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राजभाषा वाले

राजभाषा वाले

मुझे राजभाषा अधिकारियों की बैठक की अध्यक्षता करने में बड़ी कोफ़्त होती है। ‘यह धारा तीन-तीन का उल्लंघन है’ वे ऐसे चिल्लाते हैं, जैसे सन्नी देओल कोर्ट में केस लड़ रहा हो। लेकिन राजभाषा विभाग के नए प्रधान के आने तक मुझे ही, मोटे-मोटे तौर पर, विभाग की बागडोर संभालनी थी।

आयोजना और विकास विभाग ही अपने आप में बड़ी उलझन का काम था, उस पर यह राजभाषा विभाग, जिसकी न आयोजना होनी है, न विकास, केवल हिंदी का प्रगामी प्रयोग होता है...उफ, उफ, उफ। इस समय तो बड़े साहब भी छुट्टी पर हैं और लो यह राजभाषा वाले दुबारा नराकास (नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति) की बैठक कराने पर उतारू हैं।

मैं कहता हूँ, यह बैठक बाद में नहीं हो सकती। तब, जब राजभाषा विभाग का नया प्रधान आ जाए या कम से कम बड़े साहब आ जाएं, ताकि मैं इतने सारे सन्नी देओलों के बीच में न फँसूं।

मरता, क्या न करता और कोई विकल्प था क्या मेरे पास? टॉप लाइन के तो सारे बॉस मुख्यालय गए हुए हैं। नए सी.एम.डी. नियुक्त हुए हैं, सो सबकी वहाँ हाज़िरी लगनी ही है। किस अंचल का कितना डिपॉजिट है, कितना एडवांस, कितना कासा है, कितना एनपीए, इसकी ऐसी शिनाख़्त होगी जैसी मुजरिमों की होती है।

ऐसे हालात में अब मुझे ही इस कार्यक्रम में भाग लेना है। बैंक घाटे से बचने के लिए क्या नहीं करता और ये संगीत महोत्सव कर रहे हैं। इन हिंदी अधिकारियों को क्या मालूम, कितनी मेहनत से पैसा आता है?

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हॉल आधा भरा है, और आधा भरा जाना बाक़ी है, ठीक उस ग्लास की तरह जिसका उदाहरण हर मैनेजमेंट के प्रशिक्षण कार्यक्रम में दिया जाता है। मेज़बान होना भी कितना बेकार काम है। अपना सारा काम छोड़कर यहां बैठा हूँ। औरों की तरह देर से आ सकता था। मगर नहीं। हम तो मेज़बान हैं।

ऐसा ही एक पिछला कार्यक्रम याद आ रहा है, जहाँ पलक-पाँवड़े बिछाकर रखना था और दूसरे लोग ऐसे सीना तानकर प्रवेश कर रहे थे और ऐसी निरीक्षणात्मक दृष्टि सब ओर डाल रहे थे, जैसे अप्रैल के महीने में ऑडिट वाले। हर कार्यालय का सदस्य यही कह रहा था कि ऐसे नहीं वैसे। मगर सबसे बड़ी उलझन तो यह थी कि हर कार्यालय का संपर्क अधिकारी चाहता था कि उसके कार्यालय प्रमुख को मंच पर स्थान दिया जाए। मंच न हुआ, पब्लिक पार्क हो गया।

पर यहाँ अलग-अलग पंक्तियों में अलग-अलग पदाधिकारियों के बैठने की समुचित व्यवस्था की गई थी। सब उलझनों के बावजूद, सब व्यवस्थित ही बैठे।

कार्यक्रम शुरू होने को है, मगर अभी तो हमारे ही बैंक के लोग नहीं आए। क्या किया जाए? सब के सब अपने कंप्यूटर से ऐसे चिपके हैं, जैसे सारा का सारा काम आज ही उन्हें ख़तम करना है, कल ऑफिस हमेशा के लिए बंद होने वाला है। ख़ैर मैं भी तो ऐसा ही करता था। जब कोई आयोजन होता था, तो कंप्यूटर में घुस के ऐसे बैठ जाता था, जैसे मैं दुनिया का सबसे व्यस्त आदमी हूँ और राजभाषा जैसी फ़ालतू चीज़ के लिए मेरे पास वक़्त ही नहीं। हिंदी समारोह और प्रतियोगिताओं के वक़्त ऐसा ही करता था। आज मुझे कार्यक्रम का प्रभार दिया गया है तो लोग मेरे साथ वही कर रहे हैं, जो मैं करता आया था। इसे ही कहते हैं 'तेरा तुझको अर्पण'।

मुझे उम्मीद नहीं थी, मगर देखते ही देखते हॉल खचाखच भर गया। राजभाषा के कार्यक्रम में भी लोग आते हैं? मैं तो समझा था कि मैं नहीं आता तो कोई नहीं आता। वैसे ही जैसे शुतुरमुर्ग़ ज़मीन के नीचे सिर घुसाकर समझता है कि ज़मीन के ऊपर भी कोई नहीं।

वाह! क्या रौनक़ है? दीप प्रज्ज्वलन, सुरीले संगीत के बीच ईश्वरीय आह्वान और फिर जिसे देखो बढ़िया हिंदी बोल रहा है, और साहित्य के एक से एक जुमले उठाकर सभा में बिखेर रहा है। अरे हिंदी ही नहीं, अंग्रेजी और उर्दू साहित्य में भी लोग पैठ रखते हैं। वाह भई कमाल! मैं तो राजभाषा वालों को फ़ालतू ही समझता था, कितने हुनरवान हैं, आज देखा। इतनी अच्छी हिंदी लंबे अरसे से नहीं सुनी। शर्मिंदगी महसूस हो रही है, मंच पर बैठने में, जहाँ एक से एक धुरंधर हिंदी के वक्ता हैं और तिस पर भी, हर कोई मेरी तरह हिंदी भाषी भी नहीं।

मैंने बैंक की इतनी बैठकों में भाग लिया है, मगर सब नीरस, एकदम फीकी। इस कार्यक्रम का संचालन देखकर तो मन गद्गद हो उठा है।

मुझे याद आ रहा है कि कैसे मैंने पिछली मीटिंग ख़ून का घूंट पी-पीकर पूरी की थी। वह बैठक ख़ास एनपीए वसूलने के सिलसिले में की गई थी। वरिष्ठ अधिकारियों के चेहरे तमतमाए हुए थे, जैसे हम लोगों ने बैंक के साथ गद्दारी की है और जानबूझकर एनपीए वसूल नहीं किया। कोई भी हमारी परिस्थितियों या कठिनाइयों के बारे में सुनने को तैयार नहीं था। वहाँ पर अध्यक्ष प्रमुख तो किसी विलेन की तरह चिल्लाए थे -‘आई वाँट रिज़ल्टस, एंड ओन्ली रिज़ल्टस। डू यू गेट मी।’

ऐसे मोगेम्बोओं के आगे, ये सन्नी देओल तो क्या हैं? ऐसी जाने कितनी मीटिंगों पर पैसे ख़र्च हुए और नई-नई योजनाओं पर भी, जो एकदम फ्लॉप निकलीं। उन ख़र्चों के आगे तो यह कार्यक्रम कुछ भी नहीं।

मैंने जितनी भी बैठकें अब तक देखी हैं सब में हतोत्साहित करना, आक्षेप लगाना, कमियों के लिए लताड़ना, अपमानित करना और तनावपूर्ण माहौल बनाना शामिल रहा। हर बैठक के बाद बैठक की खट्टी याद ही होती थी और ढेर सारा तनाव। एक बैठक में तो बाक़ायदा फाइल मुँह पर फेंकी गई थी। फिर तो गाली-गलौज, मार-पीट और सस्पेंशन तक हुए।

आज पहली बार एक ऐसी बैठक में भाग लिया, जहाँ हर किसी के मुख से फूल ही फूल झर रहे हैं। सबको सम्मानित और प्रोत्साहित ही किया जा रहा है। हर किसी के कंधे विनम्रता के भार से झुके जा रहे हैं। अहा! क्या शिष्टाचार है। मन प्रसन्न हो गया।

कार्यक्रम के पुष्पगुच्छों और मनमोहक स्मृतियों के साथ मैं घर लौटा।

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घर लौटते ही छ: साल की मेरी पोती मेरी ओर दौड़ के आई। मैंने उसे झट बांहों में भर लिया और ऊपर उठाकर पुष्पगुच्छ उसे सौंपते हुए कहा - ‘फ्लॉवर्स फॉर माय लिटिट्ल स्वीटहार्ट’।

वान्या मुस्कुराई - ‘दादा जी! आप मुझसे इंग्लिश में क्यूँ बात करते हैं? स्कूल में भी आते हैं, तो इंग्लिश में बात करते हैं। और आज तो घर पर भी इंग्लिश में ही बात कर रहे हैं।’

‘क्योंकि तुम्हें इंग्लिश आती है।’

‘मुझे तो हिंदी भी आती है।’

‘मगर इंग्लिश भी आती है।’

‘ओफ़्फो दादाजी, लेकिन....’

‘लेकिन ...क्या स्वीटहार्ट?’

‘लेकिन वो ....इंग्लिश तो हमारी नक़ली भाषा है न। हिंदी हमारी असली भाषा है न।’

मैं सकपकाया। मुझे रिटायरमेंट में कुछ ही साल बाक़ी हैं। इतने वर्षों से राजभाषा वाले मुझे यही तो समझा रहे थे। मैं आज तक फ़ालतू की बकवास समझकर अपने मन पर राजभाषा की धूल नहीं जमने देता था। इतनी सी बच्ची क्या-क्या बोल गई? ज़रा और नब्ज़ टटोलूँ इसकी।

‘अच्छा! नक़ली भाषा क्या होती है और असली भाषा क्या होती है?’

‘हम्म...नक़ली भाषा न वो न...’

वान्या को शब्द नहीं मिल रहे थे। अपना सिर खुजाते हुए, वह दिमाग़ का पूरा ज़ोर लगा कर बोली और मेरा दिल जीत ले गई।

‘वही होती है जो हम दूसरे लोगों के सामने बोलते हैं। ऐसे ही बोलते जाते हैं ....बस दिखाने के लिए! कि हमें आती है... इंग्लिश भी।’

‘अरे वाह! और असली भाषा?’

‘वही जो हम अपने लोगों के साथ बोलते हैं... घर में... सबके साथ... जिसे बोलना हमें अच्छा लगता है।’

मैंने वान्या को गले से लगा लिया और लगा कि राजभाषा को गले लगा लिया। और इसके बाद से राजभाषा का प्रबल समर्थक बन गया, नए राजभाषा प्रभारी के आने के बाद भी। अपनी सेवानिवृत्ति तक अपना अधिकांश काम न केवल मैंने हिंदी में किया बल्कि दूसरों को भी प्रोत्साहित किया। कम से कम अपने नीचे काम करने वालों से तो करवाने ही लगा। इस तरह मैं भी राजभाषा वाला बन गया।

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