Kurukshetra ki Pahli Subah - 40 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 40

40.कारज बारंबार

श्री कृष्ण अर्जुन से अपने ईश्वरीय स्वरूप और कार्यों का वर्णन कर रहे हैं। 

श्री कृष्ण: हे अर्जुन! आकाश में जिस प्रखर सूर्य को तुम देखते हो न?उसे ताप मैं प्रदान करता हूं। वर्षा के लिए जल का आकर्षण मैं करता हूं और मेघों से जल बरसाता हूं। हे अर्जुन मैं ही अमृत हूं और मृत्यु भी हूं। सत् और असत् भी मैं ही हूं। (9/19)

अर्जुन इस बात पर प्रसन्न हैं कि जिन घटनाओं को वह विशुद्ध रूप से प्राकृतिक कारणों का ही परिणाम मानते थे, उसके पीछे ईश्वर की भी प्रमुख शक्ति है। ब्रह्मांड की वह नियंत्रणकारी शक्ति दृष्टि के आरंभ में थी और सृष्टि के समापन के अवसर पर तथा एक नई सृष्टि के प्रारंभ होने की समय भी केवल वहीं शेष रहेगी। ईश्वर श्री कृष्ण के अलावा सब कुछ अस्थाई है। 

अर्जुन :हे प्रभु!आपने द्वंद्वों की चर्चा की है। ईश्वर एक साथ सूर्य को ताप प्रदान करने वाले और वर्षा कराने वाले कैसे हो सकते हैं?

श्री कृष्ण: हे अर्जुन! सृष्टि का चक्र मुझसे ही संचालित है और एक घटना दूसरी घटना पर निर्भर है और इस तरह कार्य कारण की एक लंबी श्रृंखला अनवरत रूप से सृष्टि में चलती रहती है। कभी-कभी घटनाएं एक दूसरे की पूरक होती हैं, तो कभी एक घटना दूसरे का विस्तार लिए हुए होती है। जिस सूर्य को ईश्वर ताप प्रदान करते हैं, वह सूर्य वर्षा के जल को आकर्षित करता ही है। 

अर्जुन: मैं समझ गया प्रभु! इससे मेघ बनता है। वर्षा होती है। इन सब की गति और स्थिति परिवर्तन के पीछे पंचमहाभूत और ईश्वर ही तो हैं। जहां विष को निष्प्रभावी करने के लिए औषधि और अमृत तत्व है, वहीं अमृत तत्व की जड़ता को तोड़ने के लिए विष तत्व भी है। 

श्री कृष्ण:उचित है। मानव जीवन भी तो इसी तरह द्वंद्वों, पूरक घटनाओं और कार्य कारण संबंधों से संचालित होता है पार्थ! संसार में जो पदार्थ दिखाई दे रहा है वह सत् मैं हूं तो जो अदृश्य अगोचर लोक है वह असत् भी मैं ही हूं। 

अर्जुन श्री कृष्ण की वाणी से फिर चमत्कृत हो उठे। ईश्वर की अवधारणा कितनी वृहद है अगर हम उनके स्वरूप को समझ जाएंगे तो सीधे ब्रह्मांड की उनकी निर्धारित आवृत्ति से हमारा सहज संपर्क स्थापित हो जाएगा। 

अर्जुन की जिज्ञासाओं का क्रम जारी है। 

अर्जुन: हे प्रभु आपने बताया है कि अच्छा कार्य करने वालों को पुण्य का संचय होने पर स्वर्ग मिलता है और वे देवताओं के भोग को भोगते हैं। (9/20)क्या ऐसे मनुष्य स्वर्ग में स्थाई रूप से रहने की पात्रता प्राप्त कर लेते हैं?

श्री कृष्ण :हां!लेकिन तभी जब उनके पुण्य कार्य क्षीण न हों। अगर उनके पुण्य कार्य मोक्ष के स्तर के अधिकारी नहीं है तो कोई साधक स्वर्ग में केवल तब तक ही रह सकता है जब तक उसके पुण्य संचित हैं। पुण्य क्षीण होने पर पुनः इस धरा पर जन्म लेना होता है। यह क्रम बार-बार चलता रहता है। (9/21)

अर्जुन: तो इसका अर्थ यह है कि स्वर्ग और नर्क की अवधारणा भी स्थाई नहीं है। मनुष्य एक सीमा तक अच्छा कार्य करने के बाद यह सोचकर निश्चिंत नहीं हो सकता है कि अब वह स्वर्ग में जाने का अधिकारी हो गया है। अब उसे और अच्छे कार्य करने की आवश्यकता नहीं है। अगर सदकार्य जीवन और मुक्ति के लिए आवश्यक है, तो इसे सतत करना होगा। ऐसा तभी संभव है जब मनुष्य ने सांसारिक आकर्षण को त्याग कर दृढ़ता से ईश्वर के अभिमुख होने का निर्णय कर लिया है। 

श्री कृष्ण: ईश्वर का सच्चा स्वरूप तो यही है अर्जुन! जो इस ज्ञान को जान गया वह जीवन की अनेक दुविधाओं, भ्रमों और छद्म आकर्षणों के चक्रव्यूह से बचा ही रहता है। इस स्वरूप को जानने के बाद उसे सांसारिक कामनाओं से भी अरुचि होने लगती है। 

आधुनिक काल में शिष्यों के पूछने पर इन उपदेशों का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्य सत्यव्रत ने कहा:-

संसार में कर्म प्रबल है। कर्म ही मनुष्य का भाग्य विधाता है। कर्म करने में ईश्वर की कृपा और प्रेरणा भी अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

विवेक: एक साधारण मनुष्य के लिए इस सूत्र को समझना अत्यंत कठिन है गुरुदेव! एक मनुष्य अपने आस-पास हो रही जिन घटनाओं को देखता है और उसमें उसे कोई चमत्कार होता हुआ दिखाई नहीं देता, तो वह हर कार्यों के पीछे ईश्वर के अस्तित्व की अवधारणा को क्यों स्वीकार करे….. मैं क्षमा चाहता हूं गुरुदेव….

आचार्य सत्यव्रत: कोई बात नहीं, अपनी बात पूरी करो विवेक!

विवेक:अगर एक श्रमिक दिनभर परिश्रम के बाद शाम को अपने पारिश्रमिक के रूप में जो रुपए पाता है और इसकी तुलना अगर वह समाज के धनाढ्य वर्ग से करता है तो उसके लिए यह समझ पाना कठिन ही है कि दिनभर परिश्रम के बाद भी उसे पर्याप्त धनराशि क्यों नहीं मिल पाई और वह इतने अभावों में जीवन क्यों जी रहा है?

आचार्य सत्यव्रत: समाज में धन की स्थिति के आधार पर असमानता दिखाई देती है। अगर उत्तराधिकार में प्राप्त संपदा के कारण यह असमानता दिखाई दे रही है तो इसमें सुधार करना मनुष्य के हाथ में नहीं है। परिश्रमपूर्वक एकत्र की गई धनसंपदा अगर अगली पीढ़ी के व्यक्ति को हस्तांतरित हो जाती है तो इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। वर्तमान जन्म में उपलब्ध अवसरों, परिस्थितियों और मिलने वाली सहायता के आधार पर मनुष्य एक सीमा तक अपनी स्थिति में सुधार करने में सक्षम हो सकता है। 

विवेक: वह कैसे गुरुदेव?

आचार्य सत्यव्रत:इस संसार में बिना किसी पृष्ठभूमि या विरासत के शून्य से शुरुआत कर उपलब्धियों के शिखर तक पहुंचने वाले मनुष्य भी हैं। यह भी सत्य है कि अत्यंत परिश्रम के बाद भी उचित फल प्राप्त नहीं करने वाले व्यक्ति भी हैं। इस स्थिति के लिए हम ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं और उनसे चमत्कार की उम्मीद भी नहीं रख सकते हैं। 

विवेक:तो इसका समाधान क्या है गुरुदेव?

आचार्य सत्यव्रत: इसका समाधान मनुष्य की अपनी बनाई सामूहिक व्यवस्था से ही संभव है, जिसके लिए आधुनिक युग में लोकतांत्रिक सरकारें एक संविधान के अंतर्गत प्रजा के मध्य संसाधनों के समान वितरण और उन्हें समान अवसर उपलब्ध कराने का प्रयत्न करती हैं। इसके साथ - साथ स्वैच्छिक तौर पर अनेक समाजसेवी संस्थाएं भी लोगों के कष्ट और दुख को दूर करने के कार्य में सहायता करती हैं। समाज के अनेक दानवीर और मदद करने वाले बिना प्रचार के चुपचाप अपने आसपास के लोगों की सहायता कर देते हैं और ईश्वर कभी- कभी किसी आवश्यकता वाले व्यक्ति के पास साधारण मानव रूप में भी उपस्थित हो जाते हैं। 

विवेक:आचार्य जी! फिर इसमें ईश्वर की भूमिका सीमित है?

आचार्य सत्यव्रत: हां! मानव व्यवस्था में प्रभावी हस्तक्षेप के स्थान पर वे उसे अहस्तक्षेप के अंतर्गत स्वचालित रहने देते हैं। ईश्वर की भूमिका मुख्य रूप से प्रेरक व मार्गदर्शक की है। यह संघर्ष पथ पर मनुष्य को सदैव दृढ़ बनाए रखने में सक्षम है। अब जहां कहीं कुछ मनुष्यों के साथ तुम चमत्कार देखते हो और इसे लेकर ईश्वर के के द्वारा मनुष्यों के बीच भेदभाव करने के कोई विचार तुम्हारे मन में आते हैं कि इस पर अधिक कृपा हुई, इस पर कम हुई और इस पर कृपा हुई ही नहीं। यह उन मनुष्यों के पूर्व जन्मों के संचित संस्कारों और कर्म फलों के कारण भी होती है। वर्तमान जन्म में सत्य, नीति, परिश्रम, ईमानदारी और जनकल्याण के पथ पर आगे चलने से व्यक्ति विशेष के लिए पूर्व जन्म के संचित फल की नकारात्मकता और हानि स्थिति अपने वर्तमान प्रयत्नों से धीरे-धीरे संतुलित होती जाती है।