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लाइनें लगी हैं ।

लाइनें लगी हैं ।

एक सरकारी अस्पताल में इलाज़ के लिये लाइनें लगी थीं । काउंटर नं. 3, 4, आम लोगों के लिये, काउंटर न. 6 दिव्यागों के लिये, 7 नं. अस्पताल के कर्मचारियों व डॉक्टरों के प्रियज़नों के लिये तथा काउंटर न. 8 न्यूनतम 65 वर्ष व इससे अधिक उन बूढ़ों के लिये था जो संतान की बेरुख़ी के कारण अस्पताल से जुड़े रहना चाहते हैं । काउंटर नं. 3, 4 पर सुबह से ही झगड़ा चल रहा था । बात बस इतनी सी थी कि गांधी टोपी पहने एक शक्स काउंटर न. 3 पर खडे़ सरदार जी को ढकेलता हुआ काउंटर कलर्क के पास जा पहुंचा था । पहले तो सरदार जी की ही तरह, लाइन में लगे पेशेंटस उसे नेता समझते हुये लाइन क्लियर करते रहे लेकिन जब कार्ड बन जाने पर काउंटर नं. 4 से बाहर आते हुये उनकी बीवी ने उनकी टोपी उतारते हुये कहा कि अब ज़्यादा होशियारी की आवश्यकता नहीं तो सबसे पहले सरदार जी ने उन्हें लपेटा - ‘अपणे आप नूं ज़्यादा होशियार समझदा है । .... अप्पा पागल हैं जिहड़े सवेरे सत्त बजे तो एत्थे खड़े आं । एदर आ तैन्नू देइये टिकट लोकसभा दा ... लड़गी दे के गिरा देता है ।‘ हमारे देश में जो नेता हो जाता है भैंस उसी की हो जाती है । वह कहीं भी, कभी भी, कोई भी लाइन तोड़ सकता है । कोई रोक - टोक नहीं । कोई मर्यादा नहीं । एक नेता देश को आज़ाद करवाने में नरम दल व अंहिसा के पथ पर चलने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की अपेक्षा हिंसक आजादी के दीवानो को अधिक तवज्जो देता है । वह आज़ादी की प्रक्रिया में निहित देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों के सामूहिक प्रयासों, एकता व अखंडता के जज़्बे को भूल जाता है । उसे लक्ष्मण रेखा की ज़्वाला भस्म नहीं कर पाती । आग बनावटी है । तेल मिलावटी है । प्रण, प्रेम, निष्ठा, श्रद्धा व सम्मान जैसे शब्द बेमानी है । बहरहाल, लाइन में सबसे पीछे खड़े मज़नू-नुमा लड़के ने कहा - ‘सरदार जी, मेरी ओर से भी एक जड़ दो ...साला मूर्ख बनाता है ।‘ इससे पहले कि सरदार जी मज़नू-नुमा लड़के की फरमाइश पूरी करते । नेता जी की बीवी ने उन्हें उठाते कहा - ‘खबरदार, जो हाथ लगाया । ये मेरे पति हैं । बेचारे बीमार हैं । कुछ तो रहम करो । सरदार जी ने गौर से उस स्त्री की आंखें में देखा । गज़ब का आकर्षण था । झील सी सुंदर आंखें डूबने का खुला आंमत्रण दे रही थीं । सरदार जी मदहोश हो गये । एक पल के लिये एकाएक समय ठहर गया । सरदार जी उस शीतल झील में उतरना चाहते थे । स्त्री ने आंखों के ठीक नीचे काज़ल की लाइन खींची हुई थी मगर, उसकी मांग में सिंदूर था । वे दो कदम पीछे हट गये । स्त्री को रास्ता देते हुये बोले - ‘जाओ जी, तुस्सी जाओ । जाण दो बइ जाण दो । बेचारा बुखार नाल तप्प रिहा है ।‘ लाइन में लगे लोगों को चैन नहीं था । रास्ता रोक कर खड़े हो गये । सुट - बूट पहने एक जैंटलमेन को सरदार जी का सुझाव पंसद नहीं आया । गुस्से से बोले - ‘ही इज़ टैलिंग लाई । वी शूड कॉल द सिक्योरिटी । सिक्योरिटी ओ सिक्योरिटी ।‘ सिक्योरिटी मैन अपने रिश्तेदारों को लाइन में सबसे आगे एडज़स्ट करने में व्यस्त था । वहीं से चिल्लाया - ‘आय रहें हैं । ससूर का नाती, नाक में दम का रखा है । एको छन शांत नाहीं रह सकते । आय रहे हैं ।‘ इधर, लाइन में सबसे पीछे खड़े मज़नू नुमा लड़के ने कहा - ‘मुझे भी बुखार है । पिछले तीन दिनों से बराबर लाइन लगा रहा हूं । काउंटर पर पहुंचते - पहुंचते खि़ड़की बंद हो जाती है ।‘ सरदार जी के पीछे खड़े एक मज़दूर पेट पकड़ते हुये कहा - ‘दो दिनों से यहां आ रहा हूं । लाइन ही नहीं खतम होती । फैक्टरी वाला पगार काट लेता है और ये बाबू लोग आसानी से कारड बनवा लेते हैं । हमारा तो जीवन लाइन से शुरु होकर लाइन में ही खतम हो जाता है ।‘ एक बुजूर्ग ने समझाया - ‘भाई, एक लाइन के लिये आपस में न झगड़ो । शांति से काम लो । हमें देखो, हमने यहीं पास में ही कमरा किराये पर ले लिया है । मरीज़ के साथ सारा परिवार यहीं शिफट हो गया है । सुबह - सुबह मैं यहां कार्ड पर डेट डलवाने के लिये खड़ा हो जाता हूं । मेरा बेटा, मोहन डॉक्टर के रूम के बाहर लगी लाइन में ‘आवाज़ ‘ के लिये बैठता है । बेटी, राधा खून टैस्ट की लाइन में लगती है और छोटा बेटा, रूल्दू रिर्पोट की लाइन में लग जाता है । .... अगर एक्सरे, अल्ट्रा साउंड हो तो रिश्तेदाररों को बुला लेते हैं । सब मज़े से चल रहा है । कोई टेंशन नहीं ।‘ इस बीच एक कल्चरड व्यक्ति ने जोश में आकर 100 नंबर डायल कर दिया । पीछे से आवाज़ आई - ‘इस रूट की सारी लाइनें व्यस्त हैं ।‘ कल्चरड व्यक्ति की लाख कोशिशों के बाद भी जब नंबर नहीं मिला तो उसने झेंपते हुये चुपके से फोन जेब में रख लिया । काउंटर नं. चार पर लगी एक मोटी व अधेड़ महिला ने सुझाव दिया - ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते । जद तक छित्तर परेड नहीं करोगे तद तक एह नहीं सुधरणगे ।‘ काउंटर नं. तीन पर लगे अधिकांश मर्दों को यह सुझाव पसंद आया । ये सब सार्वजनिक स्थानों पर नारी सशक्तिकरण के पक्षधर थे । नारी प्रेरणा व उत्साह का प्रतीक है ... ऐसा उन्होने किताबों में पढ़ा था । बस फिर क्या था । सब के सब के तथाकथित नेता जी पर टूट पड़े और तब तक पीटते रहे जब तक आरोपी दम्पति ने माफी नहीं मांग ली । तथाकथित नेता जी के नाक - कान से खून बहने लगा । सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें सबसे पीछे लाइन में खड़ा कर दिया ।

आजकल, लाइन के मामले में टीनेज़र्स बड़े तेज़ हैं । जहां कहीं भी सुंदरता देखी लाइन लगाना चालू । फेसबुक पर दसवीं क्लास के एक बच्चे ने अपने ग्रुप में लिखा - ‘मीना मैम इज़ सो हॉट । साडी़ में बिल्कुल माधुरी लगती हैं ।‘ दूसरे बच्चे ने लिखा - ‘एक्जै़क्टली ।‘ तीसरे ने लिखा - ‘स्कर्ट में तो हम सब को मार देंगी ।‘ चौथा मीना मैम से हाल में ही पिटा था, ने लिखा - ‘पागलो, ध्यान से देखो तो तुम सब की अम्मा लगती हैं ।‘ पहले बच्चे को सचमुच अपनी अम्मा याद आ गई जिसने युनिट टैस्ट फेल होने पर न केवल उसका मोबाइल छीन लिया था बल्कि उसकी गर्लफ्रेंड के सामने ही उसे दो झापड़ मार दिये थे । उसने गाल सहलाते हुये टॉपिक बदलते हुये लिखा - ‘यारो छोड़ो, और हाउ इज़ लाइफ गोइंग ऑन ?‘ दूसरे बच्चे ने लिखा - ‘नॉट रियली गुड ।‘ पहले ने कहा - ‘क्यो, व्हॉटस हैपन ?‘ दूसरे बच्चे लिखा - ‘गर्ल फ्रैड से ब्रेकअप हो गया ।‘ पहले ने सुझाव दिया - ‘दूसरी कर लो ।‘ दूसरे ने लिखा - ‘मैं तेरे जैसा नहीं कमीने, जो सौ - सौ गर्लफ्रेड रखूं । मैं उससे सच्चा प्यार करता हूं ।‘ पहला हंसा - ‘व्हॉट रबिश, इस जमाने में भी कोई सच्चा प्यार कर सकता है !‘ ‘.. देखो ये तो बन गया कुत्ता । देखो बंध गया पटटा । गाने को लाइक करने वालों की लाइन लग गई । दूसरे बच्चे ने सभी को ब्लॉक कर दिया । हाल में एक सोशल साइट पर किसी ने टवीट किया कि भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है । इससे पहले की रूलिंग पार्टी इसका ज़वाब देती । सरकारी अवार्ड लौटाने वालों का लाइन लग गई । सरकार ने इसे विपक्ष की चाल बताते हुये नये अवार्डों की घोषणा कर दी । अवार्ड वापिस लेने वालों की पुनः लाइन लग गई । हमारे यहां लाइन में चलने का चलन पुराना है । चींटियां लाइन में चलती हैं । पिता चाहता है कि उसका पुत्र उसकी राह पकड़े । उसके पीछे चले । मुगलों के बाद अंग्रेज़ और और देसी लोग लाइन में चल रहें हैं । भिखारी मंदिर के बाहर व सार्वजनिक स्थलों पर लाइन में भीख मांगते हैं । बचपन में मैथ का होमवर्क न करने पर मैथ सर हमें मुर्गा बनाकर प्रभात फेरियां निकलवाते थे और हम लाइन में प्रभात फेरियां निकलाते - निकालते घर हो लेते थे ।

देश बदल रहा है .. लेकिन, लाइनें आज भी जस की तस बनी हुई है। जहॉं देखो वहॉं लाइनें ही लाइनें नज़र आती हैं । रेल, सेल, बस, दाखिला, राशन, मकान, दुकान, बैंक, वोट, नोट सब तरफ लाइनें ही लाइनें । बच्चे दूध के लिये, नौवजवान नौकरी के लिये, अधेड़ परिवार के बेकाबू होते हुये खर्च के लिये , घर के बुज़ूर्ग अंतिम समय में पेंशन से जुझते हुये लाइन लगाये बैठे हैं एक ओर रोटी के लिये लाइन लगी हैं । दूसरी ओर बोटी के लिये लाइन लगी हैं । एक ओर, फसल बरबाद हो जाने पर मुवावज़े के अभाव में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाओं की लाइन लगी है । दूसरी ओर, सत्ता हासिल कर अधिक से अधिक पैसा बनाने की होड़ लगी है । एक तरफ मार है दूसरी ओर धार है । सरकार डिजि़टल - डिजि़टल चिल्ला रही है लेकिन गरीब के जीवन में कहीं कोई नेटवर्क नहीं । वह नोटबंदी के चलते घंटों बैंक के सामने कतारों में खड़े रहने को मज़बूर हैं । सरकार जनधन योजना, पेंशन योजना, कौशल विकास योजना आदि तमाम योजनाओं की माला लिये खड़ी है लेकिन, माला पहनने का कौशल किसी में नहीं । चारों ओर विकास ही विकास है । सब बुलेट ट्रेन में बैठे हैं । कोई चिंता नहीं । सरकार नये - नये स्लोगन व चहुंमुखी विकास के आंकड़ों की डुगडुगी पीट रही है लेकिन, कहीं रोटी नहीं, कहीं रोज़गार नहीं । कहीं मुस्कराहट नहीं । कहीं आशा की किरण नहीं । सब जगह सर्वर डाउन है । आज सभी योगी हो रहे हैं । भोगी बनने का सामर्थ्य अब इन कमज़ोर हडिडयों में नहीं है ।

- डॉ. नरेंद्र शुक्ल

1573 सैक्टर 21

पंचकूला