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राम की जल-समाधि

राम की जल-समाधि

‘अच्छा हुआ तुम आ गये। नहीं तो पता नहीं किस युग में मुझे शांति मिलती’- धीर गम्भीर वाणी सुन मैं सोते सोते चैंक पड़ा था। प्रश्नकर्ता को देखे बिना अर्धसुषुप्तावस्था में ही मेरे मुख से अनायास निकल गया था, ‘‘पर तुम हो कोन?’’ माघ माह की कृष्ण पक्ष की अमावस्या की रात्रि में सरयू किनारे लेटे हुए मेरे रोंगटे खड़े हो रहे थे।

विसंगति एवं विवाद के विलोकन एवं वर्णन में अपनी नैसर्गिक रुचि होने के कारण पिछले कई दिनों से मन में इच्छा हो रही थी कि अयोध्या जाकर राम-चरित के विवादित पहलुओं का अध्ययन कर कुछ लिखा जावे। मेरी यह भी इच्छा थी कि इन वषयों पर किसी नामी महात्मा का साक्षात्कार मिल जाये, जिससे लेख में अधिक प्रमाणिकता आ सके। पर मैं जानता था कि यह सुलभ नहीं है क्योंकि जनमानस की आस्था के अनुसार राम-चरित किसी भी प्रकार की विसंगति से परे है और अयोध्यावासी किसी महात्मा से इस विषय में कुछ भी कहलवा पाना सिंह को घास खिला पाने के समान कठिन होगा। उस दिन प्रातः नौ बजे बस से चलकर दोपहर होते होते मैं अयोध्या पहुंच गया था। यद्यपि उस दिन शरीर के अंग अंग में ठिठुरन पैदा करने वाली शीत वायु बह रही थी, तथापि आकाश निर्मल होने के कारण सूर्य की धूप में गर्मी थी, जो शरीर एवं मन दोनों को प्रफुल्लित एवं उत्साहित कर रही थीं।

हनुमानगढ़ी की ऊंची ऊंची सीढ़ियां चढ़ते समय मुझे अपने बगल में एक साधुवेशधारिणी सौम्यस्वरूपा वृद्धा दिखाई दी थीं, जो एक एक सीढ़ी बड़ी कठिनाई से चढ़ पा रही थीं। उन्हें देखकर मेरे मन में सहानुभूति से अधिक श्रद्धा का भाव जाग्रत हुआ था और मैने उनके सहायतार्थ अपना हाथ बढ़ा दिया था जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। शनैः शनैः मंदिर में ऊपर पहुंचकर उन वृद्धा ने बड़े भक्तिभाव से हनुमान जी के समक्ष आंख मूंदकर हाथ जोड़ कर पूजा की थी। इस बीच मैं उस विशालकाय मंदिर के चारों ओर घूमकर ऊंचाई से दिखने वाली अयोध्यानगरी का दर्शन लाभ प्राप्त कर रहा था। ऊंचाई- चाहे पर्वत की हो, कोट की हो अथवा मंदिर की- से दिखने वाली नगरी, घाटी अथवा नदी सदैव मेरे मन में आलोड़न उत्पन्न करती रही है। आज यहां से मंदिरों की अनवरत श्रंखला देखकर मन ऐसे उत्फुल्लित हो रहा था जैसे कोई चित्रकार अपनी तूलिका से मेरे मन को मंदिरमय कर रहा हो। बीच बीच में मैं उन वृद्धा साध्वी की ओर कनखी से देखता भी जाता था क्योंकि उन्होंने मुझे बता रखा था कि वह हनुमानगढ़ी में दर्शन के उपरांत कनकभवन, सीता रसेाइया, एवं राम जन्मभूमि के दर्शन भी करेंगी। मैने तभी सोच लिया था कि मैं आज उनके साथ ही मंदिरों में दर्शन करूंगा और उपयुक्त अवसर पाकर राम-चरित के विवादित पहलुओं पर बोलने को उन्हें उकसाता रहूंगा।

हनुमानगढ़ी से उंगली पकड़कर उन्हें उतारते समय मैने उन्हें राम-सीता के विषय में कुछ बोलने हेतु उकसाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘माता जी! आप की तो हनुमान जी में अपार श्रद्धा है। यह बताइये कि हनुमान जी का प्रेम एवं श्रद्धा राम में अधिक था अथवा सीता में?’’ उन्होंने यह उत्तर देकर मुझे निरुत्तर कर दिया,‘‘बेटा! श्रद्धा एवं प्रेम की गहराई की कोई थाह नहीं होती है, जितना डूबते जाओ, उतने ही सराबोर होते जाओगे।’’

जब हम कनकभवन पहुंचे, उस समय वहां होने वाले रामचरितमानस के पाठ के अतिरिक्त शांति थी और वहां का वातावरण राममय हो रहा था। वहां से लौटते समय मैने साध्वी से पूछा, ‘‘माताजी यह बताइये कि कैकेयी को प्रसन्न करने हेतु दशरथ ने राम को वनवास देकर क्या राम के साथ अन्याय नहीं किया?’’ साध्वी प्रतिप्रश्न करते हुए बोलीं, ‘‘दिये हुए वचन के पालन हेतु दशरथ के पास इस त्याग के अतिरिक्त क्या कोई विकल्प उपलब्ध था? ’’

सीतारसोई का भवन दुर्दशा को प्राप्त हो रहा था जिसे देखकर साध्वी का मन मुझे कुछ खट्टा हो गया सा लगा था, अतः मैने साध्वी से पूछा, ‘‘सीता रसोई में कितने दिन सीता जी को भोजन बनाने का अवसर मिला होगा? विवाहोपरांत राम के साथ वनवास पर चली गईं थीं, एवं चैदह वर्ष के अंतराल पर अयोध्या लौटने पर राम ने वनवास दे दिया था। फिर राम द्वारा अयोध्या वापसी के आग्रह पर अपनी ग्लानि को सह पाने की असमर्थता के कारण सीता वन में हीं धरती माँ की गोद में समाहित हो गईं थीं।’’ इस पर साध्वी गम्भीर हो गई थीं एवं उनकी आंखों में एक अव्यक्त पीड़ा उभर आई थी। मुझे लगा कि सम्भवतः मैने उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। वह गम्भीर होकर बोलीं थीं, ‘‘यद्यपि इस प्रकरण में यह राम-सीता की ईश्वरीय लीला थी, तथापि पुरुष की स्वेच्छाचारिता को बिना किसी पीरवाद के सहन करते रहना तो स्त्री की नियति है। पुरुषों द्वारा निर्धारित सामाजिक व्यवस्था में स्त्री के पास और विकल्प ही क्या हैं? यदि धोबी की कटूक्ति पर राम द्वारा सीता को वन न भेजा गया होता, तो पता नहीं पुरुष समाज उनका रामत्व स्वीकार करता भी अथवा नहीं?’’ यह कहकर साध्वी ऐसी चुप हो गई थी कि जैसे अनचाहे घोर पाप हो जाने से कोई मौनव्रत धारण कर ले। फिर वह अकस्मात पूछ बैठी थीं, “तुमने गुप्तारघाट के दर्शन किये हैं?” मेरे ‘नहीं’ कहने पर वह बोली थीं, “अवश्य जाना”.

आगे सर्वशक्तिमान माने जाने वाले रामलला को लोहे की सलाखों में पी. ए. सी. की सुरक्षा में कैद देखकर अनेक प्रश्न मन में उठे थे परंतु साध्वी से पूछने का साहस न कर सका था। यद्यपि साध्वी से विदा लेते लेते सूर्य ढलने लगा था और गुप्तारघाट, जहां राम ने जलसमाधि ली थी, वहां से पांच मील दूर था, तथापि मैं अपने को गुप्तारघाट देखे बिना वापस जाने को राजी़ नहीं कर पा रहा था। मुझे सदैव राम द्वारा जलसमाधि लेना राम-चरित का सबसे रहस्यपूर्ण पहलू लगा है। मर्यादापुरुषोत्तम राम, जिनका हृदय इतना दृढ़ था कि युद्ध मे विजयी होने पर जब सीता मिलीं तो समस्त मनुष्य, वानर एवं देवता के समक्ष उनकी अग्निपरीक्षा ली और फिर एक धोबी के व्यंग्य मात्र पर उन्हें वन में छुड़वा दिया, को इस आत्मघात की आवश्यकता क्यों पड़ गई? इस रहस्य का आकर्षण मुझे गुप्तारघाट खींचे ले जा रहा था। मैने एक रिक्शावाले को आवाज़ देकर गुप्तारघाट की ओर चलने को कहा था। अयोध्यानगरी पार करने के पश्चात जब कैंट क्षेत्र आ गया तो रिक्शेवाले ने यह कहकर मुझे उतार दिया था कि आगे कैंट क्षेत्र मे रिक्शा ले जाने की अनुमति नहीं है। मैं लगभग दौड़ता सा गुप्तारघाट को चल दिया और सूर्यास्त होते होते कैंट एवं कम्पनी गार्डेन पारकर गुप्तारघाट पहुंच गया था। वहां सरयू नदी के विशाल फांट के किनारों का दृश्य ठगा सा देखता रह गया था। सरयू के इस पार राम का एक भव्य प्राचीन मंदिर था जिसके समक्ष सरयू की एक पतली सी धारा बह रही थी, और उसके पार दूर तक अनछुई कुंआरी सी रेत का मैदान था और फिर अविरल शांत बहती हुई सरयू की मुख्य धारा थी। मुख्य धारा के पार पुनः रेत का मैदान था जिसमें कहीं कहीं किसानों ने सब्ज़ियां, खरबूजे, तरबूज आदि बो रखे थे और सियारों, लोमड़ियों एवं कोहरे से उनकी रक्षा हेतु सरकंडे एवं अरहर की सूखी लकड़ियां कतारों में गाड़ रखीं थीं। उसके आगे दूर तक जंगली झाड़ियां दिखाई देतीं थीं और उनके पार लाल थाली सम डूबता सूरज। मैं इस दृश्य को जितना आत्मसात कर रहा था, उतना ही मंत्रमुग्ध होता जा रहा था। तभी किसी ने पीछे से कहा कि मंदिर के कपाट बंद होने जा रहे हैं, दर्शन करना हो तो कर लो। मैं पीछे मुड़कर मंदिर के लम्बे-चौड़े चबूतरे को पारकर अंदर चला गया। एक पुजारी को छोड़कर मंदिर सुनसान था एवं रखरखाव की कमी के कारण मंदिर का प्रांगण जीर्ण हो रहा था। संगमरमर की राम, सीता एवं लक्ष्मण की मूर्तियां सजीव लग रहीं थीं। मैं कुछ देर तक राम की मूर्ति में जड़ित आंखों को देखता रहा था और मेरे मन को प्रतीत हुआ कि जैसे वे बोलती सी आखें मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर देने को उद्यत सी हो रही हैं।

म्ंदिर के समक्ष बहती सरयू की पतली धारा में एक नाव खड़ी हुई थी जो मुझे नौका विहार के लिये आकर्षित कर रही थी। अतः मंदिर से निकलकर मैं नाव में बैठ गया और नाविक से कहा कि सरयू पार ले चलो। नाविक बोला, ‘‘सरयू पार तो ले चल सकता हूं क्योंकि मुझे उधर रात में खेतों की रखवाली करनी है, परंतु अब रात में वापस नहीं आऊंगा। अतः आप न चलें, क्योंकि उघर ही रह जायेंगे।’’ मैं गुप्तारघाट के आकर्षण से इतना अभिभूत हो चुका था कि हर परिस्थिति में वहां सरयू विहार करना चाहता था। अतः मैने नाविक से कहा, ‘‘उधर रुकने हेतु कुछ तो होगा ही?’’ नाविक खीसें निपोरता हुआ बोला था, ‘‘और तो कुछ नहीं है; हां मेरी मड़ैया ज़रूर है।’’ मेरे मुंह से यह सुनकर कि मैं उसी में रुक लूंगा, वह अवाक रह गया था। फिर मेरे मुख पर निश्चयी भाव देखकर उसने नाव का चप्पू चलाना प्रारम्भ कर दिया था। नाव मंथर गति से सरयू के दूसरे किनारे को चल दी थी। चारों ओर अंधकार घिर आया था और हृदय की गहराई में समा जाने वाला सन्नाटा था। बस नाव के चप्पू की घ्वनि एक लय ताल के साथ उस सन्नाटे केा चीर जाती थी। मेरा घ्यान उस स्थान विशेष को जानने को केंद्रित था जहां राम ने जल-समाधि ली होगी। नाव जब बीच धारा में पहुंचने लगी, तो मैने नाविक से पूछा कि वह स्थान बता सकते हो जहां राम ने जल-समाधि ली थी? नाविक से सम्भवतः यह प्रश्न मेरे से पहले भी अनेक तीर्थयात्री पूछ चुके होंगे, अतः उसने अपने चेहरे पर बिना कोई भाव लाये उत्तर दिया था,‘‘यह तो किसी को मालूम नहीं है; सरजू मैया हर साल बरसात में अपनी धारा बदल देतीं हैं और पिछले वर्ष के तमाम चिन्ह अपने साथ बहा ले जातीं हैं।’’

सरयू के पार पहुंचने पर नाविक ने अपनी नाव किनारे पर बांध दी थी और मुझे अपने खेत में पड़ी सरपत की मड़ैया में ले गया था। उसने वहां रखे आलू भूने और धनिया-नमक-मिर्च की चटनी बनाकर मुझे दिये एवं स्वयं खाये थे। खाने के पश्चात वह अपने खेत की रखवाली को चला गया था और मैं वहां पड़ी पुआल पर लेट गया था। दिन भर की थकान के कारण लेटते ही मेरी आंख लग गई थी। सोते में किसी समय मुझे वह धीर गम्भीर ध्वनि सुनाई दी थी और मेरे प्रश्न के उत्तर में प्रत्युत्तर मिला था, ‘‘मैं वही अभागा राम हूं जिसकी जल-समाधि का रहस्य जानने एवं संसार में उजागर करने को तुम बेचैन हो।’’

‘‘परंतु इसमें दुर्भाग्य की क्या बात है? आप ने अपने सांसारिक कर्तव्यों की इतिश्री हो जाने पर ईश्वरीय रूप में वापस जाने हेतु स्वेच्छा से जल-समाधि ली होगी.’’

अब उस ध्वनि में गाम्भीर्य के स्थान पर विद्रूप भर रहा था,‘‘क्या कहते हो- ईश्वरीय रूप? सत्य तो यह है कि मै अपने कतिपय आचरणों के कारण स्वयं को सामान्य पुरुष की श्रेणी में भी रखने में लज्जा का अनुभव करता हूं। पुरुष की अधोप्रवृत्ति स्वार्थी, अन्यायी एवं दम्भी होती है और मैंने बारम्बार उसी के अनुरूप आचरण किया था। पुरुषों के संसार ने पुरुष वर्चस्व की स्थापना के निहित उद्देश्य से मेरे उन्हीं आचरणों के कारण मुझे ईश्वरत्व प्रदान कर दिया है।’’

इसके पश्चात कुछ क्षणों के लिये वह ध्वनि शांत हो गई थी और मैं अभी तक सुने शब्दों को आत्मसात करता रहा था। फिर कातर भाव में डूबकर वही ध्वनि पुनः गूंजने लगी थी, ‘‘त्रेता युग से आज तक घुट घुट कर मैं पुरुष संसार के इस छल को जीता आया हूं कि मैं मर्यादा-पुरुषोत्तम हूं। मेरे वक्ष पर रखा यह बोझ असह्य हो रहा है। जगभर्त्सना के भय से आज तक मैं इसे चुपचाप सह रहा था परंतु आज तुम्हारे माध्यम से मैं अपनी जल-समाधि का कारण जगउजागर कर चिरशांति प्राप्त करना चाहता हूं। सीता स्वयम्वर के समय सीता का रूप मेरे मनमानस में बस गया था जबकि मेरी आत्मा सीता के मनमानस में बस गई थी। जब मुझे चैदह वर्ष का वनवास मिला तो किसी प्रकार का आगापीछा सोचे बिना सीता उसी प्रकार से मेरे साथ चल दी थीं जैसे आत्मा के साथ जीवंत शरीर। यद्यपि प्रत्यक्षतः मैने सीता को साथ चलने को रोका था, परंतु तथ्य यह है कि सीता के मेरे साथ चल देने पर मेरे अंतर्तम में सुख प्राप्ति की आशा उत्पन्न हुई थी एवं मेरे पुरुष-अहम की तुष्टि भी हुई थी। दुरूह वन प्रदेश में सीता अपने समस्त कष्ट भुलाकर निशिदिन यह सुनिश्चित करने में व्यस्त रहतीं थीं कि मैं किसी प्रकार के रोग, क्लेश, कष्ट से मुक्त रहूं। चित्रकूट जाते समय ब्रह्मवारी ग्राम में मैं गम्भीर रूप से ज्वरग्रस्त हो गया था और तीन दिन तक मूर्छित भी रहा था। मूर्छा टूटने पर लक्ष्मण ने मुझे बताया था कि इन तीन दिनों में सीता ने अन्न का एक दाना तक ग्रहण नहीं किया था। यह सुनकर मेरे नेत्रों में अश्रु छलछला आये थे, परंतु उसका कारण सीता के त्याग के अतिरिक्त सीता के मन पर अपने वर्चस्व की स्थापना का संज्ञान होना भी था। सीता का मेरे प्रति प्रेम में यह सम्पूर्ण समर्पण भी मुझे मेरे स्व से ऊपर न उठा सका था। अरण्य में मैने अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने में अपने को इतना व्यस्त कर लिया था कि राक्षसों से सीता की समुचित सुरक्षा-व्यवस्था भी नहीं की थी। सीता-हरण के उपरांत जब हनुमान को उनकी खोज खबर लेने लंका भेजा था, तो हनुमान के सक्षम होते हुए भी उन्हें सीता को वापस लाने का आदेश ही नहीं दिया था- मुझे तो स्वयं को पापी राक्षसों के संहारक के रूप में स्थापित कर ईश्वर का अवतार होने की ख्याति अर्जित करनी थी। लंकेश से युद्ध में विजयी होने के पश्चात युद्धभूमि में सीता के आने पर मैने देवों, दैत्यों, वानरों, आदि के सामने अपने को मर्यादापुरुषोत्तम सिद्ध करने के लालच में ही तो सीता की अग्नि-परीक्षा का निर्देश दे डाला था। हाय रे मेरा पुरुष-अहम, मेरी संकुचित सोच एवं मेरा पाषाणवत हृदय कि अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात भी मैने धोबी द्वारा अपनी पत्नी के प्रति कही हुई कटूक्ति मात्र पर सीता को वन में छुड़वा दिया था। सीता द्वारा लज्जावश धरती माता की गोद में समाहित हो जाने के पश्चात भी मुझे तभी उनके त्याग, प्रेम एवं समर्पण की स्मृति हुई थी, जब मैं वृद्ध, अशक्त एवं पराश्रित होने लगा था।

इस प्रकार जब मैं अपने यश की पराकाष्ठा पर पहुंचा था, तब मेरा मन सबसे अधिक अकेला, दुखी एवं पश्चात्ताप से भरा हुआ हो गया था- सीता के प्रति जीवनपर्यंत किये गये अन्याय की एक एक घटना मेरे मन को ऐसे कचोटती रहती थी कि मुझे न तो दिन को चैन मिलता था और न रात्रि को निद्रा आती थी। मै किसी के समक्ष अपना हृदय खोलकर रो भी तो नहीं सकता था- ऐसा करने से मेरे ईश्वरत्व पर प्रश्नचिन्ह जो लग जाता? एक रात्रि जब मेरे मन का झंझावात असह्य हो गया था तो मैं चुपचाप सरयू किनारे इस एकांत स्थान पर चला आया था और चिरशांति की आशा में हरहर करती सरयू का धारा में प्रविष्ट हो गया था। परंतु पुरुषों ने मेरी जल-समाधि के ऐसे अलौकिक कारण गढ़ डाले कि घर घर में लोग मुझे और अधिक पूजने लगे; जिससे मुझे अपने द्वारा किया गया अन्याय और अधिक सालता रहा है। मैं अब इस आत्मग्लानि से मुक्ति पाने को व्याकुल हूं।’’

इसके पश्चात वह ध्वनि शांत हो गई थी और मुझे प्रतीत हुआ था कि मेरे साथ मंदिरों का भ्रमण करने वाली साध्वी के वेश में स्वयं सीता जी मेरे समक्ष उपथित हो गईं हैं एवं उनके नेत्र अश्रुपूरित हो रहे हैं.

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