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दाल बराबर

दाल बराबर

आज जो क़दम मैं उठाने जा रही हूँ, शायद उसके पीछे अपने पापा के लिए बचपन से दबे मेरे रोष और गुस्से का बहुत बड़ा हाथ है।

बचपन से ही घर का माहौल कुछ अच्छा नहीं रहता था। अक्सर घर में किसी न किसी की पिताजी के पंजों से पिटाई होती थी, कभी मेरी और कभी मेरे अन्य भाई बहनों की, और हमें बचाने के चक्कर में अक्सर माँ को पिताजी के ख़तरनाक नाखूनों का शिकार होना पड़ता था।

जब भी वे आते,तो दूर से ही हम अपनी तिल जैसी आँखों से उनकी मुद्रा भाँपने की कोशिश करते थे। उनको आते देखकर ही स्ट्राबेरी जैसा मेरा दिल उछलकर मेरी चोंच में आ जाता था कि पता नहीं पापा का मूड आज कैसा हो? अगर अच्छा मूड है तो ठीक है वरना… ज़रा. अपनी पीठ कड़ी कर लूँ।

मम्मी पर क्या गुज़रती थी, यह तो कहना मुश्किल है क्योंकि मुझे अपनी भावनाऐं सँभालने से फ़ुरसत नहीं मिलती थी कि उनके बारे में मैं सोच सकूँ। उनका काम तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अंडे देना था और चूजे सँभालना था।

हम पर पिताजी को ज़रा भी ऐतबार नहीं था। उनको सारा हुनर, सारी क़ाबिलीयत अग़ल-बग़ल के चूजों में ही दिखाई देती थी। मुझे तो वो ‘गधी’ कहते थे। आपको शायद पता न हो पर मुर्गे-मुर्गियों के लिए भी ‘गधा’ शब्द सुनना उतना ही अपमानजनक है जितना आपके लिए।

जब वो मुझे आधे दिमाग़ की ही समझते हैं तो उम्मीद ही क्यों करते हैं कि मैं उनके हिसाब से जो सही क़दम है वही क़दम उठाऊँगी। अब तो जो वो सही समझते हैं, मैं गलत समझती हूँ।

उन्होंने मेरे लिए एक देसी मुर्गा देखा है। कल ही मुझे पता चला। मैंने बिना देर किए, फैसला ले लिया कि अब मैं उनके साथ नहीं रहूँगी।

मैं आज एक बहुत बड़ा क़दम उठाने जा रही हूँ। अपनी जात-बिरादरी के ख़िलाफ़ जा कर, एक देसी मुर्गी होते हुए, एक अमेरिकन मुर्गे से शादी कर रही हूँ। मुझे आज भी याद है वो दिन, जब हमारा मालिक पहली बार उन्हें इस बाड़े में लाया था। डरे-डरे से वे एक कोने में बस दुबके रहते थे और ये हमारे चंट देसी-चूजे उन्हें सताने से बाज नहीं आते थे। जबकि हम सब देसी मुर्गियाँ उन पर लट्टू थीं। तब मैंने सोचा न था कि पूरे झुंड में उन्हें मैं ही पसंद आऊँगी।

उन दिनों हमारी दाना चुगने की क्लास और उड़ने की क्लास बहुत ज़ोरों से चल रही थी, इग्ज़ैम जो पास थे। अक्सर वो मुझे छुप-छुप के खम्भों के पीछे से देखा करते थे। मैं कभी मुड़कर नहीं देखती थी क्योंकि मुझे इन पाश्चात्य संस्कृति वाले मुर्गों पर ज़रा भी भरोसा नहीं था। मैंने इनके बारे में बहुत कुछ पढ़ रखा था। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि कहीं वे मुझे देखने के साथ-साथ मेरी ख़ास सहेली पर भी तो नज़र नहीं रखते।

तो एक दिन उड़ने की क्लास थी। क्लास में टीचर ने सबको दीवार पर चढ़कर नीचे कूदने का काम दिया। यह बहुत मुश्किल काम था। मुझे उड़ने से बहुत डर लगता था। मैं आख़िर में जा कर खड़ी हो गई ताकि मेरा नंबर सबसे आख़िर में आए और हो सकता है तब तक बेल बज जाए। पर टीचर ने मेरी हरकत नोट कर ली और सबसे पहले मुझे उड़ने को कहा।

अब मैं क्या करूँ, कुछ समझ नहीं आ रहा? दोनों पंख हल्के से खोल, मैंने फड़फड़ाना शुरू किया। कोई फ़ायदा नहीं। मगर पीछे से टीचर ने वो चोंच मारी कि मैंने फटाक से दोनों पंख पूरे-पूरे फैलाए और ज़ोर लगाकर शरीर ऊपर उठा दिया।

देखा तो मैं हवा में थी और नीचे सभी चूजे हूटिंग कर रहे थे। नीचे का नज़ारा देख मैं डर गई। मेरे पंख सुन्न से हो गए। मैं अभी ज़मीन पर गिरने ही वाली थी कि उन्होंने अपने ख़ूबसूरत उज्ज्वल पंखों से मुझे थाम लिया। वो मुझे अपनी तिल जैसी प्यारी आँखों से टुकुर-टुकुर ताक रहे थे और मैंने पलकें झपकाई, हाँ, हाँ माना हमारी पलकें इंसानों की तरह ख़ूबसूरत नहीं होती हैं पर हमारे मुर्गों के लिए वही काफ़ी हैं।

ख़ैर, बात ये है कि उस दिन जो हमारी कहानी परवान चढ़ी तो उसने थमने का नाम न लिया। उस दिन से मुझे शर्माना आ गया और उन्हें एक टाँग पर खड़े हो, बाँग दे देकर मुझे रिझाना।

अब अक्सर वो मुझे क्लास ख़तम होने के बाद उड़ना सिखाते थे। इस प्रकार उन्होंने न केवल मुझे उड़ना सिखाया बल्कि मेरे हृदय को भी पंख दे दिए।

एक दिन उन्होंने पंजों से ज़मीन पर कुछ लिखा। मैंने देखा तो अंग्रेजी में लिखा था। भला मैं कैसे समझती? मुझे विदेशी भाषा थोड़े न आती है। तब अपने गँवारपन पर बड़ी ग्लानि हुई। पर जब उसका अर्थ पता चला तो मैं झेंप गई और साथ ही दृढ़ निश्चय कर लिया कि अपने मालिक के ख़्वाब को मैं ही पूरा करूँगी और इस निष्ठुर बिरादरी के सारे चोंचले छोड़, मैं दो संस्कृतियों के मिलन को अंजाम दूँगी।

जब यह नेकनीयती सबको पता चली, तो सब मुर्गों ने अगले दिन बाँग दे देकर मुझे बिरादरी से बाहर ढकेल दिया।

अब सिर्फ़ मैं हूँ और वो, माना कि आते-जाते हर जगह मुझे सबकी बीज जैसी आँखों से निकल रही क्रोधाग्नि का शिकार होना पड़ता है। पर मेरे स्वागत में वे भी तो अपने धवल पंख पसारे खड़े रहते हैं। हाँलाकि इस मुश्किल दौर में हमारे साथ कोई नहीं, पर मालिक की विशेष दृष्टि रहती है मुझ पर। और किसी को हो ना हो, पर मालिक को मुझसे बड़ी उम्मीदें हैं। मैं ज़रूर उनका नाम रोशन करूँगी। हमेशा मेरी सेवा में लगे रहते हैं।

मैं मालिक की कितनी लाडली हूँ, इसका पता करने के लिए एक दिन मैं उनके सिर पर जा चढ़ी और वहीं एक अंडा दे दिया। पहले तो वो मुझे झटकने वाले थे, पर अंडा देख बड़े ख़ुश हुए और मेरा माथा चूम कर बोले -‘मेरी सोने के अंडे देनेवाली मुर्गी, यूँहीं अंडे देती रह। इस सीज़न में तो वैसे भी इन अंडों का भाव सोने जैसा ही है। यूँ ही मैं बाज़ार का राजा न बन गया तो कहना। चारों तरफ सिर्फ़ मेरे ही अंडे...मेरा मतलब मेरी मुर्गियों के ही अंडे होंगे।’ अब आप ही बताएं, भला और किसी मुर्गी की ऐसी मजाल मेरे मालिक बर्दाश्त करेंगे कि कोई उनके माथे पर चढ़कर अंडा दे और मालिक उसका माथा चूम लें।

उन दिनों मैं मालिक के ऑफिस के आस-पास ज़्यादा पाई जाती थी। कभी उनकी फाइलें पढ़ती थी और कभी उनमें अंडे भी देती थी। उन्हीं दिनों मालिक ने ये फ़ैसला लिया कि उनके दूसरे फार्म में भी वे अमेरिकन मुर्गे ले जाएंगे ताकि वहाँ भी उत्पादन बढ़ सके। उनका आदेश पाते ही उनका एक ख़ादिम मेरे प्राणनाथ की ओर दौड़ा। मेरा स्ट्राबेरी जैसा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। अब पकड़ा... अरे तब पकड़ा .. अरे नहीं... पकड़ ही लिया।

अरे नहीं वो तो उड़कर दीवार पर चढ़ गए। आह! बड़ी मुश्किल से बचे। लेकिन आगे क्या, मालिक इतने पर तो रुकेंगे नहीं...मेरे प्रियवर को दूसरों के स्वयंवर में ले ही जाएंगे।

और ले ही गए...रातोंरात उन्हें दर्बे से गायब कर दिया। उनके प्रेम की बत्तीस निशानियाँ, चूँ-चूँ कर मेरे कान फोड़े जा रहीं थी। ये बत्तीसों तो आदमी के बत्तीस दाँतों के लिए ही बने हैं, परंतु उनके बग़ैर मेरा क्या होगा?

उन्हें रात के सन्नाटे में उठाकर ले गए थे। किसी को कुछ पता नहीं चला। सभी मुर्गे-मुर्गियों को लगा कि यहाँ से भाग गए। उन्हें भगौड़ा करार दे दिया गया और मुझे भगौड़े मुर्गे की धर्मपत्नी होने का ख़िताब। अब क्या था ? सबने मेरा जीना मुश्किल कर दिया। पहले तो सब सुबह ही बाँग देते थे, पर अब, जब जी चाहता है, बाँग दे-दे कर मेरा अपमान जब-तब करते हैं। हर दिन की तरह उस दिन भी मैं बच्चों के साथ दाना चुगने जा रही थी। आज ख़ास दावत थी। आज खाने में मालिक ने सोयाबीन तेल का भोजन सजाया था इसलिए खाने की जगह पर बड़ी भीड़ थी। कुछ मुस्टंडे मुर्गों ने ठान ली कि मुझे और मेरे चूजों को वो चुगने न देंगे ताकि वे ज़्याादा से ज़्यादा ठूँस सकें। पर इस चक्कर में उन्होंने हमारा उपवास करा दिया।

उनके लालच से मुझे कुछ लेना-देना नहीं, पर अपने बच्चों कि भूख से तो है। मैं तो एक दिन बिना खाए भी गुज़ार सकती हूँ, पर इन सबका क्या? भूख से व्याकुल अपने बच्चों को देख, मैं भी व्यग्र हो उठी। मेरे बच्चे भूख से तड़प रहे थे और मैं इतनी लाचार कभी न थी कि उन्हें देखने के सिवाय कुछ न कर सकूँ।

यह दर्द वे ही जान सकते हैं जिन्होंने अपने बच्चों को एक दिन भी भूखे पेट सुलाया हो। और कुछ तो कर नहीं सकती, सो उन मुर्गों के साथ-साथ सभी को श्राप दे डाला कि सब के सब तड़प-तड़प कर मरें।

जब मेरे हृदय का मवाद श्राप के रुप में बह गया, तो हृदय कुछ शांत हुआ और याद आया कि कुछ दूर पर कीडों की एक बस्ती है, जो मिट्टी में छेद कर घर बनाते हैं। अपने भूख से बिलखते चूजों को वहाँ ले गई और जब तक वो टुकुर-टुकुर ताक रहे थे, मैंने कई सेंटीमीटर ज़मीन खोद डाली जिसमें से निकले नूडलस से, बच्चों ने अपनी भूख शांत की। चलो ये त्रासदी तो टली। मैंने तो सोचा भी न था कि क्रोध में दिया हुआ मेरा श्राप सच भी होगा। सच तो हुआ और कैसे न होता तड़पती माँ की बद्दुआ से बुरी बद्दुआ कोई हो सकती है क्या? परंतु ये क्या, मेरी बद्दुआ ने तो मुझी को खा लिया। मेरी बद्दुआ ने धीरे-धीरे हमारे दर्बों में पाँव रखना शुरू किया। पहले एक, फिर चार, फिर अठारह और फिर सैकड़ों और फिर लगभग सारे ही स्वाइन फ्लू के शिकार हो गए।

मेरी बत्तीस में से अठारह संतानें भी मेरे ही श्राप की भेंट चढ़ गई। बाक़ी में से कुछ को तो मालिक ने बेच दिया और कुछ को नाश्ता बना लिया, और कुछ तो ऐसी निकली जिन्होंने यह बीमारी इंसानों तक पहुँचा दी।

जब से इंसान बीमार पड़े, मेरे मालिक का धंधा चौपट हो गया। कहाँ तो सोने के ढेर लगाने के स्वप्न देखा करते थे, कहाँ आज मेरी बिरादरी की लाशों के ढेर देख रो रहे हैं। आज तक शायद ही किसी भले मानस ने कभी मुर्गे या मुर्गियों के मरने पर आँसू बहाए होंगे। पर यहाँ देखो, मालिक ने तो खारे पानी की नदी ही तैयार कर दी, जिसमें डुबकी लगाकर भी ये मुर्गे-मुर्गियाँ मेरे श्राप से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।

मालिक ने बहुत कोशिश की कि हम में से कुछ को बचा लें। वैसे मैं और मेरी कुछ साथिनें एकदम स्वस्थ थीं। लेकिन यह बात उन लोगों ने नहीं सुनी, जो हमारा क़त्ल करने आए थे। मालिक ने समझाया भी कि कुछ मुर्गियों को वे छोड़ दें (जिसमें मैं भी शामिल थी)। पर जाको ना राखे...बचा सके न कोय। वे लोग तो मालिक की कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। कहते थे कि वो कोई रिक्स या रिस्क या जो भी हो, वो नहीं ले सकते। एक-एक कर सब की गर्दन मरोड़ दी उन्होंने। मेरी तरफ भी बढ़े।

‘अरे नहीं मत छुओ मुझे। देखो मैं कितनी स्वस्थ हूँ और कितनी तेज़ भाग सकती हूँ। ये देखो तुम्हें नाली में गिरा दिया न। अब तो मान जाओ। अरे बीमार मुर्गी इतनी तेज़ भाग सकती है क्या! अरे दो लोगों की क्या ज़रूरत है मुझे पकड़ने के लिए ! अरे नहीं! इन्होंने तो मुझे घेर लिया, अब मैं कहाँ जाऊँ? नहीं.. नहीं.. अब्बे मेरे पंख छोड़। दुखता है! पंख छोड़ नहीं तो चोंच मारुँगी। तू ऐसे नहीं मानेगा, तो ये ले। हा! हा! हा ! ...अब आया न मज़ा। तीस मार खाँ समझ रहा था ख़ुद को। अब किसी मुर्गी से पंगा मत लेना। अरे बाप रे इसे तो गुस्सा आ गया। अब तो दुगनी तेज़ी से मेरी ओर दौड़ रहा है। कहाँ भागूँ... कहाँ छुँपूँ ? चल तुझे खंभे के चक्कर खिलाती हूँ, जहाँ कभी मैं और वो चक्कर काटा करते थे। हाय! वो दिन याद कर मैं कितनी भावुक हो उठती हूँ। चल अब तू मेरे पीछे-पीछे भाग जैसे वो भागा करते थे। अरे ये क्या ये तो उल्टा भाग के मेरे सामने आ गया। अरे नहीं छोड़ मुझे ! छोड़ो मुझे! अरे मुझे स्वाइन फ्लू नहीं हुआ है। मेरी बात समझ। मेरी गर्दन से दूर रह। हाथ मत लगा। अच्छा ठीक है गर्दन पकड़ ली तो पकड़ ली, मगर इसे मरोड़ना मत। अरे मेरा दम घुट रहा है। हाथ हटा! अपना हाथ दूर----‘

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