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सत्यकाम जबाला

सत्यकाम जबाला

आशीष कुमार त्रिवेदी

सत्यकाम एक निर्धन बालक था। वह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि व जिज्ञासू बालक था। जीवन के गूढ़ रहस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की उसकी तीव्र इच्छा थी।

ऋषि गौतम बहुत ज्ञानी एवं प्रतिष्ठित गुरू थे। सत्यकाम उनके गुरुकुल में जाकर शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। अपनी इस इच्छा के साथ वह अपनी माता जबाला के पास गया और बोला "माता मैं ऋषि गौतम के पास जाकर उनसे ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। अतः मुझे मेरे पिता व गोत्र के विषय में बताएं"

जबाला एक दासी थी। उसका कई पुरुषों के साथ संबंध रहा था। अतः उसने सत्यकाम को समझाते हुए कहा "पुत्र दासी होने के नाते मैं कई पुरुषों की सेवा में रही हूँ। अतः मैं तुम्हें तुम्हारे पिता व कुल गोत्र के विषय में कोई जानकारी नही दे सकती हूँ। लेकिन गुरु के समक्ष तुम्हें अपना परिचय देना पड़ेगा। तुम उन्हें सत्य बता देना कि तुम जबाला के पुत्र सत्यकाम हो।"

सत्यकाम ऋषि गौतम के आश्रम में पहुँचा और उनसे निवेदन किया कि उसे अपना शिष्य बना लें। ऋषि गौतम द्वारा जब उससे उसका परिचय पूंछा गया तो उसने सत्य बता दिया "मेरी माता का नाम जबाला है। मैं जबाला पुत्र सत्यकाम जबाला हूँ यही मेरा परिचय है।"

सत्यकाम के सच बोलने से ऋषि गौतम बहुत प्रभावित हुए। प्रसन्न होकर बोले "मैं तुम्हारे सत्य बोलने से बहुत प्रभावित हूँ। तुम निडर व साहसी हो। तुम्हारी ज्ञान प्राप्त करने की प्यास तुम्हें मेरा शिष्य बनने के योग्य बनाती है।"

इस प्रकार सत्यकाम ऋषि गौतम का शिष्य बन गया। कुछ समय के पश्चात ऋषि गौतम ने उसे 400 दुर्बल गायें देकर इस आदेश के साथ वन भेजा कि जब तक गायों की संख्या बढ़ कर 1000 न हो जाए वह वन में रहे। सत्यकाम ने कई वर्ष वन में व्यतीत किए। इस अवधि में उसका अधिकांश समय गायों की सेवा में बीतता था। जो समय बचता वह ध्यान एवं चिंतन में लगता।

जब गायों की संख्या 1000 हो गई तो चलते समय गायों के मध्य रहने वाले एक बैल ने उसे ब्रह्म विद्या का प्रथम ज्ञान दिया। बैल ने कहा "चारों दिशाएं ब्रह्म के चार पैर हैं जो मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाते हैं।"

इस प्रथम ज्ञान के बाद सत्यकाम वापस गुरुकुल की तरफ लौटने लगा। मार्ग में उसे अग्नि द्वारा दूसरा ब्रह्म ज्ञान मिला। अग्नि ने बताया कि पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग एवं पाताल लोक ब्रह्म का ही विस्तार हैं। जो मनुष्य को रहस्यमय संसार की तरफ ले जाते हैं।

तीसरा ब्रह्म ज्ञान एक हंस ने दिया कि अग्नि, सूर्य, चंद्र एवं दामिनी मनुष्य के जीवन में प्रकाश लाते हैं।

अंत में जल के पक्षी ने बताया कि आँख, कान, प्राण तथा मन भी ब्रह्म रूप हैं जिनकी सहायता से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है।

समस्त ज्ञान के साथ सत्यकाम ऋषि गौतम के आश्रम पहुँचा एवं ऋषि को सारी बात से अवगत कराया।

गौतम ऋषि ने विभिन्न स्रोतों से मिले उसके ज्ञान का परिवर्द्धन कर उसके ज्ञान को पूर्ण कर दिया। ब्रह्म के चार-चार कलाओं से युक्त चार पद माने गए हैं-

प्रकाशवान- पूर्वदिक्कला, पश्चिम दिक्कला, दक्षिण दिक्कला, उत्तर दिक्कला।

अनंतवान- पृथ्वीकला, अंतरिक्षकला, द्युलोककला, समुद्रकला।

ज्योतिष्मान- सूर्यककला, चंद्रककला, विद्युतकला, अग्निकला।

आयतनवान- प्राणकला, चक्षुकला, श्रोत्रकला, मनकला।

सत्यकाम जबाला की यह कथा छांदोग्य उपनिषद के चतुर्थ अध्याय में दी गई है। यह कथा हमें कई तरह के संदेश देती है। वह संदेश जो तत्कालीन समाज के लिए बहुत आवश्यक हैं।

हिंदु समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था के अनुसार ज्ञान का अधिकार केवल द्विजों को प्राप्त था। द्विज अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य। चतुर्थ वर्ण शूद्र को ज्ञान के अधिकार से वंचित रखा गया था। सत्यकाम एक दासी के पुत्र थे। उन्हें अपने पिता एवं उनके गोत्र के विषय में भी कोई जानकारी नही थी। लेकिन इस व्यवस्था के विरुद्ध जाकर ऋषि गौतम ने सत्यकाम को अपना शिष्य बनाया। ऋषि गौतम ने कहा "मैं तुमको दीक्षा दूंगा, तुम समिधा की लकड़ी लेकर आओ। जो धीर मनुष्य सत्य-पथ से कभी नहीं हटता, वही ब्रह्म-विद्या प्राप्त करने का अधिकारी होता है।"

ऋषि गौतम ने अपने इस कार्य से स्पष्ट संदेश दिया कि ज्ञान पर उस व्यक्ति का अधिकार होता है जो उसे पाने के योग्य हो। योग्यता जन्म से नही बल्कि कर्म से होनी चाहिए। जिसमें ज्ञान पिपासा हो और जो उसे पाने के लिए कष्ट सहने को भी तैयार हो वही ज्ञान अर्जित करने के योग्य है।

सत्यकाम एक निर्धन दासी पुत्र था। किंतु उसमें ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र ललक थी। इसलिए उसने अपनी सामाजिक परिस्थिति जानते हुए भी कि वह दासी का पुत्र है ज्ञान प्रप्ति की अपनी इच्छा को नही छोड़ा। सत्यकाम काम के चरित्र से उन लोगों को एक शिक्षा मिलती है जो अपनी निर्धनता तथा अन्य परिस्थितियों को ज्ञान प्राप्त करने के अपने लक्ष्य की राह में एक बाधा समझ कर निराश होकर बैठ जाते हैं। उन्हें समझना चाहिए कि यदि आप दृढ़ निश्चय कर लें तो परिस्थितियां भी बदली जा सकती हैं। उन्हें आपके अनुकूल किया जा सकता है। जैसा सत्यकाम के साथ हुआ। उसके दृढ़ निश्चय को देख ऋषि गौतम ने सामाजिक परिपाटी को बदल दिया

आधुनिक काल के इतिहास में डॉ. भीमराव अंबेदकर एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं। जातिगत व्यवस्था के कारण उन्हें कई कष्ट सहने पड़े। कई बार अपमान का सामना करना पड़ा। फिर भी उन्होंने धैर्य नही खोया। पूरे साहस के साथ सभी कठिनाइयों का सामना किया। अपने परिश्रम से न सिर्फ स्वयं शिक्षा हासिल की बल्कि समाज को भी एक नई राह दिखाई।

यह कथा समाज की उस सोंच पर भी प्रहार है कि संतान की पहचान केवल उसके पिता से ही हो सकती है। इतिहास में सत्यकाम को उसकी माता जबाला के नाम से ही पहचाना जाता है। वह सत्यकाम जबाला के नाम से प्रसिद्ध है।

जबाला जानती थी कि गुरुकुल की परंपरा के अनुसार ऋषि गौतम द्वारा सत्यकाम से उसके पिता का नाम व गोत्र अवश्य पूंछा जाएगा। वह स्वयं सत्यकाम के पिता का नाम एवं गोत्र नही जानती थी। फिर भी उसने सत्यकाम को गुरुकुल जाने से मना नही किया। न ही उसे असत्य बोलने को कहा। वरन जबाला ने सत्यकाम को सत्य बोलने का साहस दिया। अशिक्षित होते हुए भी उसने अपने पुत्र को सच्चरित्र बनने की सीख दी। यह दर्शाता है कि संतान के चरित्र निर्माण में माता की अहम भूमिका होती है।

ऋषि गौतम ने सत्यकाम को गायों के साथ यह कह कर वन भेजा कि 400 गायों के 1000 होने तक वह वहीं रहे। गायों के संवर्धन के लिए आवश्यक था कि उनकी सही प्रकार सेवा की जाए। अपने गुरू के आदेश के अनुसार सत्यकाम गायों की सेवा करता रहा तथा साथ ही साथ चिंतन व मनन भी करता रहा। अर्थात कर्म एवं ज्ञानार्जन दोनों एक साथ हो सकते हैं।

कथा के अनुसार सत्यकाम को बैल, अग्नि, हंस एवं जल पक्षी से शिक्षा मिली। यह चारों प्रकृति का ही अंग हैं। दरअसल सत्यकाम ने प्रकृति के निकट रह कर प्रत्येक वस्तु में ब्रह्म का दर्शन किया। यदि हम चाहें तो प्रकृति के हर तत्व से ज्ञान ले सकते हैं।

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