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प्रेमपत्र

प्रेमपत्र

भूपेन्द्र कुमार दवे

प्रेमपत्र मात्र प्रेमपत्र नहीं होते। वे भविष्य से मैत्री के लिये बढ़ाये हाथ की तरह होते है जो चाहते हैं कि इनके माध्यम से जीवन भविष्य से गठबंधन कर प्रेम से ओतप्रोत हो उठेगा। इसलिये ये पत्र लिखने व पानेवाला उन्हें बहुत संजोकर रखता जाता है। परन्तु नये प्रेमी या प्रेमिका के आते ही सब जल कर भस्म हो जाते हैं या फिर उनकी ‘कॉर्बन कॉपी’ नये प्रेमपत्र लिखने के काम आने लगती है। विवाह निश्चित होने के पहले सभी पुराने प्रेमपत्र आग के हवाले कर दिये जाते हैं। डाव्हर को खंगालकर, अटैची के कोने छानकर, किताबों को फटकार कर सुनिश्चित किया जाता है कि कहीं कोई प्रेमपत्र दुबका न पड़ा हो। तब पत्र की कॉर्बन कॉपी भी नहीं बच पाती।

विवाह उपरान्त पति अपनी पत्नी को मैके जाने नहीं देता और पत्नी मैके जाने का मात्र नाटक करती है, अब भला प्रेमपत्र जन्मे भी तो कैसे? बेचारे प्रेमपत्र विरह की वेदना प्रकट नहीं कर पाते।

माना जाता है कि प्रेमपत्र हृदय की भावनाओं के उद्वेग से पनपते हैं और मस्तिष्क की सोच से सँवरते हैं। जब इन दोनों में समन्वय नहीं होता तो प्रेमपत्र विरह की भड़ास मिटानेवाले चिठ्ठा बनकर रह जाते हैं --- धमकियाँ दी जाने लगती हैं कि जल्दी लौट आवो वरना छोड़-छुट्टी हो जावेगी। जवाब में दूसरे पक्ष से फायरिंग होने लगती है और सुलह के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। शेष रह जाते हैं अधलिखे प्रेमपत्रों की कतरनें जो यादों के कचरादान से उठाकर पढ़ी जाती हैं।

शक का भूत प्रेमपत्र रूपी पीपल के पेड़ में भी छिपा बैठा मिलता है। पीपल के पेड़ के पत्ते जरा सी हवा में एकदम फड़फड़ाने लगते हैं और इतना शोर करने लगते हैं जैसे तूफान आनेवाला हो। इस कारण विश्व के कई बेहतरीन प्रेमपत्रों को जलाकर भस्म किया जा चुका है। वरना इन प्रेमपत्रों से मैं भी कुछ लिख जाना सीख लेता।

लेकिन कुछ ऐसे विवाहित सज्जन हैं जो प्रेमपत्र पाने और लिखने के लिये ताउम्र तरसते रहते हैं। पत्नी का अनपढ़ होना, लजीला होना, हठीला होना आदि या फिर पति का आलसी होना, मनहूस होना, लापरवाह होना, हठीला होना आदि ऐसे अनेक कारण है जिससे प्रेमपत्र लिखने की कला में प्रवीणता पानेवालों की कमी बनी हुई है।

पति पत्नी के सामने मूर्खता प्रदर्शित करने में कभी नहीं झिझकता। सो, मैंने एक दिन कह दिया, ‘प्रेमपत्र लिखना एक कला है। काश, हम भी इस कला को सीख लेते।’

पत्नी ने तड़ाक से जवाब दिया, ‘विवाह होते ही यह कला सुप्त हो जाती है। विश्व के जितने भी अच्छे प्रेमपत्र हैं, वे अविवाहता की दशा में ही लिखे गये हैं।’

‘खैर, जो तुमने विवाह के पहले लिखे हैं, उन्हें ही दे दो। पढ़कर तसल्ली कर लूँगा। देखूँ, ये ज्वालामुखी सुप्तवस्था में जाने के पहले कैसा लावा उगलता था और हृदय में कैसा भूकंप मचाता था?’

‘मैंने कोई पत्र-वत्र नहीं लिखे हैं और अगर लिखे भी होते तो आपको कतई नहीं देती, समझे।’

मुझे मौका मिला यह कहने का, ‘प्रेमपत्र लिखने के लिये दिमाग होना चाहिये। इस द्दष्टि से मैंने मान लिये कि तुमने कभी प्रेमपत्र नहीं लिखे होंगे।’

‘प्रेमपत्र क्या होता है आपको मालूम है?’ उसने प्रश्न किया।

मैंने तुरंत अपने मन-मस्तिष्क में विचारों का सन्तूरवादन चलाया और प्रेमपत्र की यूँ परिभाषा बनाई, ‘प्रिये, प्रेम की स्याही में दिमाग की कलम डुबो कर हृदय के कागज पर उकेरी प्यारी भाषा को प्रेमपत्र कहते हैं।’

‘यह परिभाषा तो कोई भी गढ़ सकता है,’ यह कह कर मेरी पत्नी ने मेरे दिमाग की उपजी इस सुन्दर परिभाषा को कूड़े-करकट समझ दरकिनार कर दिया। मेरी बुद्धि घायल पक्षी की तरह तड़प उठी --- वह न पंख फैला सकी और न उड़ान का सोच सकी।

कालान्तर जब मैं एकांत में सोचने लगा तो पाया कि प्रेमपत्र मात्र शब्दसागर पर उठती लहरों का चित्रांकन नहीं है, उसमें सागर की गहराई तक किये गये मंथन से उभरते फेन का अर्थ भी है। इसमें विरह के साथ मिलन की लालसा होती है, इसमें मचलती खुशी के साथ गुदगुदाता दर्द होता है, इसमें यादों की भीड़ से घिरा अकेलापन होता है, तन्हा मन में विचारों का जमघट भी होती है, इसमें शब्दों की भीड़ को छाँटती एक गहन अर्थ की चिन्गारी होती है जो एक हृदय से निकलकर दूसरे हृदय में प्रेम-दीप को प्रज्वलित करना जानती है। इसमें होता है कुछ नमकिन अल्हड़पन, कुछ प्यार की चासनी से भींगा भोलापन, कुछ नखरे के कढ़ाई में तली यादों का तीखापन, कुछ विरह की किसनी से निकला अनुभवों का कसैलापन, कुछ विचारों पर छिड़की नासमझी से पैदा कडुआपन। इसमें भरी होती है यथार्थता में कसमसाती अनुभवों की पीड़ा जिस पर भविष्य की सुन्दरता का आभास दिलाती लेप लगी होती है जो सपनों में खोये बीते वक्त की पुनर्जीवित करने की क्षमता रखती है। प्रेमपत्र में शब्द व अर्थ के अलंकार के बीच कुछ सादगी भरे आभूषणों का होना विशेषता रखता है। इसमें नवरस के अर्क से परिपूर्ण पंखुड़ियों के स्नेहपूर्ण स्पर्श से महकते शबनम की आवश्यकता होती है।

प्रेमपत्र की इस लम्बी परिभाषा को मेरी पत्नी ने मात्र दो शब्दों में बाँध दिया। वो कहने लगी, ‘प्रेमपत्र लिखने के लिये बस थोड़ी सी बेवकूफी ही काफी होती है।’

मैंने कहा, ‘लिखा-पढ़ा कभी बेवकूफ नहीं होता।’

पत्नी भला चुप क्यों रहती, बोल पड़ी, ‘हाथ कंगन को आरसी क्या? खुद को देख लो।’

वह अपने हाथ में एक कागज लिये हुए थी और उसे मेरी ओर बढ़ाते हुए ऐसे देख रही थी जैसे कोई विपक्षी पर भ्रष्टाचार का सबूत पेश करते मिड़िया के सामने आता है। उसका इशारा मेरे लिखे उस ‘प्रेमपत्र’ की ओर था जो वह मेरी छोटी-सी बेवकूफी का बड़ा-सा पुलिंदा समझ रही थी। ‘देखिये आप कितने बड़े हैं’, उसने कहा। यह सुन मेरा कलेजा गर्व से फूल उठा। मैंने प्रेमपत्र कविता में लिखा था, अतः मुझे लगा कि मेरी पत्नी मेरे कवित्व की तारीफ कर रही थी। मैं कह उठा, ‘चलो, कम से कम तुम्हें तो अहसास हुआ कि मैं बड़ा कवि हूँ।’

‘मैंने आपके बड़े कवि होने की बात नहीं कही है। मैंने सिर्फ यह कहा कि आप बड़े हैं।’

उसका तात्पर्य मुझे महान बेवकूफ कहने से था। आप ही देखिये इस कागज में बेवकूफी कहाँ है। यह तो मात्र ‘संबोधन’ को तलाशता किसी पत्र का शुरुआती प्रयास-सा ही तो है। मैंने लिखा था ---

‘‘हे सागरवासिनी!

मनमणि मुखरित हो ऐसा मनहर

कैसे लाऊँ शब्द ऐसे चुनकर

करूँ प्रारंभ कैसे यह सुप्रयास

शब्द-सरससुधा से प्रणयाभास

प्राणप्रिये, प्राणाधिके, अतिप्रिये,

प्रियतमे, प्रियभाषिणी, प्रियदर्शने,

सुमुखी, सुदंती, सुकेशी, सुलक्षणा,

शुभहासिनी, सुवचनी, सुलोचना,

मनभावती, मदलोचनी, महिमावती,

मनमोहनी, मनोहारिणी, मृगयिनी,

सुखदायिनी, सुचरित्रा, सुभाषिणी,

कंजमुखी, कंजनैनी, कलकण्ठि,

कैसे संबोधित करूँ, है यह व्यथा

लज्जाविनम्रे, जीवनमयी, जीवनसुधा,

सुवर्णवर्णी, सुकुमारी, रंगीली,

रसीली, प्रणयिनी लिखूँ या छबीली,

कमलिनी-सी रमती द्दगलोचनी,

रसवंती, सजनी या मृगलोचनी,

सब लिखूँ तो सोचेगी गरिमावती

है कितनी मेरी ये प्रतिभावनी

पर लगती यह शब्दावली अधूरी

गर न करे प्रकट रमणी सुधा-सी

लावण्यमयी, ललना, सुन्दरा-सी

वदन मंड़ल चंद्रमुखी चंद्रमा-सी

प्यारी घटा-सी, सुमणि प्रभा-सी

स्वर्णवदन कुंज कांचनवल्लिका-सी

प्रभातकालीन सुप्रदीपिका-सी

या अलोल विद्युत-धुति मालिका-सी

या तजकर यह सारी शब्दावली

लिखूँ बस अपनी पत्नी भोली-सी।’’

मैंने इस पर पत्नी से पूछा, ‘अब बताओ, इस पत्र में क्या कमी है?’

‘नहीं, कुछ नहीं’, वह बोली, ‘इसमें बेवकूफी की भी कमी नहीं है।’

‘पर तुम्हीं ने कहा था कि प्रेमपत्र बेवकूफी से भरा होता है’, मैंने अपना पक्ष रखते हुए कहा।

बहस आगे बढ़ाते वह कहने लगी, ‘इस पत्र के साथ वृहत शब्दकोश भी भेज देते तो बेहतर होता।’

मैंने यह नहीं सोचा था कि ‘शब्दों के कविसंमेलन’ में श्रोताओं को शब्दकोश भी बाँटना होता है। मन ही मन खीजता मैं बड़बड़ा उठा, ‘मैंने सोचा था कि शब्दों की जमघट से जादू का सा प्रभाव पड़ेगा।’

पर सच तो यह है कि हर पत्नी की ‘व्होकब्लरी’ उसके पति से ज्यादा सीमित हो या ना हो परन्तु वह अपने कम शब्दों से ज्यादा ‘माइलेज’ लेने की क्षमता रखती है।

मेरी जगह और कोई होता तो झल्लाता, खीजता, आपे से बाहर हो जाता। पर यह सब बेवकूफ करते हैं। ऐसा मेरी पत्नी ने ही मुझे बताया था। सो, मैं चुप रहा। पर पत्नी सच ही कह रही थी। प्रेमपत्र लिखते समय बेवकूफ बन जाना इस कला में निखार ला देता है। लेकिन जब बेवकूफी कुछ ज्यादा लम्बी चलती है तो प्रेमपत्र भी लम्बा बन जाता है। लेकिन यह भी कहा गया है कि छोटा प्रेमपत्र वास्तविक बेवकूफी को प्रकट करता है। मेरे एक मित्र ने विश्व का सबसे छोटा प्रेमपत्र लिखा था। उसने कोरा कागज भेजा था। जिसे देख उसकी पत्नी तुरंत समझ गई थी कि वह क्या है और किसने भेजा था। वह उन दिनों मायके गई हुई थी। लेकिन मेरे मित्र की इस चतुराई को भी उसकी पत्नी ने बेवकूफी समझा और अपने भैया से बोली, ‘यह बेवकूफी पूरी दुनिया में सिर्फ वो ही कर सकते हैं।’ यह बात एक चुटकुला बन गई। मेरे मित्र के साले साहब ने खूब खिल्ली उड़ाई। पर वो झेंपे नहीं, कहने लगे कि ‘कोरा कागज’ फिल्म बन सकती है तो क्या ‘कोरा कागज’ प्रेमपत्र नहीं बन सकता। देखो, गौर से देखो, उसमें क्या कुछ नहीं लिखा है। विरह दर्द उभर कर उसमें आ गया है। दिल कोरा कागज बन गया है। एक रीतापन है उसमें --- विरह में जलकर भस्म हुई दास्ताँ है जो आहों की अंधड़ में उड़ा ली गई है और छोड़ गई है एक रीतापन। विरहाग्नि पर शबनम की बूदों के से टपकते अश्रू क्षणिक ही रह पाते हैं और छोड़ जाते हैं बस एक रीतापन। सिसकती साँसों की बर्फीली तेज हवाऐं सब कुछ उड़ा ले जाती हैं और छोड़ जाती हैं बस एक रीतापन।’

इस प्रेमपत्र में छिपी प्यार कर भाषा की उपरोक्त चित्रण सुन मेरे मित्र के साले साहब ताली पीटने लगे। मेरे मित्र की पत्नी अचंभित हो अपने पति के चेहरे को बस ताकती रह गई। शायद मेरी पत्नी की तरह मेरे मित्र की पत्नी भी अपने पति के दार्शनिक होने पर संदेह था। दुनिया में बहुत कम स्त्रियाँ अपने पति के दार्शनिक होने का गर्व करती हैं। लेकिन यह भी सच है कि विवाह के बाद हर पति कुछ ना कुछ दार्शनिक बन ही जाता है। पत्नियाँ पागलपन की पहली सीढ़ी को दार्शनिक होने की मानता प्रदान करती हैं। लेकिन यदि पत्नी दार्शनिक रुख अपनाती हैं तो ये ही स्त्रियाँ उनकी गिनती बुद्धिजीवियों में करती हैं।

परन्तु दार्शनिक होने के लिये खाली समय की तलाश करनी होती है --- शून्य में निहारते हुए कल्पना के विस्तृत आकाश पर बेपर के पहुँच जाने के बाद पंखों के खोलने की कोशिश करनी होती है। विचारों के पंख जब चाहे, जहाँ चाहे वहाँ खोले जा सकते हैं। लेकिन हमारे भाग्य में न तो खाली समय है और न ही दार्शनिक विचारों को उत्पन्न करने घर में एकांतपूर्ण कोना है। अगर कहीं घुसकर बैठ भी जाऊँ तो पत्नी तुरंत ढूँढ़ती चली आती है और कहती है, ‘यूँ खाली दिमाग लिये यहाँ घुन्न-से क्यों बैठे हो?’

मैंने कहा, ‘मैं गहन चिन्तन कर रहा हूँ --- दार्शनिक विचारों की खोह में बैठा संतों की तरह साधना में लीन हूँ।’

‘आप और दार्शनिक!’ ठहाका लगाते पत्नी कहने लगी, ‘पहले ढाड़ी तो ऊगावो। बालों में तेल चुपड़ना बंदकर उन्हें खिचड़ी-सा कर लो। फिर घर के बाहर पीपल के झाड़ के नीचे चिलम पीना सीख लो। यह दार्शनिक बनने का ढोंग इस घर में नहीं चलेगा। ये घर है --- यहाँ परिवार रहता है --- यहाँ मैं हूँ और प्यारे प्यारे बच्चे रहते हैं। यहाँ दार्शनिक-सा घुग्घू बनकर नहीं रहा जा सकता।’

यह भिड़क सुनकर मेरे भीतर का दार्शनिक एकदम विचलित हो उठा। मैं सोचने लगा कि मैं अपने में निहित दार्शनिक तत्व को प्रायः मजाकिया रूप देता रहा हूँ, शायद इसलिये ही घर की चारदिवारी में अपने को बुद्धिजीवी होने का प्रभुत्व को बनाये नहीं रख सका हूँ। मैंने निश्चय किया कि एक अच्छा-सा प्रेमपत्र लिखूँगा तो पत्नी को अहसास होने लगेगा में श्रेष्ठ दार्शनिक बन गया हूँ। मेरा इस निश्चय की भनक पाते ही पत्नी बोल पड़ी, ‘अब इन दिनों किसको प्रेमपत्र लिखोगे। आज प्रेमपत्र नहीं लिखा जाता --- मोबाइल है, लेपटॉप है --- व्हॉटस् अप करो, चेटिंग करो। आज के जमाने में प्रेमपत्र लिखकर किसी प्रतियोगिता में भाग लोगे तो पुरस्कार स्वरूप जग-हँसाई ही मिलेगी। फिर आपकी मर्जी जो चाहे करें।’

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