Lili in Hindi Short Stories by Suryakant Tripathi 'Nirala' books and stories PDF | लिली

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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

पद्मा के चन्द्र-मुख पर षोडश कला की शुभ्र चन्द्रिका अम्लान खिल रही है। एकान्त कुंज की कली-सी प्रणय के वासन्ती मलयस्पर्श से हिल उठती,विकास के लिए व्याकुल हो रही है।पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट पण्डित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रक्खा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान आया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को, योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रूका हुआ है, शुक्लजी समझा देते हैं। साल-भर से कन्या को देखकर माता भविष्य-शंका से कांप उठती हैं।पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला-विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आयी हुई है। अबके पद्मा का उभार, उसका रंग-रूप, उसकी चितवन - चलन - कौशल - वार्तालाप पहले से सभी बदल गये हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौन्दर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतन्त्र अपने उच्छृंखल आनुकूल्य के विचार पैदा हो गये हैं। उसे निस्संकोच चलती - फिरती, उठती-बैठती, हँसती-बोलती देखकर माता हृदय के बोलवाले तार से कुछ और ढीली तथा बेसुरी पड गयी हैं।

एक दिन सन्ध्या के डूबते सूर्य के सुनहले प्रकाश में, निरभ्र नील आकाश के नीचे, छत पर, दो कुर्सियाँ डलवा माता और कन्या गंगा का रजत-सौन्दर्य एकटक देख रही थी। माता पद्मा की पढाई, कॉलेज की छात्राओं की संख्या, बालिकाओं के होस्टल का प्रबन्ध आदि बातें पूछती हैं, पद्मा उत्तर देती है। हाथ में है हाल की निकली स्ट्रैंड मैगजीन की एक प्रति। तस्वीरें देखती जाती है। हवा का एक हलका झोंका आया, खुले रेशमी बाल, सिर से साडी को उडाकर, गुदगुदाकर, चला गया। ''सिर ढक लिया करो, तुम बेहया हुई जाती हो।'' माता ने रूखाई से कहा। पद्मा ने सिर पर साडी की जरीदार किनारी चढा ली, आँखें नीची कर किताब के पन्ने उलटने लगी।

''पद्मा!'' गम्भीर होकर माता ने कहा।''जी!'' चलते हुए उपन्यास की एक तस्वीर देखती हुई नम्रता से बोली।मन से अपराध की छाप मिट गयी, माता की वात्सल्य-सरिता में कुछ देर के लिए बाढ-सी आ गयी, उठते उच्छ्वास से बोली, ''कानपुर में एक नामी वकील महेशप्रसाद त्रिपाठी हैं।''

''हँ'' एक दूसरी तस्वीर देखती हुई।''उनका लडका आगरा युनिवर्सिटी से एम।ए। में इस साल फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया है।''''हूँ'' पद्मा ने सिर उठाया। आँखें प्रतिभा से चमक उठीं।''तेरे पिताजी को मैंने भेजा था, वह परसों देखकर लौटे हैं। कहते थे, लडका हीरे का टुकडा, गुलाब का फूल है। बातचीत दस हजार में पक्की हो गयी है।''''हूँ'' मोटर की आवाज पा पद्मा उठकर छत के नीचे देखने लगी। हर्ष से हृदय में तरंगें उठने लगीं। मुस्किराहट दबाकर आप ही में हँसती हुई चुपचाप बैठ गयी।माता ने सोचा, लडकी बडी हो गयी है, विवाह के प्रसंग से प्रसन्न हुई है। खुलकर कहा, ''मैं बहुत पहले से तेरे पिताजी से कह रही थी, वह तेरी पढाई के विचार में पडे थे।''नौकर ने आकर कहा, ''राजेन बाबू मिलने आये हैं।''पद्मा की माता ने एक कुर्सी डाल देने के लिए कहा। कुर्सी डालकर नौकर राजेन बाबू को बुलाने नीचे उतर गया। तब तक दूसरा नौकर रामेश्वरजी का भेजा हुआ पद्मा की माता के पास आया। कहा, ''जरूरी काम से कुछ देर के लिए पण्डितजी जल्द बुलाते हैं।''जीने से पद्मा की माता उतर रही थीं, रास्ते में राजेन्द्र से भेंट हुई। राजेन्द्र ने हाथ जोडकर प्रणाम किया। पद्मा की माता ने कन्धे पर हाथ रखकर आशिर्वाद दिया और कहा, ''चलो, पद्मा छत पर है, बैठो, मैं अभी आती हूँ।''राजेन्द्र जज का लडका है, पद्मा से तीन साल बडा, पढाई में भी। पद्मा अपराजिता बडी-बडी आँखों की उत्सुकता से प्रतीक्षा में थी, जब से छत से उसने देखा था।''आइए, राजेन बाबू, कुशल तो है?'' पद्मा ने राजेन्द्र का उठकर स्वागत किया। एक कुर्सी की तरफ बैठने के लिए हाथ से इंगित कर खडी रही। राजेन्द्र बैठ गया, पद्मा भी बैठ गयी।''राजेन, तुम उदास हो!''''तुम्हारा विवाह हो रहा है?'' राजेन्द्र ने पूछा।पद्मा उठकर खडी हो गयी। बढकर राजेन्द्र का हाथ पकडकर बोली, ''राजेन, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? जो प्रतिज्ञा मैंने की है, हिमालय की तरह उस पर अटल रहूँगी।''पद्मा अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। मैगजीन खोल उसी तरह पन्नों में नजर गडा दी। जीने से आहट मालूम दी।माता निगरानी की निगाह से देखती हुई आ रही थीं। प्रकृति स्तब्ध थी। मन में वैसी ही अन्वेषक चपलता।''क्यों बेटा, तुम इस साल बी।ए। हो गये?'' हँसकर पूछा।''जी हाँ।'' सिर झुकाये हुए राजेन्द्र ने उत्तर दिया।''तुम्हारा विवाह कब तक करेंगे तुम्हारे पिताजी, जानते हो?''''जी नहीं।''''तुम्हारा विचार क्या है?''''आप लोगों से आज्ञा लेकर विदा होने के लिए आया हूँ, विलायत भेज रहे हैं पिताजी।'' नम्रता से राजेन्द्र ने कहा।''क्या बैरिस्टर होने की इच्छा है?'' पद्मा की माता ने पूछा।''जी हाँ।''''तुम साहब बनकर विलायत से आना और साथ एक मेम भी लाना, मैं उसकी शुध्दि कर लूँगी।'' पद्मा हँसकर बोली।नौकर ने एक तश्तरी पर दो प्यालों में चाय दी - दो रकाबियों पर कुछ बिस्कुट और केक। दूसरा एक मेज उठा लिया। राजेन्द्र और पद्मा की कुर्सी के बीच रख दी, एक धुली तौलिया ऊपर से बिछा दी। सासर पर प्याले तथा रकाबियों पर बिस्कुट और केक रखकर नौकर पानी लेने गया, दूसरा आज्ञा की प्रतीक्षा में खडा रहा।''मैं निश्चय कर चुका हूँ, जबान भी दे चुका हूँ। अबके तुम्हारी शादी कर दूँगा।'' पण्डित रामेश्वरजी ने कन्या से कहा।''लेकिन मैंने भी निश्चय कर लिया है, डिग्री प्राप्त करने से पहले विवाह न करूँगी।'' सिर झुकाकर पद्मा ने जवाब दिया।''मैं मैजिस्ट्रेट हूँ बेटी, अब तक अक्ल ही की पहचान करता रहा हूँ, शायद इससे ज्यादा सुनने की तुम्हें इच्छा न होगी।'' गर्व से रामेश्वरजी टहलने लगे।पद्मा के हृदय के खिले गुलाब की कुल पंखडिया हवा के एक पुरजोर झोंके से काँप उठीं। मुक्ताओं-सी चमकती हुई दो बँूदें पलकों के पत्रों से झड पडी। यही उसका उत्तर था।''राजेन जब आया, तुम्हारी माता को बुलाकर मैंने जीने पर नौकर भेज दिया था, एकान्त में तुम्हारी बातें सुनने के लिए। तुम हिमालय की तरह अटल हो, मैं भी वर्तमान की तरह सत्य और दृढ।''रामेश्वरजी ने कहा, ''तुम्हें इसलिए मैंने नहीं पढाया कि तुम कुल-कलंक बनो।''''आप यह सब क्या कह रहे हैं?''''चुप रहो। तुम्हें नहीं मालूम? तुम ब्राह्मण-कुल की कन्या हो, वह क्षत्रिय-घराने का लडका है- ऐसा विवाह नहीं हो सकता।'' रामेश्वरजी की साँस तेज चलने लगीं, आँखें भौंहों से मिल गयीं।''आप नहीं समझे मेरे कहने का मतलब।'' पद्मा की निगाह कुछ उठ गयी।''मैं बातों का बनाना आज दस साल से देख रहा हूँ। तू मुझे चराती है? वह बदमाश !''''ऌतना बहुत है। आप अदालत के अफसर है! अभी-अभी आपने कहा था, अब तक अक्ल की पहचान करते रहे हैं, यह आपकी अक्ल की पहचान है! आप इतनी बडी बात राजेन्द्र को उसके सामने कह सकते हैं? बतलाइए, हिमालय की तरह अटल सुन लिया, तो इससे आपने क्या सोचा?''आग लग गयी, जो बहुत दिनों से पद्मा की माता के हृदय में सुलग रही थी।''हट जा मेरी नजरों से बाहर, मैं समझ गया।'' रामेश्वर जी क्रोध से काँपने लगे।''आप गलती कर रहे हैं, आप मेरा मतलब नहीं समझे, मैं भी बिना पूछे हुए बतलाकर कमजोर नहीं बनना चाहती।''पद्मा जेठ की लू में झुलस रही थी, स्थल पद्म-सा लाल चेहरा तम-तमा रहा था। आँखों की दो सीपियाँ पुरस्कार की दो मुक्ताएँ लिये सगर्व चमक रही थीं।रामेश्वरजी भ्रम में पड गये। चक्कर आ गया। पास की कुर्सी पर बैठ गये। सर हथेली से टेककर सोचने लगे। पद्मा उसी तरह खडी दीपक की निष्कम्प शिखा-सी अपने प्रकाश में जल रही थी।''क्या अर्थ है, मुझे बता।'' माता ने बढकर पूछा।''मतलब यह, राजेन को सन्देह हुआ था, मैं विवाह कर लूँगी - यह जो पिताजी पक्का कर आये हैं, इसके लिए मैंने कहा था कि मैं हिमालय की तरह अटल हूँ, न कि यह कि मैं राजन के साथ विवाह करूँगी। हम लोग कह चुके थे कि पढाई का अन्त होने पर दूसरी चिन्ता करेंगे।''

पद्मा उसी तरह खडी सीधे ताकती रही।''तू राजेन को प्यार नहीं करती?'' आँख उठाकर रामेश्वरजी ने पूछा।''प्यार? करती हूँ।''''करती है?''''हाँ, करती हूँ।''''बस, और क्या?''''पिता!'' पद्मा की आबदार आँखों से आँसुओं के मोती टूटने लगे, जो उसके हृदय की कीमत थे, जिनका मूल्य समझनेवाला वहाँ कोई न था।माता ने ठोढी पर एक उँगली रख रामेश्वरजी की तरफ देखकर कहा, ''प्यार भी करती है, मानती भी नहीं, अजीब लडकी है।''''चुप रहो।'' पद्मा की सजल आँखें भौंहों से सट गयीं, ''विवाह और प्यार एक बात है? विवाह करने से होता है, प्यार आप होता है। कोई किसी को प्यार करता है, तो वह उससे विवाह भी करता है? पिताजी जज साहब को प्यार करते हैं, तो क्या इन्होंने उनसे विवाह भी कर लिया है?''रामेश्वरजी हँस पडे।

रामेश्वरजी ने शंका की दृष्टि से डॉक्टर से पूछा, ''क्या देखा आपने डॉक्टर साहब?''''बुखार बडे जोर का है, अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता।जिस्म की हालत अच्छी नहीं, पूछने से कोई जवाब भी नहीं देती। कल तक अच्छी थी, आज एकाएक इतने जोर का बुखार, क्या सबब है?'' डॉक्टर ने प्रश्न की दृष्टि से रामेश्वरजी की तरफ देखा।रामेश्वरजी पत्नी की तरफ देखने लगे।डाक्टर ने कहा, ''अच्छा, मैं एक नुस्खा लिखे देता हूँ, इससे जिस्म की हालत अच्छी रहेगी। थोडी-सी बर्फ मँगा लीजिएगा। आइस-बैग तो क्यों होगा आपके यहाँ?एक नौकर मेरे साथ भेज दीजिए, मैं दे दूँगा। इस वक्त एक सौ चार डिग्री बुखार है। बर्फ डालकर सिर पर रखिएगा। एक सौ एक तक आ जाय, तब जरूरत नहीं।''डॉक्टर चले गये। रामेश्वरजी ने अपनी पत्नी से कहा, ''यह एक दूसरा फसाद खडा हुआ। न तो कुछ कहते बनता है, न करते। मैं कौम की भलाई चाहता था, अब खुद ही नकटों का सिरताज हो रहा हूँ। हम लोगों में अभी तक यह बात न थी कि ब्राह्मण की लडकी का किसी क्षत्रिय लडके से विवाह होता। हाँ, ऊँचे कुल की लडकियाँ ब्राह्मणों के नीचे कुलों में गयी हैं। लेकिन, यह सब आखिर कौम ही में हुआ है।''''तो क्या किया जाय?'' स्फारित, स्फुरित आँखें, पत्नी ने पूछा।''जज साहब से ही इसकी बचत पूछूंगा। मेरी अक्ल अब और नहीं पहँुचती। अरे छीटा!''''जी!'' छीटा चिलम रखकर दौडा।''जज साहब से मेरा नाम लेकर कहना, जल्द बुलाया है।''''और भैया बाबू को भी बुला लाऊँ?''''नहीं-नहीं।'' रामेश्वरजी की पत्नी ने डाँट दिया।जज साहब पुत्र के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। इंग्लैंड के मार्ग, रहन-सहन, भोजन-पान, अदब-कायदे का बयान कर रहे थे। इसी समय छीटा बँगले पर हाजिर हुआ, और झुककर सलाम किया। जज साहब ने आँख उठाकर पूछा, ''कैसे आये छीटाराम?''''हुजूर को सरकार ने बुलाया है, और कहा है, बहुत जल्द आने के लिए कहना।''''क्यों?''''बीबी रानी बीमार हैं, डाक्टर साहब आये थे, और हुजूर '' बाकी छीटा ने कह ही डाला था।''और क्या?''''हुजूर '' छीटा ने हाथ जोड लिये। उसकी आँखें डबडबा आयीं।जज साहब बीमारी कडी समझकर घबरा गये! ड्राइवर को बुलाया। छीटा चल दिया। ड्राइवर नहीं था। जज साहब ने राजेन्द्र से कहा, ''जाओ, मोटर ले आओ।चलें, देखें, क्या बात है।''राजेन्द्र को देखकर रामेश्वरजी सूख गये। टालने की कोई बात न सूझी। कहा, ''बेटा, पद्मा को बुखार आ गया है, चलो, देखो, तब तक मैं जज साहब से कुछ बातें करता हूँ।''राजेन्द्र उठ गया। पद्मा के कमरे में एक नौकर सिर पर आइस-बैग रक्खे खडा था। राजेन्द्र को देखकर एक कुर्सी पलंग के नजदीक रख दी।''पद्मा!''''राजेन!''पद्मा की आँखों से टप-टप गर्म आँसू गिरने लगे। पद्मा को एकटक प्रश्न की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने रूमाल से उसके आँसू पोंछ दिये।सिर पर हाथ रक्खा, बडे जोर से धडक रही थी।पद्मा ने पलकें मूंद ली, नौकर ने फिर सिर पर आइस-बैग रख दिया।सिरहाने थरमामीटर रक्खा था। झाडकर, राजेन्द्र ने आहिस्ते से बगल में लगा दिया। उसका हाथ बगल से सटाकर पकडे रहा। नजर कमरे की घडी की तरफ थी।निकालकर देखा, बुखार एक सौ तीन डिग्री था।अपलक चिन्ता की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने पूछा, ''पद्मा, तुम कल तो अच्छी थीं, आज एकाएक बुखार कैसे आ गया?''पद्मा ने राजेन्द्र की तरफ करवट ली, कुछ न कहा।''पद्मा, मैं अब जाता हूँ।''ज्वर से उभरी हुई बडी-बडी आँखों ने एक बार देखा, और फिर पलकों के पर्दे में मौन हो गयीं।अब जज साहब और रामेश्वरजी भी कमरे में आ गये।जज साहब ने पद्मा के सिर पर हाथ रखकर देखा, फिर लडके की तरफ निगाह फेरकर पूछा, ''क्या तुमने बुखार देखा है?''''जी हाँ, देखा है।''''कितना है?''''एक सौ तीन डिग्री।''''मैंने रामेश्वरजी से कह दिया है, तुम आज यही रहोगे। तुम्हें यहाँ से कब जाना है? - परसों न?''''जी।''''कल सुबह बतलाना घर आकर, पद्मा की हालत-कैसी रहती है। और रामेश्वरजी, डॉक्टर की दवा करने की मेरे खयाल से कोई जरूरत नहीं।''''जैसा आप कहें।'' सम्प्रदान-स्वर से रामेश्वरजी बोले।जज साहब चलने लगे। दरवाजे तक रामेश्वरजी भी गये। राजेन्द्र वहीं रह गया। जज साहब ने पीछे फिरकर कहा, ''आप घबराइए मत, आप पर समाज का भूत सवार है।'' मन-ही-मन कहा, ''कैसा बाप और कैसी लडकी!तीन साल बीत गये। पद्मा के जीवन में वैसा ही प्रभात, वैसा ही आलोक भरा हुआ है। वह रूप, गुण, विद्या और ऐश्वर्य की भरी नदी, वैसी ही अपनी पूर्णता से अदृश्य की ओर, वेग से बहती जा रही है। सौन्दर्य की वह ज्योति-राशि स्नेह-शिखाओं से वैसी ही अम्लान स्थिर है। अब पद्मा एम।ए। क्लास में पढती है।वह सभी कुछ है, पर वह रामेश्वरजी नहीं हैं। मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने पद्मा को एक पत्र में लिखा था, ''मैंने तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूरी की हैं,पर अभी तक मेरी एक भी इच्छा तुमने पूरी नहीं की। शायद मेरा शरीर न रहे, तुम मेरी सिर्फ एक बात मानकर चलो- राजेन्द्र या किसी अपर जाति के लडके से विवाह न करना। बस।''इसके बाद से पद्मा के जीवन में आश्चर्यकर परिवर्तन हो गया। जीवन की धारा ही पलट गयी। एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गयी। जिस गति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया।राजेन्द्र बैरिस्टर होकर विलायत से आ गया। पिता ने कहा, ''बेटा, अब अपना काम देखो।'' राजेन्द्र ने कहा, ''जरा और सोच लूँ, देश की परिस्थिति ठीक नहीं।''''पद्मा!'' राजेन्द्र ने पद्मा को पकडकर कहा।पद्मा हँस दी। ''तुम यहाँ कैसे राजेन?'' पूछा।''बैरिस्टरी में जी नहीं लगता पद्मा, बडा नीरस व्यवसाय है, बडा बेदर्द। मैंने देश की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया है, और तुम?''''मैं भी लडकियाँ पढाती हूँ - तुमने विवाह तो किया होगा?''''हाँ, किया तो है।'' हँसकर राजेन्द्र ने कहा।पद्मा के हृदय पर जैसे बिजली टूट पडी, जैसे तुषार की प्रहत पद्मिनी क्षण भर में स्याह पड गयी। होश में आ, अपने को सँभालकर कृत्रिम हँसी रँगकर पूछा,''किसके साथ किया?''''लिली के साथ।'' उसी तरह हँसकर राजेन्द्र बोला।''लिली के साथ!'' पद्मा स्वर में काँप गयी।''तुम्हीं ने तो कहा था-विलायत जान और मेम लाना।''पद्मा की आँखें भर आयीं।हँसकर राजेन्द्र ने कहा, ''यही तुम अंगेजी की एम।ए। हो? लिली के मानी?''

***