काम के आदमी हैं

या हैं कोई फालतू उठाईगीरे,

उनके पैरों की खाक से|

यदि आप उनके काम के

न हुये तो वे,

आँखें झपकाएंगे

झप झप झपाक से|

और यदि आप

उन्हें काम के आदमी लगे

तो,

आप से मिलेंगे तपाक से|

अब तो आप

जान ही गए होंगे

कि मैं किस प्राणी की

बात कर रहा हूँ,

क्या कहा नहीं,

अरे राम!

इतनी देर से मैं भी

बेकार माथापच्ची कर रहा था,

कैसे चरबाक से||

62 - जातिवाद

साँप जब कैसे भी

सपेरे के

चंगुल में न फंसा|

सपेरे ने और,

बड़े बड़े मंत्र फूंके,

अनोखे गुर आजमाकर,

शिकंजा कसा|

फिर भी साँप अकड़ा,

ये मुंह और मसूर की दाल,

छछूंदर के सिर में

चमेली का तेल,

वीरू से टक्कर,

नेताजी मुझसे ज्यादा

जहरीले बनने चले थे?

कहते हुये साँप,

हिकारत से,

ज़ोर ज़ोर से हंसा|

लाढ भरे गुस्से से सपेरे ने

यह कह कर कि

‘तेरे

बहुत दाँत निकलने लगे हैं’,

तोड़ने पड़ेंगे,

ताना कसा|

साथ ही डांटते हुए कहा

‘आस्तीन के, नाशुकरे,

तूने डसा भी तो

अपनी ही

जाति वाले को डसा|’

और यह भी कि,

‘बेटा किस्मत थी,

जो बच गया|

जिसको तूने डसा,

वह था नया-नया|

नहीं तो पता चलता

कि तू मर गया|

मज़लूमों की

असंख्य बददुआयें भी,

जिस नेता को न मार सकीं,

तेरे काटने से,

चल बसा||’

63 - सांप-सपेरा

लिए हाथ में बीन सपेरे,

डट गए डाली-डाली|

साँपों ने भी पात-पात पर,

ली दूरबीन सम्हाली|

नेवलों से भी मिली मदद,

पर वे सिर्फ

साबित हुए तमाशबीन|

आस्तीन के साँपों पर,

मोरों ने दिया आश्वासन,

कि करवाएंगे छानबीन|

सांप मरा न लाठी टूटी,

कोई मंतर चला न पाये|

रहे पीटते लीक सपेरे,

लौट के बुद्धू घर को आये||

64 - हुनर

ताल की जगह वे,

सुर सीखने लगे|

इतने तेज़ रफ्तार हैं,

कि हुनर की जगह,

गुर सीखने लगे||

65 - फालतू

अरे ये तो, अपने नेताजी हैं!

उनसे डरता है,

और करता है सवाल तू|

न उनसे डर,

और न ही कर

मलाल तू|

हाँ जितना

इनसे बच कर रहेगा

उतना ही अच्छा है

क्योंकि नहीं जानता

इनका जाहो-जलाल तू|

फिर भी यदि उनके

काले कारनामों की

याद आ जाए

और तूँ डर जाए

तो पाठ शुरू कर,

जल तू, जलाल तू,

आई बला को टाल तू|

तू तो बस मस्त रह

यह समझ कर,

कि यह तो है,

कोई जानवर पालतू,

घूम रहा है फालतू|

66 – सिरमौर

यदि आप मेरी बात पर

करेंगे गौर|

तो याद आयेगा आपको,

वो राजाशाही दौर|

जब राजा अपना

पुनीत कर्तव्य समझता था,

देना प्रजा के मुंह में कौर|

प्रजा की रक्षा का दायित्व

भी उसीका था,

यहाँ तक कि मुहैया कराना

जन जन को ठौर|

अब जरा गौर करें उन पर

जो आज-कल हैं

हमारे सिरमौर|

आप दांतों तले उंगली दबा लेंगे

जो देख पाएंगे उनकी करतूतें,

उनकी तन-धन लिप्सा,

उनके तरीके, उनके तौर|

उनका पेट सुरसा का मुंह है,

कितना भी खाएं

बिना डकार लिए

क्षण भर में पच जाता है

मांगता ही रहता है,

और, और, और|

वे यह भी जानते हैं कि

अपना, अपने बीबी बच्चों का

सगे संबंधियों और चमचाओं का

पेट भरता रहे और भरता रहे

स्विश बेंकों का लॉकर

इसके लिए जरूरी है उनके सिर

सज़ा रहे सत्ता का मौर|

और तो और|

वे तो अमल करते हैं

बुजुर्गों के कहे पर कि,

तेते पाँव पसारिए,

जेते लांबी सौर||

67 - जनप्रतिनिधि

जो,

जनता से प्राप्त

निधि को,

खा-पचा जाता है|

वही सच्चा,

जनप्रतिनिधि कहाता है||

68 – हवाले - हवाला

चिर नींद में जाने से पहले,

दे गए थे वे हवाला|

साथियो हम सभी तो रहे हैं,

हम प्याला, हम निवाला|

हवाला के जरिये ही सही,

कमाई कीजिए लाला|

देश चूँसो आम सा,

जब तलक इसके,

न निकल जाएँ दीवाला|

जेल की हवा भी,

अगर खाना पड़ जाये

तो भी फिकर नॉट,

विदेशी बैंकों में धरना,

धन साथियो|

अब तुम्हारे हवाले,

वतन साथियो||

69 - दुविधा

‘राजनीति’

एक ऎसी विधा का है नाम|

जिसमें दुविधा कम,

सुविधाएँ हैं तमाम|

इस लिए बिना दुविधा पाले,

मैं राजनीतिज्ञ बना हूँ,

क्योंकि मैं नहीं चाहता -

‘दुविधा में दोनों गए,

माया मिली न राम’||

70 -- छुआछूत

मानवता के लिए,

भले ही अभिशाप हो,

छुआछूत|

पर मत प्राप्त करने का,

जरिया है आधारभूत||

71 - दूर के ढ़ोल

चुनाव का मौसम आते ही,

नेताओं के सुर

भीगने लगते हैं|

हवाईजहाजों से चलने वाले,

जमीन पर

पैर घसीटने लगते हैं|

पुराने वायदे चाहे

अधर में लटके हों,

नए नए चुनावी वायदों का,

ढ़ोल पीटने लगते हैं|

नेतागण

जनसेवक के मुखौटे से,

ढकने लगते हैं

अपने चेहरे डरावने|

जो पहले

काटने को दौड़ता था,

बोलने लगता है

बोल लुभावने|

पर आज की जनता भी,

हो चुकी है सयानी,

और कहने लगी है कि

ये तो हैं,

दूर के ढ़ोल सुहावने||

72 - डालर बनाम रुपया

आजकल अमेरिका के

ठाठ हो गए हैं|

क्योंकि एक डालर की कीमत

रुपये पार साठ हो गए हैं|

डालर के मुकाबले

रुपया गिरा|

सुनते ही

वित्तमंत्री का भेजा फिरा|

फ़ौरन ही

प्रेस विज्ञप्ति के जरिये,

आश्वासन दिया|

यह विपक्ष की करतूत है,

यह सरकार ने नहीं किया|

सरकार इस तरह

रुपया लुटा सकती नहीं|

डालर गिरा होता तो

उठा भी लेते,

रुपया गिरा है

इसीलिए मजबूरी है,

क्योंकि सरकार,

दीवार के अमिताभ की तरह

गिरा हुआ

रुपया उठा सकती नहीं|

73 - गोटी

अपनी गोटी

फिट करने के लिए,

नेताजी ने,

गुटीय फसाद करवाए,

गुटबाजी का सहारा लिया,

अपने वायदों में,

जातीयता का पुट दिया|

फिर भी बात न बनी तो,

सबसे अलग

अपना गुट किया||

74 - आजमाया

जिस जिस ने,

उन्हें आजमाया|

सभी का यही मत है,

कि जो कल तक थीं,

महामाया|

चुनाव के बाद रह गईं हैं,

आज माया||

75 - दीदी

थोड़ी देर के लिए,

अगर पश्चिम बंगाल को छोड़ दे,

तो देश को उन्होंने,

कौन सी ऎसी ,

सौगात दी?

कि बच्चा, बूढा और जवान,

हर कोई कहता है,

दी दी - दी दी||

76 - ओत-प्रोत

बाबाजी के,

दर्शन-ज्ञान, भाषा शैली

और

चमत्कारिक प्रवचनों से,

श्रद्धालु

ओतप्रोत होते रहे|

और बाबाजी,

उनकी बेबकूफियों पर,

मन ही मन,

लोटपोट होते रहे||

77 - अधिकारी

जनता ने उन्हें चुन कर,

अपने अधिकारों की,

हिफाज़त के लिए,

‘अधिकारी’ नियुक्त किया|

उन्होंने ‘अधिकारी’ शब्द का,

दूसरा ही अर्थ प्रयुक्त किया|

गरीबी की जगह,

गरीबों को हटा कर

देश को गरीबी मुक्त किया||

78 - झड़प

भ्रष्टाचार निवारक दस्ते के

चयनकर्ता सदस्यों के बीच,

चयन के समय,

हो गई अच्छी खासी झड़प|

एक ने कहा,

तू ‘क’ के चयन में,

कर गया लाखों गड़प|

दूजे ने कहा,

तूने भी तो ‘ख’ के चयन में,

किये हैं करोणों हड़प|

तीसरा,

जिसे कुछ भी न मिला था,

शांत बैठा रहा,

पर देखते ही बनती थी,

उसकी तड़प||

79 - म्याऊँ

जब इंसान की धन लिप्सा,

इतनी बढ़ जाए,

कि वह नीति, धर्म, उचित, अनुचित,

भूल कर मचाने लगता है,

खाऊँ, खाऊँ|

तो कोई बड़ी बात नहीं कि,

उसके मातहत भी चाहने लगें,

कि मैं भी पाऊँ, मैं भी पाऊँ|

और यदि ऐसा हुआ,

तो लाज़िम है कि करने लगे,

उसीकी बिल्ली, उसीको म्याऊँ||

80 - कागजी कार्यवाही

यदि आप चाहते हैं

निपटाना,

मामला समय से,

और सस्ते में|

तो बाबू से शुरू करो,

अन्यथा,

मामला डाल दिया जाएगा,

ठंडे बस्ते में|

और यदि आपको ठसक है,

कि आपकी तो पहुँच है,

मंत्री तक,

या कि कुर्सी-“शाही” तक|

सच मानिए मामला,

सिमट कर रह जाएगा,

सिर्फ कागजी कार्यावाही तक||

81 - अभ्यस्त

शिक्षा विभाग की

अन्देखियों से त्रस्त,

मेरे हौसले

हो चुके थे पस्त|

छोटे बाबू की

शिकायत के लिए,

मैं संझले बाबू के

पास गया,

पर पाया,

संझले बाबू हैं तटस्थ|

वहाँ से मैं

मझले बाबू के पास पहुंचा,

देखा मझले बाबू तो,

स्वयं ही हैं अस्त-व्यस्त|

मैं पलटा और,

बड़े बाबू के कक्ष में

घुस गया,

लगा बड़े बाबू,

कोई कामुक चित्र

देखने में हैं मस्त|

जब मैंने

अपनी अर्जी दिखा कर,

अपनी परेशानी बताई

तो,

उन्होंने किया,

अट्टाहस जबरदस्त|

मैं सहम गया,

पर तभी दिखाई दिया,

बड़े बाबू का

बढ़ा हुआ हस्त|

मैं उनके हस्त बढ़ाने का,

कारण समझ न पाया,

थोड़े इंतज़ार के बाद वापिस,

मेज पर गया उनका दस्त|

उन्होंने कलम रूपी तलवार उठाई,

तलवार की स्याही,

मेरी अर्जी पर छिड़की,

और अर्जी वापिस मेरे हाथ में,

थमा दी, करके निरस्त|

मुझे काटो तो खून नहीं,

गुस्सा भी खूब आया,

इतना हुआ,

कि बता नहीं सकता कष्ट|

पर कर भी क्या सकता था,

रोती शक्ल ले पिल पड़ा,

बड़े अधिकारी के कक्ष में,

कक्ष का माहौल था,

बड़ा ही अलमस्त|

साहब तो जो थे सो थे,

उनकी निजी सचिव थी,

बहुत ही चुस्त दुरुस्त|

लाजिम था कि उन दोनों के,

बीच जो भी बातें हो रहीं थीं,

निजी ही होंगीं,

जिन्हें सुनकर

मैं हो गया लस्त|

पर मुझे अच्छी तरह से,

एक बात समझ में आ गयी,

कि बड़ा साहब तो है,

सबसे ज्यादा भ्रष्ट|

मायूस हो मैं बाहर आया,

और सोचा कि जब,

शिक्षा विभाग का ये हाल है,

तो समझ लेना चाहिए कि,

देश का भविष्य

है संकट ग्रस्त|

एक मित्र को जब मैंने,

यह किस्सा सुनाया,

तो वो खूब हंसा और बोला,

ऎसी बातों का तो,

हर हिन्दुस्तानी को,

होना चाहिए अभ्यस्त||

82 - रोजी-रोटी

जब से सरकार ने

समस्त ग़रीबों से किया,

रोजी रोटी देने का वायदा|

रॉबर्ट को लगा

ज़ोर का झटका धीरे से

और वह सूख कर

रह गया है आधा|

अंतोगत्वा राबर्ट ने

छोड़ दिया,

रोजी से,

शादी करने का इरादा||

83 - रोज़मर्रा

सुरसा के मुंह की भांति,

रोज-रोज मुंह बाती,

मंहगाई से त्रस्त आम आदमी,

कैसे जुटाये सुविधाएं,

रोज़मर्रा की?

इसलिए विधि के विधान को,

ताक पर रख कर,

एक बार मरने की जगह,

रोज मर रहा जी||

83 - नेपथ्य में

नेता के किसी भी कथ्य में,

तथ्य नहीं होता है|

उसका हर एक सौदा,

नेपथ्य में ही होता है|

उड़ाता है खुद पुए मेवे,

गरीबों को नशीब,

पथ्य भी नहीं होता है||

84 - पथराव

आपको पता है,

इस मार्ग का नाम

‘राव पथ’ कब से हुआ?

जब श्री नरसिम्हा रावजी

प्रधानमंत्री थे,

क्या तब से हुआ?

जी नहीं,

यहाँ पथराव जब से हुआ||

85 - लूट

डाकू, लुटेरों का

क्या भरोसा?

सभी के रूबरू,

लूट लें,

मज़ा, जर , जोरू,

इज्जत-आबरू||

86 - लीक

हमारे यहाँ सब कुछ,

लीक से हट कर करने की,

आदत सी हो गई है|

फिर सरकारी गुप्त चिट्ठी

यदि;

लीक भी हो गई

तो कौन सी,

आफत हो गई है?

87 - देख-रेख

माँ-बाप को,

बच्चों की,

तभी तक

करनी होती है

देख रेख|

जब तक कि,

दिखने न लगे

उनकी रेख||

88 - परदेशी

गांधी बाबा का कहना था,

स्वदेशी को अपनाओ,

परदेशी को छोड़ो|

अंग्रेजी तो छोड़ो ही छोड़ो,

पर, देशी भी छोड़ो||

89 - सांप-सीढ़ी

न निगलते बनता,

न उगलते,

इसलिए

सांप छछूंदर में

मेल हो गया|

हर बार सीढियां चढ़ कर

ऊपर जाओ,

बार बार सांप के डर से

नीचे आओ,

यानि चढ़ो-उतरो, उतरो-चढ़ो

जीवन तो जैसे,

सांप-सीढ़ी का

खेल हो गया||

90 - रद्दोबदल

सारे घर के बदल डालूँगा,

की तर्ज पर,

उन्हों ने अधिकारिओं के

तबादले किये थोक में|

फेरबदल की जगह,

रद्दोबदल कर बैठे,

झोंक में||

91 - चक्रवात

बढ़ गए रौ में,

वे जज्बात की|

तैरना जानते ही न थे,

चढ़ गए भौं में,

भेंट चक्रवात की||

92 - नेत्रहीन

सब उन्हें

उनके कुकृत्य,

दिखाने की कोशिश

करते करते थके|

पर वे,

वे देख कर भी

देख न सके|

पता नहीं

वे नेत्रहीन थे|

या फिर उनको,

नेत्र ही न थे?

93 - “सतही”

पहले ‘वे’,

स्तरीय कवितायें करते थे,

नदी पर, तालाब पर,

गरीब पर, किसान पर|

भूख पर, नीति पर,

खेत पर, खलिहान पर|

कालान्तर में ‘वे’

कविता लिखने लगे,

धन पर, धनिकों पर,

आराम गाहों पर, होटलों पर|

नेताओं-अभिनेताओं पर,

बोतलों पर|

‘वे’ पहुँच चुके हैं,

इस बात की तह तक|

कि उनका स्तर इतना बढ़ गया है,

कि उनकी कविता पहुँच चुकी है,

सतह तक|

यानि कि उनकी कविता

हो गई है,

‘सतही|’

इस कारण ‘वे’,

रहते हैं दुखी

बहुत ही||