कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - Novels
by Dr Yogendra Kumar Pandey
in
Hindi Motivational Stories
(महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस के युद्ध पूर्व की घटनाओं का चित्रण और भगवान श्री कृष्ण तथा अर्जुन के बीच गीता के उपदेश का कथा रूप में रूपांतरण)
(भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। वे महामानव भी हैं। प्रस्तुत कथा भारतीय इतिहास के महाभारत काल की है, जब कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरु होने वाला था। इससे ठीक पूर्व युद्ध की तैयारी के कुछ घंटों की घटनाओं को मेरी कल्पना दृष्टि से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण और वीर अर्जुन के मध्य संवाद प्रारंभ होता है। महायोद्धा अर्जुन के निवेदन पर भगवान श्री कृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य भाग में खड़ा करते हैं। इस अवसर पर भगवान भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश श्रीमद्भागवतगीता में संकलित है। इसमें भगवान श्री कृष्ण की वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवनपथ पर अर्जुन के मोह और उनके मन में उठने वाली शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया। श्री कृष्ण की वाणी केवल कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में ही नहीं बल्कि आज के युग मे मनुष्यों के सम्मुख जीवन पथ में उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में पूर्णतया सक्षम है। श्री कृष्ण की वाणी के पूर्ण होते ही महायोद्धा अर्जुन ने अपना गांडीव धनुष फिर से उठा लिया और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो गए। यह धारावाहिक कथा अपने आराध्य श्री कृष्ण के प्रेरक व्यक्तित्व और उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का कल्पना और भावों से युक्त एक लेखकीय प्रयत्नमात्र है, इसे पढ़िएगा अवश्य...)
(50 भागों में) (महाभारत युद्ध के प्रथम दिवस के युद्ध पूर्व की घटनाओं का चित्रण और भगवान श्री कृष्ण तथा अर्जुन के बीच गीता के उपदेश का कथा रूप में रूपांतरण) (भगवान कृष्ण, भगवान विष्णु के पूर्ण अवतार हैं। ...Read Moreमहामानव भी हैं। प्रस्तुत कथा भारतीय इतिहास के महाभारत काल की है, जब कौरवों और पांडवों की विशाल सेना के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध शुरु होने वाला था। इससे ठीक पूर्व युद्ध की तैयारी के कुछ घंटों की घटनाओं को मेरी कल्पना दृष्टि से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण और वीर
(2) मन की दुविधा भगवान कृष्ण तीव्र गति से रथ को चलाते हुए उसे मुख्य युद्ध क्षेत्र की ओर आगे बढ़ाते हैं। कौरव सेना का नेतृत्व इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त पितामह भीष्म कर रहे थे। भीमसेन के नेतृत्व ...Read Moreपहला दल पहले ही रवाना हो चुका है जिसमें द्रोपदी के पुत्र, साथ ही अभिमन्यु, नकुल, सहदेव और अन्य वीर हैं। मध्य वाले दल में पांडव सेनापति धृष्टद्युम्न, महाराज विराट, जयत्सेन, पांचाल राजकुमार युधामन्यु और उत्तमौजा थे। इसके ठीक पीछे मध्य भाग में ही श्री कृष्ण और अर्जुन का रथ था। अपार सैन्य समुद्र के बीच में स्वयं राजा युधिष्ठिर
(3) आनंद है वर्तमान समय जैसे ठहर सा गया है। श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन से वार्तालाप शुरू होते ही कौरवों और पांडवों की विशाल सेना योग निद्रा के अधीन हो गई। सभी अचंभित और जड़वत हैं। अपनी दूरदृष्टि से ...Read Moreधृतराष्ट्र को यह गाथा सुनाते हुए संजय भी कुछ देर के लिए ठिठक जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद वे कुरुक्षेत्र के मैदान में घट रही घटनाओं का पुनः सजीव वर्णन प्रस्तुत करते हैं। अर्जुन सोचने लगे कि वासुदेव ठीक कहते हैं। अगर मैं स्वरूप का पूर्ण ज्ञान नहीं रखने के कारण आत्मा को मरा हुआ मानता हूं, तब भी
(4) रे मन तू काहे न धीर धरे श्री कृष्ण:विजय रूपी फल में तुम्हारा अधिकार नहीं है। तुम्हारा लक्ष्य युद्ध में सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न होना चाहिए, विजय नहीं। इसलिए तुम फल के लक्ष्य को ध्यान में रखकर यह युद्ध मत ...Read Moreऔर फल नहीं चाहिए यह सोचकर युद्ध से हटने की सोचो मत। श्री कृष्ण ने घोषित कर दिया कि अर्जुन का अधिकार केवल कर्म में है। फल में नहीं। अर्जुन ने शंका जाहिर की, "कर्म करते समय लक्ष्य का तो ध्यान रहे, लेकिन फल की आशा न रखें। हमें उस कर्म से भी लगाव न हो जाए, जो हम करने
(5) रमता मन अपनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली वाणी में श्री कृष्ण स्थिर बुद्धि के लक्षण को स्पष्ट करते हुए आगे एक उदाहरण दे रहे हैं:- "जिस तरह कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है उसी ...Read Moreसे स्थिर बुद्धि मनुष्य भी इंद्रियों के विषयों से अपने मन को सभी प्रकार से हटा लेता है। " अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, "ऐसा करने का मुझे अभ्यास है भगवन! लेकिन मन है कि विषयों से ध्यान हटा लेने के बाद भी कभी-कभी उन्हीं विषयों का चिंतन करने लगता है। " श्री कृष्ण, "ऐसा स्वाभाविक ही है अर्जुन!
(6) जीने का आनंद अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा, "आपके द्वारा बताए गए इस मार्ग में समत्वरूप और निश्चयात्मक बुद्धि की प्रधानता है और अगर यही आवश्यक है तो आपने मुझे प्रारंभ में कर्म की महत्ता बताकर कर्म करने ...Read Moreलिए प्रेरित क्यों किया था? कृपया एक निश्चित बात कहिए जिससे मेरा कल्याण हो। " भगवान श्रीकृष्ण ने समझाया, "कोई एक मार्ग सत्य नहीं है अर्जुन। एक मार्ग पर चलते हुए भी हम अन्य विधियों का सायास या अनायास उपयोग करते जाते हैं। अपने पवित्र लक्ष्य को बनाए रखते हुए परिस्थिति के अनुसार एक से अधिक मार्गों को भी अपनाना
(7) सारा संसार घर मेरा यज्ञ के स्वरूप की अवधारणा स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण यज्ञ की गतिविधियों को पूरी समष्टि से जोड़ रहे थे। आखिर पृथ्वी पर मनुष्य एक दूसरे से संबंधित हैं और कोई एक मनुष्य ...Read Moreतथा एकाकी नहीं रह सकता है। श्री कृष्ण ने कहा, "अर्जुन!मनुष्य यज्ञों द्वारा देवताओं को उन्नत करें और वे देवतागण मनुष्यों की उन्नति करें। " अर्जुन सोचने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचमहाभूत हैं। सूर्य और चंद्र भी सृष्टि के जीवंत देव हैं। धरती के लिए वर्षा और शीत आवश्यक है तो धूप भी उतनी ही जरूरी है।
(8)स्पंदन जीवन का श्री कृष्ण ने काम के आवरण को विवेक बुद्धि के हर लेने का प्रमुख कारण बताया। इस पर अर्जुन ने पूछा: - अर्जुन: इसका समाधान क्या है प्रभु? श्री कृष्ण: "मन में संतोष स्वभाव और बुद्धि ...Read Moreद्वारा काम के आवरण को छिन्न-भिन्न करते हुए मन को अपने नियंत्रण में रखना। " आगे श्री कृष्ण की इस बात पर अर्जुन आश्चर्य से भर उठे, जब उन्होंने कहा, " मैंने यह तत्वज्ञान रूपी योग सबसे पहले विवस्वान सूर्य(कश्यप ऋषि के पुत्र) से कहा था। विवस्वान सूर्य ने इसे अपने पुत्र मनु को बताया और मनु ने अपने पुत्र
9: पहचानो खुद को अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "तो प्रभु इसका अर्थ यह है कि संसार में कर्ता केवल आप हैं, सांसारिक मनुष्य नहीं। " श्री कृष्ण ने कहा, "मैं सृष्टि रचना के कार्य का कर्ता हूं और ...Read Moreमनुष्यों के गुणों और कर्मों(न कि जन्म)के आधार पर कार्य करने वालों की चार श्रेणियां(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र)भी बनाई हैं, फिर भी तुम मुझे अकर्ता ही मानो। " अर्जुन, "ऐसा क्यों प्रभु?" श्री कृष्ण, "ताकि मनुष्य कर्म करें और सब पर मेरी समान कृपा के बाद भी उस कृपा का अधिक से अधिक उपयोग कल्याण के लिए करे और
(10) साधना का सम्मोहन भगवान श्री कृष्ण और जिज्ञासु अर्जुन की चर्चा जारी है। अर्जुन उनसे प्रश्न पूछते हैं, "हे केशव!प्रत्येक कार्य मनुष्य के द्वारा संपन्न होते हैं और अपने- अपने विवेक से सभी लोग कार्य करते हैं। फिर ...Read Moreमें अंतर कहां है? कुछ लोग अपनी इच्छा के अनुसार फल प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहते हैं। " श्रीकृष्ण ने समझाया, " वास्तव में उनकी इच्छा सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने को लेकर होती है, जो लगातार एक वस्तु को प्राप्त कर लेने के बाद बढ़ती ही रहती है। ऐसे में स्वयं पर नियंत्रण प्राप्त करना
11: साधना और प्रेम का संतुलन अर्जुन ने कहा, " जब सब कुछ योगमय है। तो अनेक योगी साधना के पथ पर असफल क्यों दिखाई देते हैं?" श्री कृष्ण, "मैंने संसार से अध्यात्म के मार्ग पर चलने की बात ...Read Moreउसी तरह अध्यात्म के पथ पर चल रहे व्यक्तियों के मन में अगर सिद्धियों की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य रह जाए तो यह भी एक खतरनाक स्थिति है। अगर ईश्वर से कामना रहित भक्ति न रखी जाए तो यह भी सांसारिक कामनाओं के समान ही दोष युक्त है। " अर्जुन, "मैं समझ गया प्रभु! एक संन्यासी में त्याग
12:आनंद का सूत्र अर्जुन के कानों में श्रीकृष्ण द्वारा कहे गए ये वाक्य अभी भी गूंज रहे हैं:"जो मनुष्य योग(समत्व की स्थिति) में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिए कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और ...Read Moreयोगारूढ़ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्म की प्राप्ति में साधन बन जाता है। " अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, "साधक के लिए इस बात का निश्चय कैसे हो कि ठीक मार्ग सीधे योग का है या सांसारिक साधने में प्रवृत्त होते हुए किसी एक बिंदु पर आनंद अवस्था प्राप्त कर लेना है। साधना और व्यवहार का मार्ग इस तरह का
13: जग जीतें कि स्वयं को हस्तिनापुर की राजनीति सदैव से जटिल रही है जहां कौरव और पांडव हमेशा द्वंद्व और शीत युद्ध की स्थिति में रहे हैं। एक ओर कौरवों के साथ सत्तारूढ़ महाराज धृतराष्ट्र और उनके प्रमुख ...Read Moreके रूप में पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण हैं तो दूसरी ओर पांडव वन- वन भटकने वाले साधनहीन समूह के रूप में अपना कर्म कर रहे हैं। पांडवों ने स्वयं अपने जीने का मार्ग ढूंढा और कुरुक्षेत्र का युद्ध निर्धारित होने से पूर्व वासुदेव कृष्ण से उन्होंने सीधे सैन्य या भौतिक सहायता कभी नहीं ली। अर्जुन सोचने लगे। वास्तव में