Vo 72 Ghante books and stories free download online pdf in Hindi

वो 72 घंटे

वे बहत्तर घण्टे

गुजरात भीषण अकाल से पीड़ित था। हाहाकार मचा हुआ था। इन्सानों की जो दुर्दशा थी सो तो थी ही पशु-पक्षी और जानवर भी बेमौत मर रहे थे। फसलें सूख चुकी थीं। खेत दरक गये थे। इन्सानों के लिये अनाज की व्यवस्थाएं तो सरकार कर रही थी। सरकार के पास अनाज के भण्डार थे लेकिन जानवर विशेष रुप से गाय-भैंस आदि बेमौत मर रहे थे। कहीं भी चारा-भूसा दाना-पानी नहीं बचा था। इन्सानों को अपनी जान के लाले पड़े थे वे पशुओं के लिये चाहकर भी कुछ कर सकने में असमर्थ थे। केन्द्र सरकार ने गुजरात में चारा और भूसा भेजने के लिये रेल्वे की सुविधा निशुल्क कर दी थी। पूरे देश में लोग गुजरात की दुर्दशा को देख और समझ रहे थे। मदद भी कर रहे थे। लेकिन समस्या थी कि वहां के पशुधन के जीवन की रक्षा किस प्रकार की जाए।

मैंने सोचा- मेरा नगर संस्कारधानी कहलाता है। मेरे पितामह स्वर्गीय सेठ गोविन्ददास जी ने गौ रक्षा के लिये आन्दोलन किये। इस प्रयास में उनके तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु से भी कुछ मतभेद हो गए थे। मुझे भी गुजरात में अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही गायों के लिये कुछ करना चाहिए। मैंने निश्चय किया कि मैं एक रैक भरकर भूसा गुजरात भिजवाउंगा और इस प्रकार भिजवाउंगा कि और लोगों की संवेदनाएं इस दिशा में जागृत हों और वे भी इस दिशा में प्रयास करें। सबसे पहले मैं अपने काकाजी सेठ बालकृष्ण दास जी मालपाणी के पास गया और मैंने उन्हें अपना संकल्प बतलाया। वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना आशीर्वाद देते हुए कहा कि ईश्वर करे तुम इस प्रयास में पूरी तरह सफल रहो। मेरा जो भी सहयोग तुम्हें चाहिए तुम ले सकते हो।

काकाजी का आशीर्वाद मिलने के बाद मैं सबसे पहले अपने लायन्स इण्डिया के मित्रों के पास गया और उनसे इस विषय पर चर्चा की। वे सभी इस कार्य में सहयोग देने के लिये तैयार हो गये। उसी दिन शाम को इस कार्य के लिये कार्य योजना पर विचार करने सभी एकत्र हुए। पहला विचार यह बना कि भूसा क्रय करके यहां से भिजवाया जाए। पता नहीं कौन सी ईश्वरीय प्रेरणा के कारण मैंने कहा कि भूसा क्रय करके नहीं वरन लोगों से सहयोग के रुप में प्राप्त करके भिजवाया जाए। मेरी बात से सभी लोग सहमत तो हो गए परन्तु इस कार्य का दायित्व भी मुझे ही सौंप दिया गया।

वहां से लौटकर मैं विचार करता रहा कि भूसा किस क्षेत्र से संग्रहित किया जाए। हमारे क्षेत्र में शहपुरा और पाटन क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां हमारे परिवार की खेती की जमीनें हैं जिन पर खेती होती है। यह बहुत उपजाऊ क्षेत्र है और यहां से आवश्यक मात्रा में भूसा प्राप्त हो सकता है। वहां के क्षेत्रीय विधायक ठाकुर सोबरन सिंह मेरे मित्र थे। वहां के किसानों से भी हमारे पारिवारिक संबंध थे। यह विचार आने के बाद दूसरे दिन सुबह ही मैं ठाकुर सोबरन सिंह से फोन पर बात करके उनके पास पहुँच गया।

मेरी सारी बातें सुनकर वे बोले कि आपका विचार तो बहुत अच्छा है। गौरक्षा तो हमारा कर्तव्य है। मैं आपको विचार करके जल्दी ही उत्तर दूंगा। मैं उनके पास से चला आया। मुझे लगा कि वे इस कार्य से बच रहे हैं। वहां से आकर मैं अन्य विकल्पों पर विचार करने लगा। इस बीच दो-तीन दिन का समय बिना किसी प्रगति के बीत गया। अचानक तीसरे दिन सोबरन सिंह जी का फोन आया। वे बोले-

आप मेरे पास जिस कार्य के लिये आये थे उसके विषय में आगे आपने क्या किया ? आप केवल बात ही करने आये थे या कुछ करना भी चाहते हैं ?

आपने कहा था कि आप विचार करके बतलाएंगे। मैं आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था।

मैं तो हमेशा आपके साथ हूँ। बतलाइये आगे मुझे क्या करना है और आप क्या कर रहे हैं?

इसकी योजना तो आपके साथ बैठकर ही बनाना है। लायन्स इण्डिया परिवार में इस विषय पर चर्चा हुई थी। वहां सभी लोग सहयोग कर रहे हैं। हमें जनसहयोग से भूसा एकत्र कर उसे भेजना है। भूसे की ढुलाई और लदाई में होने वाला सारा व्यय लायन्स इण्डिया परिवार की ओर से वहन किया जाएगा।

आप समय निकालकर आ जाइये तो हम काम प्रारम्भ कर दें। तब तक मैं यहां के अन्य किसानों आदि से भी इस विषय पर चर्चा कर लेता हूँ।

अगली मुलाकात में यह तय हो गया कि गरमी का मौसम देखते हुए दिन में संपर्क करना संभव नहीं हो पाएगा। इसलिये रात के समय हम किसानों से संपर्क करेंगे। यह काम अगले दस दिन में पूरा करना था। इसलिये उसी दिन शाम से काम प्रारम्भ कर दिया गया। मैंने जब यह बात अपने चचेरे भाई श्रीकृष्ण मालपाणी को बतलाई तो उसने मुझे अपनी जीप देते हुए कहा कि इसके लिये आप इस जीप का प्रयोग कीजिये। गांव में आप अपनी कार से सब जगह संपर्क नहीं कर पाएंगे।

संध्याकाल में मैं सोबरन सिंह जी के यहां शहपुरा पहुँच गया। वे पूरा रुट मैप तैयार कर चुके थे। उसमें उन्होंने संपर्क के लिये गांवों का क्रम, किसानों के नाम और मोबाइल नम्बर आदि लिख कर तैयार कर लिये थे। उन्होंने यह भी अनुमान लगा लिया था कि कहां कितना भूसा प्राप्त हो सकेगा। मैं जब पहुँचा तो उनकी यह तैयारी देख कर मेरा उत्साह दुगना हो गया। उनके इस कार्यक्रम में मैंने केवल इतना ही परिवर्तन किया कि कार्य का श्रीगणेश अपने गांव मनकेड़ी से किया।

मनकेड़ी में जब हम लोगों ने वहां के किसानों से बात की तो वे न केवल सहयोग के लिये तैयार थे वरन सहयोग करते हुए उनके मनों में जो प्रसन्नता थी वह उनके चेहरे और उनकी बातचीत में भी झलक रही थी। इसने हमारे उत्साह को और भी अधिक बढ़ा दिया। हम एक के बाद दूसरे गांव जाकर संपर्क करने लगे। गौ माता की रक्षा के लिये सहयोग देने हर आदमी तैयार था और जिसमें जितना सामर्थ्य था वह उससे बढ़कर सहयोग कर रहा था। हम जहां भी गये हमारी बात सुनने के बाद कई गांवों में तो लोगों ने हमारा तिलक किया और मालाएं पहनाकर हमारा सम्मान किया। ऐसा कोई गांव नहीं रहा जहां बिना खाये पिये हमें गांव से जाने दिया गया हो।

कुछ गांव वालों ने हमें सुझाव दिया कि आप वहां से उन गायों को यहां बुला लीजिये हम उनकी पूरी सेवा करेंगे और जब वहां स्थिति ठीक हो जाएगी तो उन गायों को वहां वापिस भिजवा देंगे। लोगों के उत्साह और समर्पण की भावना को देखते हुए यह सुझाव बहुत महत्वपूर्ण था किन्तु यह व्यवहारिक नहीं था। इसीलिये इसे स्वीकार करना संभव नहीं था।

इस कार्य में मेरी जीप में तो मैं और सोबरन सिंह जी व उनका एक साथी ही रहता था किन्तु कुछ और ग्राम वासी भी अपनी गाड़ियों पर हमारे साथ इस कार्य में लग चुके थे। परिणाम यह था कि हमारा तीन-चार गाड़ियों का जत्था लगातार काम में लगा रहता था।

एक दिन आधी रात को जब हमारा यह जत्था एक गांव में बिना किसी पूर्व सूचना के पहुँचा तो दूर से ही गाड़ियों के जत्थे को आते देख कर गांव वाले समझे कि डाकू आ रहे हैं। हम लोग जब तक गांव पहुँचे और हमारी गाड़ियां बखरी के सामने जाकर खड़ी हुईं तब तक वे लोग छतों पर बन्दूकें तान कर पोजीशन ले चुके थे और किसी भी क्षण फायर करने के लिये तैयार थे। मैं तो इस माजरे को समझ ही नहीं सका किन्तु सोबरन सिंह जी समझ चुके थे। उन्होंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही जोर की आवाज लगाई और उन्हें कहा कि मैं ठाकुर सोबरन सिंह हूँ। ठाकुर साहब से मिलने आया हूँ। सन्नाटे में उनकी आवाज गूंज उठी। उन्होंने जब यही आवाज दुबारा लगाई तो एक आदमी हमारे पास आया और यह निश्चय हो जाने के बाद कि डाकू नहीं हैं उसने आवाज लगाकर बाकी सब को सूचित किया तब जाकर हम अपनी गाड़ियों से उतर सके।

हम जब भीतर पहुँचे और हमने अपने आने का कारण उन्हें समझाया तो वे बड़े प्रसन्न हुए। ठाकुर साहब वहां के प्रतिष्ठित किसान थे। हमारी बात सुनकर उन्होंने तत्काल कह दिया कि मेरी कोठी में जो भूसा पड़ा है आप जितना चाहें ले लीजिये। जब हमने उन्हें बतलाया कि इसे भेड़ाघाट स्टेषन पर पहुँचाना है तो उन्होंने हमसे कहा कि आप निश्चिन्त रहिए। यह सारा भूसा समय पर वहां पहुँचा दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि अब आपको इस गांव में किसी और से संपर्क करने की आवश्यकता नहीं है। मैं सब से बात कर लूंगा और जो जितना सहयोग देना चाहेगा वह वहां उतना भूसा पहुंचा देगा। इस गांव में अब आप अपना समय खर्च मत कीजिये।

उनके आश्वासन के बाद जब हम वहां से चलने लगे तो उन्होंने हमें नहीं जाने दिया। आधी रात को उन्होंने खाना बनवाया हमारे लाख मना करने बाद भी उन्होंने खाना खिलाया, तिलक लगाया, माला पहनाई और विदाई देने के बाद ही हमें वहां से जाने दिया। उस दिन वहां इतना समय हो गया था कि हमें जिन दो गांवों में और उसी रात जाना था वहां नहीं जा सके। हमें वहां अगले दिन जाना पड़ा।

एक दिन तो गजब हो गया। हमारा जत्था एक गांव में पहुँचा तो एक बुजुर्ग जिनके सोबरन सिंह जी से पारिवारिक और आत्मीय संबंध थे उन्होंने सोबरन सिंह जी से कहा- तुम ये किस चक्कर में फंस गये हो। बाबू साहब तुम्हें गौ रक्षा के नाम पर गांव-गांव घुमा रहे हैं और अपने पैर जमा रहे हैं। आगे चलकर वे विधान सभा की टिकिट ले आएंगे और तुम्हारी टिकिट कटवा देंगे। उस समय तुम उनका विरोध भी नहीं कर पाओगे। राजनीति से तुम्हारा पत्ता साफ हो जाएगा। तुम अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की बेवकूफी कर रहे हो। तुम्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आ रही है और तुम अपने को राजनीतिज्ञ समझते हो।

उनकी बात सुनकर सोबरन सिंह एक बारगी तो सोच में पड़ गए फिर संभल कर विनम्रता से उनसे बोले- अगर बाबू साहब को टिकिट पाना होता और राजनीति में आना होता तो उनकी और उनके परिवार की राजनीति में इतनी पैठ है कि वे कब की टिकिट ले कर मैदान में कूद चुके होते। मैं इन्हें जानता हूँ। रही बात पैर जमाने की तो उसके लिये उन्हें मेरे सहारे की जरुरत नहीं है। उनके पैर पहले से ही इतने जमे हुए हैं कि वे टिकिट लेकर इस क्षेत्र में आसानी से फतह पा सकते हैं।

ये जो भूसा इकट्ठा किया जा रहा है इसके भेजने की क्या व्यवस्था है और इस बात की क्या गारण्टी है कि इसका दुरूपयोग नहीं होगा ?

उनका प्रश्न सुनकर सोबरन सिंह जी मेरी ओर देखने लगे। मैंने उन्हें बतलाया-

सरकार ने बिना किसी भाड़े के रेल द्वारा इस भूसे को गुजरात भेजने की व्यवस्था की है। वहां गायों को अलग-अलग स्थानों पर एकत्र किया गया है। यह भूसा राजकोट भेजा जाना है। वहां के सांसद डा. वल्लभ भाई कठीरिया इसे प्राप्त करेंगे और फिर उनकी देखरेख में यह भूसा गायों तक पहुँचेगा। जिससे गायों को भोजन मिल सके और उनकी जीवन रक्षा हो सकेगी। इसका पूरा प्रबंध किया जा चुका है। रेल्वे ने एक रैक भी एलाट कर दिया है जो आज से दसवें दिन भेड़ाघाट स्टेशन पर लग जाएगा और ग्यारहवें दिन रवाना हो जाएगा। उसे व्ही. आई. पी. ट्रीटमेण्ट दिया जाएगा और वह सीधा राजकोट पहुँचेगा। इसके लिये रेल्वे ने प्लेटफार्म साफ कर दिया है जहाँ यह भूसा एकत्र किया जा रहा है।

बाबू साहब आप चिन्ता मत कीजिये। मैं इस कार्य में आपकी सहायता करुंगा। मैं प्रतिदिन सुबह भेड़ाघाट स्टेशन जाऊंगा और वहां की व्यवस्थाएं संभाल लूंगा। इससे आप का दिन का समय बचेगा जिसका आप दूसरी जगह उपयोग कर सकते हैं। वही बुजुर्ग बोले।

इसके बाद उन्होंने वहीं बैठे-बैठे दस बारह लोगों को फोन लगाकर बात की और ढेर से भूसे की व्यवस्था और कर दी। वे सुबह आठ बजे स्टेशन पर पहुँच जाते थे। भूसे को व्यवस्थित तरीके से रखवाने की व्यवस्था करते थे और उसका हिसाब रखते थे।

इस भूसा संग्रह में एक बात जो विशेष उल्लेखनीय है वह यह कि इस कार्य का हल्ला पूरे क्षेत्र में हो चुका था। इसका परिणाम यह रहा कि जहां कहीं भी हम लोग जाते लोग बड़े आदर और सम्मान के साथ हमारा स्वागत करने लगे। जिन होटलों या ढाबों आदि में हम चाय पीते या जलपान करते कोई भी हमसे पैसे लेने के लिये तैयार नहीं होता था। इस बात की जानकारी नगर के समाचार पत्रों को भी हो गई थी। उनके प्रतिनिधि भेड़ाघाट जाकर कार्य की प्रगति की जानकारी एकत्र करने लगे और उसे समाचार पत्रों के माध्यम से प्रचारित करने लगे। हम लोगों के भी साक्षात्कार लेकर प्रकाशित किये गये। यह भूसा संग्रह एक आन्दोलन का रुप ले चुका था जिसकी नियमित समीक्षा लोगों द्वारा और अखबारों द्वारा की जा रही थी।

भेड़ाघाट स्टेशन का पूरा प्लेटफार्म भूसे से भरा हुआ था। सात दिन बीत चुके थे। हम लोग संतुष्ट थे कि इतना भूसा एकत्र हो गया है कि एक रैक आसानी से भर जाएगा। हमें लग रहा था कि हमारा काम लगभग पूरा हो चुका है और अब केवल भूसे को रैक में भरकर भेजना ही बचा है। रेल्वे ने भी उत्साह पूर्वक सहयोग दिया था और रैक दसवें दिन की जगह नौवें दिन ही स्टेशन पर आकर खड़ा हो गया। उसमें अट्ठाइस बैगन थीं।

भूसा भरा जाने लगा। गांव वाले बड़ी संख्या में आकर इसमें सहयोग कर रहे थे। जब पूरा भूसा रैक में भरा जा चुका तो यह देखकर हमारे हाथ पैर ही फूल गये कि पूरा भूसा भरे जाने के बाद भी एक भी बैगन पूरी नहीं भरी थी। सभी मे आधा-अधूरा भूसा भरा था। बैगन के रवाना होने में मात्र बहत्तर घण्टे बाकी थे और पूरा रैक भरने के लिये उससे भी अधिक भूसा और चाहिए था जितना भरा जा चुका था। दस दिनों में हमने जितना भूसा एकत्र किया था उससे अधिक भूसा बहत्तर घण्टों में कैसे पाया जा सकेगा ?

मैं सोच रहा था कि हमारा उद्देश्य और कार्य कितना भी सकारात्मक हो पर हमें उसको पूरा करने का संकल्प लेने से पहले अच्छी तरह से इस बात पर विचार कर लेना चाहिए कि यह कार्य कैसे सफल होगा, कितने परिश्रम की आवष्यकता होगी, कितना समय लगेगा और आवष्यक साधन कैसे प्राप्त होंगे आदि....आदि... ।

हम भावनाओं में बहकर त्वरित निर्णय ले लेते हैं और कभी-कभी मुसीबत में भी फंस जाते हैं। हमें प्रतिष्ठा कार्य के सम्पन्न होने पर ही मिलती है। अधूरे कार्य रहने पर कारण चाहे जो भी हों हम हास्य के पात्र बन जाते हैं। हमारे मन में संकल्प था एवं प्रभु के प्रति पूर्ण विश्वास था। प्रसिद्धि की कोई तमन्ना नहीं थी। गौमाता की पीड़ा कम हो सके और उनके जीवन की रक्षा हो सके यही अभिलाषा हमारे मनों में थी। इसलिये भीतर ही भीतर हमें यह भी लग रहा था कि कार्य अवश्य पूर्ण होगा। किन्तु कैसे पूरा होगा यह समझ में नहीं आ रहा था।

रात के लगभग दस बजे का समय था। हम लोग चिन्ता में डूबे हुए प्लेटफार्म पर विचार कर रहे थे। कोई हल नहीं सूझ रहा था। तभी एक चमत्कार हुआ। एक किसान साइकिल पर पीछे एक बोरा भूसा भरकर लाया और उसने वह एक रैक में खाली कर दिया। उसके बाद वह हम लोगों के पास आया और उसने हम लोगों के पैर पड़े। वह इस कार्य के लिये हमें बधाई तो दे ही रहा था साथ ही उसके मन में बहुत थोड़ा सहयोग देने का संकोच भी था। हमने उससे चाय पीने का आग्रह किया किन्तु उसने उसे अस्वीकार कर दिया और वह हमें दुआएं देता हुआ वहां से चला गया। उसके कुछ ही देर बाद एक और बैलगाड़ी भरकर भूसा लेकर आई और फिर उसके बाद तो थोड़े-थोड़े अंतर से कोई बैलगाड़ी में भरकर भूसा लाता और भर जाता और कोई टैक्टर ट्राली में लाकर भूसा भर जाता। यह क्रम जो प्रारम्भ हुआ तो तब तक चलता रहा जब तक कि पूरा रैक भर नहीं गया।

जिस समय रेल्वे के कर्मचारी भूसे से भरी हुई बैगन को बंद करते तो पहले यह चैक करते थे कि कहीं कोई आदमी उस भूसे के भीतर तो दबा हुआ नहीं है। इस प्रक्रिया में एक बैगन के भीतर एक आदमी मिला। जब उससे पूछा गया कि तुम यहां भीतर कैसे हो तो वह बोला कि मैंने सोचा कि इसी गाड़ी में जाकर गुजरात घूम आउंगा।

अगले दिन प्रातः सात बजे यह विशेष रैक गुजरात के लिये रवाना हो गया। रवानगी के समय रेल्वे के सभी वरिष्ठ अधिकारी, लायन्स इण्डिया के पदाधिकारी व सदस्य, प्रतिष्ठित नागरिक, दानदाता, ग्रामवासी और पत्रकार आदि उपस्थित थे। डी. आर. एम. रेल्वे ने स्वयं हरी झण्डी दिखाकर उसे रवाना किया। रवानगी के पूर्व ड्राइवर और गार्ड हम लोगों से मिलने आये और उन्होंने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की कि उन्हें इस पावन कार्य को करने का सौभाग्य एवं दायित्व मिला है। उसी समय फोन पर काकाजी श्री बालकिशन दास जी मालपाणी ने हमें आशीर्वाद दिया और कहा कि आप लोगों ने एक बहुत अच्छा कार्य किया है।

रेल्वे स्टेशन से घर लौटते हुए मैं सोच रहा था-

सच्ची सफलता के लिये

आवश्यक है

मन में ईमानदारी

सच्चा मार्ग

क्रोध से बचाव

वाणी में मधुरता

सोच समझ कर निर्णय

ईश्वर पर भरोसा

और उसका निरन्तर स्मरण।

यदि यह हो

तो हर कदम पर सफलता

निश्चित है

और निश्चित है

सुख, समृद्धि, वैभव और आनन्द।

इस ट्रेन को बिना कहीं रोके सीधा राजकोट पहुँचाये जाने की व्यवस्था की गई थी। अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार यह ट्रेन राजकोट पहुँच गई। वहां सांसद डा. वल्लभ भाई कठीरिया ने उसका स्वागत किया और वह भूसा गायों तक पहुँचाने की व्यवस्था की। उनकी व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि कुछ ही घण्टों में वह चार सौ इक्क्यासी टन भूसा अपने गन्तव्य पर पहुँच गया। वहां के जिलाधीश ने फोन पर हम लोगों को भूसा प्राप्त होने की सूचना दी एवं उसके समुचित उपयोग से हमें अवगत कराया। उन्होंने यह भी कहा कि यदि आप लोग चाहें तो अपने किसी प्रतिनिधि को भेजकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं। यह आपके प्रदेश से प्राप्त हुआ पहला और महत्वपूर्ण योगदान है। इसके लिये हमारा राज्य आपका आभारी है।

अगले दिन हमें गुजरात के विधानसभा अध्यक्ष का संदेश प्राप्त हुआ। वे चाहते थे कि हम लोग वहां पहुँचें और हमारा सम्मान किया जाए। हम लोग विगत पन्द्रह दिनों में बहुत थक चुके थे अतः हमने विनम्रता पूर्वक उनके आमन्त्रण को अस्वीकार करते हुए सधन्यवाद क्षमा याचना की। एक दिन बाद नगर के गुजराती मण्डल ने डा. राजेश धीरावाणी के नेतृत्व में हम लोगों को एक समारोह में आमन्त्रित कर सम्मानित किया। इस प्रकार के और भी अनेक कार्यक्रम विभिन्न संस्थाओं ने किये किन्तु जो प्रसन्नता, जो आत्म संतोष, जो आनन्द और जो अनुभूति मुझे भूसे का रैक रवाना करते हुए हुई थी वैसी जीवन में फिर कभी नहीं हुई।