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रामकीरत की रीढ

कहानी
रामकीरत की रीढ़
-प्रमोद रंजन
रात 9 बजे के बाद आई सामान्य खबरें स्वीकार्य नहीं! बड़ी दुर्घटनाओं और अपराध के अलावा सब कुछ वर्जित। यह वह वक्त होता है जब वे समुद्र तट पर बिखरे लाल केकडों के बाल समूह की तरह खदबदाने लगते हैं। देखिए,
वे लंबे-लंबे डग भर रहे हैं, लगभग दौड़ रहे हैं। कंप्यूटर कक्ष से संपादकीय डेस्क, डेस्क से विज्ञापन विभाग, प्रभारी की कुर्सी से संपादक के कमरे तक। 10 बजे तक हर पन्ना संपादक जी के पास होना चाहिए। सभी संस्करणों की छपाई उसके बाद शुरू होगी।

इस दौड़ में रामकीरत अलग से पहचाना जा सकता है। संपादकीय पृष्‍ठ तैयार करने जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेवारी के बावजूद वह खटके से दौड़ नहीं पाता। लंबे डग भरते केकडे़ एक-दूसरे को कोंचते हैं-‘यह तो विचित्र ही जीव है!’ फब्तियां कीरत की हीनता ग्रंथी को और बडा कर देतीं हैं। पर वह करे तो क्या? ऐसी मुस्तैदी बाजार में तो मिलती नहीं कि खरीद लाए। वह बहुत समय से ऐसा ही है। उसकी मानसिक बुनावाट भी शारीरिक संरचना के अनुरूप हो गई है। केकडे़ फुसफुसाते हैं ‘‘नया आया रामकीरत बीते काल का रीढ़धारी दोपाया है’’। उनकी बात गलत नहीं है। दरअसल, रामकीरत इस मंझोले कद के क्षेत्रीय अखबार की नौकरी रीढ़ वाली बात छुपा कर ही पा सका है। वह रीढ़ अपने कमरे में ही छोड़कर दफ्तर आता है। सोचता है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। अक्सर साथी केकड़ों से पूछता है कि आप यहां कितने सालों से हैं? दरअसल, इस बहाने जानना चाहता है कि लुंजपुंज हो रही उसकी पीठ को केकड़ानुमा बनने में कितना समय लगेगा।

कीरत कभी-कभी सोचता है कि जीव मात्र कितना अनुकूलनशील होता है। देखो, रीढ़ लुप्त कर कैसी क्रकची भुजयष्टि विकसित कर ली इन्होंने।

गौर करने पर उसने जाना है कि ये जन्मजात केकड़े नहीं हैं। लेकिन इससे पहले वे क्या रहे होंगे, बहुत सोचने पर भी स्पष्‍ट खाका नहीं बना पाता। उनकी दांतदार क्रकचों से डरते; ईर्ष्‍या करते नौकरी किए जा रहा है वह। कभी वह सोचता है, ....ओह, इस सूचना युग में भी मेरी बाहें और हथेलियां जस की तस हैं!! वह अच्छी तरह समझता है कि जल्दी ही, सूचना युग के भीतर आने वाले; और बाहर रह जाने वालों में उतना ही फर्क हो जाएगा जितना प्रागैतिहासिक काल में दोपाया हो जाने और बंदर रह जाने वालों में हो गया था। हालांकि इस भविष्‍य बोध का फायदा तो तब है जब जैविक गुण पीछा छोड़ें। कौन नहीं जानता, सूचना युग में प्रवेश के लिए क्रकचों का होना जरूरी है। कीरत के लिए इसमें सबसे बड़ी बाधा है उसकी रीढ़। उसका अनुमान है कि क्रकच का निकलना और पीठ का केकड़ानुमा होते जाना, साथ-साथ चलने वाली जैविक क्रियाएं हैं। ठीक वैसे ही जैसे ‘मानव विकास काल’ के अंत में पूंछ सिकुड़ती गई होगी और बाहें निकली होंगी, फिर हथेलियां..और फिर शायाद धीरे-धीरे जमींकंद की कोंपलों सी उंगलियां..। यूं तो कीरत सूचना युग के क्षेत्रीय ही सही, पर एक महत्वपूर्ण केंद्र का हिस्सा है किन्तु क्या करे, अगर बाहें अंगूठे वाली हथेलियां क्रकचों नहीं तब्दील हो रही। 24 में से 16 घंटे रीढ़ से जुदा रहने के कारण उसकी पीठ अजीब लचलची तो होने लगी है। पर सहकर्मियों जैसी सख्त परत वाली हो ही नहीं रही।

आदतों से बिछुड़ना बहुत पीड़ादायक होता है। दफ्तर में बहुत बैचैन करती है कीरत को रीढ़ की टीसती हुई खाली जगह। यही कारण है कि भयानक खतरों की पक्की जानकारी के बावजूद वह कभी-कभी अपनी रीढ़ के साथ दफ्तर पहुंच जाता है। उस दौरान यदि प्रभारी की कुर्सी तक या संपादक के भव्य कक्ष में जाना हो तो रीढ़ को आहिस्ता से निकाल कर दराज में रख देता है। केकड़े भी तो ऐसे मौकों पर झट से अपनी क्रकचें समेट लेते हैं। दरअसल, रीढ़ कीरत की आदत ही नहीं जरूरत भी है। लेखों के लिए पैरवी करने वाले दबंग संवाददाताओं को फोन पर हड़काना हो या छपास पीड़ित अफसरों को, रीढ़ उसकी आवाज को सहमने से बचा लेती है। क्रकच-संपन्न केकड़े तो इस तरह के काम धड़ल्ले से करने की क्षमता रखते हैं। (ओह, वे कितने धुरंधर हैं, फोन के उस पार वाले को भी बिना स्थान-व्यवधान के कतर डालने में निपुण!)

कीरत आज फिर रीढ़ के साथ दफ्तर आ पहुंचा है!

रीढ़ के कारण दिन भर वह खुद को मजबूत महसूस करता रहा। उसे लगा, रीढ़ साथ हो तो काम भी जल्दी निपटता है। कीरत ने आज लगभग सवा नौ बजे ही अपना संपादकीय पन्ना अन्य संस्करणों के लिए मॉडम पर जारी कर दिया।

वह अप्रत्याशित फोन साढ़े नौ बजे आया: ‘‘4 नंबर, ‘एडिटोरियल पेज’ आप देखते हैं?’’

‘‘जी, बताएं!’’ जाहिर है कीरत ने रीढ़ लगाई हुई थी।

‘‘पाठक के पत्र में लॉटरी वाला हटाकर कुछ और दीजिए’’

‘‘क्यों क्या है उसमें?’’ रीढ़ ने कीरत को पूछने के लिए मजबूर किया; ‘‘आप...’’ दूसरा सवाल पूरा होने से पहले ही अजीब सी लय में फोन से आई आवाज भीगे हुए जूते की तरह कीरत को आ लगी ‘‘लॉटरी पर कामेंट है रे भाई!’’ आवाज के इस रवैए पर रीढ़ को तनना ही था । हिंदी दैनिक के उपसंपादक रामकीरत पर गुस्से में अंग्रेजी चढ़ बैठी: ‘‘मे आई नो, हू इज यू टू आस्क?’’

‘‘जीएम बोल रहा हूं भइए!’’ फोन काट दिया जनरल मैनेजर साहब ने। कीरत को समझते देर न लगी कि रीढ़ की वजह से गड़बड़ हो चुकी है।

वह राज्य सरकार द्वारा लॉटरी फिर से षुरू करने पर एक छपासू पाठक का पत्र था। कीरत को ऐसे लोगों के प्रति हमदर्दी है। उसे इन खतों से अक्सर अपने नाना की याद आ जाती है। वह भी अखबारों में खत लिखा करते थे। उस जमाने में जब उस सुदूर कस्बे के आखिरी कोने में स्थित ब्लॉक कार्यालय और अदालत परिसर में एक मात्र घिस - घिस कर चलने वाली फोटो कापी मशीन होती थी; वह उसे लेकर छपे खत की फोटो करवाने जाया करते। उस दिन वह बहुत खुश होते और कहीं पान तो कहीं चाय पीने रूक कर लोगों पत्र में वर्णित समस्या की विकरालता के बारे में बताते। कीरत को उस दिन रास्ते में जलेबी जरूर मिलती। आज कीरत यह जानता है कि इन खतों की कोई अहमियत नहीं है, फिर भी उसे लगता है इन खतों को लिखने वाले लोग अपने आस-पड़ोस और समाज के प्रति गहरी चिंता से भरे होते हैं। आज उसने जो खत छापा है उसे पाठक ने शीर्षक के साथ ही भेजा था: ‘‘जनता को जुआरी न बनाएं’’। उसने अपने खत में लिखा है कि: ‘‘पहले भी हमारा राज्य लॉटरी का परिणाम भुगत चुका है। लॉटरी माफिया तत्वों को और ताकतवर बनाती है। जबकि छोटे दुकानदार, मजदूर, रिक्‍श-ऑटो चालक, बस कंडक्टर आदि इसकी चपेट में बर्बाद हो जाते हैं। लॉटरी शाम ढले देसी शराब के ठेकों की भीड़ बढ़ा देती है। झोपड़पट्टियों से उठने वाली औरतों के विलाप के करूण स्वर की खातिर भी इसे बंद किया जाना चाहिए। अफीम से कम खतरनाक नही है लॉटरी। कृपया समाज को इस मृगतृष्‍णा से बचाएं।’’ इस खत में ऐसा क्या है कि जीएम साहब को फोन करना पड़ा। कीरत ने पत्र फिर से पढ़ा। उंहूं ,यह फोन भरोसेमंद नहीं लगता। जाकर संपादक जी से बात करनी चाहिए; उसने सोचा और सबकी नजर बचाते हुए रीढ़ दराज में डाल उठ खडा़ हुआ।

संपादक जी के कमरे से पहले विशाल बरामदे के अंतिम दरवाजे की ओट लेकर एक बार फिर गर्दन से कमर तक उंगली गड़ाकर रीढ़ न होने की तसल्ली की। उस कमरे में हुई जरा सी भी चूक उसकी नौकरी निगल सकती थी।

‘‘मे आई कम इन सर?’’

संपादक जी ने अधखाया सेब हड़बड़ा कर छुपा लिया। कीरत जान गया है कि उनकी यह किया नामूदार को दी गई प्रवेशानुमति होती है। बिना उसकी ओर देखे संपादक जी सामने रखा अंग्रजी शब्दकोष उलटने लगे। उनके ललाट पर क्षणांश में ही माकूल शब्‍द की तलाश की रेखाएं और चेहरे पर व्यस्तता उतर आई थी।

‘‘सर जी, जीएम साहब ने इसे हटाने को कहा है’’ लॉटरी वाले पत्र पर उंगली रख कर कीरत ने संपादक जी को बताया। उंगली वाली जगह पर नजर पहुंचते ही संपादक जी की भवें बिल्कुल सिकुड़ गईं। इतनी कि, लगा उनका चश्‍मा बाहर आ गिरेगा। उनके चेहरे पर ऐसी वितृष्‍णा थी कि जैसे कीरत ने टेबल पर कोई केंचुआ ला रखा हो, जिसे वे अभी अपने क्रकचों से काट फेकेंगे..

‘‘कहां रहते हो तुम? ...कल ही पूरे डेस्क को बताया गया है कि लॉटरी पर कुछ भी नहीं जाएगा। न कोई खबर न कोई बयान। कोई भी आईटम नहीं। ‘वीर हिमाचल टाइम्स’ न विपक्ष का प्रवक्ता है न सत्ता का पैरोकार। मैनेजमेंट ने तय किया है कि अखबार को लॉटरी के पक्ष या विरोध की राजनीति का मंच नहीं बनने दिया जाएगा।’’

‘‘सर जी, मेरी साप्ताहिक छुट्टी थी कल..’’ रीढ़ साथ न होने के कारण कीरत को अपनी आवाज सहमा लेने में दिक्कत नहीं हुई

‘‘छुट्टी थी, क्या वो है! पत्रकार को आंख-नाक खुले रखने चाहिए’’ उनकी आवाज अभी भी बिफरी हुई थी लेकिन चश्‍मा अपनी जगह पर आ लगा था। ‘‘इस लॉटरी की जगह कुछ और लगाकर जल्दी पन्ना छोड़ो।’’

कीरत कंप्यूटर पर आ बैठा। क्या दे इस पत्र की जगह। उसने पत्र हटाकर खाली जगह पर बॉक्‍स की लकीरें खींच दीं। क्या रखे इस बॉक्‍स में? एक बोध कथा तो संपादकीय पन्ने के दूसरे कोने पर पहले से ही जा रही है। ...सहमते हुए वह फिर संपादक जी के कमरे में पहुंचा तो घड़ी 10 बजा चुकी थी। संपादक जी अंतिम डमी का मुआयना कर रहे थे।

डमी देखते ही रामकीरत की समझ गडमडाने लगी। पेज 5 पर लॉटरी का विज्ञापन था और पेज 6 पर सरकारी उपलब्धियों का। संपादक जी ने डमी पलटी तो उसने देखा; निम्न मध्यवर्गीय युवाओं, झोपड़पट्टी की औरतों और असलियत में कैमरे से बाहर रहने वाले सीमांत किसानों के मॉडलों से 7 नंबर भी सजा था। शायद 8 नंबर पन्नो पर भी ऐसे ही फोटाग्राफों के माध्यम से इस सरकार के दौरान हुए गरीबों के उत्थान को दिखाया गया था। लेकिन अब वह कुछ देख नहीं पा रहा था। डमी पर नजरें गड़ाए उसकी सभी अस्थियां थरथराने लगीं। उसे लगा, सभी चीजें हिलने लगीं हैं, उसके सामने का पूरा दृश्‍य कांप रहा है। सच-झूठ के उसके तमाम समीकरण उलट-पुलट होने लगे, दिमाग ने जैसे पेंडुलम गति पकड़ ली हो।..संपादक जी की ओर संपादकीय पन्ना बढ़ाते हुए अपना हाथ थिर रखने में कीरत को पूरा जोर लगाना पड़ा ..

‘वैरी गुड’ संपादक जी ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री की लधुकथा पर ठीक का निशान लगाते हुए कहा ”व्यवहारिक बनिए कीरत महाराज.. और सुनिए..“ कीरत को उनकी नरम आवाज एक ठिठोलीबाज मुखौटे से आती लगी ‘‘यह आप हमेशा थरथराते क्यों रहते हैं ? जरा चैकस बनिए और अपनी बॉडी लैंग्‍वेज सुधारिए!’’

संपादक जी ने इतना ही कहा पर कीरत को लगा कि वह कुछ और भी बुदबुदा रहे हैं...जैसे कह रहे हो। ‘सूचना युग अजेय है, इसमें सबकी देह भाषा बदल रही है, कांग्रेस की बदल रही है,भाजपा की बदल रही है, कम्युनिस्टों की भी बदल रही है। मध्यप्रदेश की बदल गई, गुजरात की तो पूरी ही बदल गई। बिहार भी बदलना चाह रहा है अपनी देह भाषा। बंगाल और केरल भी पीछे नहीं हैं। आखिर चीन भी तेजी से बदल रहा है अपनी देह भाषा, सोवियत संघ की तो खैर देह ही नहीं रही! ....फिर यह रामकीरत..’

संपादक जी की बुदबुदाहट कीरत पकड़ नहीं पा रहा था। उसे लगा वह उसे केकड़ा बनाने का मंत्र पढ़ रहे हैं, क्योंकि उनकी अंगुठी का नीलम यकाएक नीला की जगह लाल चमकने लगा था। कीरत ने साफ देखा और बुरी तरह डर गया। संपादक जी के टेबल पर रखी तस्वीर में गांधी अपना लंगोट उतार रहे थे।

(2002, धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश)