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Babuk ke kante

बबूल के काँटे

दादी के पान का पसारा देखकर बड़ी खुशी होती --- हम दौड़कर दादी के पास पहुँच जाते। हमें मालूम है कि बच्चों से घिरी दादी बड़े करीने से पान लगायेगी। धीरे धीरे --- चूना लगाकर, पान नाक तक उठाकर देखेगी कि ठीक से लगा है कि नहीं। फिर बच्चों को दिखायेगी। एक के बाद एक हम सब बच्चे देखेंगे, सिर हिला देंगे। कत्था भी इसी लहजे से लगेगा। सुपारी धीरे धीरे कटेगी। लो, अब पान मुँह में गया और हम हाथ बाँधकर सधकर बैठ गये। दादी अब किस्सा सुनायेगी।

‘‘ बच्चों ....

‘‘ तुमने स्वर्ग देखा है?

‘‘ खैर! न देखा हो पर वह बगीचा अवश्य देखा होगा।’’

‘ कौन सा?’ यह प्रश्न पूछकर दखल देने की हिम्मत हम किसी में नहीं। वरना हमें मालूम है कि दादी पान गुटक जावेगी और किस्सा फिर एक और पान के लग जाने तक चुपचाप बैठा रहेगा।

‘‘ स्वर्ग के दरवाजे से बाहर आते ही एक बगीचा दिखाई देता है। इसके सुन्दर फल-फूल विविध रंगों की फुलवारी और मीठी ताजगी ली हुई महक सभी का मनमोह लेती है। तरह तरह के पक्षी और रंग-बिरंगी तितलियों से सजा यह बगीचा बड़ा प्यारा लगता है। यहीं पर नन्हें नन्हें बच्चे फरिस्तों के साथ खेलते, परियों के संग नाचते-गाते और यहीं के फल-फूल खाकर मस्ती करते हैं। स्वर्ग और नरक दोनों ओर से आते-जाते लोगों को इसी बगीचे से होकर गुजरना पड़ता है। इस बगीचे में बुद्धि के पेड़-पौधे और ज्ञान के फल-फूल लगते हैं। इसलिये सभी इसे ज्ञानोद्यान कहते हैं।

‘‘ जानते हो एक बार क्या हुआ?’’

हम सब को मालूम है जहाँ परी और नन्हें बच्चे होंगे, वहाँ दादी राक्षस जरूर बुलायेगी।

‘‘ एक राक्षस था। उसने इस ज्ञानोद्यान को हथिया लिया। उसने एक बड़ी लकड़ी पर लिखा --- जानते हो क्या लिखा?’’

इतना कह दादी ने चूने की डिबिया से चूना ऊँगली पर लेकर लिखा ---‘राक्षस से सावधान’।

‘‘ अब राक्षस ने इस तख्ती को बगीचे के दरवाजे पर ठोक दिया। फिर भी स्वर्ग-नरक में आते-जाते सभी लोग इस तख्ती की परवाह किये बगैर इस बगीचे में कुछ देर ठहर कर मन बहला लिया करते थे। राक्षस ने कभी किसी से कुछ नहीं कहा और छेड़ा भी नहीं। बस वह अधिकांश समय सोता रहता। बच्चे आपस में बातें करते और पूछते, ‘यह राक्षस यहाँ कैसे आया?’ ’’

इतना किस्सा बताकर दादी रुक गई। ‘सोचो भला,’ वह बोली। पर हम बच्चे क्या सोचते, जब दादी ही कुछ सोच रही होती।

‘‘ स्वर्ग में भगवान, नरक में शैतान और पृथ्वी पर इन्सान रहते हैं। इन्सान पाप-पुण्य कमा कर नरक या स्वर्ग में चले जाते हैं। यह कुंद बुद्धिवाला राक्षस जाता भी तो कहाँ? यही उद्यान था, जहाँ उसने अपनी पर्ण-कुटी बना ली थी और वो तख्ती टाँग ली थी।

‘‘ तो --- ये उस समय की बात है, जब स्वर्ग में बैठे भगवान ने मनुष्य बनाया --- हू-ब-हू अपनी शक्ल का। सभी ने उनकी कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की। पर फिर कुछ ख्याल आया तो फरिस्ते बिचक गये। कहने लगे, ‘ हे प्रभू! आप यह क्या कर बैठे? अब हम मनुष्यों के बीच में आपको कैसे पहचान पावेंगे?’

‘‘ उधर शैतान तो खुश हो उठा और बोला, ‘चलो यह अच्छा हुआ, स्वर्ग में भी मूर्खता करने वाला भगवान पैदा हो गया।’

‘‘ पर भगवान मुस्कुराते रहे। उन्होंने सोने की ट्रे उठाई, जिसमें गुणों के रंग थे और चाँदी की ट्रे उठाई जिसमें अवगुणों के रंग थे। सोने और चाँदी की ट्रे से एक-एक रंग चुनकर मनुष्य के माथे पर तूलिका फेर दी। बस, रंग लगते ही मनुष्य में गुण-अवगुण उपज आये, जो उन्हें भगवान से जुदा दिखाने लगे। फरिस्ते खुश हो गये और शैतान हाथ मलता रह गया।

‘‘ तभी शैतान को शरारत सूझी। उसने अपनी आकृति का एक जीव बनाया। पर उसके पास गुण-अवगुण की तूलिकायें कहाँ थी? क्या करता? उसने उसे वैसा ही अंतरिक्ष में भेज दिया। यही वह कुंद बुद्धिवाला राक्षस था जो स्वर्ग, नरक और पृथ्वी के बीच के लोक में घूमता रहा। घूमते-घूमते उसे स्वर्ग के पास यह बगीचा दिखा। राक्षस का मन हुआ कि क्यूँ न मैं यहीं रहने लगूँ। यहाँ उसे रोकने वाला कौन था? बगीचे में फरिस्ते थे --- वे राक्षस को देख कर डर गये और झाड़ियों में छिप गये। यह बगीचा स्वर्ग, नरक और पृथ्वी की सीमा के बाहर था, इसलिये कौन उसे पर्ण-कुटी बनाने से रोकता। उस राक्षस को यह भी नहीं मालूम था कि इस ज्ञान के बगीचे के फल-फूल खाकर बुद्धिमान हुआ जा सकता है। बस, वह तो वहाँ रहने लगा था, जैसे जंगल में माँसाहारी जानवर रहा करते हैं। फिर भी बगीचे की हवा का उस पर कुछ असर तो अवश्य हुआ और इसके फलस्वरूप उसके मन में जिज्ञासा जागृत हो गई। इसी जिज्ञासा-वश वह कभी स्वर्ग, कभी पृथ्वी, तो कभी नरक में ताँक-झाँक करने लगा। एक दिन उसने देखा कि भगवान मनुष्य बनाकर, पृथ्वी पर भेजने के पहले सोने-चाँदी के ट्रे से एक-एक रंग लेकर उसके माथे पर लगा देते हैं। उसने यह भी देखा कि भगवान के समान हू-ब-हू शक्ल का इन्सान सोने की ट्रे के रंग से एकदम तेजस्वी हो जाता है, पर चाँदी के ट्रे के रंग से एकदम मुरझा जाता है। उसे क्या मालूम कि भगवान गुण-अवगुण के रंग तूलिका से चुन-चुन कर लगाते हैं।

‘‘ राक्षस को एक और बात की चिंता सताया करती थी। भगवान जिस मनुष्य को पृथ्वी पर भेजते, वे सभी इसी बगीचे से होकर जाते। वे मानव आकृति के नन्हेें नन्हें बच्चे उछलते कूदते बगीचे के फल-फूल तोड़कर खाते, कुछ गिराते और पृथ्वी पर चले जाते। एक तो बगीचे में कचरा फैल जाता और दूसरे यह कि उन बच्चों के शोर-शराबे से राक्षस की नींद में खलल पैदा होती। उसने सोचा --- क्यूँ न भगवान की ये दोनों ट्रे ही चुरा लाऊँ।

‘‘ बस क्या था ! वह दौड़ कर शैतान के पास गया। कहने लगा, ‘ हे पिता परमेश्वर ! मुझे स्वर्ग में जाने लायक बना दो।’

‘‘ ‘पर क्यों?’ शैतान तमतमा उठा। शैतान जानता था कि जिस प्रकार फरिस्तों को नरक में आने का हक नहीं है, उसी प्रकार राक्षस को स्वर्ग में जाने का अधिकार नहीं है। यह उस इकरारनामे में लिखा था जो भगवान व शैतान ने स्वर्ग व नरक के बनाते समय लिखा था।

‘‘ लेकिन राक्षस जिद्द में था। अतः हारकर शैतान ने अपने कपड़े उसे दे दिये और कहा, ‘ वहीँ जाना और भगवान से दुआ-सलाम कहना। पर वहाँ ज्यादा देर मत रहना। थोड़ी देर रहोगे तो कुछ नहीं होगा। पर जरा भी देर कर दी तो पकड़ा जावोगे। भगवान को बहुत कम देर तक ही बुद्धू बनाया जा सकता है। अच्छे से समझ लो।’

‘‘ राक्षस ने तुरन्त शैतान के कपड़े पहने और स्वर्ग में आ गया। शैतान की स्वर्ग में भी बहुत इज्जत थी। क्योंकि शैतान व भगवान के इकरारनामे की एक शर्त यह भी थी कि जब शैतान स्वर्ग आवे या भगवान नरक जावें तो उनका राजकीय सम्मान के साथ आवभगत की जानी चाहिये।

‘‘ शैतान को आया देख भगवान सम्मानार्थ उससे मिलने आये और पूछा, ‘ कैसे आना हुआ?’

‘‘ पर शैतान रूप में वह राक्षस पूर्ण सतर्क था। उसने इशारे से कहा कि आज उसने मौन-व्रत ले रखा है, अतः बातें लिख कर दे सकेगा। भगवान उसे अपने कला-कक्ष में ले गये। उसे कागज पत्र दिये। मौका पाकर राक्षस ने भगवान के दोनों टेª अपने कपड़ों में छिपा लिये और भगवान के प्रश्न के उत्त्ज्ञार में लिख दिया, ‘ बस, यूँ ही आया था। दुआ-सलाम करने।’ और वह तेजी से बाहर आ गया। अपनी पर्ण-कुटी में वापस आकर राक्षस सोचने लगा, ‘ अब क्या किया जावे?’

‘‘ उधर भगवान को मालूम हुआ, तो उन्होंने सोचा, ‘ऊॅह... क्या होता है? मैं यूँ ही मनुष्य को पृथ्वी पर भेज दिया करूँगा। देखें तो राक्षस करता क्या है?’

‘‘ राक्षस को बच्चों से बहुत चिढ़ होने लगी थी। उसे एक चालाकी सूझी। वह नन्हें-नन्हें बच्चों को फुसलाकर अपनी कुटी में ले जाता और चाँदी की टेª के रंगों से उन्हें पोत देता और बाहर भेज देता। वह सोने की टेª के रंगों को बहुत कम उपयोग में लाता। उन रंगो का उपयोग कभी किया भी तो बहुत ऊट-पटाँग तरीके से। भगवान गुण-अवगुण के रंगों का प्रयोग अत्यंत विवेक से चुन-चुनकर करते थे। अहं के साथ ज्ञान, लोभ के साथ त्याग, क्रोध के साथ दया, दुःख के साथ सहिष्णुता, अंधविशवास के साथ श्रद्धा, आदि का पुट देकर वे मनुष्य के व्यक्तित्व का संतुलन बनाये रखने का प्रयास करते थे।

‘‘पर वह राक्षस तो मनमौजी था। उसे इन सब बातों का न तो ज्ञान था और न ही परवाह।

‘‘ हुआ यह कि पृथ्वी पर जो भी आदमी आते तो रोने वाले रोते रहते, हँसने वाले हँसते रहते। क्रोधी सिर पटकते रहते, घमंडी अलग-थलग खड़े रहते। पृथ्वी पर अधिकांश मानव दानव बने नजर आने लगे। राक्षस अपनी इस करनी से बड़ा खुश हुआ क्योंकि अब उसके ज्ञानोद्यान के फल-फूल चखने की इच्छा किसी भी बच्चे में न होती। वे तो एक अवगुण पाकर ही मस्त हो जाया करते थे और बाग से जल्द से जल्द भागकर पृथ्वी पर पहुँच जाने को ललचाने लगते थे। राक्षस का बगीचा साफ-सुधरा रहने लगा था और वह लम्बी नींद भी ले सकता था।

‘‘ होते-होते एक बार एक नन्हा बच्चा उसके बगीचे में स्वर्ग से उतर आया। उसे राक्षस ने बहुत चाहा कि अपनी कुटी में खींच लाये। पर बच्चा चुपचाप एक झाड़ के नीचे शिला पर बैठा रहता। कभी वह यूँ ही नंग-धडंग बाग में घूमता रहता, पशु-पक्षियों से बातें करता रहता, पेड़-पौधों की सेवा-सुश्रुड्ढा करता रहता और जो भी फल-फूल उसे पेड़ खुशी-खुशी देते, उन्हें ग्रहण करता। ज्ञानोद्यान उस बच्चे के दिव्य प्रकाश से चमकने लगा था।

‘‘ एक दिन घूमते-घूमते वह बच्चा राक्षस की कुटी के पास तक आ गया। बस क्या था ! राक्षस इसी मौके की तलाश में था। उसने चुपके से झपट्टा मार कर उस बच्चे को दबोच लिया।

‘‘ राक्षस बोला, ‘ बहुत दिनों से मैं तेरी ही ताक में था। बड़ी शान्ति से तू घूम रहा था। अब देखता हूँ बच्चू को।’ और राक्षस ने चाँदी की टेª पर रखा क्रोध के रंग का पूरा प्याला बच्चे पर उँड़ेल दिया। बच्चे को कुटी से बाहर ढ़केल कर राक्षस देखने लगा कि अब क्या होता है। बिचारा बच्चा ज्ञानोद्यान बिचरते रहा और ज्ञान के फल खा-खाकर दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण हो गया। फिर भी क्रोध का पूरा रंग जो उस पर उँड़ेला गया था, ज्वाला का रूप धारण कर भभकता रहा। क्रोध का यह रूप देख सभी पशु-पक्षी, पेड़-पौधे डर गये। लेकिन सभी को उस बच्चे से प्यार था और उन्हें उस पर दया आने लगी। किन्तु क्रोध के आगे सभी की सिट्टी-पिट्टी गोल हो गई। अब क्या किया जावे? सभी चिंतित हो उठे।

‘‘ तभी बबूल का पेड़ साहस बटोरकर आगे बढ़ा और उसने बच्चे के शरीर पर चिपका सारे क्रोध का रंग अपने पत्त्ज्ञाों से पोंछ डाला। बबूल के पेड़ पर काँटे उभर आये। पर जब बच्चा सुख से सोने लगा तो बबूल का पेड़ बहुत खुश हुआ।

‘‘ लेकिन यह देख राक्षस चुप बैठने वाला नहीं था। वो चाँदी की पूरी टेª उठा लाया और अवगुणों के सारे रंगों को बच्चे पर उँडेलने चल पड़ा। बच्चा अभी भी सो रहा था। रात का अंधेरा था। राक्षस चुपचाप बच्चे तक जाना चाह रहा था कि बबूल का पेड़ जो क्रोध से लबालब हो चुका था, राक्षस पर झपटा। राक्षस डर कर भागा, पर बबूल के काँटों में क्रोध का पूरा नशा छाया हुआ था। उनसे बचकर भागना राक्षस के लिये कठिन था। वह अपनी कुटी तरफ भागा, जिससे चाँदी की टेª के सारे रंग जमीन पर बिखर गये। कुछ छींटे राक्षस पर भी गिरे, जिससे वह पागलों का सा व्यवहार करने लगा। बबूल के काँटों से लड़ते-लड़ते जैसे-तैसे वह अपनी कुटी के अंदर आ ही गया।

‘‘ अब राक्षस बबूल के काँटों से बुरी तरह डर गया था। अतः वह सोने की टेª लेकर नरक तरफ भागने की सोचने लगा, शैतान का संरक्षण पाने। लेकिन जैसे ही उसने कुटी के बाहर पैर रखे, तो बबूल का पेड़ फिर उसके पीछे दौड़ पड़ा। बेचारा राक्षस भागा, जिससे सोने की टेª पर के सारे सत्गुण के रंग बगीचे की राह पर बिखर गये। कुछ छींटे राक्षस और कुछ बबूल के पेड़ पर भी गिरे और असर दिखलाने लगे। बबूल के काँटे भी सौम्य हो चले और राक्षस के स्वभाव में भी परिवर्तन-सा आने लगा। राक्षस ने बगीचे पर टंगी तख्ती निकाल कर फेंक दी और पेड़-पौधों से दोस्ती करने लगा।

‘‘ अब जो भी बच्चे स्वर्ग से उतर कर बगीचे के मार्ग पर से पृथ्वी पर जाते, उनके पैरों पर बगीचे की राह पर बिखरे गुण-अवगुण के रंग चिपक जाते हैं। यही रंग उनके भग्य को बनाने लगे। इससे भगवान संतुष्ट हो या ना हो, पर राक्षस को अवश्य संतोड्ढ हुआ कि वह और अधिक अनिष्ट नहीं कर सका था।’’

इतना कह दादी चुप हो गई। सरोता सुपारी काटने लगा -- कट् -- कट् -- कट् --। दादी ने पूछा, ‘‘अच्छा, बच्चों बताओ कि उस बच्चे का नाम क्या था ?

हम सोचते रहे -- शायद वह भगवान महावीर था, या गौतम बुद्ध था, या गुरू नानक था, या ईसा मसीह था, या कृष्ण कन्हैया था। इस पर दादी ने कहा, ‘‘ वह जो भी था, पर हम सब का था।’’ और दादी फिर से पान लगाने लगी।

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