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Mahishasur : Part 2

महिषासुर

भाग— 2

संपादक

प्रमोद रंजन



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संपादकीय

1ण्एक सांस्कृतिक युद्ध — प्रमोद रंजन

2ण्किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन? — प्रेमकुमार मणि

3ण्हत्याओं का जष्न क्यों? — प्रेमकुमार मणि

4ण्असुर होने पर मुझे गर्व है — षिबू सोरेन

5ण्महाप्रतापी महिषासुर की वंशज — अश्विनी कुमार पंकज

6ण्महिशासुर की याद — जितेंद्र यादव

7ण्महिषासुर यादव वंश के राजा थे — चंद्रभूषण सिंह यादव

8ण्दुर्गासप्तशती का असुर पाठ — अश्विनी कुमार पंकज

9ण्मुक्ति के महाख्यान की वापसी — समर अनार्य

विषय सूची

धर्मग्रंथों के पुनर्पाठ की परंपरा — दिलीप मंडल

महिशासुर और दुर्गा की उपकथाएं — संजीव चंदन

इतिहास को यहां से देखिए — अभिशेक यादव

महिषासुर दिवस की जन्म कथा — अरविंद कुमार

महिषासुर : पुनर्पाठ की जरुरत — राजकुमार राकेश

मिथक का सच — सुरेश पंडित

सौ जगहों पर षहादत दिवस — अरूण कुमार

आर्य व्याख्या का आदिवासी प्रतिकार — विनोद कुमार

जिीासाएं और समाधान

धर्म ग्रंथों के पुनर्पाठ की परंपरा

दिलीप मंडल

महिषासुर—दुर्गा की कथा के बहुजन पाठ से ऊपजे विवाद के संदर्भ में प्रश्न उठता है कि क्या धार्मिक ग्रंथों की वैकल्पिक और अन्य व्याख्याओं की बात नहीं की जा सकती? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हम अपने ही महापुरुषों की ओर देखना चाहेंगे। क्या ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम द्वारा पिछले दिनों जारी पोस्टर किसी नई परंपरा की शुरुआत है, जिसे विरोध

झेलना पड़ रहा है। या फिर यह पुनर्पाठ की उस गौरवशाली परंपरा का हिस्सा है, जिसने देश में वैज्ञानिक चिंतन की आधारभूमि तैयार की? खुद ये धार्मिक ग्रंथ किसी एकांगी सत्य को सामने नहीं रखते और इनकी कई कथाएं एक दूसरे के समानांतर और एक दूसरे को काटती हुई चलती हैं। रामायण की सैकड़ों अलग अलग कथाएं हैं। इंद्र कई रूपों में चित्रित किए गए हैं।

कृष्ण कहीं आयोर्ं के राजा इंद्र से युद्धरत हैं तो कहीं वर्ण—व्यवस्था की स्थापना करने के लिए गीता का उपदेश देते नजर आते हैं।

प्रश्न उठता है कि इन ग्रंथों से भी क्या किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती हैं? धार्मिक ग्रंथों की अलग—अलग व्याख्याओं के कारण नए धर्म बने हैं, धमोर्ं के अंदर अलग—अलग पंथ और संप्रदाय बने हैं। अलग—अलग पूजा पद्धतियों का आधार भी धर्म ग्रंथों की अलग—अलग व्याख्याएं हैं। इसे लेकर असहनशीलता हमेशा हिंसा को जन्म देती है। पुनर्पाठ या वैकल्पिक पाठ की प्रक्रिया को बाधित करना न सिर्फ लोकतंत्र के खिलाफ है बल्कि अकादमिक परिदृश्य में इसे ज्ञान—विरुद्ध भी माना जाएगा। अगर स्थापित मान्यताओं को चुनौती देना खतरनाक करार दिया जाएगा, तो कोई कोपरनिकस, कोई गैलिलियो, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई फुले, कोई आंबेडकर नहीं बन पाएगा। जो जैसा है, उसे उसी रूप में रटना ज्ञान नहीं है। उसे चुनौती देकर ही ज्ञान की परंपरा आगे बढ़ी है। हम कबीर की उसी परंपरा में विश्वास करते हैं, जिसे पेरियार आगे बढ़ाते हैं।

पुनर्पाठ की परंपरा : ज्योतिबा फुले

आधुनिक भारत के सबसे प्रखर चिंतकों में एक ज्योतिबा फुले तमाम धार्मिक—सामाजिक क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत हैं। डॉ. आंबेडकर से लेकर मोहनदास करमचंद गांधी तक परस्पर विरोधी विचार रखने वालों ने भी फुले की प्रेरणा और उनके महत्व को स्वीकार किया है। फुले साहित्य का मराठी से हिंदी में अनुवाद करने वाले डॉ. विमलकीर्ति कहते हैं कि —

‘भारत में जब तक सामाजिक और धार्मिक शोषण रहेगा...तब तक उनको भी याद किया जाएगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।'

फुले भारतीय समाज की बीमारी को समझने की कोशिश के क्रम में धर्मग्रंथों का लगातार विखंडन और व्याख्या करते हैं। उन्होंने अपने कालजयी कृति ‘गुलामगीरी' में हिंदू मिथकों, पुराण कथाओं के अथोर्ं को खोलकर समझाया है। फुले लिखते हैं— ‘ब्राह्मणों के जिन धर्मग्रंथों के आधार पर हम (शूद्रादि—अतिशूद्र यानी ओबीसी और दलित) लोग ब्राह्मण के गुलाम हैं और उनके कई ग्रंथ—शास्त्रों में हमारी गुलामी के समर्थन में लेख लिखे हुए मिलते हैं, उन सभी ग्रंथों का, धर्मशास्त्रों का और उसका जिन—जिन धर्मशास्त्रों से संबंध होगा, उन सभी धर्मग्रंथों का हम निषेध करते हैँ।'

‘गुलामगीरी' की भूमिका में ही फुले इस बात की स्पष्ट व्याख्या करते हैं कि धर्मग्रंथों के झूठे प्रचार का पर्दाफाश क्यों जरुरी है। वे इस बात को समझते हैं कि भारत के शूद्रादि—अतिशूद्रों की गुलामी के मूल में इन ग्रंथों की बड़ी भूमिका है। इसलिए वे धर्मग्रंथों और मिथकों की खूब चीरफाड़ करते हैं और इस काम को वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ करते हैं। वे लिखते हैं—

‘ब्राह्मण—पुरोहितों ने इन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए, इन्हें सदा सदा के लिए गुलाम बनाए रखने के लिए, केवल अपने निजी स्वाथोर्ं को ही दृष्टि में रखकर, एक से अधिक बनावटी ग्रंथों की रचना करके कामयाबी हासिल की। उन नकली ग्रंथों में उन्होंने यह दिखाने का पूरा प्रयास किया कि उन्हें जो विशेष अधिकार प्राप्त हैं, वे सब उन्हें ईश्वर ने दिए हैं। इस तरह का

झूठा प्रचार उस समय अनपढ़ लोगों में किया गया और उस समय के शूद्रादि—अतिशूद्रों में मानसिक गुलामी के बीज बोए गए।'

फुले आगे लिखते हैं— ‘उन ग्रंथों में हर तरह से ब्राह्मणों—पुजारियों का महत्व बताया गया है।

ब्राह्मणों—पुरोहितों का शूद्रादि—अतिशूद्रों के मन—मस्तिष्क पर हमेशा—हमेशा के लिए वर्चस्व बना रहे, इसलिए उन्हें ईश्वर से भी श्रेष्ठ समझा गया है।...जिस ईश्वर ने शूद्रादि—अतिशूद्रों को और अन्य लोगों को अपने द्वारा निर्मित इस सृष्टि की सभी वस्तुओं को समान रूप से उपभोग करने की पूरी आजादी दी है, उस ईश्वर के नाम पर ब्राह्मण—पंडा—पुरोहित एकदम झूठे ग्रंथों की रचना करके, उन ग्रंथों में सभी के (मानवी) हक को नकारते हुए स्वयं मालिक बन बैठे।... ब्राह्मण—पंडा—पुरोहित लोग अपना पेट पालने के लिए, अपने पाखंडी ग्रंथों द्वारा, जगह—जगह, बार—बार, अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देते रहे, जिसकी वजह से उनके मन—मस्तिष्क में ब्राह्मणों के प्रति पूज्य भाव पैदा होता रहा।'

फुले का पुनर्पाठ : निर्मम वैज्ञानिक दृष्टि

ज्योतिबा फुले जब पुराने मिथकों और ग्रंथों के बारे में लिखते हैं, तो एक बात निरंतरता में नजर आती है। वह है असंगत—अवैज्ञानिक बातों का तकोर्ं के आधार पर विखंडन। ऐसा करते हुए वे इस बात की परवाह नहीं करते कि इसकी वजह से किसी की भावनाओं को चोट पहुंचेगी। फुले अपने लेखन में सिर्फ पिछड़ों और दलितों को संबोधित नहीं करते थे, बल्कि वे समाज के प्रभु वर्ग से भी संवाद कर रहे थे। इसके बावजूद वे इन धर्मग्रंथों को बिना किसी लाग—लपेट के— ‘ब्राह्मणों के नकली—पाखंडी धर्म (ग्रंथ)' कहते हैं।

फुले रचित ‘गुलामगीरी' के कुछ अंशों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि वे प्राचीन मिथकों और ग्रंथों का कितनी निर्ममता के साथ खंडन करते हैं और उनका मजाक उड़ाते हैं—

1ण् अब ब्राह्मण को पैदा करने वाले ब्रह्मा का जो मुंह है, वह हर माह मासिक धर्म

(माहवारी) आने पर तीन—चार दिन के लिए अपवित्र (बहिष्कृत) होता था या लिंगायत नारियों की तरह भस्म लगाकर पवित्र (शुद्ध) होकर घर के काम—धंधे में लग जाता था। क्या इसके बारे में मनु ने कुछ लिखा है या नहीं?... (धोंडीराव) आज के ब्राह्मण लिंगायतों से इसलिए घृणा करते हैं, क्योंकि वे इसमें छुआ छूत नहीं मानते।

2ण् इससे तुम सोच ही सकते हो कि ब्राह्मण का मुंह, बाहें, जांघें और पांव — इन चार अंगों की योनि, माहवारी (रजस्वला) के कारण, उसको कुल मिलाकर सोलह दिनों के लिए अशुद्ध होकर दूर—दूर रहना पड़ता होगा। फिर सवाल उठता है कि उसके घर का काम—धंधा कौन करता होगा?

3ण् वह गर्भ ब्रह्मा के मुंह में जिस दिन से ठहरा, उस दिन से लेकर नौ महीने तक किस स्थान पर रहकर बढ़ता रहा...फिर जब यह ब्राह्मण पैदा हुआ, उस नवजात शिशु को ब्रह्मा ने अपने स्तन से दूध पिलाया या बाहर का दूध पिलाकर छोटे से बड़ा किया।

फुले ने मिथकों के पुनर्पाठ के माध्यम से वर्ण—व्यवस्था के मूलाधार ऋग्वेद के पुरुष सूक्त

को अवैज्ञानिक और कोरा गप करार दिया है। ऐसा करते समय उनका लक्ष्य सिर्फ यह स्थापित करना है कि हर मनुष्य उत्पत्ति की दृष्टि से समान है। कोई मनुष्य मुंह से पैदा नहीं हो सकता। क्या फुले ऐसा करते हुए किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे थे? हां। मुमकिन है कि इस लेखन से किसी को ठेस पहुंच रही हो, लेकिन इस वजह से सत्य कहने के ऐतिहासिक कार्यभार को फुले ने मुल्तवी नहीं किया। क्योंकि जैसे ही कोई यह मान लेता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुए हैं, इसके साथ ही यह भी मान्यता होती है कि इस देश के बहुजन पैर से पैदा हुए हैं। यह बात ऊंच—नीच को धार्मिक मान्यताओं के साथ स्थापित करती है। इसलिए इसका खंडन जरुरी है, बेशक इससे किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगती हो।

इसी तरह फुले ब्रह्मा और सरस्वती की कथा का भी खंडन करते हैं। वे लिखते हैं—

1ण् धोंढीराव— उसके (ब्रह्मा के) शेष तीन सिर इस झमेले से दूर थे या नहीं? आपकी राय इस बारे में क्या है? उस रंडीबाज (यही शब्द हैं) को इस तरह मां बनने की इच्छा क्यों पैदा हुई होगी?

ज्योतिराव— वह रंडीबाज इतना गिरा हुआ आदमी था कि उसने सरस्वती नाम की अपनी कन्या से ही संभोग (व्यभिचार) किया था। इसलिए उसका उपनाम ‘बेटीचो...' (यही शब्द हैं) हो गया है। इसी बुरे कर्म के कारण कोई व्यक्ति उसका मान सम्मान (पूजा) नहीं कर रहा है। फुले दरअसल पुरानी परंपराओं का खंडन करते हुए लगातार वर्णव्यवस्था के धार्मिक आधार पर चोट करते हैं। ‘गुलामगीरी' में वे एक स्थान पर लिखते हैं — ब्रह्मा के चार मुंह होते तो इसी हिसाब से उसके आठ स्तन, चार नाभियां, चार योनियां और चार मलद्वार होने चाहिए (धोंडीराव)।

(वही, पेज 32)

वामन और बलीराजा की कथा की मीमांसा करते हुए वे लिखते हैं — जब उस गलीज गेंडे (यही मूल शब्द हैं) ने अपने दो कदमों से सारी धरती और आकाश को घेर लिया, तब उसके पहले ही कदम के नीचे, कई गांव, गांव के लोग दब गए होंगे, और उन्होंने अपनी निर्दोष जानें गंवाईं होंगी या नहीं? दूसरी बात यह कि जब उस गलीज गेंडे ने.... (आदि आदि)..फिर जब वह गलीज गेंडा मरा होगा, तब उसकी उस विशाल लाश को श्मशान ले जाने के लिए कंधा देने वाले चार लोग कहां से आए होंगे।...यदि उस तरह की विशालकाय लाश को जलाने के लिए पर्याप्त लकड़ियां नहीं मिली होंगी, यह कहा जाए, तब उसको वहीं के कुत्ते—सियारों ने नोंच नोंचकर खा लिया होगा।

यहां पर फुले धर्म ग्रंथों के बारे में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हैं : इसका मतलब स्पष्ट है कि उपाध्यायों ने बाद में समय देखकर सभी पुराण—कथाओं से इस तरह के ग्रंथों की रचना की होगी, यही सिद्ध होता है। (वही)

फुले को हम उस परंपरा की शुरुआत करने वाला मान सकते हैं, जिस परंपरा में आगे चलकर प्रेमकुमार मणि तक आते हैं, जिनके एक लेख से बनाए गए पोस्टर को लेकर पोंगापंथियों ने इतना हंगामा मचा रखा है।

दुर्गा और महिषासुर की कथा की बात करें तो संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर इस कथा को ष्ष्दवज उमतमसल ं तपककसमए इनज ंद ंइेनतकपजलष्ष् करार देते हैं। वे लिखते हैं कि—प्ज तम. ुनपतमे मगचसंदंजपवद ूील जीपे कवबजतपदम वि ैांजप ूें पदअमदजमकण्

कुल मिलाकर जेएनयू में ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेट्‌स फोरम' द्वारा चिपकाया गया पोस्टर कोई अनूठी बात नहीं कहता। यह फुले—आबंडेकर—पेरियार की परंपरा में कही गई बात ही है। ऐसी सैकड़ों किताबें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में हैं, जिनमें धार्मिक ग्रंथों का पुनर्पाठ है। इसमें साहित्य से लेकर तमाम तरह का लेखन है। इस परंपरा की शुरुआत आप कबीर से मान सकते हैं जो आगे चलकर राजेंद्र यादव और प्रेम कुमार मणि तक पहुंचती है।

(इंडिया टुडे (हिंदी) के प्रबंध संपादक रहे वरिश्ठ पत्रकार दिलीप मंडल की ‘मीडिया का अंडरवर्ल्ड',

‘चौथा खंभा प्राइवेट लिमिटेड' समेत अनेक पुस्तकें प्रकाषित हैं। मो. : 09899128000)

महिशासुर और दुर्गा की उपकथाएं

संजीव चंदन

मिथक इतिहास नहीं होते लेकिन वे अतीत हो चुके समाज और उसकी संस्कृति का इतिहास जरूर कहते हैं। देवियों के मिथक पूरे देश में अलग—अलग रूपों में अपना प्रभाव रखते हैं और वषोर्ं से लगभग सर्वमान्य रूप से स्वीकार्य रहे हैं। माना जाता है कि ये मिथक देवियों के मातृत्व की प्रतिष्ठा करते हैं व उनकी सृजन शक्ति की आराधना करते हैं। कामरूप कामख्या में स्त्री की योनि की पूजा होती है, जिसके लिए ब्राहमण कर्मकांडियों ने 5 दिनों की मासिक ‘रजस्वला' अवधि भी तय कर रखी है। बिहार के गया जिले में मंगलागौरी में देवी के स्तन की पूजा होती है। लेकिन क्या सचमुच ये मिथक सिर्फ सृजन शक्ति की अराधना तक सीमित हैं या इनके पीछे सामाजिक संघर्ष की एक लंबी गाथा भी छुपी है?

वस्तुतः कथित आधुनिक सोच के आगमन के बावजूद, देवियों के मिथक पर लिखना आज भी काफी जोखिम भरा है, खासकर जिस पृष्ठभूमि में यहां लिखने का प्रसंग है। हालांकि महात्मा फुले, डा आम्बेडकर, पेरियार आदि हमारे प्रेरणा नायकों ने इन मिथकों पर करारा प्रहार किया है, लेकिन स्थितियाँ आज भी बहुत बदली नहीं हैं।

दरअसल, हिंदू धर्म में देवियों के अनेक मिथकीय अस्तित्व हैं, जिनमें दुर्गा एक हैं। दुर्गा की कथा 250 ईस्वी से लेकर 500 ईस्वी के बीच लिखे गए माकर्ंडेय पुराण में है, जिसका

‘दुर्गा सप्तशती' के रूप में ब्राह्मणों द्वारा पाठ किया जाता है। ‘दुर्गा सप्तशती के अनुसार, दुर्गा के अलग—अलग नाम और रूप हैं। वह ‘जगद्‌जननी' है लेकिन उसकी उत्पत्ति देवताओं

(पुरुषों) के तेज से हुई है और उससे से ही वह इतनी शक्तिशाली भी बनी कि देवों की पराजय का बदला ले सके।

दुर्गा अनेक असुरों की हत्या करती है, जिनमें महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ आदि शामिल हैं। आयोर्ं और मूलनिवासियों के आपसी संघर्ष और मूलनिवासियों के लिए आयोर्ं द्वारा किये जाने वाले संबोधनों के इतिहास पर काफी कुछ लिखा गया है। देश के अलग—अलग भागों में असुरों की पूजा होती है। इस प्रकार दुर्गा का मिथक और उसके पराशक्ति संपन्न युद्धों की कथा आयोर्ं और मूलनिवासियों के बीच संघर्ष की कथा है, जिसे ब्राह्मण चारणों ने अतिवादी बना दिया।

महाराष्ट्र के बहुजन परम्परा के विद्वान तथा मराठा सेवा संघ के सक्रिय आंदोलनकारी आ.ह. सालुंखे और नीरज सालुंखे दुर्गा, उर्वशी, अम्ब आदि को बहुजन परम्परा से जोड़ते हुए उन्हें ‘गणनायिका' बताते हैं। यदि यह सिद्धांत सही है तो फिर इन गणनायिकाओं का

युद्ध या तो कबीलाई युद्ध था या फिर आयोर्ं के उकसावे या नियंत्रण में हुआ था। इसी देश

से होने के कारण ये ‘गण' एक—दूसरे की कौशल—कमियों से वाकिफ होंगे, जो इन्हें एक दूसरे को हराने में सहायक रहा होगा और इसी कारण से आयोर्ं ने अपने विस्तार के लिए इनका इस्तेमाल किया होगा और इनका महिमामंडन हुआ होगा।

दुर्गा सप्तशती में वर्णन है कि युद्ध के मैदान में दुर्गा ‘सुरापान' करने लगती है और उसके बाद वह महिषासुर का वध करती है। इस कथा की ‘बिटवीन द लाइंस' व्याख्या करने वाले लोग महिषासुर की हत्या धोखे से की गई मानते हैं, यानी स्त्री होने का फायदा लेकर दुर्गा ने उनकी हत्या कर दी। बाद के दिनों में असुर शुम्भ और निशुम्भ दुर्गा को अपने पास आने का प्रस्ताव भी देते हैं, यहाँ भी कथा के भीतर उपकथा की संभावना है। इन उपकथाओं को आधार दे जाता है दुर्गा का अविवाहित होना यानी किसी देवता के द्वारा उसे पत्नी के

रूप में न स्वीकारा जाना, यानी वह उर्वशी, मेनका की तरह देवों की अप्सराओं में गिनी जा सकती है।

कथा में प्रयुक्त शब्दावली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन भी कुछ अतिरिक्त तथ्योंं को सामने लाता है। महिषासुर की हत्या को ‘महिषासुर मर्दन' कहा जाता है। इस भाषा के जरिये व्याख्या की दो संभावनाएं बनती हैं, एक तो यह कि दुर्गा मर्दाना ताकत से लैस थी, यानी देवताओं के तेज से, (दुर्गा सप्तशती के अनुसार) इसलिए उसने मर्दन किया। दूसरी व्याख्या के लिए मर्दन के प्रचलित अर्थ शामिल किये जा सकते हैं। यह सेक्स के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है, जो ‘मान—मर्दन' तक विस्तार पाता है। इस शब्दावली के आधार पर भी युद्ध के मैदान में सुरापान और उसके बाद महिषासुर की हत्या के भीतर उपकथाएं तलाशी जा सकती हैं।

जाहिर है, दुर्गा व अन्य देवियों की कथा के पीछे की मूल भावना सिर्फ सृजन शक्ति की अराधना नहीं है, बल्कि इसके कहीं अधिक गंभीर निहितार्थ हैं, जिन्हें ब्राह्मणग्रंथों का सम्यक पाठ कर समझा जा सकता है।

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2014 अंक से साभार। कहानीकार व पत्रकार संजीव चंदन

‘स्त्रीकाल' पत्रिका के संपादक हैं। मो. 9973860764)

इतिहास को यहां से देखिए

अभिशेक यादव

हाल में ही मेरी एक प्रोफेसर से बात हुई। वे तमिलनाडु के रहने वाले हैं। बातचीत नवरात्र के संदर्भ में होने लगी। उन्होंने एक हैरतअंगेज बात बताई कि तमिलनाडु में रावण और दुर्योधन के कई मंदिर हैं। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि पूरे दक्षिण भारत में राम का मंदिर बहुत मुष्किल से मिलेगा। मैं सोचने लगा कि इतनी महत्वपूर्ण बात आखिर प्रकाष में क्यों नहीं आती? कारण स्पश्ट है—पूरा प्रचार तंत्र जिनके कब्जे में वे नहीं चाहते कि ऐसा कोई मिथक या तथ्य प्रकाष में आए जिससे उनकी सत्ता को चुनौती मिले। वे कौन हैं—स्पश्ट है कि वे ब्राम्हणवादी हैं। महिशासुर पर कुछ कहने—लिखने से पहले मैं एक बात और कहना चाहता हूं। अभी बीस वर्श भी नहीं बीते हैं बाथे—बथानी के नरसंहार को जिसमें सैकड़ों दलितों (बच्चों, गर्भवती महिलाओं) की हत्या कर दी गई। यह हत्यारे ‘रणवीरी' थे। एक उच्च जाति की निजी सेना के लोग। ये हत्यारे रणवीरी गर्भवती महिलाओं की हत्या करते समय चिल्लाते थे कि इनकी हत्या करो क्योंकि ये नक्सली पैदा करती हैं। मैं सोचता रहता था कि आखिर वह कौन सी संस्कृति है, जो इन रणवीरों को इतनी कू्रर हिंसा सिखाती है। दरअसल, ‘रणवीरी' हिंसा की जड़ ऋग्वेद में है। ये लोग एक बेहद हिंसक और घृणित संस्कृति के वारिस हैं। और सिर्फ हत्याएं ही नहीं की गई बल्कि देवासुर संग्राम का नाम देकर इन हत्याओं को न्यायोचित भी ठहराया गया। इससे ज्यादा षर्मनाक बात और क्या हो सकती है। आज जब कंपनियां ‘सेज' लेकर जंगलों में जा रही हैं तो आदिवासी उनका विरोध कर रहे हैं, क्योंकि इससे आदिवासियों की जल—जंगल—जमीन छीन रही है। फर्ज कीजिए कि जनेऊ पहने अपने सैकड़ों दास—दासियों के साथ एक ऋशि जंगल में (अरण्य)

यज्ञ करने आया है। ब्राम्हणवादियों! आपको ‘यज्ञषाला' और ‘सेज' में फर्क लग सकता है—हमें नहीं लगता। तब मूलनिवासियों को असुर कह कर मारा गया और अब माओवादी कहकर मारा जा रहा है।

एक तीसरी बात। यह आर्य परंपरा ही है कि जिस भी व्यक्ति से उन्हें खतरा लगता है और वे उससे जीत नहीं सकते वे वहां महिलाओं को सामने कर देते हैं। आप एक मिनट के लिए दुर्गा—महिशासुर प्रकरण को छोड़ दीजिए। आप मेनका—विष्वामित्र को याद कीजिए और ऐसे ही सैकड़ों कथाएं। किसी भी ताकतवर विरोधी से डरने वाले धूर्ताें की सभ्यता रही है आर्यों की सभ्यता। भले ही वह विरोधी उनके अपने समुदाय का ही क्यों न हो। अप्सराओं, देवियों का ‘तपभंग' करने के लिए ‘उपयोग' करने वाली सभ्यता किस कदर पितृसत्तात्मक है, यह भी स्पश्ट हो जाता है।

अब अगर आप महिशासुर—दुर्गा प्रकरण पर विचार करेंगे तो पाएंगे कि यह एक देवासुर संग्राम ही है और संयोग वह देखिए कि ब्राम्हणवादी भी इसे देवासुर संग्राम ही मानते हैं। जो बाहर से आए आर्यों और यहां के मूलनिवासियों के बीच हुआ। संसाधनों पर अपने नियंत्रण को बचाने के खातिर महिशासुर (जो कि यहां के मूल निवासियों के नेता थे) ने आर्यों से भीशण संघर्श किया। आर्य दूसरे की संपत्ति हड़पने के लिए लड़ रहे थे और महिशासुर अपने लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए। बार—बार पराजित हो रहे आयोर्ंं ने दुर्गा का उपयोग किया। महिशासुर मारे गए। इतिहास लिखना आर्यों के हाथ में था सो धूर्तता करने वाले देवी और देवता कहे गए, और अपनी जनता की रक्षा करने वाले असुर राक्षस और न जाने क्या—क्या।

ब्राम्हणवादियों, सुनो! महिशासुर हमारे देवता नहीं हैं। असुर और देवता बनाने की संस्कृति तुम्हारी है। महिशासुर हमारे नायक हैं। पराजित योद्धा लेकिन पलायित नहीं। उनके वंषज आज भी तुमसे लड़ रहे हैं। तुम्हारा पलायन और धूर्तता का इतिहास है और हमारा संघर्श करने का। वक्त आ •या है कि अब इतिहास और मिथकों को यहां से देखा जाय।

(भाकपा (माले) के छात्र संगठन आइसा के नेता व जेएनयूे छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रहे डॉ— अभिशेक यादव इन दिनों राजीव गांधी विष्वविद्यालय, अरूणाचल प्रदेष में प्राध्यापक हैं।

संपर्कः 09436270032)

महिषासुर दिवस की जन्म कथा

अरविंद कुमार

21 वीं सदी में महिषासुर शहादत दिवस मानना कहाँ तक तार्किक है? मिथकों की पुनर्व्याख्या से आप लोग क्या साबित करना चाह रहे हैं? भारतीय समाज पर इस कृत्य का क्या प्रभाव पड़ेगा? देखिये अगर आप लोग महिषासुर के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तो दुर्गा के अस्तित्व को भी स्वीकार करना पड़ेगा, फिर रामायण, महाभारत व पुराणों की मिथकीय कथाओं को भी सही मानना पड़ेगा। आपका यह कदम दरअसल ब्राह्मणवाद की जड़ों को और मजबूत करेगा। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के मार्क्सवादी,, 2011 में आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम (एआइबीएसएफ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जितेंद्र यादव व उनके साथियों (जिनमें मै खुद भी शामिल था) से कुछ ऐसे ही जटिल सवाल पूछते थे।

विदित हो कि 2011 में उक्त संगठन ने जेएनयू में पहली बार महिषासुर शहादत दिवस मनाने की घोषणा की थी। जेएनयू के कुछ ‘प्रगतिशील' प्रोफेसरों की प्रतिक्रिया थी कि आप लोग गंदगी में हाथ डाल कर मथने जा रहे हैं। इससे आपको कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि आगे और गंदगी ही हाथ लगेगी। उस वक्त इन सवालों का जवाब देना या खोजना आसान नहीं था क्योंकि तब महिषासुर शहादत दिवस के भविष्य के बारे में किसी को कुछ मालूम नहीं था।

जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस मनाने की जरूरत क्यों महसूस हुई इसके पीछे

घटनाओं का एक सिलसिला है। दरअसल यह बात उन दिनों की है जब केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़ी जतियों को उच्च शिक्षण संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण दिया तो आरक्षण विरोधी छात्रों ने यूथ फॉर इक्वलिटी नामक संगठन बना कर उसका विरोध करना शुरू किया। आरक्षण के समर्थन में पिछड़े वर्ग के छात्रों ने भी अपने आपको एआइबीएसएफ नामक संगठन के बैनर तले एकठ्‌ठा करना शुरू किया। देश की राजधानी स्थित जेएनयू में दोनों ही संगठनों ने छात्रों को जागरूक करने हेतु अपनी—अपनी गतिविधियां बढ़ानी शुरू की। इसी दौरान एआइबीएसएफ ने पाया कि पिछड़े वर्ग के अधिकतर छात्र दुर्गा पूजा के दौरान आरक्षण विरोधी छात्रों के साथ मिलकर पूजा—पाठ में व्यस्त रहते थे। विदित हो कि मार्क्सवाद के बौद्धिक गढ़ जेएनयू में उच्च शिक्षित मार्क्सवादी लड़के—लड़कियां दुर्गा पूजा में माथे पर तिलक—भभूत लगाकर बड़े ही शौक से शंख बजाते हैं। इतना ही नहीं साल भर आधुनिक कपड़े पहन कर पितृसत्ता को कोसने वाली नारीवादी लड़कियां इन दिनों में पारंपरिक भारतीय परिधानों में उपवास करती नजर आती हैं। वैसे तो अमूमन देश के कोने—कोने में

ऐसा ही होता है परंतु जेएनयू में भी यही सब होना एक अजूबा है क्योंकि यहाँ हर बात

तर्क—वितर्क से ही तय होती है सिवाय इन त्योहारों के। संस्कृति कैसे आधुनिकता, ज्ञान—विज्ञान व तर्क—वितर्क को खा जाती है, जेएनयू इसका जीता जागता उदाहरण है।

उन दिनों नवगठित एआइबीएसएफ ने बहुजन छात्रों में जागरूकता फैलाने एवं एक स्वस्थ बहस की शुरुआत करने हेतु विश्वविद्यालय परिसर में फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित बहुजन विचारक प्रेम कुमार मणि का ‘किसकी पूजा कर रहे है बहुजन' नामक लेख दीवारों पर लगाया। उक्त लेख में महिषासुर को यहाँ का अनार्य पशुपालक राजा बताया गया था। विश्वविद्यालय में लेख पर जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पदाधिकारियों ने पूरे विश्वविद्यालय में पर्चे को फाड़ा ही नहीं बल्कि जितेंद्र यादव व उनके साथियों के साथ मारपीट करके विश्वविद्यालय प्रशासन में उलटे अपनी भावनाएं आहत होने की शिकायत दर्ज कराई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने शिकायत को गंभीरता से लिया और जितेंद्र यादव को एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने हेतु ‘कारण बताओ' नोटिस जारी किया।

जितेंद्र यादव ने उच्चतम न्यायालय के वकील नितिन मेश्राम की मदद से विश्वविद्यालय प्रशासन की नोटिस का करारा जवाब दिया। जितेंद्र यादव ने न केवल माफी मांगने से साफ इंकार किया बल्कि विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में मौजूद ‘बहुजन साहित्य' को प्रशासन के समक्ष साक्ष्य के रूप में उपलब्ध कराया जिसमें महात्मा ज्योतिराव फुले से लेकर बाबासाहेब डा. अंबेडकर के लेखों में हिन्दू देवी देवताओं पर किया गया कटाक्ष शामिल था। जेएनयू प्रशासन ने अपनी नोटिस के लिए जितेंद्र यादव से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी जो कि विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली घटना थी। उक्त घटनाक्रम महीनों तक देश की राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में बना रहा था। उसी दौरान जितेंद्र यादव के नेतृत्व में बहुजन छात्रों ने जेएनयू में ही महिषासुर शहादत दिवस मनाने की घोषणा कर दी जो कि शायद देश की पहली घटना थी। भारत के कोने—कोने से बहुजन विचारकों व कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी थी।

खैर, इस वर्ष महिषासुर शहादत दिवस चौथा वसंत देखने जा रहा है। चूंकि महिषासुर षहादत दिवस की कमान अब सीधे जनता के हाथ में जा चुकी है इसलिए तीन साल पहले उठाए गए सवालों का जवाब देना अब आसान हो चुका है। दरअसल भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के अंतर्गत चीजों का बटवारा उन सिक्कों के रूप में हुआ है जिसमें एक सतह है ही नहीं। सभी को केवल अच्छी सतह के बारे में ही पता है। दूसरी सतह या तो लोग देखना नहीं चाहते या देखने के लिए समय नहीं है। लोग झूठी शान में हैं कि उनके पास अपना सिक्का है। इसीलिए आज तक इस झूठ और अन्याय के खिलाफ भारतीय समाज में बगावत नहीं हुई। आम लोगों को सिर्फ आधा व एक तरफा ज्ञान है। कहानी का दूसरा पहलू उन्हें बताए जाने की सख्त जरूरत है, जिससे उन्हें सोचने पर मजबूर होना पड़े। बाबासाहेब अंबेडकर कहते हैं कि ‘गुलामों को गुलामी का अहसास भर करा दो वो

अपनी जंजीरें खुद तोड़ डालेंगे।' महिषासुर शहादत दिवस, का मकसद जेएनयू के दुर्गा पूजा पंडाल में बैठे बहुजन छात्रों को उनकी गुलामी का अहसास कराना है। इसे त्योहार की शक्ल देने का मकसद लोगों को दूसरे पहलुओं पर सोचने पर मजबूर करना है।

हिन्दूवादी वर्ण व्यवस्था से विश्वास तोड़ने के लिए लोगों के मन में शंका पैदा करना जरूरी है कि वो जिसे सत्य मान रहे हैं दरअसल वो गलत भी हो सकता है। इसके लिए सबसे पहले वर्तमान विश्वास के विपरीत तर्क गढ़े जाने की जरूरत होती है जिससे एक स्वस्थ बहस शुरू हो सके कि आखिर सत्य क्या है? वास्तविक सत्य पर पहुंचने से पहले इस बात की भी जरूरत होती है कि लोगों का उनकी मान्यताओं पर से विश्वास को हिलाया जाए। अगर दुर्गा अच्छाई का प्रतीक है और महिषासुर बुराई का तो इस उल्टी स्थिति को सीधा क्यों नहीं किया जा सकता। मतलब दुर्गा बुराई का प्रतीक हो और महिषासुर अच्छाई का। इसके बाद देखा जाए कि समाज के किस वर्ग का कितना हित प्रभावित होता है। यह

एक मार्क्सवादी तरीका है। एआइबीएसएफ ने यही तरीका अपनाया था। परंतु दुर्भाग्य से भारत के मार्क्सवादी इसे भारत की संस्कृति को समझने के लिए इस्तेमाल नहीं करते।

(यूनाइटेड दलित स्टूडेंट फोरम की केंद्रीय समिति के सदस्य अरविंद कुमार समसामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। मो. : 09873877896)

महिषासुर : पुनर्पाठ की जरुरत

राजकुमार राकेश

पुस्तिका ‘किसकी पूजा कर रहे हैँ बहुजन?' मेरे सामने है। तकरीबन चालीस पृष्ठों की इस सामग्री को मैने दो—ढाई घंटे के अंतराल में पढ़ लिया। मगर इस छोटे से अंतराल ने मेरे भीतर जमे अनगिनत टीलों को दरका दिया है। फारवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन

द्वारा संपादित इस पुस्तिका को 17 अक्टूबर, 2013 को दिल्ली के ख्यात जवाहरलाल नेहरू

यूनिवर्सिटी में ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंटस फोरम' द्वारा आयोजित ‘महिषासुर षहादत दिवस' पर जारी किया गया था। पुस्तिका में प्रेमकुमार मणि, अष्विनी कुमार पंकज, इंडिया टुडे (हिंदी) के प्रबंध संपादक दिलीप मंडल समेत 7 प्रमुख लेखकों, पत्रकारों व षोधार्थियों के लेख हैं, जिनमें से अधिकांष फारवर्ड प्रेस पत्रिका में प्रकाषित हुए हैं। दरअसल, इस पत्रिका में प्रकाषित लेखों के माध्यम से ही यह विमर्ष हिंदी पट्‌टी में चर्चा में आया था।

जिस दिन मैंने इस पुस्तिका को पढ़ा, उसी दिन शाम को टीवी के एक चैनल पर दिल दहला देने वाला एक दृश्य था। उत्तरी कोरिया के तानाशाह किम जोंग ऊन ने अपने फूफा और उसके छह साथियों को तीन दिन से भूखे रखे गए एक सौ बीस शिकारी कुत्तोंं को परोस दिया। तकरीबन एक घंटे में इन कुत्तों ने उन जिंदा मानवीय शरीरों को फाड़कर चट कर डाला। इस विशाल पिंजरे के चारों ओर की बालकनियों में खड़े दर्शक इस दौरान तालियां बजाते रहे। उनमें खुद किम जोंग ऊन भी मौजूद था। ऐसा ही एक दृश्य सद्दाम हुसैन को अमेरिका द्वारा फांसी दिए जाने का था। इन विजेताओं ने मारे जाने वालों को बर्बर, क्रूर, विद्रोही, अमानवीय घोषित किया था। यह हारे हुए लोगों के प्रति विजेता न्याय है।

यही कुछ महिषासुर के साथ किया गया था। सदियों से उसकी ऐसी अमानवीय छवियां गढी गईं हैं, जो विश्वासघात से की गई उस शासक की मौत को जायज ठहराने का काम करती रही हैं। हमलावर आयोर्ं, जो इंद्र के नेतृत्व में बंग प्रदेश को कब्जाने के लिए यहां के मूल निवासी अनायोर्ं से बार—बार हारते चले गए थे, उन्होंने अंततः विष्णु के हस्तक्षेप से दुर्गा को भेजकर महिषासुर को मरवा डाला था। आयोर्ं (सुरापान करने वाले और पालतू पशुओं को अपने यज्ञों के नाम पर वध करके उनके मांस को खा जाने वाले सुरों) ने खुद को देवता घोषित कर दिया और बंग प्रदेश के मूल निवासियों को असुर। महिषासुर इन्हीं असुरों (अनायोर्ं) का बलशाली और न्यायप्रिय राजा था। ये आर्य इन अनायोर्ं के जंगल, जमीन की भू—संपदा और वनस्पति को लूट लिए जाने और अनायोर्ं के दुधारु जानवरों को हवन में आहुत कर देने के लिए कुख्यात थे। महिषासुर और उनकी अनार्य प्रजा ने आयोर्ं

के इन कुकमोर्ं को रोकने के लिए इंद्र की सेना को इतनी बार परास्त कर डाला कि उसकी रीढ़ ही ध्वस्त हो गई। ऐसे में इंद्र ने विष्णु से हस्तक्षेप करवाकर एक रुपसी दुर्गा को महिषासुर को मार डालने का जिम्मा सौंपा।

इन विजेताओं ने दुर्गा के लिए पशुबलि का प्रावधान रखा है। तर्क दिया जाता है कि यह पशुबलि दुर्गा के वाहन शेर के लिए है। बाकी वे खुद को शाकाहारी घोषित करते हैं ताकि असुरों को मांसाहारी सिद्ध करने का तर्क उनके पास मौजूद रहे।

बहुत हद तक प्रस्तुत पुस्तिका में महिषासुर दुर्गा के इसी पुनर्पाठ की प्रस्तुति है, मगर इस पर अधिकाधिक व्यापक शोध की जरुरत है, जिसके चलते बहुत से छिपे सत्य उद्‌घाटित होने की संभावना बनती है, जिन्हें नकारा जाना आज के आर्यपुत्रों के लिए मुमकिन नहीं रहेगा।

फिलहाल मैं धर्मग्रंथों की बिक्री की एक दुकान से ‘दुर्गा सप्तशती‘ नामक पुस्तक लाया हूं। यह रणधीर बुक सेल्स (प्रकाशन) हरिद्वार से प्रकाशित है। इस में मौजूद पाठ हालांकि सुरों के पक्ष में लिखा गया है, मगर यह महिषासुर वध के छल छद्‌म और सुरों के चरित्र पर बहुत कुछ कह जाता है — ‘‘प्राचीन काल के देवी—देवता तथा दैत्यों में पूरे सौ बरस

युद्ध होता रहा। उस समय दैत्यों का स्वामी महिषासुर और देवताओं का राजा इंद्र था। उस संग्राम में देवताओं की सेना दैत्यों से हार गई। तब सभी देवताओं को जीतकर महिषासुर इंद्र बन बैठा। हार कर सभी देवता ब्रह्माजी को अग्रणी बनाकर वहां गए जहां विष्णु और शंकर विराज रहे थे। वहां पर देवताओं ने महिषासुर के सभी उपद्रव एवं अपने पराभव का पूरा—पूरा वृतांत कह सुनाया। उन्होंने कहा, ‘‘महिषासुर ने तो सूर्य, अग्नि, पवन, चंद्रमा,

यम और वरुण और इसी प्रकार अन्य सभी देवताओं का अधिकार छीन लिया है। स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बन बैठा है। उसने देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया। महिषासुर महा दुरात्मा है। देवता पृथ्वी पर मृत्यों की भांति विचर रहे हैं। उसके वध का कोई उपाय कीजिए। इस प्रकार मधुसूदन और महादेव जी ने देवताओं के वचन सुने, क्रोध से उनकी भौंहे तन गईं।'' इसके बाद उन्होंने दुर्गा को महिषासुर का वध करने को भेजा। जब युद्ध चल रहा थो तो ‘‘देवी जी ने अपने बाणों के समूह से महिषासुर के फेंके हुए पर्वतों को चूर—चूर कर दिया। तब सुरापान के मद के कारण लाल—लाल नेत्रवाली चण्डिका जी ने कुछ अस्त—व्यस्त शब्दों में कहा — ‘हे मूढ़! जब तक कि मैं मधुपान कर लूं, तब तक तू भी क्षण भर के लिए गरज ले। मेरे द्वारा संग्रामभूमि में तेरा वध हो जाने पर तो शीघ्र ही देवता भी गर्जने लगेंगे।' इस धमकी के बावजूद उस दैत्य ने युद्ध करना नहीं छोड़ा। तब देवीजी ने अपनी तेज तलवार से उसका सिर काटकर नीचे गिरा दिया....देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। दिव्य महर्षियों के साथ देवता लोगों ने स्तुतियां की। गंधर्व गायन करने लगे। अप्सराएं नाचने लगीं।'' बहरहाल, इस कथा में देवी का ‘सुरापान‘ स्वयं अनेक स्पश्ट आर्यों को जन्म देता है!

उपरोक्त तथ्य कुछ ऐसे अंतर्निहित पाठों की सृष्टि करते हैं, जो महज एक छोटे से

आलेख में नहीं निपटाए जा सकते। इसके लिए व्यापक शोध की जरुरत है। अगर इनके अर्थ संकेतों पर गौर किया जाए, तो असल में ये आज की भारतीय राजनीति का भी बहुत गंभीर पाठ प्रस्तुत करते हैं। इंद्र अगर प्रधानमंत्री था, तो ये विष्णु, शिव वगैरह कौन हैं, जिनके सामने गंधर्व गाते हैं और अप्सराएं नाचती हैं। पिछड़ा, दलित, औरत, वंचित लोगों के इस व्यापक अर्थपाठ के बीच जो ये नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों को उनके जंगल जमीन से हांका जा रहा है — इसके अध्ययन और पुनर्पाठ की प्रस्तुति से कितना कुछ सामने आएगा, यह कोई कल्पना से परे की चीज नहीं है। अब तो पश्चिम पार से आने वाले आयोर्ं को सेना की जरुरत भी नहीं है। उनकी पूंजी ही अनायोर्ं को खदेड़ देने के लिए काफी है और अपने देश के शासक उस पूंजी के गुलाम बने हैं ही।

फिलहाल, मै कहना चाहता हूं कि रणेन्द्र के चर्चित उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता' मे वर्णित आदिवासियों, खासकर असुर जनजाति की त्रासदी को भी इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में पढ़कर व्यापक शोध में शामिल करने को कोई पिछड़ा—दलित विद्वान या विदुषी आए। महिषासुर ललकार रहा है।

(ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंटस फोरम द्वारा वर्श 2013 में जारी पुस्तिका ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?' की चर्चित आलोचक व कथाकार राजकुमार राकेष द्वारा लिखित यह समीक्षा

‘अपेक्षा‘,‘दलित—आदिवासी दुनिया‘, ‘वॉयस ऑफ बुद्धा‘ समेत अनेक पत्र—पत्रिकाओं में प्रकाषित है। मो. : 09780147830)

मिथक का सच

सुरेश पंडित

अनादिकाल से धर्म के पाखंडी कर्मकांडों के विरुद्ध विवेकशील लोगों की आवाजें भी समय—समय पर उठती रही हैं और उन्हें जन समर्थन भी मिलता रहा है। ज्योतिराव फुले, पेरियार और अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म के अनेक मिथकों को बेदर्दी से चीर फाडकर उनमें अन्तर्निहित सचाइयों को बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उसी परम्परा में प्रेमकुमार मणि और राजेन्द्र यादव का नाम भी रखा जा सकता है। यादव तो बार—बार यह कहते रहे हैं कि हिन्दू धर्म का सबसे अधिक नुकसान गंगा और रामायण ने किया है। सारी दुनिया की गन्दगी अपने में समेटकर बहती गंगा आज भी परम पवित्र, पतित पावनी बनी हुई है और पाप के पंक में डूबे लोगों को साफ, शुद्ध कर उन्हें मृत्यु उपरान्त मोक्ष दिलाने की गारंटी भी दे रही है। इसी तरह उस रामायण की सर्वश्रेष्ठता भी अक्षुण्ण बनी हुई है जिसके द्वारा रची गई धर्मसत्ता व राजसत्ता के आदर्श और मर्यादा की मानसिकता सदा प्रश्नों, शंकाओं से घिरी रही है। हिन्दी के प्रमुख विचारक प्रेमकुमार मणि ने महिषासुरमर्दिनी दुर्गा की सचाई की खोज करते हुए लगभग एक दशक पहले जो लेख लिखा था वह पहले पटना के दैनिक ‘हिन्दुस्तान' में फिर ‘जन विकल्प' में और उसके बाद अक्टूबर, 2011 में ‘फारवर्ड प्रेस' मासिक में छपा था। उसी लेख पर कुछ बुद्धिजीवियों और जेएनयू के छात्रों की नजर पड़ी और उन्होंने इसका

एक पोस्टर यूनिवर्सिटी में लगाया। उसमें दुर्गा को महिषासुर पर किये गये अत्याचार और नृशंस हत्या का अपराधी घोषित किया गया था। इस पर सवर्ण छात्रों की हिंसक प्रतिक्रिया हुई थी। लेकिन महिषासुर के पक्ष में खड़ा किया गया वह आन्दोलन अभी थमा नहीं है। उसी के बारे में विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित नौ लेेखों का संग्रह ‘किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन?' नामक पिुस्तका के रूप में प्रमोद रंजन ने संपादित किया है और बलिजन कल्चरल मूवमेन्ट, नई दिल्ली ने छपवाकर वितरित किया है।

इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि आखिर महिषासुर नाम से शुरू किया गया यह आन्दोलन है क्या? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके निहितार्थ क्या हैं? और हम इस आन्दोलन को किस नजरिये से देखें? संपादक का मानना है कि ‘इस आन्दोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिन्दू धर्म की जीवन—शक्ति पर गहरी चोट करने की क्षमता रखता है। जैसे—जैसे यह प्रभावी व व्यापक होता जायेगा हिन्दू धर्म द्वारा उत्पीड़ित अन्य हाशियागत सामाजिक समूह भी धर्म ग्रन्थों के पाठों का विखंडन शुरू करेंगे और अपने पाठ निर्मित करेंगे। इन पाठों के स्वर जितने तीव्र और उग्र होंगे बहुजनों की सांस्कृतिक गुलामी के बंधन उतनी ही शीघ्रता से टूटेंगे।'

इस आन्दोलन के बीज प्रेमकुमार मणि के अनुसार ‘देवासुर संग्राम' में देखे जा सकते हैं और वह दरअसल द्रविड़ और आयोर्ं का ही संग्राम था। आयोर्ं का नेता इन्द्र था जो उस समय शक्ति का केन्द्र माना जाता था। आयोर्ं का समाज पुरुष प्रधान था इसीलिये वे मातृभूमि की जगह पितृभूमि का नमन करते थे। उन्होंने अपने समाज के विस्तार के लिये पूरब अर्थात्‌ बंगाल और असम से अपना तालमेल बढ़ाया। वह समाज मातृसत्तात्मक था इसलिये आयोर्ं ने शक्ति के रूप में दुर्गा को भी अपनी देवी मान लिया। आज भी उत्तर भारत के अधिकतर हिन्दू जिन राम, कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवताओं की पूजा करते हैं वे पौरुष के प्रतीक हैं। लेकिन देवी के रूप में दुर्गा, काली भी अब उन्हें मान्य हो गई है। दुर्गा को स्त्री—शक्ति का प्रतीक बनाने के लिये ही महिषासुर की कल्पना की गई और उसे इस रूप में चित्रित किया गया जिससे वह समाज का शत्रु दिखाई दे और देवी दुर्गा उसका संहार कर धर्मानुयायियों के लिये पूज्य बन जाये। लेकिन मणि के अनुसार इस कथा का शुद्ध पाठ कुछ और तरह का है—महिष अर्थात्‌ भैंस, महिषासुर अर्थात्‌ महिष का असुर। असुर का मतलब जो सुर नहीं है। सुर का अर्थ देवता अर्थात्‌ वे लोग जो कोई काम नहीं करते। परजीवी होते हैं। इसके अनुसार असुर वे हुए जो काम करके पेट भरते हैं। इस तरह महिषासुर का अर्थ होता है भैंस को पालकर जीवन यापन करने वाले — ग्वाले, अहीर। ये भैंस पालक अहीर बंगदेश में वर्चस्व प्राप्त लोग थे और द्रविड़ थे इसलिये आर्य संस्कृति के विरोधी थे। आयोर्ं ने इन्हें पराजित करने के लिये दुर्गा का अनुसंधान किया। बंगदेश में वेश्यायें दुर्गा को अपने कुल का मानती थी इसीलिये आज भी दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिये वेश्याओं के घर से थोड़ी सी मिट्टी जरूर लाई—मंगाई जाती है। भैंस पालकों के नायक या सामन्त की हत्या करने में दुर्गा को नौ दिन लगे। इसी की याद में नवरात्र मनाये जाते हैं। इस तरह एक पशुपालक समुदाय के नायक का वध करने वाली दुर्गा को शक्ति की देवी की प्रतिष्ठा मिली है। यह कैसा संयोग है कि विजयादशमी का पर्व दुर्गा को महिषासुर से हुए युद्ध में मिली विजय की स्मृति में तो मनाया जाता ही है, राम के रावण पर विजय पाने की याद में भी मनाया जाता है।

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री षिबू सोरने तो यह सगर्व घोषणा करते हैं कि वे महाप्रतापी महिषासुर के वंशज हैं इसलिये विजयादशमी या दशहरा उनके लिये खुशियां मनाने का दिन नहीं है। नाटककार अष्विनी कुमार पंकज बताते हैं कि सदियों से असुरों का वध किये जाते रहने के बावजूद आज भी झारखण्ड और छत्तीसगढ के कुछ इलाकों में असुरों का अस्तित्त्व बना हुआ है। लेकिन वे असुर किसी भी कोण से देखने में राक्षस जैसे दिखाई नहीं देते। भारत सरकार ने इन्हें ‘आदिम जनजाति' की श्रेणी में रखा है। अभी तक वे विकास के हाशिये पर हैं। 1981 की जनगणना के अनुसार उनकी कुल जनसंख्या 9100 थी जो वर्ष 2003 में घटकर 7793 रह गई जबकि आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में उनकी कुल संख्या 301 मात्र है। जिस धरती पर ये असुर विचरते हैं, कारपोरेट निगम उसके नीचे से बाक्साइट

निकालने को उतावले हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के निवासी अगरिया जाति के लोगों को भी वैरियर आल्विन ने असुरों की श्रेणी में दिखाया है। जलपाईगुड़ी जिले के अलीपुर द्वार स्टेशन के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाले दहारू असुर कहते हैं कि महिषासुर दोनों लोकों अर्थात्‌ स्वर्ग और पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली थे। देवताओं को लगता था कि जब तक ये जीवित रहेंगे उनको महत्त्व नहीं मिलेगा। इसीलिये उन्होंने दुर्गा के नेतृत्त्व में महिषासुर को ही नहीं उनके सहचरों को भी मार डाला और उनके गले काटकर एक मुंडमाला बनाई और दुर्गा को पहना दी। चित्रों में दुर्गा को महिषासुर की छाती पर चढ़े रौद्र

रूप में ही दिखलाया जाता है।

अधिकतर आदिवासी रावण को भी अपना पूर्वज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण का पूजन आज भी किया जाता है। झारखण्ड और बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में तो बाकायदा नवरात्र अर्थात्‌ दशहरे पर रावणोत्सव मनाया जाता है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन आज भी रावण को अपना कुल गुरू मानते हैं।

‘इंडिया टुडे' हिन्दी के प्रबंध संपादक दिलीप मंडल इसी प्रसंग में यह सवाल उठाते हैं कि क्या धार्मिक ग्रन्थों की वैकल्पिक व्याख्या नहीं की जा सकती? सचाई यह है कि इसी पद्धति से उनमें वर्णित चरित्रों और घटनाओं के नये—नये पहलू सामने आ सकते हैं और इससे वैज्ञानिक चिन्तन को बढ़ावा मिल सकता है। प्राचीन काल में शास्त्रों की व्याख्याओं को लेकर जो शास्त्रार्थ होते थे उन्होंने ही हिन्दू धर्म के अनेकों मतों, पन्थों, समुदायों और विचार परम्पराओं को जन्म दिया था। लेकिन जैसे—जैसे समाज ज्ञान और विज्ञान से अधिक समृद्ध होता गया है लोगों की मानसिकता संकीर्ण होती गई है। उन्हें जो पाठ जिस तरह समझाया गया है वे उसी रूप में उसे अपनाना चाहते हैं। न स्वयं कोई नवीन चिन्तन करते हैं तथा न दूसरों के नये विचारों को अपनाने के लिये अपने मस्तिष्क के खिड़की दरवाजे खोलते हैं। वास्तव में पुनर्पाठ की प्रक्रिया तो लोकतांत्रिक विचार पद्धति को जीवन्त रखती है और उसे समृद्ध बनाती है। वे इस प्रसंग में फुले की कालजयी कृति ‘गुलामगीरी' और अम्बेडकर की ‘रिडल्ज आफ हिन्दूइज्म' के उदाहरण सामने रखते है। फुले के अनुसार हिन्दुओं के धर्म ग्रन्थ ब्राह्मण पुरोहितों ने अपने हितों के संरक्षण के लिये निर्मित किये हैं और उन पर नई व्याख्याओं का इसलिये वे विरोध करते हैं ताकि समाज पर उनकी पकड़ बदस्तूर बनी रहे।

महिषासुर शहादत दिवस मनाने से देशभर में एक नई बहस शुरू हुई है। पूरी निर्भीकता के साथ अब यह प्रश्न किया जाने लगा है कि यदि दुर्गा इतनी बलशाली थी तो उसने गोरी, गजनी, बाबर, हिटलर जैसे लोगों का वध क्यों नहीं किया? जिस महिषासुर को एक ऐसे नृशंस राक्षस के रूप में चित्रित किया गया है जो लोगों को भयभीत व आतंकित करने वाला था वह वास्तव में इसी देश का सामान्य नागरिक था जो स्वभाव से हिंसा—विरोधी और प्रकृति—पूजक था। उसे बुुरा बताकर मारा गया। जबकि स्वयं सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कण्डेय

काटजू और ज्ञान सुधा मिश्र ने जनवरी 2011 में अपने एक निर्णय मे कहा था — ‘राक्षस और असुर कहे जाने वाले लोग ही इस देश के मूल नागरिक हैं।' अन्य विद्वानों का भी मत है कि असुर आयोर्ं से श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे सुरा—शराब का सेवन नहीं करते। ब्राह्मणवादी ग्रन्थों के अनुसार यज्ञ विरोधी महिषासुर के पिता रंभासुर असुरों के राजा थे तथा उनकी माँ का नाम श्यामला राजकुमारी था। इस देश के मूल निवासी जिन्हें आयोर्ं ने साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट कर हजारों वर्ष चले युद्ध में छल, कपट से परास्त कर असुर, अछूत, शुद्र, राक्षस आदि बनाकर सामााजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक

रूप से कमजोर एवं गुलाम बना लिया था उनके नायकों की हत्या कर उन्हें असुर व राक्षस

घोषित कर दिया गया। कहा जाता है कि महिषासुर इतना पराक्रमी राजा था कि उसने देवताओं के राजा इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर दिया था, ऐसे राजा का वध करवाने के लिये देवताओं ने दुर्गा को भेज कर इस काम को सम्पन्न करवाया था। उधर, ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम के अध्यक्ष जितेन्द्र यादव का कहना है कि पिछड़ी जाति बहुल उनके गांव में महिषासुर जैसी कद—काठी के तो कई व्यक्ति आज भी देखने को मिल जाते हैं पर दुर्गा जैसी कोई महिला कभी दिखाई नहीं दी।

दरअसल इतिहास का कथ्य किसी ऐसे सत्य को प्रकट नहीं करता जिस पर पुनर्विचार किया ही नहीं जा सकता। हर पीढ़ी अपने अर्जित ज्ञान और संचित अनुभवों के आधार पर अपना इतिहास निर्मित करती है। इस प्रक्रिया में अक्सर पूर्व में प्रतिष्ठित नायक खलनायक बन जाते हैं और खलनायक सम्मान के पात्र। जिन असुरों व राक्षसों को मानवता के शत्रु के रूप में निन्दनीय बनाया जाता है वे देश के मूल निवासी के रूप में सामने आते हैं और अपनी पहचान स्थापित करने के लिये अपनी गाथा स्वयं लिखने को तत्पर हो जाते हैं।

(पुस्तिका ‘ किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन' की यह समीक्षा ‘वर्तमान साहित्य' के सितंबर,

2013 अंक से साभार। सुरेष पंडित हिंदी के वरिष्ठ लेखक व आलोचक हैं। मो. 8058725639)

सौ जगहों पर मनाया जा रहा षहादत दिवस

अरूण कुमार

वर्श 2013 में लगभग 60 जगहों पर महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन किया गया था। वर्श 2014 में लगभग 100 जगहों पर इस दिवस का आयोजन किये जाने की सूचना है।

जेएनयू में इस बार 9 अक्टूबर, 2014, षरद पूर्णिमा को महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन किया जा रहा है। आयोजक संगठन ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्‌स फोरम के राश्ट्रीय अध्यक्ष जितेंद्र यादव कहते हैं कि इस बार के महिशासुर षहादत दिवस के आयोजन में देष के कोने—कोने से बहुजन बुद्धिजीवी, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हिस्सा लेंगे। इस अवसर पर महिशासुर दुर्गा के प्रसंग को चित्रों में उकेरने वाले प्रसिद्ध चित्रकार लाल रत्नाकर के चित्रों की प्रदर्षनी भी लगाई जाएगी।

झारखंड के गिरीडीह में दामोदर गोप के नेतृत्व में आयोजन हो रहा है। दामोदर गोप गाते हुए कहते हैं, ‘छीनल गइल मोर रजवा रे दइबा' हम लोग कितने मूर्ख हैं कि जिस दुर्गा ने हमारे राजा की हत्या की है हम उसी की पूजा कर रहे हैं। ‘राम सलाम, प्रणाम नहीं, जय महिशासुर की।' अभिवादन के साथ गिरीडीह की सड़कों पर महिशासुर की षोभा

यात्रा निकाली जा रही है।

ब्राम्हणवादी आंदोलनों का गढ़ रही बिहार की भूमि महिशासुर आंदोलन के लिए भी उर्वर साबित हो रही है। इस वर्श लगभग 15 जिलों में लोग अपने—अपने तरीकों से महिशासुर को

याद कर रहे हैं। नवादा में दुर्गा पूजा के पंडालों के बरक्स महिशासुर के पंडालों का निर्माण हो रहा है। इन पंडालों में महिशासुर की प्रतिमा एक न्यायप्रिय बहुजन नायक के रूप में मौजूद हैं। आयोजक सुमन सौरभ कहती हैं कि हिन्दू धर्म का बोझ महिलाओं ने अपने कंधे पर उठा रखा है। हमारा फोकस महिलाओं को महिशासुर—दुर्गा प्रसंग के माध्यम से बहुजनों की गुलामी के कारणों को समझाना है। अब तक को जो हमारा प्रयास रहा है उसमें हम सफल होते दिख रहे हैं। महिलाएं गौर से हमारी बातें सुन रही हैं। इस आयोजन में पूर्व मंत्री व आरा से लोकसभा प्रत्याषी भगवान सिंह कुषवाहा, पूर्वमंत्री व नवादा से लोकसभा प्रत्याषी राजवल्लभ यादव और अतरी के विधायक प्रो. कृश्णनंदन यादव मुख्य अतिथि हा. ेंगे।

पटना में अधिवक्ता मनीश रंजन सामाजिक कार्यकर्ता उदयन राय, राकेष यादव और पत्रकार नवल कुमार ‘दुर्गापति‘ ने बहुजनों को समझाने का बीड़ा उठाया है। मनीश रंजन कहते हैं कि दुर्गा पूजा के दौरान पटना में चंदा देने और वसूलनेें का जिम्मा बहुजन वर्ग

भक्ति भाव से उठाता है। लेकिन ब्राम्हण वर्ग उन चंदों का उपयोग अपना घर और पेट भरने में करते हैं। हमारे लागों को यह पता भी नहीं हैं कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। हम

घर—घर जाकर लोगों को दुर्गा कथा का बहुजन पाठ सुना रहे हैं। मुजफ्‌फरपुर में लड्‌डू सहनी, पंकज सहनी, रामाषंकर सिंह यादव और हरेंद्र यादव आयोजन की तैयारियों में लगे हुए हैं। पंकज सहनी बताते हैं कि ब्राम्हणों की चालाकी देखिए कि जिसकी हत्या की उसी के वंषजों से हत्या का जष्न भी मनवा रहे हैं। यह सिर्फ जष्न का मामला नहीं है यह अपनी हिस्सेदारी और अपने खोए हुए हक को प्राप्त करने का आंदोलन भी है जिसे ब्राम्हणों ने दबा रखा है। जिसे राक्षस कहा जाता है, दरअसल वे हमारे पूर्वज थे जो अपने संसाधनों की रक्षा के लिए कुर्बानी दी।

सीवान के युवा सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप यादव, रामनरेष राम ने ‘राजा महिशासुर समारोह समिति' के बैनर तले आयोजन कर रहे हैं। 5 अक्टूबर 2014 को जिले के बहुजन बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में महिशासुर—दुर्गा प्रकरण पर चिंतन मनन किया जाएगा। प्रदीप यादव बताते हैं कि लोग महिशासुर को अपना नायक मानने लगे हैं यदि यह आंदोलन इसी तरह से चलाया गया तो षीघ्र ही दुर्गा भक्तों की संख्या में गिरावट आ जाएगी।

पूर्वी चंपारण में बिरेंद्र गुप्ता, पष्चिमी चंपारण में रघुनाथ महतो, षिवहर में चंद्रिका साहू, सीतामढ़ी में रामश्रेश्ठ राय, गोपालगंज के थावे मंदिर के महंथ राधाकृश्णदास आदि लोग अपने सीमित संसाधनों के बावजूद महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेष में यादव षक्ति पत्रिका कई जिलों में अपने पाठकों के माध्यम से महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन कर रहा है। राजधानी लखनऊ में ‘यादव षक्ति' पत्रिका के संपादक राजवीर सिंह यादव एक अभियान की तरह महिशासुर षहादत दिवस की तैयारियों में लगे हुए हैं। राजवीर सिंह ने बताया कि इस आंदोलन ने कम समय में बड़ी उपलब्धि हासिल की है। बडे़ पैमाने पर लोग हमारे साथ जुड़ रहे हैं। देवरिया में यादव षक्ति पत्रिका के प्रधान संपादक चंद्रभूशण सिंह यादव आंदोलन की कमान संभाले हुए हैैं। चंद्रभूशण सिंह

यादव सोषल मीडिया पर लगातार सक्रिय हैं और रोज आंदोलन से जुडे मुद्‌दे पर लिखते हैं। फेसबुक पर इनके कथनों को षेयर करने वालों की संख्या सैकड़ों में हैं।

कौषांबी, उत्तर प्रदेष के जुगवा गांव में एनबी सिंह पटेल और अषोक वर्द्धन के नेतृत्व में जनआंदोलन करने की तैयारी है। इन लोगों ने अपने गांव का नया नामाकरण ही

‘महिशासुर' के नाम पर ‘जुगवा महिशासुर' करने का फैसला कर लिया है। अषोक वर्द्धन कहते हैं कि सीधी सी बात है कि आर्य आक्रमणकारी के रूप में बाहर से आए और यहां के मूलनिवासियों पर हमले किए। सीधी लड़ाई में हारने के बाद आर्यों ने छल का सहारा लिया और हमारे नायक महिशासुर की हत्या कर दी। छल की हद तो तब हो गई जब हमारे ही सीने में हमारे ही नायक के खिलाफ कूट—कूट कर घृणा भर दी। हम लोगों के सीने से उसी घृणा की भावना को ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के माध्यम से निकालने का प्रयास

कर रहे हैं। मिर्जापुर में कमल पटेल और सुरेंद्र यादव, इलाहाबाद में लड्‌डू सिंह और राममनोहर प्रजापति, बांदा में मोहित वर्मा, बनारस में कृश्णा पाल, अरविंद गोंड और रिपुसूदन साहू आदि लोग षहादत दिवस की तैयारियोें में लगे हुए हैं। पष्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में स्वप्न कुमार घोश के नेतृत्व में महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन किया जा रहा है। घोश कहते हैं कि बंगाल महिशासुर की कर्मभूमि रही है और यहीं छलपूर्वक महिशासुर की हत्या की गई थी। इसी कारण दुर्गा की पूजा का प्रचार सबसे ज्यादा यही हुआ। यहां के लोगों को महिशासुर की कथा का बहुजन पाठ बताना ज्यादा जरूरी है। इसलिए 9 अक्टूबर 2014 को हमलोग एक बड़े जनजुटान में लगे हुए हैं। इसी तरह, उड़ीसा के कालाहांडी जिले में नारायण वागर्थी महिशासुर षहादत दिवस का आयोजन कर रहे हैं।

इस तरह से हमें पूरे उत्तर भारत के लगभग 100 जगहों पर महिशासुर षहादत दिवस मनाए जाने की सूचना हमें मिली है। लोग अपने—अपने तरीकों से अपने नायक को याद करेंगे और सवर्णों/आर्यों द्वारा छीन ली गई संपदा को पुनः प्राप्त करने की षपथ लेंगे।

(ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम के राश्ट्रीय संयोजक अरूण कुमार आईसीएसएसआर, नई दिल्ली में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं।)

आर्य व्याख्या का आदिवासी प्रतिकार

विनोद कुमार

भारतीय वांड़मय—रामायण, महाभारत, पुराण आदि इस प्रजाति के जीवों के विवरण से भरे पड़े हैं। ये दानव भीमकाय, विकृत आकार के, काले व मायावी शक्तियों से भरे हुए ऐसे जीव थे जो देवताओं और मृत्युलोक में रहने वाले भद्र लोगों को परेशान करते रहते थे। इस बारे में विद्वान और इतिहासवेत्ता बहुत कुछ लिख चुके हैं और यह मानकर चलते हैं कि ये गाथाएं सदियों तक चले आर्य—अनार्य युद्ध की छायाएं हैं। परंतु इन कथाओं को इस

रूप में देखने वाले और अन्य लोग भी सहज भाव से यह स्वीकार करते आए हैं कि दस सिर वाले रावण को मार कर राम अयोध्या लौटे होंगे और उस अवसर पर दिये जलाकर राम, लक्ष्मण और सीता का स्वागत अयोध्यावासियों ने किया होगा। तभी से दीपावली मन रही है और रावण वध का आयोजन हो रहा है। उसी तरह, पूर्वोत्तर भारत में महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा की आराधना होती है। हाल के वर्षों में बंग समाज के लोग जिन राज्यों में गए, वहां भी अब दुर्गा पूजा होने लगी है। लेकिन सामान्यतः दुर्गा पूजा बिहार, बंगाल और ओड़िशा का त्योहार है। कभी—कभी यह जिज्ञासा होती है कि दुर्गा पूजा पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत में ही क्यों होती है। इसी तरह, रावण वध का उत्सव उत्तर भारत में ही क्यों मनाया जाता है? रामलीलाएं इसी क्षेत्र में क्यों आयोजित होती हैं? दक्षिण भारत में क्यों नहीं?

छल के शिकार रहे हैं असुर

बहुधा यह भी देखने में आता है कि धार्मिक ग्रंथों, पुराणों आदि में दुष्ट तो दानवों को बताया जाता है, लेकिन धूर्तता करते देवता दिखते हैं। मसलन, समुद्र मंथन तो देवता और दानवों ने मिलकर किया लेकिन समुद्र से निकली लक्ष्मी सहित सभी मूल्यवान वस्तुएं देवताओं ने हड़प लीं। यहां तक कि अमृत भी सारा का सारा देवताओं के हिस्से गया और जब राहू—केतु ने देवताओं की पंक्ति में शामिल होकर अमृत पीना चाहा तो उन दोनों को अपने सर कटाने पड़े। महाभारत में लाक्षागृह से बचकर निकलने और जंगलों में भटकने के बाद, पांडवपुत्र भीम किसी दानवी से टकराए। उसके साथ कुछ दिनों तक सहवास किया और फिर वापस अपनी दुनिया में चले गए। बेटा घटोत्कच कैसे पला—बढ़ा, इसकी कभी सुध नहीं ली। हालांकि उस बेटे ने महाभारत युद्ध में अपनी कुर्बानी देकर अपने पिता के कर्ज को चुकता किया। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रावण के व्यक्तित्व की तो बहुत सारी समीक्षाएं हुईं। रावण सीता को हर कर तो ले गया लेकिन उनके साथ कभी अभ्रद व्यवहार नहीं

किया, जबकि राम ने अपनी पत्नी को लगातार अपमानित किया। छल से बालि की हत्या की। एकलव्य की कथा तो इस बात की मिसाल ही बन गई है कि एक गुरु ने अगड़ी जाति के अपने शिष्य के भविष्य के लिए एक आदिवासी युवक से उसका अंगूठा ही किस तरह गुरुदक्षिणा में मांग लिया। पौराणिक गाथाओं की ये सब बातें पिछले कुछ सालों से तीखी बहस का हिस्सा बनी हैं। पहले दलित—बहुजनों का गुस्सा और आक्रोश फूटा और वह ब्राह्मणवादी व्यवस्था से घृणा की हद तक चला गया। और अब पिछले कुछ समय से आदिवासी समाज भी इस मुद्दे पर आंदोलित है।

मध्य भारत में केन्द्रित

प्राचीन भारतीय इतिहास की अलग अलग व्याख्याएं हो रही हैं, खासकर उस क्षेत्र के इतिहास की जिसे अब बंगाल, बिहार और ओड़िशा कहा जाता है। इतिहास की जिन पुस्तकों की मदद से यह बहस चल रही है, उनमें सबसे ज्यादा चर्चित है डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर की

‘एनल्स अॉफ रूरल बंगाल' हंटर का मानना है कि वैदिक युग के ब्राह्मणों और मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की वह दरअसल मध्यभारत का धर्म है। मध्यभारत, यानी हिमालय से विंध्याचल पर्वतमाला तक का भौगोलिक क्षेत्र। हिंदू धर्म की स्थापना मध्य एशिया से निकलकर दुनिया के अलग—अलग हिस्सों में कई सभ्यताओं को जन्म देने वाले आर्यों ने की जिन्होंने हिन्दुस्तान में सबसे पहले पश्चिमोत्तर क्षेत्र की दो नदियों—सरस्वती और दृ श्यवती—के बीच पड़ाव डाला। वहां से वे दक्षिण—पूर्व दिशा में बढ़े और गंगा नदी के किनारे—किनारे बसते हुए बंगाल के मुहाने तक पहुंच गए। इन्हींं इलाकों को मनु अपना इलाका—हिंदू धर्म का इलाका—मानते हैं जो शुद्ध बोलता है, उसके बाहर राक्षस रहते हैं जो शुद्ध बोल नहीं सकते, अखाद्य पदार्थों का भक्षण करते हैं और जो आर्यों की तरह गौर वर्ण के नहीं हैं बल्कि काले हैं।

वर्णों का मिश्रण

मनु द्वारा व्याख्यायित हिंदू धर्म यहां अपनी जड़ें जमा पाता और उसका प्रचार—प्रसार हो पाता, उसके पहले ही बौद्ध धर्म उठ खड़ा हुआ जो इस इलाके के लोगों को सहज स्वीकार्य भी हुआ। यहां के राजा भी ब्राह्मण, क्षत्रिय नहीं बल्कि यहां के मूलवासी थे या वे लोग थे जो मनु की वर्णवादी व्यवस्था के बाहर थे। चाहे वे सम्राट अशोक हों या फिर गौड़ को अपनी राजधानी बनाकर 785 से 1040 ई. तक बंगाल पर शासन करने वाले राजे। उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे। सन्‌ 900 ई. में खुद को हिंदू मानने वाले बंगाल के राजा आदिश्वर ने वैदिक यज्ञ व पूजा—पाठ के लिए कन्नौज से पांच ब्राह्मणों को बुलवाया। वे पांचों ब्राह्मण गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे। स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया, बच्चे पैदा किए। जब वे यहां अच्छी तरह बस गए, उसके बाद कन्नौज से उनकी पत्नियां यहां

आईं। वे स्थानीय पत्नियों और कथित रूप से अवैध संतानों को वहीं छोड़कर आगे बढ गए। उनकी अवैध संतानों से राड़ी ब्राह्मण पैदा हुए, साथ ही अनेक अन्य जातियां जैसे कायस्थ आदि। लेकिन जिन मिश्रित नस्ल और जातियों का भारत में आविर्भाव हुआ, वे सिर्फ मनु की वर्ण व्यवस्था के लोगों के बीच आपसी विवाह का नतीजा न होकर ब्राह्मणों और हिंदू वर्ण व्यवस्था के बाहर की जातियों के मिश्रण का भी नतीजा था। हिंदू वर्ण व्यवस्था का आभिजात्य तबका ब्राह्मण ही था। तो, तब के बंगाल में, जिसमें वीरभूम और मानभूम शामिल थे—की आबादी के मूल तत्व कौन कौन थे? हंटर ने पंडितों के हवाले से इस तथ्य का ब्योरा कुछ इस प्रकार दिया है— 1.यहां के गैर आर्य आदिवासी 2.वैदिक व सारस्वत ब्राह्मण 3. छिटपुट वैश्य परिवारों के साथ परशुराम द्वारा खदेड़े गए मध्यभारत के

क्षत्रिय जो बिहार से नीचे नहीं उतर पाए 4. सन्‌ 900 ई. में कन्नौज से लाए गए ब्राह्मण और उनके वंशज और 5. उत्तर भारत से पिछले कुछ सालों में आए क्षत्रिय, राजपूत, अफगान और मुसलमान आक्रमणकारी। और ये सभी मनु की वर्ण व्यवस्था के हिस्सा नहीं थे। बंगाल के ब्राह्मणों को उत्तर भारत, यानी मनु के मध्यभारत के ब्राह्मणों ने राड़ी ब्राह्मणों की संज्ञा दे रखी थी और उनसे रोटी—बेटी का संबंध नहीं रखते थे।

कर्मकांडी नहीं थे वे

अस्तु, बंगाल की आबादी दो बड़े खेमों में विभाजित थी। आक्रमणकारी आर्य, जिन्हें ब्राह्मणों जैसा दर्जा प्राप्त था और यहां के आदिवासी जिन्हें आक्रमणकारियों ने यहां पाया था और जिन्हें वे जंगलों में खदेड़ते जा रहे थे। आर्यों को अपनी श्रेष्ठता का इतना अहंकार था कि वे आदिवासियों को मनुष्य से नीचे का, जीव—जंतु का, दर्जा देने लगे। आदिवासियों से उनकी नफरत की अनेक वजहें थीं। एक तो उनका वर्ण काला था, दूसरा, वे ऐसी भाषा बोलते थे जिसका, उनके अनुसार, कोई व्याकरण नहीं था, तीसरा, उनके खान—पान का तरीका और चौथा, वे किसी तरह के कर्मकांड में विश्वास नहीं करते थे, इंद्र की पूजा नहीं करते थे और उनका कोई ईश्वर नहीं था। वैदिक ऋ चाओं में उन्हें दसानन, दस्यु, दास, असुर, राक्षस जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया जाने लगा।

वेद—पुराणों और भारत के ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खल चरित्र के रूप में पेश किया गया है जो सरासर गलत है। असुर, मुण्डा और संथाल आदिवासी समाज में कई ऐसी परंपराएं और वाचिक कथाएं हैं जिनमें उनका विरोध दर्ज है। चूंकि गैर—आदिवासी समाज, आदिवासी भाषाएं नहीं जानता है इसलिए उसे लगता है कि आदिवासी हिंदू मिथकों और उनकी नस्लीय भेदभाव वाली कहानियों के खिलाफ नहीं हैं।

बहुधा हम भारतीय समाज की सामूहिक चेतना की बात करते हैं लेकिन क्या वास्तव में हमारे समाज की कोई सामूहिक चेतना है? या इन नस्लीय भेदभाव के रहते बन सकती है? क्या हमने कभी विचार किया है कि आजकल जो दुर्गा पंडाल बनते हैं, भव्य प्रतिमाएं

बनती हैं, सप्ताह दस दिन तक चलने वाले मेले—ठेले में ठगा—ठगा सा खड़ा एक आदिवासी विस्फारित नेत्रों से इन आयोजनों को देखकर क्या महसूस करता है? या हम इंतजार कर रहे हैं कि वह अपने ही पूर्वजों की हत्या के इस उत्सव का धीरे—धीरे आनंद लेने लगेगा?

ऐसा लगता तो नहीं, क्योंकि आदिवासी और गैर आदिवासी समाज के बीच विकास के मॉडल को लेकर एक तीखा युद्ध अभी भी जारी है।

(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2014 अंक से साभार। पत्रकार विनोद कुमार ने लंबे समय तक पत्रकारिता की है और अब एक्टिविज़्म के साथ—साथ हिंदी कथा लेखन कर रहे हैं। झारखंड के समाज पर ‘समर शेष है' और ‘मिशन झारखंड' जैसे इनके उपन्यास बहुचर्चित रहे हैं।)

जिज्ञासाएं और समाधान

महिषासुर की हत्या कब हुई?

भारतीय उपमहाद्वीप में सुव्यवस्थित इतिहास लेखन की परंपरा नहीं रही है, इसलिए महिषासुर के जीवनकाल अथवा हत्या का ठीक—ठीक काल—निर्धारण बहुत कठिन है। दुर्गा की कथा ‘मार्कण्डेय पुराण' में है। इतिहासकारों ने इस पुराण का लेखन—काल 250 से 500 ईसवी के बीच माना है। इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि महिषासुर का काल इससे पूर्व रहा होगा। यानी, यह घटना 2000 से 2500 वर्श से अधिक पुरानी है।

महिषासुर शहादत दिवस किस तारीख को मनाया जाना चाहिए?

महिषासुर शहादत दिवस हर वर्ष शरद (अष्विन) पूर्णिमा को मनाया जाना चाहिए। विदेशी आक्रमणकर्ताओं (जिन्हें ब्राह्मण धर्मग्रंथों में देवता कहा गया है, तथा जो आज ‘द्विज' के रूप में जाने जाते हैं) द्वारा भेजी गयी दुर्गा अश्विन मास के 16 वें दिन (शुक्ल पक्ष का प्रथम दिन) को महिषासुर के दुर्ग में पहुंची थी। इसके सातवें दिन रात में दुर्गा ने महिषासुर के दुर्ग का द्वार (पट) खोल दिया, ताकि आसपास छिपे देवता आक्रमण कर सकें। इस दौरान देवतागण महिषासुर के दुर्ग के इर्द—गिर्द झाड़—झाडियों में अपने अस्त्र—शस्त्रों के साथ बहुत बुरी हालत में कंद—मूल खाकर छुपे रहे थे। दो दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। छलपूर्वक अचानक हुए हमले के बावजूद महिषासुर व उनके गणों को हराना देवताओ के लिए संभव न था। इसलिए उन्होंने नौवें दिन फिर दुर्गा को आगे किया। महिषासुर की प्रतिज्ञा थी कि वे स्त्रियों और पशुओं का संरक्षण करेंगे। उनकी इस प्रतिज्ञा का लाभ दुर्गा को सामने कर देवताओं ने उठाया और अपने समय के प्रतापी सामाजिक—सांस्कृतिक और राजनैतिक नेतृत्वकर्ता महिषासुर की हत्या कर दी तथा भयानक नरसंहार किया। इसी हत्या और नरसंहार के उपलक्ष्य में आश्विन मास के दसवें दिन ‘दशहरा' का त्योहार आयोजित किया जाता है। यह आज के बहुजनों के पूर्वजों तथा उनके नायक की हत्या का जष्न है।

आदिवासियों व विभिन्न अद्विज जातियों के बीच प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार महिषासुर के पराजित अनुयायियों ने इस घटना के पांच दिन बाद शरद पूर्णिमा (दशहरा के ठीक पांच दिन बाद) को एक विशाल सभा की थी तथा अपनी संस्कृति को जीवित रखने व अपनी खोयी हुई संपदा का वापस लेने संकल्प किया था। इसी घटना की याद में ‘महिषासुर शहादत दिवस' का अयोजन शरद पूर्णिमा को दिन अथवा रात में किया जाना चाहिए। ज्ञातव्य है कि असुर—श्रमण—बहुजन परंपरा में षरद पूर्णिमा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है। कृश्ण की कथाओं में यह ‘कौमुदी महोत्सव' का अवसर है जबकि बुद्ध के जीवन चरित में यह नई यात्रा की षुरुआत का दिन माना जाता है।

शहादत दिवस का आयोजन कैसे करें?

पिछले कुछ वषोर्ं में महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन के कुछ सर्वमान्य तरीके निम्नांकित हैं :

1 महिषासुर शहादत दिवस में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की कोषिष करनी चाहिए।

2 आयोजन सात दिवसीय होना चाहिए। यानी, महिषासुर की हत्या के दिन के बाद

(आश्विन माह के 24 वें दिन/ दशहरा की नवमी) से शरद पूर्णिमा के दिन तक यह चले। मुख्य आयोजन शरद पूर्णिमा के दिन हो। जहां समयाभाव हो वहां आयोजन एक दिवसीय हो और इसे शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाए।

3 षहादत दिवस के आयोजन के लिए मूर्ति/प्रतिमा का निर्माण आवष्यक नहीं है। लेकिन अगर मूर्ति का निर्माण किया जाता है तो उसका नदियों, तालाबों आदि किसी भी प्रकार के जलस्रोत में या कहीं भी ‘विसर्जन' न किया जाए। आयोजन के बाद मूर्ति को या तो आयोजन समिति के बहुमत के आधार पर किसी बहुजन व्यक्ति के घर अथवा किसी सामुदायिक भवन में रखा जाए अथवा मूर्ति/प्रतिमा को ससम्मान नश्ट कर उनके अंषों को समूची सृश्टि की बेहतरी और अच्छी फसल की कामना के साथ किसी उपजाऊ खेत में बिखेर दिया जाए। इस प्रसारण के बाद प्रतिमा के मिट्‌टी युक्त अंषों को लोग अगले आयोजन तक अपने घरों में रखें। इस प्रकार महिशासुर की प्रतिमा का ‘विर्सजन' नहीं बल्कि ‘प्रसारण' हो।

4 शरद पूर्णिमा के दिन आयोजन स्थल से दुर्गासप्तशती, मार्कण्डेय पुराण समेत विभिन्न ब्राह्मण पुराणों, स्मृतियों व अन्य धर्मग्रंथों की शव—यात्रा निकाली जानी चाहिए। इस शव यात्रा की समाप्ति तथा शव दहन का कार्यक्रम संवैधानिक सत्ता केंद्रों (यथा, राज्य स्तरीय कार्यक्रम में राजधानी में स्थित विधान सभा सचिवालय, जिला स्तरीय आयोजन में समाहारणालय, प्रखंड स्तरीय कार्यक्रम में प्रखंड कार्यालय तथा गांव स्तरीय कार्यक्रम में पंचायत भवन के समक्ष अथवा ऐसी जगह न उपलब्ध होने की स्थिति में किसी अन्य सामुदायिक सार्वजनिक परिसर) में आयोजित किया जाना चाहिए।

5 शव दहन यथासंभव क्षेत्र की किसी सम्माननीय महिला के हाथ से हो।

6 अगर संभव हो तो महिशासुर के नाम पर विभिन्न खेल व चित्रकला प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाए।

7 महिशासुर उत्सव के दौरान विभिन्न बहुजन जातियों द्वारा पारंपरिक तौर पर गाये जाने वाले श्रम गीतों (यथा, बिरहा, फरूवाही, कहरूवा, जतसार व रोपनी—सोहनी के गीत आदि) का गायन हो।

8 विभिन्न बहुजन नायकों के संबंधित पारंपरिक गाथाओं का मंचन किया जाए तथा बहुजन दृष्टिकोण से सृजनात्मक लेखन कर सकने की क्षमता रखने वाले युवक—युवतियों को इन विषयों पर नये नाटक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए व उनका मंचन किया जाए।

9 इन आयोजनों का फिल्मांकन किया जाए तथा नवीनतम संचार माध्यमों व तकनीकों के माध्यम से इसका प्रसार किया जाए व इन्हें संरक्षित किया जाए।

10 सर्वाधिक स्मरणीय यह है कि शहादत दिवस बहुजन समुदाय की एकता, अपनी संस्कृति की पुनर्स्थापना और अपनी खोयी हुई भौतिक संपदा की वापसी के लिए संकल्प लेने का कार्यक्रम हो। कार्यक्रम के दौरान होने वाले संभाषण आदि इन्हीं विषयों पर केंद्रित हों।