Kurukshetra ki Pahli Subah - 48 books and stories free download online pdf in Hindi

कुरुक्षेत्र की पहली सुबह - 48

48.पा लो सारे सुख

अर्जुन ने श्री कृष्ण से वास्तविक सुख की परिभाषा पूछी। 

अर्जुन: सुख क्या है प्रभु?जो चीजें हम चाहते हैं, वे हमें मिल जाए तो यह तो सुख ही हुआ न?

श्री कृष्ण: यह इस बात पर निर्भर है कि हम चाहते क्या हैं? उदाहरण के लिए हमने सांसारिक सुखों और भोगों की इच्छा रखी है तो यह सुख अवश्य है लेकिन अपने वास्तविक स्वरूप में यह भारी दुख है। इसे समझने की आवश्यकता है। 

अर्जुन: वह कैसे?

श्री कृष्ण: सुख तीन प्रकार के हैं। पहला सुख वह है जो भगवान का स्मरण, उनके स्वरूप का ज्ञान, ध्यान, अध्ययन, कल्याण के कार्य आदि से मिलता है। यह प्रारंभ में तो सुखपूर्ण नहीं दिखाई देता लेकिन इन्हें करते रहने से अंत में दुखों का अंत होता है और सुखों की प्राप्ति हो जाती है। इन्हें सात्विक सुख भी कहा जाता है। ये शुरू में भले ही विष के समान दिखाई दें लेकिन परिणाम में अमृत लिए होते हैं। 

अर्जुन: हे प्रभु! तब उन सुखों को क्या कहा जाएगा जो विषयों और इंद्रियों के संयोग से उत्पन्न होते हैं, जिन्हें भोगने की इच्छा मन में होती है और जिन्हें प्राप्त करने पर मन को संतुष्टि होती है। 

श्री कृष्ण: यह राजस सुख है अर्जुन!ये भोग अवधि में तो अमृत के समान प्रतीत होते हैं लेकिन अंततः अपने परिणाम में विष के जैसे हैं। 

अर्जुन: कुछ ऐसे सुख भी हैं जो भोग काल में भी स्पष्ट रूप से नाशक होते हैं, फिर भी मनुष्य उन्हें ग्रहण करता है। ये परिणाम में भी दुखदाई होते हैं। 

श्री कृष्ण: हां, जो तुम कह रहे हो, वे तामस सुख हैं। 

अर्जुन को द्यूत सभा का स्मरण हो आया जब दुर्योधन के कुटिल आमंत्रण को समझते हुए भी महाराज युधिष्ठिर ने दुर्योधन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था। एक राजा स्वयं को मिली चुनौती को कैसे अस्वीकार कर सकता है, भले ही वह द्यूत क्रीड़ा के निमंत्रण के रूप में ही क्यों न हो। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने का परिणाम न सिर्फ पांडवों के लिए बल्कि पूरे देश के इतिहास के लिए अति भयंकर सिद्ध हुआ। पांडव मामा शकुनि की कुटिल चालों के आगे परास्त होते गए और युधिष्ठिर अपना सब कुछ हारते गए। अपना राजपाट हारने के बाद अंत में वे अपने भाइयों समेत स्वयं को हार गए। इसके बाद कौरवों के उकसाने पर उन्होंने द्रौपदी को ही दांव पर लगा दिया। 

आधुनिक काल में विवेक से तामस सुख का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्य सत्यव्रत ने कहा- मद्यपान, जुआ, अशोभनीय व्यवहार; ये सब ऐसे कार्य है जो प्रथम दृष्टि में भी विनाशक हैं लेकिन मनुष्य इन्हें ग्रहण कर एक छद्म सुख का अनुभव करता है और परिणाम में भी ये विनाशकारी होते हैं। 

उधर श्री कृष्ण सहज कर्म की अवधारणा पर प्रकाश डाल रहे हैं। अर्जुन सोचने लगे, अपना कार्य किसी को अच्छा नहीं लगता। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों की स्थिति को अपने से उत्तम मानता है। एक व्यक्ति जो व्यापार कर जीविकोपार्जन कर रहा है उसकी रूचि राजपुरुष बनने में होती है ताकि एक सुनिश्चित आय उसे प्रतिमाह प्राप्त हो सके। राजपुरुष राज दरबार की कठोर अनुशासन और व्यस्त दिनचर्या से बंधा महसूस करता है और उसकी इच्छा व्यापार कार्य को अपनाने की हो जाती है। अर्जुन यह अच्छी तरह जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को उसकी रूचि का कार्य नहीं मिल सकता है और वह जो कार्य कर रहा है उसमें पूरी तरह सफल हो जाए, यह भी आवश्यक नहीं है। 

जैसे अर्जुन के मन की बात पुनः पढ़ते हुए श्री कृष्ण ने कहा। 

श्री कृष्ण: अपना धर्म श्रेष्ठ है अर्जुन, अपना कार्य उत्तम है। अपना कार्य दूसरे के कार्य से भले ही गुण रहित और अधिक लाभदायक नहीं दिखाई देता, फिर भी वह श्रेष्ठ है। जैसे एक योद्धा के रूप में तुम्हारा स्वधर्म अभी युद्ध करना है। तुम्हें अपने इसी कार्य को धर्मयुद्ध मानना चाहिए भले ही इसमें हिंसा और रक्तपात स्वाभाविक है। तुम अपना यह कार्य छोड़कर युद्ध से पलायन नहीं कर सकते हो और संन्यास लेकर वन में जाना तुम्हें शोभा नहीं देगा। मैं तो यहां तक कहूंगा कि धर्म की रक्षा के स्थान पर तुम्हारा शस्त्र रख देना हिंसा है और जनकल्याण के लिए शस्त्र उठाना अहिंसा है।