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विवाह एक बंधन

'सुनत हो बहुरिया !!! किशन दद्दा के छोरे ने ,,,,,अअअअऊ का कहत हैं .....हाँ लब्ब मैरिज कर लई , हैंएए बड़े बनत रहे अपन को ...हाथ अही नहीं रखन देत हते कोई मोड़ी वालन को ..अब लेओ अब का करिहो जब चिड़िया चुग गई खेत ।अब होय चुकी सेवा जा बुढ़ापा मा , अब दिखिओ कुछ ही दिनन मा बा शहर की मोड़ी अलग होय जये... ऐसे ब्याह टिकत नाहीं " दयावती चाची ने घर के अंदर पाँव रखते ही अपनी सहमति के ठप्पे के संग लाई हुई बहू को आवाज लगाते ही आज की ताजा खबर सुनाई । बहू जिसके सिर पर रिश्तों को टिकाए रहने की जिम्मेवारी उतनी ही तगड़ी थी जितनी सिर से पल्लू ना सरकने देने की, चुपचाप सुन रही थी और सोच रही थी ; क्या प्रेम विवाह करने से दायित्व निर्वहन में कमी आ जाती है या स्वतंत्रता स्वतः ही प्राप्त हो जाती है ?? आखिर फर्क क्या है ? ? विवाह तो विवाह है सिर्फ सोच और पसंद के तरीके अलग हैं .....

प्रेम विवाह या सामान्य (परम्परागत विवाह ) दोनों ही आपसी सहमति और सामंजस्य पर निर्भर करते हैं । यह कहना कि प्रेम विवाह क्यूंकि अपनी पसंदगी पर आधारित है तो दायित्व कम हो जाते हैं या परिवारों की सहमति पर आधारित विवाह में जिम्मेवारी बढ़ जाती है ऐसा मुझे नहीं लगता । दोनों विवाह में फर्क सिर्फ यह है कि शायद प्रेम विवाह में साथी के मिजाज़ और तौर तरीके स्पष्ट रूप से जाहिर हो जाते हैं और किस हद तक सामंजस्य बैठा कर अपनी जिंदगी को व्यवस्थित किया जा सकता है यह दोनों को पहले से ही अंदाजा होता है और पसंद नापसंद औपचारिक अनौपचारिक व्यवहारिकता सामाजिक परिवेश के साथ तारतम्य में निपुणता का भी एक अंदाजा होता है और दोनों साथी अपने परिवारों को भी अपने साथी के आचार विचार से अवगत कराते हैं जिससे परिवारों की अपेक्षाऐं भी उतनी ही सीमित रह सकें जितना कर सकने में साथी सक्षम है । और जहाँ विचारों में तारतम्य सही रूप से स्थापित नहीं हो पाता वहीं से समाज की बनाई इस सुदृड़ संस्था के अंगों में विघटन शुरू होता है।बल्कि आजकल प्रेम विवाह ही ज्यादातर प्रचलन में है और ऐसे विवाह में अगर परिवारों की खुशी और सहमति भी शामिल हो तो शायद जीवन और आसान हो जाता है और परिवार का साथ हमेशा से खुशियों को बढ़ाने वाली #डेयरी मिल्क चाॅकलेट सा होता है ।

इसी तरह परम्परागत शादी में परिवारीजनों का एक दबाव रहता है बच्चों पर और इन शादियों में विघटन प्रायः कम देखने को मिलता है दायित्व निर्वाह करना दोंनो पक्षों की जिम्मेवारी होती है और शुरू से ही परिवार का साथ और हौंसला मिलने से वैमनस्यता नहीं उत्पन्न होती वैचारिक मेल सहयोग भावना और परस्पर प्रेम सहानुभूति का संगम होना इस विवाह बंधन में निहायत जरूरी है ।

अपवाद हर जगह होते हैं अब अगर आधुनिक सोच से ग्रसित होकर बच्चे परिवार से दूर भागें या आपसीवैचारिक संतुलन में कमी हो तो इसके लिए विवाह संस्था नहीं स्वयं उनके विचारों की खोट है वैसे भी किसी रिश्ते को निभाना महीन सूत कातने के बराबर कठिन है और रिश्तों को एक झटके में तोड़ देना किसी कमजोर धागे को तोड़ने के बराबर आसान । तो हो सके तो पहले इन कमजोर पड़ रहे रिश्तों को प्रेम , विश्वास और सहयोग की घुट्टी देकर मजबूत करें और पुनरावलोकन कर सहमति या असहमति दर्ज करें।

प्रेम विवाह या परम्परागत विवाह में जिम्मेदारियों का एक मूल फर्क यह है कि प्रेमी युगल को अपनी छवि के प्रति संवेदनशील रहना होता है और समाज और परिवार में सामान्य रूप से शामिल होने के लिए अपने व्यवहार और कर्तव्य वहन के मापदण्डों पर खरा उतर कर जगह बनानी पड़ती है जो सामान्य से कुछ कठिन काम है ।

कई बार अपने व्यक्तिगत अनुभव में मैंने देखा है कि आज परिवेश में स्वतः ही समयानुरूप इतना बदलाव है कि समझदार माता पिता अपने बच्चों के इस कृत्य के लिए मानसिक रूप से तैयार रहते हैं और प्रेम विवाह को स्वीकार कर बच्चों के साथ एक सकारात्मक व्यवहार करते हैं और इससे युगल की खुशियों में इजाफ़ा होता है और ऐसे ही कई सामान्य विवाह में जो कमजोर पक्ष होता है वो खुद को सामाजिक बेड़ियों में और भी ज्यादा जकड़ा महसूस करता है और चाह कर भी सामान्य मानसिकता के विरूद्ध जा नहीं पाता ।कई बार साथी के आचार विचार पसंद ना होने से शिकायतें जिंदगी से बढ़ जाती हैं दूसरों का खुलापन सहज रूप और जिंदगी जीने की कला देख कर भी मन उचाट होते देखे हैं मैंने।पर वहाँ भी खोट इस विवाह संस्था को नहीं अपितु साथी की सहृदय भावना में , समझ में कमी की वजह ही कारण होते हैं ।

तो जरूरी और अहम् बात यही है कि अगर समर्पण सहयोग और सूझ बूझ और एक दूसरेकी इच्छाओं का सम्मान कर साथ जीवन व्यतीत किया जाए तो विवाह किसी भी रीति से हो कोई भी रस्म अदा की गई हो या किसी भी बंधन से मुक्त हो या जकड़ा हो; दो जनों के , दो परिवारों के सामाजिक मेल में व्यवधान नहीं बनने पाता वरन् आपसी सूझ बूझ से हमेशा हर समस्या के हल का एक रास्ता खुला ही रहता है । विवाह का तात्पर्य ही है प्रेम पर आधारित जीवन । प्रेम दो मिनट में होने वाला शारिरिक आकर्षण हो तब तो ऐसे विवाह को राम ही राखे ।परन्तु विवाह में दो व्यक्तियों के साथ बिताए पलों की समझ और विचारों के आदान प्रदान और साथ के अनुभव भी शामिल हो तो वैवाहिक जीवन की नींव गहरी पड़ती है और जीवन भर का साथ टिकाऊ और उत्तम श्रेणी का होता है ।

विवाह की सफलता का सूत्र यही है कि हो सके तो बिगड़ी बात को बनाया जाए प्रेम विवाह हो या परम्परागत विवाह दोनों ही सदा के लिए अस्तित्व में रहने वाले हैं क्यूँ कि प्रेम पथ पर चल पड़ना आज के आधुनिक समाज का एक रंग है पर आज भी कुछ बच्चे अपने परिवार के अनुरूप ही ढलना पसंद करते हैं ऐसा नहीं कि वो आधुनिकता से अछूते हैं वरन् उनकी अपनी प्राथमिकताऐं कुछ अलग और उनके लिए सर्वोपरि होती हैं । मुझे दोनों ही अपनी जगह ठीक दिखते हैं बस एक पुख्ता और लम्बा साथ हो जहाँ

"नाराजगी को कभी पैर पसारने की छूट हो तो कभी पैर समेटने की भी गुंजाइश हो ...."

जैसा कि रहीम जी ने कहा है ....

बिगरी बात बने नहीं , लाख करो किन कोय ।

रहिमश फाटे दूध को , मथे ना माखन होय ।।

विवाह के हर स्वरूप का हृदय से स्वागत है ।

(नोट- यह लेखिका के स्वतंत्र निजी विचार हैं हर राय पर सभी एक मत हों ऐसा कोई जरूरी नहीं । साभार धन्यवाद । )

.....pranjali.....