Ruppan Babu ki Munchhe Aur Bibbo Rani books and stories free download online pdf in Hindi

रुप्पन बाबू की मूंछे और बिब्बो रानी

रूप्पन बाबू की मूंछें

और बिब्बो रानी

सुभाष चंदर

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परिचय

1ण्नाम — सुभाष चन्दर

2ण्जन्म तिथि — 27—01—1961 प्रसिद्ध व्यंगकार एवं आलोचक,

3ण्प्रकाशन — व्यंग की सात पुस्तकों सहित कुल 41 पुस्तकों का लेखन

4ण्चर्चित कृति — हिंदी व्यंगहय का इतिहास

5ण्पुरुस्कार एवं सम्मान

ंण्इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय पुरुस्कार, भारत सरकार

इण्डाक्टर मेघनाथ साहा पुरुस्कार, भारत सरकार

6ण्अट्टहास सम्मान

ंण्हरिशंकर परसाई सम्मान आदि इडिया टुडे,

इण्नवभारत टाइम्स, हँस, वर्तमान साहित्य, हिंदुस्तान, आउटलुक,

बण्चौथी दुनिया आदि मैं नियमित लेखन विश्वविधालयों ध्संस्थानों आदि मैं वक्तव्य

रूप्पन बाबू की मूंछें और बिब्बो रानी

एक समय था, जब रूप्पन का गुस्सा पूरे मुहल्ले में मशहूर था। उनसे पंगा लेने में सब डरते थे। कद तो उनका दरम्याना ही था, तंदरूस्ती भी कोई गामा पहलवान जैसी नहीं थी। पर उनसे सब डरते थे तो इसका एक कारण्र मोटी—मोटी आंखें थीं, जो बाहर को निकली पड़ती थीं। जब वे गुस्से में आपे से बाहर होते, आंखें भी लाल होकर सामने वाले के सीने में छेद कर देती थीं। उसके बाद उनकी पर्सनैलिटी में कोई चीज डरावनी थी तो वह थी उनकी झब्बा—झब्बा मूंछें। जब वह लुंगी पहनकर मूंछों पर ताव देकर निकलते थे तो उनका समां ही कुछ अलग होता था। मूंछों के बाद डराने का काम उनकी गालियां करती थीं। उनका रिकॉर्ड था कि वह एक सांस में सामने वाले की आठ पुस्तों तक को गालियां दे सकते थे। जब सामने वाला गालियों से नहीं डरता था तो फिर वह अपने हाथों को तकलीफ दिया करते थे। रिक्शावाले बुदू से लेकर मन्नू धोबी तक सब उनके हाथों का हुनर देख चुके थे।

ऐसे गुस्सैले आदमी से भला कौन अपनी बिटिया ब्याह देता ? यही कारण था कि अच्छी—भली आमदनी होने के बाद रूप्पन बाबू कुंआरे थे। उनकी अम्मा ने जाने कहां—कहां बात चलाई, पर कहीं बात नहीं बनी। रिश्ते वालों के आने से पहले ही उनके घर पर रूप्पन के गुस्सैले स्वभाव की कहानियां पहुंच जातीं। नतीजतन रूप्पन तीस बरस की उमरिया को प्राप्त हो गए, पर शादी की बेल मढे नहीं चढ़ी।

रूप्पन की अम्मा बहुत परेशान थी कि उनका इकलौता लाल कुंआरा ही रह जाएगा। उसकी वंश—बेल आगे नहीं बढ़ेगी। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वह रूप्पन के पोते—पोतियों को गोद में खिलाएं, उनकी किलकारियां सुनें। उसकी जगह उन्हें रूप्पन की शिकायतें रोज सुनने को मिलती थीं।

हारकर एक दिन उन्होंने ननुआ नाई को घर बुलाया। उससे बेटे की शादी पक्की करने की बात चलाई। ननुआ रूप्पन से पहले ही भर बैठा था। उसके अगले तीन दांत रूप्पन के गुस्से की भेंट चढ़ चुके थे। उसने अम्मा से साफ इन्कार कर दिया। ज्‌यादा इसरार करने पर हुमचकर बोला, ‘‘चाची, क्यों किसी की लड़की की जिंदगी बर्बाद करने की बात कर रही हो। रूप्पन से किसी की शादी पक्की कराने की जगह तो मैं लड़की के मां—बाप से कहूंगा कि बेटी को कुएं में धकेल दें।''

ननुआ के ऐसे ‘मीठे' वचन सुनकर अम्मा के तन—बदन में आग लग गई। पर करती क्या, अपना सोना ही खोटा था, परखने वाले का इसमें क्या दोष होता। फिर ननुआ आखिरी हथियार था। उनके लल्ला की शादी वह ही करा सकता था। सो, उन्होंने ठंडे मन से सोचा और उन्होंने ननुआ के सामने सौ—सौ के दस करारे नोट रख दिए और बोली, ‘‘ननुआ, अब बता, अब तो हो जाएगी मेरे लल्ला की शादी।'' ननुआ कुनमुनाता रहा।

उन्होंने रकम और बढ़ा दी। बोली, ‘‘ये ले पांच सौ और ले... पर भैया ना मत करे... देख इतने ही ब्याह के बाद दूंगी... बोल... अब तो रिश्ता पक्का करा देगा न।'' अब भला ननुआ की क्या औकात की वह मना कर दे। उसने पराई लड़की को कुएं में डालने वाली सलाह फेंक दी और पंद्रह सौ रुपये के नोट जेब के हवाले कर लिए। जाते—जाते कह गया, ‘‘अम्मा... तुम्हारा दुःख देखा न जाता है, कुछ—न—कुछ तो करना ही पड़ेगा। भगवान्‌ ने चाहा तो महीने भर में रूप्पन भैया घोड़ी चढ़ जाएंगे।''

ननुआ की चालाकी और झूठ रंग लाए। एक गरीब ब्राह्मण की लड़की से रूप्पन का रिश्ता पक्का हो गया। वाकई महीने भर में शादी भी हो गई।

शादी में ज्‌यादा हंगामा नहीं हुआ, सिर्फ रूप्पन बाबू के हाथों घराती पक्ष के दो लोग पिटे। हिसाब पूरा करने के लिए रूप्पन को अपने ही बारात के दो लोग मजबूरी में पीटने पड़े। न्याय भी यही कहता था। हां... गलियाने में रूप्पन ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने ससुर से लेकर ननुआ तक दर्जनभर लोगों को गालियों से नवाज दिया। थोड़े—बहुत हंगामें धौल—धप्पल के बाद बारात सकुशल घर लौट आई।

शादी की पहली रात को ही रूप्पन बाबू और बिब्बो रानी उर्फ श्रीमती बिब्बो का सामना हुआ। बिब्बो रानी पतिदेव के लिए दूध का गिलास लेकर आई, उनके पैर छुए। पतिदेव यानी रूप्पन बाबू ने आशीर्वाद के रूप में एक थप्पड़ उसके गाल पर रसीद कर दिया। चिल्लाए, ''मूर्ख औरत... पहले पैर छुए जाते हैं, फिर दूध दिया जाता है। हमने पिक्चर में खुद देखा है। आइंदा ऐसी गलती मत करना, वरना हाथ—पैर तोड़ देंगे। हमारा गुस्सा बहुत खराब है।'' बिब्बो रानी सन्न। भला कोई सुहागरात को अपनी बीवी से ऐसा सलूक करता है। टपटपाते आंसुओं के साथ वह बाहर की ओर प्रस्थान कर गई।

अम्मा से शिकायत की। अम्मा ने अलबत्ता उन्हें ही समझा दिया, ‘‘बहू, हमारा रूप्पन दिल का हीरा है, पर मिजाज थोड़ा गर्म है। मरद जात है, थोड़ा—बहुत ऊंच—नीच हो ही जाती है। दिल पर मत ले।'' पर बिब्बो रानी ने दिल पर ले लिया था। उन्होंने उसी रात को कसम खा ली कि इस दिल के हीरे को ऐसा सबक सिखाएगी कि वह जीवनभर याद रखेगा।

अगले दिन अम्मा ने रूप्पन को खूब ऊंच—नीच समझाई, ‘‘बेटा, बड़ी मुश्किल से ब्याह हुआ है। अपने गुस्से पे काबू रख, वरना बहू घर छोड़कर चली गई तो मुहल्ले में बड़ी फजीहत होगी।'' रूप्पन बाबू ने बड़े बेमन से अम्मा की बात सुनी। अम्मा का टेप रिकॉर्डर जब बंद हुआ तो पिनपिनाकर बोले, ‘‘ठीक है अम्मा... हाथ—पैर अब हम न चलाएंगे, ज्‌यादा गुस्सा आया तो हमारा जोर ना है। पर हां, थोड़ी गाली—गलौज तो चल जाएगी। हमारी अपनी लुगाई है, उसे भी न गलियाएंगे तो क्या पड़ोस में गलियाने जाएंगे।'' अम्मा ने भरे मन से गलियाने की इजाजत दे दी। मन में सोचा— चलो, ऊंट किसी करवट तो बैठा। हो सकता है, घर—गृहस्थी का मोह इसे पूरा ही सुधार दे।

ऐसे ही बीस—पच्चीस दिन बीत गए। रूप्पन बाबू ने घरवाली पर हाथ नहीं उठाया। अलबत्ता, डेढ़ दर्जन गालियां सुबह नाश्ते के समय और दो दर्जन दोपहर को और रात को पेटभर गालियों की खुराक बिब्बो रानी तक पहुंचती रही। ऐसे ही सुखद वातावरण्र में दिन कट रहे थे। अम्मा और बिब्बो रानी थोड़ा निश्चिंत हो गई थीं।

तभी एक दिन तूफान फट पड़ा।

हुआ ये कि सुबह नहा—धोकर रूप्पन बाबू तैयार हो गए। उन्होंने बिब्बो को आवाज लगाई, ‘‘अरे सुनो, जल्दी खाना दे दो, काम पर जाना है।'' बिब्बो बर्तन मांज रही थी। आते—आते बिब्बे को थोड़ी देर हो गई। बस फिर क्या था, रूप्पन बाबू की आंखें लाल होकर बाहर आ गईं, मूंछे तन गईं, गालियों की बाढ़ ने जोर पकड़ लिया। हाथों में कसमसाहट होने लगी। डरती—कांपती बिब्बो रानी जैसे ही कमरे में घुसी, रूप्पन बाबू ने मर्दानगी का पूरा नजारा पेश कर दिया— दे—दनादन... दे—दनादन...। बिब्बो रानी जितनी जोर से चिल्लाती, रूप्पन के हाथ भी उतने ही जोर से चलते। वह तो भला हो अम्मा का, जो ठीक वक्त पर प्रगट हो गईं, वरना बिब्बो रानी अस्पताल के किसी बेड की शोभा बढ़ा रही होतीं। बिब्बो रानी अम्मा के गले लगकर रोती रहीं। अम्मा रूप्पन को कोसती रही और बचे रूप्पन, वह गालियों से काम चलाते रहे। मूंछों पर हाथ फेरकर बड़बड़ाते रहे, ‘‘कमबख्त, हमारे मुंह लगती है। जानती नहीं, जिस मर्द की मूंछ ना तने और जिसका हाथ न चले, वह भला कैसा मर्द।'' कहकर उन्होंने अपनी मूंछों पर फिर से हाथ फेरा। बिब्बो रानी ने रोते—रोते भी रूप्पन बाबू के सारे डायलॉग सुन लिए और मन में ठान लिया कि चाहे जो हो, रूप्पन बाबू के मूंछों के घमंड को तोड़कर रहूंगी।

उसी रात को उन्होंने अपनी योजना तय कर ली। योजना के मुताबिक अगली सुबह उन्हें बाजार जाना था, वह भी रूप्पन बाबू के साथ।

अगले दिन सुबह आब बजे के करीब बिब्बो के जोर—जोर से रोने—चिल्लाने की आवाज आई। अम्मा दौड़ी—दौड़ी गई तो देखा बिब्बो रानी पेट पकड़कर जोर—जोर से कराह रही है, ‘हाय दैया... मर गई... कोई बचा लो...।' कहकर वह जोर से चिल्लाने लगी। अम्मा भी घबरा गई, आखिर इकलौती बहू थी, उसे कुछ हो जाता तो...। अम्मा ने जल्दी से सोते हुए रूप्पन को जगाया। रूप्पन पहले तो नींद तोड़ने पर बुरी तरह बिगड़े, फिर उन्होंने बिब्बो की चीख—पुकार के दृश्य देखे। दृश्य देखकर वह खासे प्रभावित हुए। फटाफट स्कूटर उठाया, लादा बिब्बो को स्कूटर पर और चल दिए सरकारी अस्पताल—बिब्बो को दिखाने।

स्कूटर पर बैठते ही बिब्बो का पेट का दर्द ठीक हो गया। दर्द ठीक होते ही दिमाग ने काम करना शुरू कर दिया। अस्पताल मुहल्ले से आठ किलोमीटर दूर था। इस बीच बिब्बो ने कई योजनाएं बना डालीं। अब वक्त था उनको अमली जामा पहनाने का।

जल्दी ही वक्त आ गया। मंदिर वाले चौराहे के पास बहुत भीड़ नहीं थी। वहीं एक बैंच पर चार—पांच हट्टे—कट्टे लड़के बैठे थे, जो देखने में ही गुंडे लग रहे थे। बस बिब्बो का दिमाग काम कर गया। भीड़ के कारण स्कूटर की स्पीड धीमी ही थी, तभी बिब्बो उनमें से एक लड़के को देखकर मुस्कराई। लड़का भी मुस्कराया। अबकी बिब्बो शरमाई, फिर मुस्कराई। लड़का भी तुर्की—बतुर्की जवाब देता रहा। अब इस देखा—देखी से लड़के का मन उछल गया। उसने अपने कदम बिब्बो की ओर बढ़ा दिए। उसके तीनों दोस्त उसके पीछे थे। अब वे चारों लड़के स्कूटर के पास आ गए और बिब्बो को देखकर आहें भरने लगे। एक बोला, ‘‘हाय मेरी छम्मक छल्लो, इस बजरबट्टू के साथ कहां जा रही है, हमारे साथ चल, ऐश करेगी ऐश।'' यह कहकर एक लड़के ने जैसे ही बिब्बो की साड़ी का आंचल छुआ, बिब्बो जोर से चीख पड़ी, ‘‘सुनते हो जी, ये लड़का मुझे छेड़ रहा है।‘‘ बिब्बो की चीख सुनते ही रूप्पन बाबू का खून खौल गया। उन्होंने गुस्से से स्कूटर रोका, बांहें चढ़ाईं मूंछों पर ताव दिया और जैसे ही अपने गुस्से को परवान चढ़ाने वाले थे, चार—चार मुस्टंडों को देखकर ठिठक गए। गुस्से का पारा नीचे आने लगा। धीमे से बिब्बो से बोले, ‘‘रहने दो, ये तो आवारा लोग हैं, इनके मुंह क्या लगना?‘‘ फिर क्या था, बिब्बो तो भनक गई। कलपकर बोली, ‘‘जाओ जी, बड़े मरद बनते हो, अपनी घरवाली की रक्षा भी नहीं कर सकते।‘‘ बिब्बो की इन जली—कटी बातें सुनकर रूप्पन बाबू की सोती गैरत जाग गई। उन्होंने हिम्मत करके एक लड़के का गिरेबान पकड़ लिया।

बस फिर क्या था, चारों लड़कें रूप्पन पर टूट पड़े। दनादन दस—बीस हाथ पड़ गए, लातें तो बेहिसाब पड़ी। उनके माथे पर पकौडे उभर आए, गालों पर कचौड़ियां और मोटी—मोटी आंखों के नीचे बिन लगाए काजल पुत गया। रूप्पन बाबू पिटते रहे, चीखते रहे, बिब्बो रानी शांति से यह लीला देखती रही। थोड़ी देर बाद लड़के मारते—मारते थक गए तो बिब्बो रानी उनके पास हाथ नचा—नचाकर बोली, ‘‘क्या हुआ, जो चार—चार ने मिलकर मेरे बेचारे पति की पिटाई कर दी, पर देख लो, मेरे बहादुर पति को, उनकी मूंछें अब भी तनी हुई हैं। मदोर्ं की मूंछें तनी रहती हैं और हाथ चलते रहते हैं...।‘‘ कहकर उन्होंने पति की ओर देखा और उनसे बोलीं, सुनो जी...एक बार अपनी मूंछ पर हाथ तो फेरकर दिखाओ, ये लोग भी जान जाए कि किस बहादुर से पाला पड़ा है।‘‘ पत्नी के ये वीरतापूर्ण वचन सुनकर रूप्पन को भी हल्का—सा जोश आया, उन्होंने कराहते—कराहते भी मूंछों पर हाथ रख दिया और उन्हें सहलाने लगे।

यह दृश्य देखकर चारों लड़कों को तो जैसे आग लग गई। तीन लड़के तो रूप्पन की मूंछों को उखाड़ने लग गए, चौथा लड़का भागकर नाई की दुकान से उस्तरा ले आया। रूप्पन बाबू दया की भीख मांगते रहे, उन्हें छोड़ देने की अपील करते रहे, पर वे लड़के उनकी मूंछों को सफाचट करके ही माने। रूप्पन बाबू ने अपना सिर फोड़ लिया। कुछ ही देर में वह बेहोशी को प्राप्त हो गए।

बिब्बो रानी जो बड़ी देर से इस नौटंकी का आनंद ले रही थीं, रूप्पन की बेहोशी ने उनके आनंद में खलल डाल दिया। उन्हें अपना कर्तव्य याद आ गया। वह चीख—पुकार मचाने लगीं। उनकी चीख—पुकार पर लोग इकट्ठा हुए। बिब्बो ने लोगों की मदद से रूप्पन के बेहोश जिस्म को रिक्शे पर लादा और उनका लदान अस्पताल की ओर कर दिया। अस्पताल में कई दिन तक रूप्पन का इलाज चला, तब जाकर कहीं वह ठीक हुए।

रूप्पन जब से अस्पताल से लौटे हैं, उनमें खासा बदलाव आ गया है। आजकल रूप्पन बाबू की मर्दानगी जोर नहीं मारती। वह आजकल न गालियां देते हैं और न मार—पीट करते हैं। इन सबके लिए मूंछों पर ताव देना जरूरी है, पर मूंछें कहां हैं।

घर और मुहल्ले में आजकल बहुत शांति हैं। घर में जब भी रूप्पन की आंखें लाल होती हैं, हाथ फड़फड़ाने लगते हैं, बिब्बो बहाने से उनकी पिटाई और मूंछों की कटाई की बात छेड़ देती है। रूप्पन की मर्दानगी शांत हो जाती है।

कहीं आप में रूप्पन की तरह की मर्दानगी नहीं है। ऐसा है तो याद रखिएगा, आपकी पत्नी में भी बिब्बो रानी की आत्मा प्रवेश कर सकती है।

जी—186—ए, एच.आई.जी. फ्लैट्‌स

प्रताप विहार, गाजियाबाद (उ.प्र.)

पिन—201009

मो. 09311660057