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बीटिंग, ईटिंग, डम्पिंग ऐंड डिसएन्फ़्रेंचाइज़िंग

बीटिंग, ईटिंग, डम्पिंग ऐंड डिसएन्फ़्रेंचाइज़िंग
हमारे देश की चुनाव प्रक्रिया विश्व की किसी भी फ़्राडियर-संस्था के लिये ज्ञानवर्धक सिद्ध हो सकती है. हम चुनाव में शुचिता की बात करते हैं, परंतु टिकट बांटते समय निर्लज्जता से ‘विनिंग इज़ गेटिंग’ का फ़ार्मूला अपनाकर बाहुबलियों और धनपशुओं को टिकट देते हैं. हम चुनाव में जाति-धर्म का उपयोग न करने की कसम खाते हैं, परंतु टिकट आवंटन,प्रचार-प्रसार और वोट डलवाने की रणनीति जाति-धर्म के आधार पर ही बनाते हैं. हम चुनाव में 15 लाख खर्च करने का शपथ पत्र देते हैं और 150 लाख खर्च करते हैं, और फिर उस 150 लाख की भरपाई हेतु 250 कुकर्म करते हैं. इन सामान्य फ़्राडियरी के कार्यों के अतिरिक्त हम और बहुत कुछ करते हैं, जिसके वैयक्तिक अनुभव प्रस्तुत कर रहा हूं.

अ. बीटिंग बिफ़ोर वोटिंग

वर्ष 1967 के चुनाव के समय श्री चंद्रभानु गुप्ता कांग्रेस के मुख्य मंत्री थे. मुझ (सेनानायक, 23वीं पी. ए. सी., मुरादाबाद) को मुज़फ़्फ़रनगर एस. पी. की सहायता हेतु वहां भेजा गया था. उन्होंने मुझे पर्याप्त पी. ए. सी. के साथ शामली विधान सभा क्षेत्र में यह सुनिश्चित करने हेतु तैनात किया था कि जाट लोग अनुसूचित जाति के लोगों को वोट डालने से रोक न पायें. उन दिनों अनुसूचित जाति के लोग समान्यतः कांग्रेस को वोट देते थे और जाट लोग चौधरी चरन सिंह की पार्टी (जहां तक मुझे याद है- संयुक्त विधायक दल) को वोट देते थे. मैने शामली में मीटिंग की और सभी थानाध्यक्षों को स्पष्ट निर्देश दिया कि वोटिंग के दिन सभी वोटरों को पूर्ण सुरक्षा दें. जाटों को जब मेरे निर्देशों का पता चला तो उन्होंने वोटिंग के एक दिन पहले ही रात्रि के अंधेरे में जहां कोई इक्का-दुक्का दलित दिखा, वहीं बिना किसी कारण के उसके दो-चार लाठी जड़क दीं. रात्रि को खेतों में शौच हेतु जाने वाली महिलायें उनकी आसान शिकार हुईं. सभी जाट बाहुल्य गांवों में आतंक का माहौल व्याप्त हो गया. ऐसे में अनेक गांवों में वोटिंग के दौरान दलित अपने घर से बाहर नहीं निकल रहे थे. इसकी सूचना मुझे मिली, तो मैं एक ट्रक पी. ए. सी. अपने साथ लेकर ऐसे ही एक गांव पहुंचा और सीधे दलितों के मोहल्ले में जाकर उन्हें समझाया कि आप लोग वोट डालने चलें. आप की सुरक्षा के लिये मैं और मेरी पी. ए. सी. आप के आगे पैदल चलेंगे. पहले कुछ युवक और फिर अन्य दलित उठे और हमारे पीछे चल दिये. पोलिंग स्टेशन पहुंचने से पहले रास्ते में एक जाट का मकान पड़ा. वह अपने मकान के लम्बे-चौड़े चबूतरे पर चारपाई पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. उसने पहले मुझे और पी. ए. सी. को तिरस्कार भरी निगाह से देखा; फिर हमारे पीछे आते दलितों की ओर भ्रूकुटि तानकर कुछ देर तक देखता रहा. मुझे अपने पीछे कुछ हलचल महसूस हुई और मैने पीछे मुड़कर देखा तो दलित लोग टिड्डीदल की तरह पीछे भागते नज़र आये. मैं पी. ए. सी. के साथ दलितों के मोहल्ले को वापस हो लिया. वहां पहुंचकर उन्हें फिर समझाया कि जब मैं इतनी पी. ए. सी. के साथ उनके साथ हूं, तो उन्हें डरने की कोई बात नहीं है. तब उनमे से एक बुज़ुर्ग बोला कि आज तो मैं उनके साथ हूं, पर कल कौन बचायेगा; फिर उन लोगों की आजीविका भी तो जाटों के खेतों में काम करने पर ही निर्भर है.

मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं था. मैं मान गया कि हमारे देश में ‘बीटिंग बिफ़ोर वोटिंग’ भी चुनावी रणनीति का एक कारगर हथियार है.

ब. ईटिंग बिफ़ोर वोटिंग

लगभग 40 वर्ष पूर्व मेरे एक रिश्तेदार ब्लाक प्रमुख के चुनाव में खड़े हुए थे. उन दिनो ब्लाक प्रमुख को सम्बंधित ब्लाक के प्रधान ही चुना करते थे, जिनकी संख्या 60-70 के आस-पास होती थी. गांठ से पक्के लोग, जो अधिकांश प्रधानो को मैनेज कर सकते थे, ही ब्लाक प्रमुख का चुनाव लड़ा करते थे. मेरे रिश्तेदार के लिये भी 50-60 की संख्या मैनेजेबिल थी. सभी उम्मीदवार अपने-अपने ढंग से प्रधानो को मैनेजकरते थे, पर उन्होने जिस तरीके से प्रधानो को मैनेज कर चुनाव जीता था, वह किसी भी मैनेजमेंट-गुरु के लिये ज्ञानवर्धक हो सकता है. उन्होने चुनाव के दिन से 15 दिन पूर्व वैयक्तिक आमंत्रण देकर लगभग सभी प्रधानों को बुलाकर और अत्यंत प्रेमपूर्वक उनका स्वागत करके अपनी एक मिल के विशाल प्रांगण में रोक दिया था. मिल के कमरों में विश्राम हेतु गद्देदार पलंग और ठंडा करने वाले कूलर तो लगे ही थे, खाने के लिये हरेक के पसंदीदा भोजन के अतिरिक्त रबड़ी, मलाई, बालूशाही आदि प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे, पीने के लिये इच्छानुसार बीड़ी-सिगरेट, ठंडा-गरम,देशी-विदेशी उपलब्ध रहते थे और मनोरंजन के लिये रंगीन तस्वीरों वाली पत्रिकायें, ताश, चौपड़, टी. वी. आदि किसी चीज़ की कमी न थी. प्रधानों के घरवालों को कहला दिया गया था कि प्रधान मील में महमानी खा रहे हैं, हारी-बीमारी की कोई समस्या होने पर खबर कर दें, तुरंत प्रबंध किया जायेगा. मिल का गेट एहतियातन बंद करा दिया था, हालांकि इसकी कोई आवश्यकता न थी, क्योंकि प्रधानो के मन में एक ही भाव था - ‘मानूस हम सैयाद से ऐसे हो गये, कि रिहाई मिलेगी तो किधर जायेंगे’.

वोट पड़ने वाले दिन के एक दिन पहले दो लक्ज़री बसों में सभी प्रधानों को तीर्थाटन के लिये हरिद्वार ले जाया गया. गंगा जी में स्नान करते समय सबसे अपनी हथेलियों में गंगाजल भरने को कहा गया और शपथ दिलाई गई कि गत 15 दिन में जिसका नमक खाया है, वोट उसी को देंगे. फिर रात्रिभोज के उपरांत हरिद्वार से बसों को चलाकर प्रातःकाल सीधे पोलिंग बूथ पर लाया गया (जिससे वोट डालने से पहले प्रधानों का कहीं विपक्षियों से सम्पर्क न हो जाये).

वोटिंग में भारतीय परम्परा पर कायम रहते हुए प्रधानों ने नमक का हक़ अदा किया. मेरे रिश्तेदार थम्पिंग-मैजौरिटी से जीते और ठाठ से पांच वर्ष तक बड़े जनप्रिय ब्लाक-प्रमुख रहे और बाद में उन्होने प्रदेश के प्रधान संगठन के अध्यक्ष का पद भी गौर्वान्वित किया.

स. डम्पिंग

“चाचा जी! आप ने आइबे मैं देर कर दई है. हियां तौ दुसरी पार्टी वाले ने डम्पिंग सुरू कराय दई है और कोई उनै रोकऊ नाईं रहो है.”- मैं वर्ष 2005 की एक प्रातः पंचायत चुनाव में वोट डालने लखनऊ से अपने गांव मानीकोठी, जनपद औरैया को चला था और 11 बजे पूर्वान्ह में वहां पहुंच गया था. मेरे पहुंचते ही मेरे भाईसाहब की पुत्रवधु कमलेश दुबे ने निराशा के भाव में अपनी चिंता प्रकट की थी.

उस दिन मेरे गांव में ग्राम पंचायत का चुनाव था और कमलेश दुबे प्रधान पद की उम्मीदवार थी. उसका विशेष आग्रह था कि मैं वोटिंग के प्रारम्भ होने तक अवश्य पहुंच जाऊं. उसने मुझे यह भी बताया था कि मेरा नाम गांव की वोटर-लिस्ट में है और मुझे वोट डालना है. यह सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ था क्योंकि वर्षों से मानीकोठी मेरा सामान्य निवास नहीं था और मैने वहां किसी से मेरा नाम वोटर-लिस्ट में डलवाने को कहा भी नहीं था. फिर मैं समझ गया था कि किसी दूरदृष्टि रखने वाले ग्रामीण ने मेरा नाम वोटर-लिस्ट में डलवा दिया होगा. वोट डालने का अवसर मिलने की जानकारी पर मुझे कुछ-कुछ अनियमितता होने का आभास हुआ था परंतु प्रसन्नता भी हुई थी क्योंकि पूरी पुलिस सेवा के दौरान मुझे एक ही बार वोट डालने का अवसर मिला था. मेरे स्थानांतरण इतनी द्रुत-आवृत्ति से होते थे कि स्वयं को पता ही नहीं चल पाता था कि मेरा नाम कहीं वोटर-लिस्ट में आया है या नहीं. और यदि पता चल भी जाता, तो क्या फ़ायदा था क्योंकि चुनाव के दौरान पुलिस वाले को वोट डालने जाना तो क्या हार्ट-अटैक लाना भी अक्षम्य अपराध माना जाता है.

मैने चुनाव के सम्बंध में डम्पिंग शब्द उस दिन से पहले कभी नहीं सुना था. अतः गांव वालों के अंग्रेज़ी के शब्दों को अपनी इच्छानुसार उच्चारित करने और अपनी सुविधानुसार अर्थ लगाने के कौशल का ध्यान आने पर मन ही मन मुस्कराया था. मुझे याद आया कि एक दिन जब मेरा मोबाइल काम नहीं कर रहा था तो जनपद अम्बेडकरनगर का रहनेवाला मेरा ड्राइवर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ बोला था, “साहब, बाद में मिला लीजिएगा. अभी नटवर नहीं है.” यह सुनकर मैं उसके भाषा-विज्ञान का लोहा मान गया था क्योंकि मुझे लगा था कि नेटवर्क के लिये उच्चारण और अर्थ दोनो की दृष्टि से ‘नटवर’ से अधिक उपयुक्त कोई शब्द हो ही नहीं सकता है.

मैं कमलेश द्वारा बोले गये ‘डम्पिंग’ शब्द से यह निःसंदेह समझ गया था कि वोट डालने में धांधली की जा रही है. अतः उसकी बात सुनकर मैने अपने साथ आये गनर से कहा कि वह पोलिंग स्टेशन पर जाकर देखे कि क्या हो रहा है. गनर को आते हुए देखकर डम्पिंग कराने वाले कमलेश के विरोधी खेमे के लोग वहां से खिसक लिये थे. नहाने-धोने और नाश्ता करने के बाद लगभग दो बजे जब मैं अपना वोट डालने वहां पहुंचा, तब वहां शांति थी और डम्पिंग अथवा अन्य कोई फ़्राडियरी होती नज़र नहीं आ रही थी. मैं अपना वोट डालकर चला आया.

बाद में जब चुनाव का नतीजा कमलेश के पक्ष में आया और वह काफ़ी वोटों से जीती थी, तब मैने उससे पूछा,

‘’तुम तो कह रही थीं कि तुम्हारे विपक्षी डम्पिंग करा रहे हैं, पर तुम तो अच्छे मार्जिन से जीती हो?”

इस प्रश्न पर वह कुछ बोली नहीं थी, बस मुस्करा दी थी. उस समय वहां गांव का एक लड़का भी उपस्थित था. शाम को मैं जब खेतों में टहलने निकला, तब वह लड़का मेरे साथ चल दिया, और गांव से कुछ दूर आ जाने पर हिचकिचाते हुए कहने लगा,

“आप न आय गये होते तो भाभी जीततीं थोरेंऊं.”

“क्यों?’’

“दूसरी पार्टी वालिन ने सबकौ धमकाय लओ हतो. फिर डम्पिंगचालू कर दई हती. आप के गनर को देख कें बे डर गये हते और हुआं सै खिसक लये हते.”

फिर मुझे विश्वास में लेने के अंदाज़ में अपनी आवाज़ धीमी कर आगे बताने लगा था,

“उनके जइबे के बाद हम लोगन ने झराझर डम्पिंग सुरू कर दई हती. जाई सै तौ भाभी इतने ज़्यादा बोटन से जीतीं हैं.”

उसकी बात कहने की शैली पर मुझे हंसी आ रही थी, जिसे नियंत्रित करते हुए मैं बोला था, “लेकिन डम्पिंग होती कैसे है?”

तब मेरी अज्ञानता पर आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए उसने मुझे समझाया था,

“जो उम्मीदवार जबर होत है, बू पहलें तौ पोलिंग-पार्टी कौ पटाय लेत है और ना पटै तौ धमकाय देत है. फिर बा की भीड़ पोलिंग बूथ पै कब्जा कर लेत है. फिर एक आदमी रजिस्टर में बोटरन की फ़र्ज़ी हाज़िरी लगात जात है और दुसरो बोट पै ठप्पा लगाय कें बक्सा में डारत जात है. दो-तीन घंटा में पूरो खेल खतम हुइ जात है. बाद में जब असली बोटर आत है, तब बा सै कह दई जात है कि घरै जाव, तुम्हाओ बोट तौ पड़ गओ.”

द. डिसएन्फ़्रैंचाइज़िंग

कमलेश के चुनाव के समय अनियमितता से प्राप्त वोटिंग के अधिकार का उपयोग करने पर मेरे मन में थोड़ा सा ग्लानिभाव घर कर गया था. यह भाव वर्ष 2007 में उस समय मेरे मन से पूर्णतः तिरोहित हो गया, जब मैं प्रादेशिक चुनाव में वोट डालने गोमतीनगर, लखनऊ में पोलिंग स्टेशन गया था. वहां पीठासीन अधिकारी ने मुझे यह कहकर अचम्भित कर दिया था कि वोटर-लिस्ट में मेरा नाम नहीं है. मेरे यह कहने पर कि पिछले चुनाव में तो मैने यहीं वोट डाला था, उसने उत्तर दिया था कि उसे नहीं मालूम कि मेरा नाम वोटर-लिस्ट से क्यों काट दिया गया है परंतु वह इस सम्बंध में कुछ कर सकने में असमर्थ है. मेरे साथ वोट डालने गये भंडारी साहब का नाम भी वोटर-लिस्ट से नदारद था. जब हम अपना सा मुंह लेकर वापस आ रहे थे, तब भंडारी साहब कहने लगे थे कि उन्हें पहले से ही इसका शक था. मेरे द्वारा प्रश्नवाचक भाव से देखे जाने पर वह बोले थे कि तमाम लोग कहते हैं कि इस बार वोटर-लिस्टपुनरीक्षण के काम में ऐसे जातिभक्त कर्मचारी लगाये गये थे जो यथासम्भव उन वोटरों के नाम काट दें, जिनका वोट सत्ताधारी दल को मिलना संदिग्ध है. उन कर्मचारियों ने अपनी जातिभक्ति के कारण मुझ जैसे सहस्रों संदिग्धों को उस चुनाव में डिसएन्फ़्रैंचाइज़ कर दिया था.

अगले चुनाव से पहले मुझे अपने को पुनः एनफ़्रेंचाइज़ कराने में बड़े पापड़ बेलने पड़े थे.