Kurukshetra ki Pahli Subah - 35 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 35

35.तुमसे है ये सब

यह मथुरा नरेश कंस और हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन दोनों का दुर्भाग्य था कि वे भगवान श्री कृष्ण को साधारण मनुष्य ही समझते रहे। श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर गोवर्धन पर्वत उठाने तक की गाथाएं जनमानस में प्रचलित हो चुकी थीं, फिर भी दुर्योधन श्री कृष्ण को साधारण मनुष्य और अधिक से अधिक मायावी ही समझता रहा। कंस भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि उसकी मृत्यु श्रीकृष्ण के रूप में जन्म ले चुकी है। अर्जुन सोचने लग गए, यही मूर्ख मनुष्यों का हठवाद है जो साक्षात ईश्वर के सम्मुख होने पर भी उनकी  महिमा से अनभिज्ञ रहते हैं। यही कारण है कि महाभारत युद्ध शुरू होने के पूर्व दुर्योधन द्वारिका की सेना लेकर ही प्रसन्न हो गया। वहीं श्री कृष्ण की महिमा से परिचित अर्जुन ने उनसे भावी युद्ध में अपने पक्ष में निहत्थे ही सम्मिलित होने की कृपा प्राप्त कर ली। 

ईश्वर को साधारण मानव समझने की भूल न करें

श्री कृष्ण अज्ञानी मनुष्यों द्वारा उन्हें साधारण मनुष्य की भांति कर्म करने वाला समझने की बात पर प्रकाश डाल रहे हैं। 

श्री कृष्ण, "बुद्धिहीन मनुष्य मुझ अविनाशी सच्चिदानंद घन परमात्मा को साधारण मनुष्य की तरह जन्म लेने वाला और उन्हीं की तरह कर्म करने वाला समझते हैं। "(7/24)

अर्जुन :संभवत ऐसा इसलिए है प्रभु कि आप जब प्रत्यक्ष होकर लोगों की सहायता करते हैं तो आप मनुष्य रूप में दिखाई देते हैं इसलिए ऐसे लोग आपको भी जन्म लेने वाला और नष्ट होने वाला मान लेते हैं। 

श्री कृष्ण: अर्जुन! और इसमें भी विशेष बात यह है कि मैं अपने मूल स्वरूप में लोगों के सामने प्रकट नहीं होता इसलिए अज्ञानी व्यक्ति मेरे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं। 

अर्जुन: मुझे ज्ञात है प्रभु! आपको इस तरह साकार रूप में देखकर अनेक लोग आपको भी साधारण मनुष्य ही समझने की भूल करते हैं और अपना दिव्य रूप आप सभी लोगों को नहीं दिखाते हैं। 

श्री कृष्ण: वास्तव में वह रूप साधारण चक्षुओं से देखा भी नहीं जा सकता है अर्जुन!(7/25)

अर्जुन: आप अनेक लोगों की सहायता के लिए अनेक रूप धरकर भी प्रकट होते हैं। ऐसे लोग अपने आसपास स्थित आपके सहायता करने वाले रूप में आपकी उपस्थिति का अनुभव इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें आपको दिव्य रूप में देखने की आकांक्षा होती है। 

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, 

श्री कृष्ण: मैं तो इस संसार में नर रूप में हूं। ईश्वर का दिव्य रूप भी दृष्टिगोचर हो सकता है, लेकिन इसके लिए वे आंखें चाहिए जिसके माध्यम से वे दिखाई दें। 

अर्जुन सोचने लगे कि ब्रह्मांड के आदि, नियंता और पालनकर्ता का विश्वरूप कैसे होगा? क्या सभी मनुष्यों को अपने मार्गों के माध्यम से प्रयत्न करने पर ईश्वर का वही रूप दिखाई देता होगा या लोगों के अपने- अपने दृष्टिकोण के अनुसार उन्हें अलग-अलग रूप दिखाई देते होंगे। वास्तव में अगर अर्जुन के मन में युद्ध से पूर्व संशय और मोह ने तीव्रता के साथ आक्रमण नहीं किया होता तो श्री कृष्ण को अपने ईश्वरत्व का वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं होती। 

श्री कृष्ण ने अर्जुन से पूछा, "पार्थ! क्या तुम्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति है?"

अर्जुन, "नहीं भगवन!"

श्री कृष्ण:"पर मैं तुम्हारे पूर्व जन्म, वर्तमान जन्म और इस देह के बाद की भावी स्थिति को भी जानता हूं। ऐसा इसलिए है अर्जुन क्योंकि ईश्वर की बनाई व्यवस्था मनुष्य के संचित कर्मों को प्रारब्ध के रूप में भविष्य के समय में उपलब्ध कराती है। "

काल की सीमाओं से परे ईश्वर की व्यापकता के संबंध में घोषणा करते हुए श्री कृष्ण ने कहा, " हे अर्जुन! विभिन्न प्राणियों के पूर्व के जन्म, वर्तमान जन्म और आने वाले जन्मों इन सभी के बारे में मुझे जानकारी है परंतु मुझे कोई नहीं जान सकता है। " (7/26)

अर्जुन:"फिर आपके स्वरूप को जानने के लिए क्या आवश्यक है प्रभु?"

श्री कृष्ण:"ईश्वर तत्व तो मन और बुद्धि से परे की अवधारणा है पार्थ! ज्ञान के माध्यम से भी साधना के अनेक स्तरों को प्राप्त करने के बाद वह तत्व ज्ञान प्राप्त होता है। वास्तव में ईश्वर को स्वरूप को जानने के लिए ईश्वर की ही कृपा आवश्यक है। "

अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा, "और आपकी कृपा पाने के लिए…."

मुस्कुराते हुए श्री कृष्ण ने कहा, "अकस्मात ऐसी कृपा पाने का कोई सूत्र नहीं है अर्जुन और वास्तव में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इस मार्ग पर चलते हुए इतने दिनों में ईश्वर की कृपा का लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा या ऐसा करने पर ईश्वर की कृपा इतने दिनों में प्राप्त हो जाएगी। इसके मापन का कोई मापदंड नहीं है। भक्तों के जीवन में कब आनंद का भाव समाहित हो जाता है और उनका पूरा जीवन आनंदपूर्ण हो जाता है यह तुम उन भक्तों के जीवन को देखकर समझ सकते हो। ऐसा आनंद कभी भी घटित हो सकता है, बस मनुष्य अपने स्तर पर अपने कर्मों की गति को संचालित करता रहे। "