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प्रेम का एक अवगुण-- जलन



"तुम को जलन हो सकती है क्या " जब अरूण ने पूछा तो सुजाता अवाक् थी ।
"अरे, ये भी कैसा प्रश्न है जलन होने के लिए भी तो वजह होनी चाहिए ना ।चलो अच्छा ! तुमको लगता है कि मैं किसी रचनाकार की कविता पर उकेरो छंदों की नक्काशी पर जलभुन गयी और मैंने तुम्हें हँसकर इशारा भी किया तो क्या तुमने वजह के छोर को ढूढ़ने की कोशिश की ?
या उँगलियों को फँसाकर ढीली ढाली लीव इट वाली मुद्रा में खड़े होकर तुम मुझे ही प्रश्न बनाकर मुझ पर प्रश्न दागने लगे " सुजाता ने कंधो को उचकाते हुए गहरी साँस छोड़ी और पार्क की एक सूनी बैंच पर बैठ गयी ।

अरूण दो मिनट धीर गंभीर मुद्रा में रहा फिर बोला "दरअसल बाँधने और बँधने की जो रस्म औरतें जीतीं हैं ना वो कई बार साथी पुरूष पर नकेल कसने की प्रक्रिया का प्रारम्भिक दौर होता है और रिश्तों को खुला छोड़ देना स्त्री सीख नहीं पाई अभी तक तो ये समझ पाना कि  जलन की पीड़ा किस कदर झुलसाती होगी शायद मरहम लगाने वाला नहीं जान सकता । तो मैं कितनी भी कोशिश करूँ पर ये आँच मुझ जैसे इन्सान तक पहुँचने से पहले ही ठण्डी पड़ जाती है ।इसलिए तुम ही बताओ ना "

हम्म् ! हाँ जलन होती है ना मुझे तब जब एक लम्बे समय तक विचारों को आसमान पर पसारने के बाद भी आसमान को धरती में गड्ढे और पानी के साथ साथ टूटन और चटकन ही दिखती है 
पता है जब परतें उधेड़ कर रख देने वाली धरा उस आसमान से मिलने के लिए अपना लिबास उतार बादल की बूँदों को ओढ़ कर हरियाली बिखेरती है तो वो सारी जलन सारे फफोले अपनी देह पर से झाड़ देना चाहती है 
ये उसका अथाह प्रेम है जिसमें वो रोम रोम भींग उज्जवला दिखना चाहती है 
जलन होती है तब जब मैं तुम्हारी आँखों में आँखें डालकर मुस्कुरा कर बोलती हूँ  कि जलन है मुझे , वो मुझसे आगे वाली सीट पर बैठी मृगनयनी से जिसकी नजर पर तुम नजर रखते हो 
और पता है इस जलन के बावजूद मैं उसे अपने साथ रखती हूँ हमेशा उसी बस पर चढ़ती हूँ उसके पीछे वाली सीट पर ही बैठती हूँ क्यों कि जब स्टाॅपेज पर उसके पीछे उतरते हुए तुम मुड़ कर ये देखते हो कि मैं तुम्हारे साथ आ रही हूँ या नहीं । वो पल मैं हर दोष से मुक्त हो जाती हूँ
तो  प्रेम में जलन भी निष्पाप और स्वीकार्य अवगुण है। " 

और इतना कहकर वो एक सुलझी प्रेयसी, शान्तचित्त धरा की तरह आगे बढ़ गयी उसके पीछे चलते अरूण को शाम आज उतनी ही सुखद लग रही थी जितना कि सुजाता से पहली बार मिलना । वो समझ गया था कि संवेदनाओं और एहसासों को पढ़ने की समझ उसकी सुजाता में भरपूर है ।

सुजाता का यूँ आगे बढ़ जाना और बेफिक्री दिखाना शायद अरूण को बहुत सहज लगा हो पर सुजाता जानती थी कि अंदर ही अंदर उसके कुछ था जो उसको अपने हर तन्हा पल में मृगनयनी बाला सारिका के बारे में जानने को उत्सुक करता था पर अरूण को यह बोल देना भी उसके लिए उसको जीतने के लिए ही था । 

ऑटो पकड़ कर वो घर आ चुकी थी और अरूण अपने घर आकर अपने चंचल मन के अनुरूप अपनी दुनियाँ में रूमानियाँ सजाने में लगा था दोनों का स्वभाव एकदम अलग था । अरूण बेफिक्र बिना किसी बंधन जिन्दगी को अपने मुताबिक जीने वाला इन्सान था और सुजाता जिन्दगी को बंधन में रख कर ख्वाहिशों को उड़ान देने वाली लड़की । दोनों का साथ वैसे तो मिसमैच था पर कहीं न कहीं विचारों के किसी एक स्तर पर वो एकमत होते थे। 

सुजाता ने फोन उठाया "हैलो सुनो अच्छा बिना किसी बंधन के तुम कब तक साथ चलोगे। सारिका हो सकता है कहीं स्वतंत्र विचारों और मानसिक धरातल पर तुम्हारे सापेक्ष हो तो क्या मेरी पारम्परिक बुद्धि पर तरस खाकर तुम मुझसे अलग हो सकते हो 

"अरे यार मैं तुम्हें कोई दुख नहीं देना चाहता इसलिए मैं ऐसा कुछ नहीं कहता जो मुझे बंधन महसूस कराये और तुमको किसी एहसास में बाँधे और तुम जानती हो मुझे रिश्तों में जुड़ाव में सवाल जबाब पर सख्त ऐतराज है । " अरूण ने कहते हुए एक गहरी साँस ली ।

सुजाता चुप्पी साध गयी एक मिनट की चुप्पी के बाद उसने बाॅय बोल कर फोन कट कर दिया । 
ऐसा नहीं कि सुजाता के लिए इस तरह का मानसिक धरातल सहज था इस पर चलने के लिए उसको सारी वैचारिक विषमताऐं स्वीकारने का साहस चाहिए था 
और साथ ही प्रेम की उपलब्धता महसूस कराने वाले उस हर अवगुण को दूर करना था जिसमें सवाल जबाब अधिकार इन्तजार और समर्पण जैसी माँग हो पर उसका दिल इसको प्रेम या जुड़ाव मानने को तैयार नहीं था । और अगर जुड़ाव था भी तो वो एकतरफा सिर्फ सुजाता की ओर से ।

सुजाता का यूँ आगे बढ़ जाना और बेफिक्री दिखाना शायद अरूण को बहुत सहज लगा हो पर सुजाता जानती थी कि अंदर ही अंदर उसके कुछ था जो उसको अपने हर तन्हा पल में मृगनयनी बाला सारिका के बारे में जानने को उत्सुक करता था पर अरूण को यह बोल देना भी उसके लिए एक विस्तृत धरा की तरह अपने हिस्से के बादल को जीतने जैसा ही था । 

उसका दिल जोरों से चिल्ला कर पूछना चाह रहा था कि मैं और सारिका दोनों ही तुम्हारे कलीग हैं हम दोनों एक जैसा काम करते हैं व्यक्तित्व में भी एक दूसरे से किसी तरह कमतर नहीं पर जब भी प्रशंसा की बात आए तुम्हारा झुकाव उस तरफ क्यों होता है ? जबकि मैं भी तुम्हारी अच्छी दोस्त हूँ और मेरे लिए तुम दोस्त से कहीं ज्यादा हो और जब वो ऑफिस टेबल पर चुस्कियाँ भरते हुए तुम ने उसके बालों पर से वो तिनका तिरछी मुस्कान और दबे होंठो में कुछ बुदबुदाते हुए निकाला था ,मैं वहीं थी अरूण ,तुमने ध्यान ही नहीं दिया था शायद कि मेरी आँखों में नमी तैर गयी थी शायद मेरे प्रेम में वो अगन वो ताप नहीं जो तुम्हारे प्रेम के उछाह को आलिंगन में भर कर इक मुकाम तक ला सके । 
आग और दरिया को अगर करीब लाए तो शायद जिन्दगी थम जाएगी जिसमें सब बुझ चुका होगा न प्रेम होगा न चाह न साथ रहने की ललक ।
इतना सब सोचते हुये भारी कदमों से चल कर ऑटो पकड़ कर वो घर आ चुकी थी 
और अरूण मस्त मलंग हवा की तरह अपने ही विचारों में बेफिक्री का धुआँ उड़ाता हुआ अपने घर आकर  चंचल मन के अनुरूप अपनी दुनियाँ में रूमानियाँ सजाने में लगा था 
दोनों का स्वभाव एकदम अलग था । अरूण बेफिक्र बिना किसी बंधन जिन्दगी को अपने मुताबिक जीने वाला इन्सान था और सुजाता जिन्दगी को बंधन में रख कर ख्वाहिशों को उड़ान देने वाली लड़की । दोनों का साथ वैसे तो मिसमैच था पर कहीं न कहीं विचारों के किसी एक स्तर पर वो एकमत होते थे। 

आज मन बहुत बैचेन था सुजाता से रहा नहीं गया उसने अरूण को फोन घुमाया "हैलो सुनो अच्छा बिना किसी बंधन के तुम कब तक साथ चलोगे। सारिका हो सकता है कहीं स्वतंत्र विचारों और मानसिक धरातल पर तुम्हारे सापेक्ष हो तो क्या मेरी पारम्परिक बुद्धि पर तरस खाकर तुम मुझसे अलग हो सकते हो 

"अरे यार मैं तुम्हें कोई दुख नहीं देना चाहता इसलिए मैं ऐसा कुछ नहीं कहता जो मुझे बंधन महसूस कराये और तुमको किसी एहसास में बाँधे और तुम जानती हो मुझे रिश्तों में जुड़ाव में सवाल जबाब पर सख्त ऐतराज है । " अरूण ने कहते हुए एक गहरी साँस ली 
सुजाता चुप्पी साध गयी एक मिनट की चुप्पी के बाद उसने बाॅय बोल कर फोन कट कर दिया । 
ऐसा नहीं कि सुजाता के लिए इस तरह का मानसिक धरातल सहज था इस पर चलने के लिए उसको सारी वैचारिक विषमताऐं स्वीकारने का साहस चाहिए था 
और साथ ही प्रेम की उपलब्धता महसूस कराने वाले उस हर अवगुण को दूर करना था जिसमें सवाल जबाब अधिकार इन्तजार और समर्पण जैसी माँग हो पर उसका दिल इसको प्रेम या जुड़ाव मानने को तैयार नहीं था । और अगर जुड़ाव था भी तो वो एकतरफा सिर्फ सुजाता की ओर से ।
अगले दिन ऑफिस में सुजाता कुछ खामोश ही रही शायद वो अरूण के दिल में अपनी जगह को लेकर परेशान थी बिना प्रेम को स्वीकारे वो कब तक उसके साथ रहेगा जैसे ही कोई दूसरा उसको आकर्षित करेगा या सारिका उसकी ओर बढ़ेगी हो सकता है वो बिना कुछ कहे चला जाये क्यों कि सवालों से उसे परहेज है उथलपुथल भरी मानसिकता लिए वो काॅफी मशीन की ओर बढ़ रही थी कि सामने से आ रहे हितेन से वो टकरा गयी 
अरे साॅरी आपको लगा तो नहीं "हितेन ने हड़बड़ाते हुए पूछा , "नहीं नहीं गलती मेरी ही थी मेरा ध्यान पता नहीं किस ओर था" अचकचाकर सुजाता ने जबाब दिया "तो मोहतरमा किसी उलझन में हैं मतलब ।कोई नहीं होता है अक्सर हम जिस उलझन से बाहर आना नहीं चाहते उसी की उधेड़बुन में लगे रहते हैं ,ख्याल रखिए अपना" जिस बेफिक्री से हितेन ने ये कहा सुजाता उसका मुँह ताकने लगी 
"आप से सलाह कब माँगी और मैं कोई बच्ची तो नहीं जो ख्याल न रख सकूँ आपको मेरी परवाह करने की जरूरत नहीं " गुस्से से भर कर उसने हितेन को जबाब दिया और बिना कुछ सुने काॅफी लेकर अपनी टेबल की ओर बढ़ गयी । 
हितेन पर उसकी इस बात से बिल्कुल फर्क नहीं पड़ा वो जिन्दगी को व्यवहारिक तौर पर समझ कर जीने का आदी था पर उसको सुजाता की उलझन जानने की कुछ बैचेनी हुई । अपनी टेबल तक जाते हुये उसने दो बार पलट कर सुजाता की ओर देखा वो खामोशी से बस अपने ऑफिस वर्क को निपटाने में लगी थी पर देख कर लग रहा था कि उसकी आँखें कुछ तलाश रही हैं अपने हिस्से का सच जानने को बेताब लगी वो हितेन अभी ऑफिस में नया था इसलिए स्टाफ मेम्बर्स से ज्यादा घुलमिल नहीं पाया था सुजाता उसको भीड़ में कुछ अलग सी दिखी ।

उसके साधारण सलवार सूट को उसकी ओढ़नी के रंग आकर्षक बनाते थे और उसकी देहयाष्टि को उसकी खूबसूरत बङी बङी बोलती आँखें व उसके होंठों की थिरकन।वो चुपचाप काॅफी का मग हाथ में लिए सुजाता को ही देख रहा था मानो पढ़ने की कोशिश कर रहा हो अपने सामने खुली कोई खूबसूरत पहेली की किताब जिस में उलझ कर भी वो अपने अंदर एक खिंचाव महसूस कर रहा था जिसमें उसे डूबने की प्रगाढ़ इच्छा हो रही थी पर एकदम से ज्यादा करीबियत दिखाना उसको बहुत दूर भी कर सकता था इस डर से कि कहीं सुजाता की नजरों में उसकी छवि एक लम्पट व्यक्ति की न हो जाए वो उससे नजरें हटाकर चुपचाप अपनी फाइल्स में कुछ खोजने लग गया 
लगभज रोज का यही उपक्रम था अरूण और सुजाता साथ ही ऑफिस आते पर अब सुजाता कुछ चुप रहने लगी थी और अरूण को शायद उसका अपने साथ होना ही बस एक जरूरत जैसा लगता था वो ज्यादा संजीदा होना नहीं चाहता था उसके लिए ऐसी बातों में उलझना खुद को परेशान करने जैसा था 
अब एक फर्क जरूर आया था अब ऑफिस की लिफ्ट पकङने का हितेन का भी समय यही हो गया था जो अरूण और सुजाता का । 
“हैलो अरूण , मैं आपका ही सहकर्मी हू हितेन शायद अभी तक आपने मुझ पर गौर नहीं किया “ हैलो सुजाता जी – हितेन ने बात की शुरूआत करने के लिए कहा 
हैलो हितेन ,अरे नहीं दरअसल बात करने का मौका नहीं मिल पाया आपसे हमारी यूनिट्स भी अलग हैं ना पर अब मुलाकात और बात होती रहेगी।“ अरूण ने कहा 
सुजाता जी आप बोलने के बजाय मुस्कुराकर ही काम चला लेती हैं क्या ? हितेन के ऐसा कहते ही सारिका व अरूण भी हँस पङे 
हाँ ये औरों के साथ बहुत कंजूस है पर मेरे व्यक्तित्व को विस्तार देने वाली मेरी अचछी दोस्त सिर्फ यही है “ अरूण ने जबाब दिया 
अरूण के दोस्त कहते ही जैसे सुजाता का चेहरा फिर मुरझा गया और हितेन जो उसको ही पढ़ने की कोशिश कर रहा था पहेली का मर्म समझ गया 
सुजाता और अरूण के बीच व्यस्तताओं और चुप्पियों के चलते दूरियाँ बढ़ रहीं थी और हितेन के अत्यधिक बातूनी होने से सुजाता हितेन के साथ सहज होने लगी थी ।दिन भर की उदासी में जो भी हँसी की झलक सुजाता के चेहरे पर दिखती थी वो बस हितेन की वजह से । 
लिफ्ट में साथ आते जाते अब सुजाता हितेन के साथ सीढ़ियाँ उतरने में भी गुरेज़ न करती अरूण की बेफिक्री में खलल पड़ना शुरू तब हुआ जब लिफ्ट का वेट करते करते सुजाता हितेन के साथ सीढ़ियाँ उतरने लगी।शायद पहली बार अरूण को लगा कि वो पीछे छूट गया है।
सारी रात इसी उपापोह में काट अगली सुबह लगभग दौड़ते हुए वो सुजाता के बराबर आया जो लाल रंग के बंधेज ओढ़नी और सफेट सूट में हल्के मेकअप में सुबह की किरणों की लालिमा की तरह निखरी हुई सी थी आज अरूण को वो बहुत प्यारी लगी उसकी बड़ी बड़ी आँखों में खिंची काजल की रेखा उसे आकर्षित कर रही थी 
“बदल रही हो तुम” , उसने हाथ पकड़ कर रोक लिया सुजाता को “बोलो ना अब वो चुलबुलापन क्यों नहीं मिलता मुझे जिसमें हम दोनों बच्चों की तरह एक दूसरे के पीछे भागते थे । वो मुस्कुराहट वो शोखी जैसे मुझे देखते ही छिप जाती है” 
बताओ न सुजाता , क्या तुम्हें नहीं लगता तुम दूर जा रही हो मुझसे।महसूस होता है मुझे , तुम्हारी बातों में एक अपरिचित सी गंध है जैसे किसी और हवा ने छू लिया हो तुम्हारे दुपट्टे को जैसे किसी और का साथ तुम्हें सहज मुस्कान देता है । तुम्हारा बदलना मुझे असहज करता है । बोलो न कुछ मुझे लग रहा है जैसे मेरे हाथों से सब छूट रहा है मेरी हथेलियों पर किसी ने गरम कोयला रख दिया है मेरे हाथ में तुम्हारे नाम की लकीर मुझे जला रही है मैं महसूस कर रहा हूँ वो जलन जो तुमने कहा था कि प्रेम का एक निष्पाप और स्वीकार्य अवगुण है। सुजाता , मुझे संभाल लो ये आग मुझे जला देगी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं मैं अपने ही बनाये नियमों को पार कर तुम्हारे आगे लज्जित हो जाऊँ पर मैं कमजोर हूँ तुम्हारे प्रेम में हूँ 
इतना कहकर अरूण वहीं अपने घुटनों पर बैठ उसके हाथ को पकड़ अपने होंठों की छुअन और आँसुओं से तर करने लगा। सुजाता स्तब्ध थी और अचम्भित भी। सुजाता भी वहीं अपने घुटनों पर बैठ गयी और अब उसका दूसरा हाथ अरूण के कांधे पर था ।