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सखी

सखी

क़ैस जौनपुरी

तू कितनी अच्छी दिखती है रे!” कविता ने सविता के माथे का पसीना पोछते हुए कहा. सविता के बालों की एक लट उसके माथे के पसीने के साथ चिपक गयी थी. कविता ने उसके माथे का पसीना अपने दुपट्टे से पोछा और उसकी लट को उसके माथे से हटा दिया. अब सविता का चेहरा पूरा साफ़ दिख रहा है. उसकी साँसें चढ़ी हुई हैं. अभी-अभी दौड़ के आई थी ना, इसलिए.

दोनों चिब्भी खेल रहीं थीं, कुछ लड़कों के साथ. तभी सविता के चाचा ने आके सब बच्चों को दौड़ा लिया था. भागते-भागते सविता बाग़ में आम के पेड़ के पीछे छिप कर साँस ले रही थी. पीछे से कविता सारी चिब्भी उठा लायी थी. ऐसे कैसे ले जाने देती किसी को? कितनी मेहनत से जीती थीं दोनों ने मिलके. और कुछ तो उनकी अपनी भी थीं जो उन्होंने थपुवे और नरिये को तोड़के बनाई थीं.

दोनों की चिब्भी अपनी गोलाई के लिए जानी जाती थी. किसी और की चिब्भी इतनी गोल नहीं होती थी, जितनी इन दोनों की. दोनों अपनी चिब्भी को गोल बनाने के लिए बहुत मेहनत करती थीं. धूप-धूप में घूम-घूम कर थपुआ और नरिया चुराती थीं. इसके लिए दोनों मार भी बहुत खाती थीं. पकड़ी जाती थीं ना.

गाँव में गिने-चुने तो घर होते हैं. उस पर से मिट्टी के मकान और थपुआ और नरिया से बनी छत. तो सविता सीढ़ी पकड़ के खड़ी होती थी और कविता बहादुर की तरह धड़-धड़-धड़-धड़ चढ़ जाती थी. और एक अच्छा सा, बूत थपुआ निकाल लेती थी. और नीचे उतरने से पहले एक नरिया भी उठा लेती थी, जिससे दो थपुओं की लाईन जो नरिये से ढँकी रहती थी, खुल जाती थी और बारिश का पानी घर के अन्दर घुसने का रास्ता पा लेता था. और जहाँ से वो थपुआ उठाती थी, वहाँ से तो पानी और आराम से घुस जाता था. फिर दोनों के घर शिकायत आती थी कि, “आपकी बेटियों ने इस बार भी हमारी छत से नरिया और थपुआ चुराया. अब हमारे घर में पानी चू रहा है.”

इधर उन दोनों की शिकायत होती थी, उधर दोनों आपस में शिकायत करने वालों की नक़ल करके हँसती थीं. सविता माई बनती थी. और कविता शिकायत करने वाला. फिर कविता कमर झुका के कहती थी, “ज़रा, अपनी बिटियवा को समझाइए. अपनी सहेलिया सवितवा के साथ मिलके हमरी छत चलनी कर दी है. कितनी बार मरम्मत करायें हम?” फिर दोनों खिलखिला के हँसती थीं.

सविता के माथे का पसीना पोछते हुए कविता ने महसूस किया कि सविता अब काफ़ी बड़ी हो गयी है. उसका चेहरा एक सुन्दर लड़की जैसा दिख रहा था. साफ़. गोरा. कविता उसे एकटक देखे जा रही थी. सविता ने टोका, “ऐसे क्या देख रही है? वही हूँ.”

नहीं रे. अब तू वही नहीं है. बड़ी हो रही है. और सुन्दर भी. तू हमेशा मेरी दोस्त रहेगी ना?”

और सविता ने उसके गाल पे एक चाँटा मारा. “ख़बरदार, जो फिर कभी अलग होने की बात की.”

और फिर दोनों गले मिलके काफ़ी देर तक सुबकती रहीं. इतनी गहरी दोस्ती के साथ दोनों बड़ी हुईं.

और कुछ सालों बाद अब दोनों का परिवार दिल्ली गया था. दोनों अब भी साथ-साथ रहती थीं. एक ही कॉलोनी में. जनकपुरी में. दोनों जब सुबह कॉलेज के लिए निकलतीं तो दौड़के मेट्रो पकड़ती थीं. दोनों में शर्त लगती थी कि, “कौन जीतेगा?” जो प्लेटफ़ॉर्म पे पहले पहुँचता था, वो जीत जाता था. कभी सविता जीतती थी तो कभी कविता.

दोनों एक-दूसरे से कम नहीं थीं. कभी-कभी तो दोनों एक साथ पहुँचतीं थीं और उधर मेट्रो भी जाती थी और दोनों को ये फ़ैसला करने का वक़्त ही नहीं मिलता था कि, “कौन जीता?” फिर दोनों दौड़के दो सीट पे कब्ज़ा करतीं. और अगर कभी सीट ख़ाली मिले तो दोनों को और मज़ा जाता था. दोनों मेट्रो में खड़े होने वाले लोगों के लिए बने हुए पोल को पकड़के गोल-गोल घूमतीं और हँसतीं. मेट्रो के अन्दर बैठे लोगों का मुफ़्त में मनोरंजन हो जाता था. लेकिन किसी को ये पता नहीं था कि दोनों किस दुनिया में जीतीं थीं? दोनों ज़िन्दगी को बस जीतीं थीं. और सबलोग उन दोनों को देखते और सोचते, “काश, हम भी ऐसे खेलते-कूदते!”

इस तरह खलते-कूदते दोनों की उमर शादी की हो गयी. और अब दोनों के घरवाले दोनों के लिए लड़का ढूँढ़ने लगे. दोनों को जब इस बात का पता चला, तब दोनों ने एक दूसरे का मुँह ऐसे देखा, जैसे एक-दूसरे को पहचानती ही हों. फिर दोनों ने वो हंगामा खड़ा किया कि लोग देखते रह गए. दोनों ने एक साथ जैसे नारा लगाते हैं, उस आवाज़ में कहा था, “हम हमेशा एक दूसरे के साथ रहेंगे.”

लेकिन हमारे समाज में एक लड़की, दूसरी लड़की के साथ कैसे रह सकती है? एक लड़की को तो शादी करके एक लड़के के साथ जाना होता है. और कविता लड़की होते हुए भी ये इच्छा रखती थी कि कोई सविता को उससे दूर करे. और सविता ने तो बात को एक कान से सुना और दूसरे कान से निकाल दिया. उसे कविता पे भरोसा था कि वो कोई कोई रास्ता निकाल लेगी. उसे तो बस उसकी हाँ में हाँ मिलाना था. “कुछ भी हो जाए, दोनों साथ रहेंगीं.” ये दोनों में तय हो चुका था. इसी में दोनों की ख़ुशी थी.

मगर ऐसा होता कहाँ है? हमारे अपने ही हमारी ख़ुशियों के दुश्मन बन जाते हैं. वही कविता और सविता के साथ हुआ. उनकी एक साथ रहने की इच्छा को सिरे से नकार दिया गया. मगर उन दोनों ने भी हार नहीं मानी. इस समाज को एक लड़का चाहिए था दोनों के लिए, तो कविता ने फ़ैसला किया कि वो ख़ुद लड़का बनेगी और सविता से शादी करेगी.

असल में कविता और सविता बचपन से ही एक दूसरे के इतना रीब रहीं कि उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि उन्हें एक दिन, जब वो बड़ी हो जाएगी, तब उन्हें अपने शरीर की वजह से एक-दूसरे से दूर जाना पड़ेगा. मगर दोनों को ये बात मन्ज़ू हुई. उन्होंने एक दम ऐसा बढ़ाया कि सबकी बोलती न्द हो गयी.

हमारे समाज में ख़ुश रहने देने के तो बहुत रास्ते हैं. लेकिन ज़रा सा आप ख़ुश रहने की कोशिश कीजि, तो आपको समाज से नकार दिया जाता है. जबकि समाज के बनाये नियम और क़ानूनों के ख़ुद कोई हाथ-पैर नहीं होते. बस, बर्दस्ती के थोपे हुए नियम और ख़ुश रहने देने के लिये एक से बढ़के एक क़ानून.

ख़ि दोनों ने क्या चाहा था? बस एक दूसरे के साथ रहना ही तो चाहती थीं. आदमी और औरत ने सदियों से एक दूसरे से शादी करके कौन सी तरक़्क़ी कर ली है, जो उन दोनों को नकारा जा रहा था? समाज से उन दोनों की ख़ुशी देखी नहीं जा रही थी, बस.

दोनों अपने अन्दर के बचपनेपन का गला घोंट के एक आदमी के पीछे चली जातीं और ज़िन्दगी भर मुँ लटकाये रहतीं तो ये समाज ख़ुश हो जाता. बाद में यही समाज कहता, “अपनी-अपनी क़िस्मत.” दोनों चाहती थीं कि आग लगा दें ऐसे समाज को और इस समाज के बनाये नियमों को.

जिन बच्चियों को चिब्भी खेलने में मज़ा आता था, उन्हें आदमी और औरत के जटिल रिश्ते में बाँधने की कोशिश हो रही थी. किसी को ये नहीं दिख रहा था कि दोनों में से कोई तैयार नहीं है इस बात के लिए. फिर एक शादी-शुदा ज़िन्दगी कैसे बसर करेंगी दोनों?

मगर उन दोनों के फ़ैसले ने लोगों के मुँ की ज़बान और लम्बी कर दी थी. दोनों को अब एक अलग नज़र से देखा जाने लगा था. हमारे समाज में हर ची के लिए पहले से एक राय तय होती है. दोनों के लिए ऐसी-ऐसी बातें होने लगीं थीं कि दोनों का जी चाहता था, कहीं किसी कुए में कूदके अपनी जान दे दें. वो तो भला हो, दोनों को जनकपुरी में कोई कुआ नहीं मिला.

लेकिन कुए की तलाश में दोनों को जनकपुरी सेक्टर अट्ठारह में एक कुम्हार का घर मिल गया. वहाँ दोनों को गगरी, घड़ा और सुराही बनते दिख गयी. बस फिर क्या था. दोनों ने मरने का फ़ैसला छोड़ दिया. उस कुम्हार के यहाँ से दोनों ने अपने लिए ढे सारी चिब्भी बनवा लीं. और फिर सबके सामने गली में चिब्भी खेलने लगीं. दोनों ने अपना बचपन वापस बुला लिया था. समाज से लड़ने के लिए दोनों ने ठान ली थी. और करना उन्हें कुछ नहीं था. बस सबकी बातों को एक कान से सुनना था और दूसरे से निकाल देना था. ये तरीक़ा बड़ा कारगर साबित हुआ.

जब भी कोई पड़ोसी औरत, उन्हें कुछ कहती, तो वो उस औरत से कहतीं, “आइये, चिब्भी खेल लीजिये. फिर से जवान हो जायेंगी.” और उन दोनों की बातें जनकपुरी की औरतों को अपने पेट की चर्बी पे झाँकने पे मजबूर कर देती थीं. तब उन औरतों को लगता था कि उनकी ज़िन्दगी भी कुछ हो सकती थी, मगर पति और बच्चों को सँभालते हुए, वो कुछ से कुछ हो गयीं थीं. और अब उनका कुछ नहीं हो सकता था.

और जब उन्हें कोई आदमी कुछ कहता, तब दोनों अपनी चिब्भी दिखाके कहतीं, “ये देख रहे हैं? चिब्भी है ये, सर पे लगेगी तो ख़ू निकल येगा.” दोनों ने तय कर लिया था कि किसी भी हालत में हमें हार नहीं माननी है. और फिर उन्होंने देखा था, और भी लड़किया थी उनके मुहल्ले में, जिनकी समाज के अच्छे तौर-तरीक़ों से शादी हुई थी, और उनका क्या हाल था. किसी को उसके पति ने छोड़ दिया था. किसी का पति दूसरे शहर में रहता था, तो वो गैस सिलिण्डर वाले से पट गयी थी. एक तो पति के रहते हुए, सुबह-सुबह मन्दि जाती थी, और वहाँ किसी और के काँधे पे माथा टेकती थी.

दोनों खुलके कह देती थीं सारी बातें, जब उन्हें कोई ज़्यादा परेशान करता. और जब कभी कोई बात हद से ज़्यादा बढ़ जाती, तब कविता सामने आती और कहती, “डॉक्टर से बात हो गयी है. कुछ दिनों में हो जाऊगी मैं एक लड़का. और सविता को मेरे से ज़्यादा कोई ख़ुश नहीं रख सकता. क़ी हो, तो सविता से पूछ लो.” और सविता तो पहले से ही तैयार रहती थी कि मुझे क्या जवाब देना है!

और अगर नकली सामान लगवाने के बाद बच्चा नहीं हुआ, तब?” किसी ने ये भी पूछ लिया. तब तो और अच्छा हुआ. कविता ने पूरे मुहल्ले के सामने कहा, “तब हम तिलक नगर से मंगल ज़ा में जो छोटी-छोटी लड़किया भी माँगती हैं ना, उनमें से किसी को गोद ले लेंगे. आप लोगों की तरह त्‍त नगर जाके अबॉर्शन करवाने से तो अच्छा है ना?”

दोनों के पास लोगों के हर सवाल का जवाब था. सबकी बातों को नज़र-अन्दा करके दोनों ने अपनी पढ़ाई पूरी की. फिर दोनों को नौकरी भी मिल गयी. अब उन्हें पैसे के लिए भी किसी का मुँ नहीं तकना था. अपने पैसे से कविता ने अपना ऑपरेशन करवाया और जनकपुरी में वो हुआ, जो आज तक नहीं हुआ था. एक लड़की एक लड़का बन गयी थी. अगर समाज के पास रोकने के तरीक़े हैं, तो जीने वालों के पास जीने के तरीक़े भी निकल ही आते हैं.

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