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छुट्टन की डॉक्टरी

छुट्टन की डॉक्टरी

-सुभाष चंदर

कोई भी गांव अगर प्रसिद्ध हो जाए तो उसके पीछे कई कारण होते हैं, पर बेगमपुर गांव की प्रसिद्धि का सिर्फ एक कारण है और वो है छिद्दा चौधरी के सपूत छुट्टन की प्रतिभा। कहते हैं न कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात। इसी कहावत की तर्ज पर छुट्टन ने छुटपन से ही अपनी प्रतिभा का कमाल दिखाना शुरू कर दिया। पांच बरस की उमरिया तक आते-आते वह मोहल्ले में काफी नाम कमा चुके थे। लोगों के घर से दूध-दही-मक्खन चोरी करना, अपनी उमर के बच्चों की चंपी करना, एक सांस में आठ-दस गालियां बक जाना उनके प्रिय शगल रहे।

उसके बाद छिद्दा चौधरी ने उन्हें स्कूल में दाखिला दिला दिया। स्कूल में उन्होंने किसी तरह पूरे सात साल काटे। इन सात सालों में उन्होंने स्कूल की सात बंेच तोड़ी, हर सफेद दीवार पर स्याही की पच्चीकारी की। कई साथी लड़कों के कान उखाड़े। सातवीं कक्षा तक आते-आते वह छोटे बच्चों के पैसे भी छीनने लगे थे। पूरा स्कूल उनसे खौफ खाता था, पर खुद छुट्टन किसी से खौफ खाते थे तो वह थे उनके सगे बाप-चौधरी छिद्दा सिहं। छिद्दा सिहं गालियां बकने में अगर बी.ए. थे तो लाठी बजाने में एम.ए.। छुट्टन गाहे-बगाहे गाली-लाठी का प्रसाद चखते रहते थे। ऐसा न होता तो छुट्टन कतई स्कूल में रूकने वाले जीव नहीं थे। सच कहूं तो वह बहुत दुःखी थे और स्कूल रूपी जेल से जल्दी फरार होने की जुगत में थे।

मास्टरजी की कृपा से जल्दी ही वह मौका भी आ गया। उस दिन मास्टरजी ने सब बच्चों को अपना होमवर्क दिखाने को कहा। छुट्टन भी तलब हुए, पर जैसी कि उम्मीद थी, छुट्टन स्कूल भी बाप के डर से आ जाते थे। यही क्या कम था, जो होमवर्क भी करते।

बस मास्टरजी बमक उठे। उठाई छड़ी और दनादन धर दी छुट्टन के पिछवाड़े पर। छुट्टन बिलबिला गए। गुस्से से मास्टरजी को देखा, निकाली बस्ते से गुलेल, लगाया गोल पत्थर और लगाय दिया निशाना। निशाना बिलकुल ठीक लगा, ठीक मास्टरजी की बायीं आंख पर। मास्टरजी चीखते-चिल्लाते रहे गए, पर छुट्टन तो ये जा और वो जा...!

इस प्रकार मास्टरजी की आंख फूट गई और छुट्टन की पढ़ाई छूट गई। छिद्दा चौधरी ने हैडमास्टर के लाख हाथ-पांव जोड़े, पर वो नहीं माने, इस पर उन्होंने गालियों के भंडार में से सजी हुई चुनिंदा गालियां भेंट की, हारकर तेल पिली लाठी दिखाई, पर हैडमास्टर तैयार नहीं हुए। हाथ जोड़कर बोले, ‘‘चैाधरी चाहे तो जान ले ले, पर तेरे लौंडे कू स्कूल में न लेने का हूं। तेरी लाठी से तो सिर ही फूटेगा, पर तेरे लौंडे की गुलेल से तो आंख ही फूट जावैगी। मुझे और मेरे मास्टरों कू काना होने का शौक ना है।’’ हारकर छिद्दा चौधरी घर लौट आए, आकर उन्होंने छुट्टन की जमकर खबर ली। छुट्टन दस-बारह दिन बिस्तर पर पड़े हल्दी-दूध पीते रहे। ठीक हो जाने के बाद फिर से अपने काम में लग गए। उनकी मुक्त प्रतिभा ने अपने कमाल दिखाने शुरू कर दिए।

वो लगातार प्रगति के नए आयाम छूते रहे। बीड़ी से उठकर सिगरेट पर आए, सिगरेट से गांजे और गांजे से दारू तक आने में उन्होंने पूरे पांच साल लिए। पैसे की कोई ज्यादा कमी नहीं थी, चैधराइन से ठग लेते, नहीं तो चोरी-छिपे घर का अनाज औने-पौने दामों में बेच देते। घर में सख्ती होती तो आसपास के घरों को भी अपना समझ लेते।

इसी तरह अपने कर्मों का विकास करते-करते वह बीस साल की उमरिया को प्राप्त हो गए। छुट्टन मस्त थे, पर छिद्दा सुस्त थे। भला इस लौंडे का क्या किया जाए? वह चाहते थे कि छुट्टन कुछ काम-धंधा करे तो वह उसका ब्याह तय कर दें। ब्याह होगा तो अच्छा दहेज मिल जाएगा, सेंत में लौंडा भी सुधर जाएगा।

एक दिन यही सोचकर उन्होंने छुट्टन को तलब किया। छिद्दा चौधरी के चेहरे से गंभीरता टपक रही थी। छुट्टन समझ गए, मामला कुछ लफड़े वाला है। चौधरी हुक्का गड़गड़ाकर बोले, ‘‘लल्ला, जे बताओ, तुम का चाहते हो?’’

‘‘हम तो कुछ नाय चाहते। देना चाहो तो सौ रूपैया दे दो...शहर में सिनेमा लगा है, देख आएंगे।’’ कहकर छुट्टन ने खींसें निपोर दीं।

छिद्दा बमगमा उठे। लाठी जमीन पर मारी। भड़ककर बोले, ‘‘लल्ला...लाठी मारकर पिछवाड़ा तोड़ देंगे, जो मसखरी करी तो...।’’ फिर थोड़ा मुलायम होकर बाले, ‘‘लल्ला...अब तुमहारी उमर होय गई है, कुछ काम-धाम करो तो तुम्हारा कुछ सादी-ब्याह करें...।’’ रूककर बोले, ‘‘अच्छा जे बताओ, तुम का काम करना चाहते हो...खेती करोगे?’’

छुट्टन ने सिर हिलाय दिया।

‘‘तो फिर कोई दुकान खोल लो। बताओ...दुकान खुलवाए देते हैं।’’

छुट्टन ने गर्दन फिर दायें-बायें घुमाय दी।

खीझकर छिद्दा बोले, ‘‘तो फिर नौकरी करोगे, करें रामधन से बात, वो फैक्टरी में नौकरी दिलवाय देगा, बोलो करोगे नौकरी...।’’

छुट्टन हिनहिनाए, ‘‘नौकरी तो हम हरगिज नाय करेंगे...।’’

छिद्दा का पारा सातवें आसमान को छूने वाला था, उसे थोड़ा नीचे लाकर बोले, ‘‘तो फिर तुमही बताओ, क्या करोगे?’’

इस पर छुट्टन शरमाय के बोले, ‘‘बापू...हमें हराम पच गयौ है, हम क्यूं काम करेंगे।’’ कहकर छुट्टन ने रेस लगा दी।

छिद्दा चौधरी ने एक हाथ से अपना माथा और दूसरे से छाती एक साथ पीट ली।

ऐसे ही कुछ दिन चलता रहा। एक दिन शहर का बुलाकी नाई चौधरी से मिलने आया। चौधरी ने छुट्टन की राम कहानी सुनाई। बुलाकी बोला, ‘‘चौधरी लौंडे कू डॉक्टर बनाय देयौ।’’

चौधरी चैंके, ‘‘कैसे भैया...?

बुलाकी बोला, ‘‘शहर में एक डॉक्टर से मेरी पहचान है। उसकी दुकान में कंपौडर की जगह खाली है। मैं कहूंगा तो वो छुट्टन को रख लेगा। भगवान् ने चाहा तो दो-चार साल में छुट्टन काम सीख जाएगा, फिर आराम से गांव में डॉक्टरी कर लेगा। दाल-रोटी का अच्छा जुगाड़ हो जाएगा।’’

चौधरी की समझ में बात आ गई। मजे की बात ये कि छुट्टन भी मान गए। अगले ही दिन छुट्टन का लदान शहर की तरफ हो गया। शहर में जाकर अब वह कंपाउंडर छुट्टन कहलाने लगे।

छुट्टन ने पूरी लगन और मेहनत से पूरे आठ दिन तक काम सीखा। सफेद गोली बुखार की, पीली गोली दस्त की, नीली गोली दर्द की, लाल सीरप खांसी, पीला सीरप जुकाम...सब मामला उनकी समझ में आ गया। और तो और वह अपनी मेहनत से इंजेक्शन लगाना भी सीख गए। आठ दिन में उन्होंने चार दवाईयों के नाम भी रट लिए थे। अभी वह कुछ और तरक्की करते, पर कमबख्त नौवां दिन आ गया।

उस दिन डॉक्टर की दुकान पर खासी भीड़ थी। डॉक्टर दवाई लिख रहे थे, कंपाउंडर छुट्टन दवाई दे रहे थे, तभी एक व्यवधान पड़ा। एक सुंदर-सी कन्या ने क्लीनिक में प्रवेश किया। कन्या को देखते ही छुट्टन दवाई भूल गए और कन्या पर ध्यान केंद्रित करने लगे। कन्या की आंखें झील जैसी गहरी थी, छुट्टन उस झील में कूद गए और काफी देर तक तैरते रहे। छुट्टन अपने काम में मस्त थे, उधर डॉक्टर छुट्टन-छुट्टन चिल्लाकर हलकान थे। उसने कंपाउंडर रूम में आकर देखा तो छुट्टन पर बरस पड़े। शुद्ध अंग्रजी में चार-छह गालियां फेंक मारीं छुट्टन पर। छुट्टन तो बिदक गए, ‘‘एक तो गलियां अंग्रेजी में दीं, वो भी कन्या के सामने...स्सारै डॉक्टर के बच्चे...तेरी तो ऐसी की तैसी...तड़ातड़...तड़...धर दिए पांच-सात झापड़...चार-छह लात।’’ डॉक्टर चीखने-चिल्लाने में व्यस्त रहा और छुट्टन ने बाहर की ओर दौड़ लगा दी। अलबत्ता जाते-जाते वह दवाइयों के पांच डिब्बे और कुछ इंजेक्शन सेट और स्टेथोस्कोप अपने साथ लाना न भूले। आखिर शहर की कंपाउंडरी की कुछ निशानी तो रखनी थी न।

इस घटना के तीसरे दिन ही गांव में बोर्ड लग गया- छुट्टन चौधरी की डॉक्टरी की दुकान। मतलब अब छुट्टन शहर रिटर्न डॉक्टर हो गए। अब सुबह-शाम छुट्टन बनेगा दुकान खोलते, पर इस दुकान में उनके गंजेड़ी-लंगेड़ी साथी आते। टैम पास करने लौंडे-लपाड़े आते, पर वे नहीं आते जिनसे कमाई होनी थी। छुट्टन परेशान थे, सुबह-शाम दुकान की हाजरी बजाते। बोर होकर एकाध चिलम-गांजे की मार लेते। शाम को गम गलत करने को लालपरी का सेवन करते। अगले दिन फिर मरीज के आने का इंतजार करते।

एक दिन सच्ची में डॉक्टर छुट्टन की किस्मत का ताला खुल गया। दोपहरी का टाइम था। छुट्टन अपनी डॉक्टरी की दुकान में गांजे की चिलम का सेवन कर रहे थे, तभी मन्नू लुहार चीखता-चिल्लाता आया, ‘‘भैया डागदर बाबू, हमैं बचाय लौ। हमारे बड़ी जोर से सिर में दर्द हो रहा है। कोई ऐसी गोली दे दो, जो हमारे सिर का दर्द टें बोल जाए।’’

डॉक्टर छुट्टन ने गांजे से ललियाए अपने नेत्र खोले, एक नजर मन्नू पर और दूसरी दवाइयों के डिब्बे पे डाली। दिमागे शरीफ पर जोर डाला तो याद आ गया-सिर दर्द यानी नीले रंग की गोली। बस फिर क्या था, निकाली आठ-दस गोली। बांधी पुड़िया और धर दी मन्नू की हथेली पर। मन्नू ने पूछा, ‘‘डागदर बाबू...कित्ती गोली, कित्ती देर में खानी है।’’

छुट्टन सोच में पड़ गए। डॉक्टर तो एक-एक गोली दिन में तीन बार खाने को कहता था, पर एक गोली में दर्द बंद न हुआ तो...सो, उन्होंने मन्नू को लाख टके की सलाह दी, ‘‘भैया, दो-दो गोली हर दो घंटे बाद खा लेना। पिरभु में चाही तो दर्द टें बोल जाएगा।’’ मन्नू ने डागदर बाबू की सलाह रूमाल में दवाइयों के साथ बांध ली। एक बाबा आदम के जमाने का नोट डागदर बाबू की हथेली में रखा और अंतध्र्यान हो गया।

अब पता नहीं, मन्नू का भाग्य था, वक्त का फेर था या छुट्टन की डागदरी का कमाल। मन्नू जो था, वह ठीक हो गया।

ये खबर पूरे गांव में फैल गई।

बस फिर क्या था, इस घटना के बाद तो छुट्टन डागदर की डॉक्टरी चमक गई। छिद्दा चौधरी ने लड़की वालों की जेबें टटोलनी शुरू कर दीं। रात-रात भर बैठकर चैधरी-चैधराइन डॉक्टर बेटे के दहेज का हिसाब लगाते। छुट्टन भी मां की सलाह पर शादी की शेरवानी का नाप दे आए।

कुल मिलाकर माहौल बहुत बढ़िया था। छुट्टन को डॉक्टरी की दुकान खोले पूरे सोलह दिन बीत चुके थे। इन सोलह दिन में पूरे चालीस मरीज आए थे, जिनमें से चार तो छुट्टन की दवाइयों से ही ठीक हो गए थे। मामला चकाचक था। सत्रहवें दिन की शाम तक मामला चकाचक ही चलता रहा।

रात के कोई आठ बजे होंगे, तभी पड़ोस के गांव की एक बैलगाड़ी डॉक्टर बाबू की दुकान के आगे रूकी। चार आदमी कंबल में लिपटे एक मरीज को उतार ले आए। मरीज ने कराहते-कांखते हुए बताया कि ‘‘उसके पेट में घनी जोर का दरद होय रहा है। जल्दी ठीक कर दो।’’ डॉक्टर छुट्टन ने स्टेथोस्कोप से मरीज के पेट की जांच की। पूरे पेट पर स्टेथोस्कोप घुमाया। सारी बीमारी समझ ली। दिमाग पर जोर डाला तो याद आ गया-पेट का दर्द मतलब, पीली गोली। ज्यादा दर्द यानी डबल गोली। बस दे दी चार गोली। मरीज ने चारों गोली निगल लीं और छुट्टन के साथ पेट दर्द ठीक होने का इंतजार करने लगा, पर पेट दर्द बैरी बहुत बेशरम था, ठीक ही नहीं हुआ। जब आधे घंटे बाद भी मरीज चिल्लाता रहा तो छुट्टन ने पिनककर दस-बारह गोली इकट्ठी मरीज के हलक में ठूंस दी। साथ में मूंछों पर ताव देकर धमकी भी दी, ‘‘हम देखें कि कैसे यू ससुरा पेट का दर्द ठीक ना हौवे। या तो दरद नहीं या मरीज नहीं।’’

पर दर्द भी वहीं रहा और मरीज भी। हां, उसके चीखने-चिल्लाने की आवाजें और बढ़ गई। वह बार-बार अपने पेट पर हाथ रखकर चीख रहा था। तभी छुट्टन को इंजेक्शन की याद आई। उन्होंने भरी सीरिज और इंजेक्शन ठोक दिया पेट में। मरीज चिल्लाया, ‘‘डैगदर बाबू, जे का कर दिया। भला कहीं पेट में इंजेसन लगत है।’’ पर छुट्टन ने उन्हें धमका दिया, ‘‘चुप पागल, डागदर तू है या हम हैं। जहां दर्द होगा, वहीं इंजेक्शन लगेगा। अब चुप कर जा। दो-चार मिनट में आराम पड़ जाएगा।’’

आराम तो खैर क्या पड़ना था, पर दवाइयों और इंजेक्शनों की कृपा से मरीज का पेट भूल गया। फूलकर कल्लू लाला की तोंद सा हो गया। मरीज के तीमारदार चिल्लाने लगे, डागदर बाबू को कोसनेलगे। अब छुट्टन डागदर घबराए। ये क्या मुसीबत गले पड़ गई। अब इस पेट को कैसे साइज में लाएं। सोच में पड़ गए। दवाइयों ने ही पेट फुलाया है, जब तक दवाई बाहर न निकलें, पेट फूला ही रहेगा। क्या करें...क्या करें। दिमाग ने फार्मूला सुझा दिया-चीरा...। अब तो चीरा ही इलाज है।

बस फिर क्या था! छुट्टन ने सब्जी काटने वाला चाकू निकाला और लग गए ‘चीरा ऑपरेशन’ में। मरीज चिल्लाया, तीमारदार चिल्लाए, ‘‘डागदर जे का कर रहा है। मारेगा मरीज कू।’’ पर छुट्टन कड़क डॉक्टर थे, उन्हें इलाज करना आता था। कड़ककर बोले, ‘‘चुप करो, मूर्खों...दवाइयों से पेट का दर्द एक जगह इकट्ठा हो गया है। बस एक चीरा लगाएंगे और दर्द बाहर निकल जाएगा।’’ फिर जुट गए अपने काम मे, लगा दिया चीरा पेट में।

फिर क्या था, थोड़ी देर बाद पेट से दर्द तो बाहर नहीं निकला, हां, खून जरूर निकलता रहा। जो बहुत देर तक बंद नहीं हुआ। मरीज की हालत बिगड़ती देखकर दो तीमारदारों ने उसे बैलगाड़ी पर लादा और बाकी के तीमारदार डागदर बाबू की सेवा में जुट गए। तेल पिली लाठियों ने छुट्टन की तब तक सुताई की, जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गए। प्रत्यक्षदर्शी बुलाकी नाई बताते हैं कि उन लोगों ने छुट्टन की डागदरी उनके किसी विशेष स्थान में घुसेड़ दी।

तीमारदार तो मरीज को लेकर शहर के अस्पताल चले गए। वहां छुट्टन की कृपा के मारे मरीज ने दम तोड़ दिया। तीमारदारों ने छुट्टन के खिलाफ पुलिस में रपट लिखा दी। पुलिस जिस समय

छुट्टन के घर पहुंची, उस समय वह अपनी चोटों पर हल्दी का लेप करा रहे थे, जो उनके अनुसार रपट कर गिर जाने से आई थीं। वह अपनी अम्मा को एक गंभीर मरीज के सफलतापूर्वक इलाज का किस्सा बयान कर रहे थे और दुकान पर कल करने वालों की कारनामों फेहरिस्त गिना रहे थे, पर पुलिस ने उनकी मंशा पूरी होने नहीं दी।

ताजा खबर यह है कि आजकल डॉक्टर छ्ट्टन जेल में डॉक्टरी कर रहे हैं। अलबत्ता उनकी शादी की शेरवानी अब तक उनका इंतजार कर रही है।

जी-186-ए, एच.आई.जी. फ्‍लैट्स

प्रताप विहार,गाजियाबाद (उ.प्र.)

पिन-201009

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