Apne Paraye books and stories free download online pdf in Hindi

अपने पराये

‛अपने पराये’

अपने पराये कहानी का परिवार रिश्तों की उस परिस्थितियों में उलझा है जिस परिस्थितियों के बारे में उसे ज़रा भी खबर नहीं। तराजू में झूलता परिवार। माँ-पिता एक पक्ष है तो बेटी एक पक्ष हैं।

कहानी पढ़े और आनंद लें।

बाहर तेज बारिश का शोर, दरवाजे से राधिका भीतर आती है। दरवाजा दो सीढियों के ऊपर बना है। दरावजे के बाईं ओर कुछ दूरी पर एक कमरा है। हॉल में सोफा सेट, दो कुर्सियां, और दरवाजे से सटकर जूते चप्पलों की छोटी अलमारी है। दाईं ओर कुछ दूरी पर रसोई घर है।

"भीग गई मालूम होती है।" माँ ने हॉल में आते हुए कहा। "जा कपड़े बदल ले" भीतर जाते हुए।

राधिका कपड़े बदल कर आती है। बारिश अब भी तेज है। एक तौलिये से बालों को सुखाने का प्रयास करती है। भीतर से माँ का प्रवेश।

"क्या कहने लगा राजेश" माँ व्यस्तता में बोली।

राधिका एक क्षण माँ को देखती रही।

"एक नेक इंसान है" राधिका ने कहा।

"देखा है समाज ने कितना नेक..." गुस्सा होते हुए "और कितना भोला-भाला हैं।

"उस लड़की ने राजेश को..." माँ के घूरकर देखने पर कहते-कहते रुक जाती है।

"हा मासूम बच्चा है न, उसे तो कुछ खबर ही नहीं होगी वो क्या कर रहा हैं।" माँ ने व्यंग में कहा।

"माँ उन्हें..."

" ‛उन्हें’! अब ‛उन्हें’ हो गया वो" माँ ने घूरकर देखा।

"उसे इन सब में उलझाया गया था।" विनती भरे स्वर में बोली।

"तुम उलझ रहीं हो। और..बालों को तोलिये से लपेट लो गीले है।" माँ ने राधिका के बालों को छूतें हुए कहा।

"माँ सच कहती हूँ, उसका चरित्र साफ़ है।" राधिका ने कहा।

"तुम क्या जानो"

"आप कभी मेरी तरह क्यों नहीं सोचती।"

"अब में तेरी तरह सोचु" माँ भौएं ने चढ़ाते हुए कहा।

राधिका कुछ कदमों पर मौजूद कुर्सी का सहारा लेकर खड़ी हो गई।

"इस बात का प्रमाण क्या है माँ, कि हमारा चरित्र साफ़ है।" माँ की ओर देखे बिना बोली।

"उसके चरित्र में दाग़ नहीं इसका क्या प्रमाण।" माँ ने पूछा।

"माँ वो सालों पुरानी बात है।"

"और तेरा ज़बान लड़ाना कोई नई बात नहीं" माँ ने कहा। राधिका ने सिर झुका लिया।

दरावजे से पिता का प्रवेश। छाता बन्द कर रखते हुए।

"लगता है सारे बादल एक ही जगह बरस रहे हैं।" खामोशी को भांपते हुए "भीतर इतनी खामोशी क्यों।"

"आज फिर राजेश से मिल आई" माँ ने शिकायत की।

"मिल आने दो। मैं सत्तर का हो गया हूँ। फिर भी उसके साथ इसकी शादी तभी होगी जब मैं मरूँगा।"

"पापा.." राधिका चिल्लाई।

"सच ही तो कहा। तेरी ज़िद कभी पूरी नहीं होगी" माँ ने कहा।

"कौन सी ज़िद माँ" राधिका परेशान होती हुई बोली।

"वही जो तेरे दिल में हैं"

"कोई ज़िद नहीं है माँ..."

"मैं कुछ सुनना नहीं चाहती" माँ ने बीच में कहा।

राधिका तेज कदमों से चलते हुए कमरे में जाती है। कुछ क्षण माँ उस ओर देखती है।

"कैसे एक लड़की को धोखा दिया था उसने" पिता ने एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

"सरे-आम तमाशा हुआ था। पता नहीं तब से अब तक किस तरह जीती होगी। जी भी रही होगी या..." कहते-कहते रुकते है।

"होगी किसी हाल पर। ये अच्छा हुआ कि हमने ये मंज़र अपनी आंखों से नहीं देखा। मुझसे दो देखा ही नहीं जाता। वही गिर पड़ती चकराकर"

कहते हुए माँ भीतर जाती है। चाय के दो प्याले लेकर लौटती है। एक पिता को देती है।

"तेरे गुस्से से भी गर्म चाय है गुनगुन" माँ ने कमरे की ओर ऊंची आवाज़ में कहा।

भीतर से कोई स्वर नहीं आया। "आजा नहीं कहूंगी कुछ। तेरे पापा भी नहीं कहेंगे।"

"मैंने तो एक ही बात कही" पिता ने मासूमियत से कहा।

"चाय ठंडी हो चली...इलायची भी डाली है।" माँ ने फिर प्रयास किया।

"गुनगुन बेटा...।" माँ और पिता चिंतित दिखने लगे।

कमरे के नज़दीक पहुंचे। हल्की लकड़ी का दरवाजा। जिसपर कई बार हाथों की थांपे देने पर भी कोई फर्क नहीं हुआ। बेहद चिंतित हाथ, थांपों के भार को बढ़ाते जा रहे हैं। विलाप के लिए दो गले भर ही आने को थे कि भड़ाक की आवाज़ के साथ दरवाजा खुलता है। राधिका दोनों को दरवाजे के नज़दीक छोड़ टहलते हुए हॉल में आती है। माँ-पिता की नज़रे जैसे राधिका पर जम गई है।

"क्या।" राधिका कुर्सी की टेक लेकर चहकते हुए बोली।

"हमारे साथ खेल खेले जा रहे हैं" माँ ने पिता की ओर देखते हुए कहा।

"कोई खेल नहीं माँ..." एक ओर देखते हुए "बस..वर्तमान कुछ और भी हो सकता था।"

"तू हमें धमका रहीं है।" पिता ने आवेश में कहा।

"धमकी नहीं हैं। एक कड़वी प्रार्थना हैं।" राधिका गंभीर स्वर में बोली।

"तेरी ज़िद..."

"कौन सी ज़िद माँ तुमने तो ज़िद की रट ही लगा रखी हैं।"

"कि तू उस राजेश से शादी करना चाहती है।" पिता ने कहा।

"मैंने कब कहा पापा।"

"तू उससे मिलने जाती है..." माँ ने कहा।

"मिलने का अर्थ शादी नहीं है माँ।"

राधिका की उलझन समझते हुए माँ उसके नज़दीक आकर उसे कुर्सी पर बिठाती है।

"क्या चाहती है तू।" माँ ने प्यार से पूछा।

"आप लोग उससे मिलें। वो भी यहां, इस घर में।"

"ये कभी नहीं होगा।" पिता ने गुस्से में कहा।

"पापा मिलकर सारी गलतफहमियां दूर हो जाएगी।" राधिका विनती भरे स्वर में बोली।

"मिलाना है तो अपनी माँ से मिला।" भीतर जाते हुए पिता ने आवेश में कहा।

"किस बात का गुस्सा है इनमें।" राधिका ने कहा।

"तुझे सच में लगता है राजेश..." बीच में रुकती है।

"यहीं न कि वो..यह हक़ीकत हैं माँ उसने कुछ नहीं किया था।"

"तू नादान है" माँ ने प्यार से कहा।

"कौन नहीं है नादान माँ, तुम भी एक तरह की नादान हो जो पापा को कुछ कहती नहीं।"

"मेरे कहने न कहने से क्या हुआ।"

"तुम तो मिल सकती हो।" राधिका ने कहा।

"अब..." कहने में कठिनाई होती है "साथ मिलेंगे तो बेहतर होगा।" कहकर माँ भीतर जाती हैं।

राधिका सोफे पर बैठती हैं। सोफे की हाथ रखने वाली जगह पर रखे चाय के प्याले को देखती हैं। उठाकर एक सांस में सारी ठंडी चाय पी जाती हैं। भीतर की बैचेनी। भरा हुआ गला। दोनों हाथों से चेहरा छुपा लेती है। सब्र अचानक टूट पड़ता है। राधिका फूट-फूटकर रोने लगती है।

कुछ देर बाद भीतर से माँ का प्रवेश। राधिका ने खुदको संभाला।

"बाम लगा ले सिर दर्द से आराम मिलेगा।" बाम की शीशी देते हुए।

"आप लोग समझते क्यों नहीं..."

"हमें समझ है। जब छोटे गलतियों की ओर जाने को होते है तो हम बड़ों को उन्हें रोकना पड़ता हैं।" माँ ने कहा।

राधिका बाम की शीशी को देखती है।

"इतनी फिक्र है तो मुझे सुना क्यों नहीं जाता।"

राधिका शांत स्वर में बोली।

"क्योंकि डर है तेरी बात सुनकर कानों से खून न आ जाएं।" माँ ने परे देखते हुए कहा।

"इतनी धार नहीं है मेरी बातों में। और में किसी की जान नहीं मांग रहीं हूँ।" राधिका ने स्पष्ट किया।

"फिर भी। और शादी नहीं तो क्या।" माँ ने सवाल किया।

"उसके बारे में आप को जो गलतफहमी है..."

"बस इतनी सी बात, चल मानती हूं उसने कुछ नहीं किया।" माँ ने कहा।

"ये तो तुम बस कह रहीं हो।"

"तो और क्या करूँ गुनगुन।" माँ सिर पकड़ती हुई बोली।

"तुम मिलती क्यों नहीं उससे। वो आप लोगों से बात करेगा। समझाइश देगा और..."

"समझाइश! हम उम्रदराज जिन्हें कुछ समझ नहीं। कोई अनुभव नहीं, सही कहा न! और वो चौबीस-पच्चीस बरस का लड़का हमें समझाइश देगा।"

"माँ उस तरह नहीं कहा।" राधिका उठती हुई बोली।

"पता नहीं तेरा मतलब कब किस तरह होता है।" माँ भी उठती हैं।

"कैसे कह सकते हो आप उस इंसान का चरित्र खराब है। जब कि आप उससे मिले ही नहीं।" राधिका ने कहा।

"हमने सुना है।"

"देखा तो नहीं माँ।"

"तू हमें नीचा दिखाने पे क्यों तुली है। क्या कहेंगे लोग, किस तरह के इंसान के साथ हमारे रिश्ते है। बाहर भीड़ में हमें शर्मिंदा होना होगा।" माँ ने कहा।

"जैसे कोई युद्ध लड़ रहीं हूँ।"

राधिका परेशान होती हुई बोली।

"एक छोटी बात को आप इतना बड़ा बना रहे हैं जैसे..." एक पल खामोश रहती है "जैसे जीने और मरने की बात हो।"

"मैं भी यही कह रहीं हूँ। जब बात कोई है ही नहीं तो तू क्यों परेशान हैं।" माँ ने प्यार से सिर को सहलाते हुए कहा।

"लोग क्या कहेंगे। वाह! और मैं जो कह रहीं हूँ उसका कोई महत्व नहीं माँ।" परे हटते हुए।

"महत्व है बेटा लेकिन बाहर के लोगों का भी महत्व है न। समाज का महत्व है। जब उन्हें पता चलेगा राजेश का हमारे से मिलना-जुलना है तो कौन सज्जन पुरुष तुझसे शादी करेगा।" माँ ने कहा और राधिका के चेहरे को अपने हाथों में थामा। राधिका निडरता से कुछ क्षण आंखों में देखती रहीं।

"इन आँखों में इस बात का डर नहीं दिखता माँ। कुछ और है, शायद स्त्री की अस्वीकारता या किसी बंधन से मुक्त होने का डर।"

"तुझपर क्या बंधन है।" माँ ने आंखे मिलाते हुए कहा।

"ये बंधन नहीं तो क्या है।"

भीतर से पिता का प्रवेश। कुछ ढूंढते हुए।

"बाम की शीशी मिलती नहीं।"

"ये रहीं।" माँ ने शीशी दी।

"पापा एक बार आप राजेश से..."

"चुपकर" पिता के चिल्लाने से डर जाती है।

"अब उस बारे में कोई बात नहीं होगी। जब से आई है रट लगाएं हुए है। हर माह इसे कुछ याद आता है और हमारा दिमाग खराब करती है।"

"संभालिये खुदको।" माँ ने कहा।

"इसका संभलना ज़रूरी है।" पिता गुस्से से राधिका को देखते है और भीतर जाते है।

"ये क्या, तू ठंडी चाय पी गई।" माँ ने खाली प्याले को देखकर कहा। "कहा होता दूसरी बना लाती।"

राधिका कुछ कहे बिना कुछ पल माँ की आंखों में देखती है। पलटकर कमरे की ओर चल देती है।

अगली सुबह का वातावरण हल्की गुनगुनी धूप में डूबा हुआ है। दरवाजे के आधे हिस्से से घर में धूप का प्रवेश हो रहा है। इतवार की सुबह और बाहर लोगों की चहल-पहल। फेरीवालों की आवाज़ें।

भीतर से पिता का प्रवेश। हाथ में अखबार है।

"सुबह-सवेरे अखबार का ज़ायका ही कुछ और होता है।" कुर्सी पर बैठते हुए पिता ने कहा।

माँ चाय के दो प्याले लाती है। छोटे से लकड़ी के स्टूल पर रखती है।

कुछ क्षण सोचकर कहती है "गुनगुन पर क्या कहना है आपका।"

"कहना क्या है। मैं तो कहता हूं कमरे में कुछ दिन बंद रहेगी तो सब बाहर की हवा भूल जाएगी।" पिता ने कहा।

"यूँ करना ठीक न होगा।"

एक क्षण कुछ सोचकर कहती है।

"आपके पिता ने भी मुझे स्वीकार नहीं किया था। कैसे हमने समाज से छुपकर और भागकर शादी की थी।

"वो ज़माना और था। अब सब बदल चुका है। फिर हमने जो ग़लती की है वो इस घर में दोहराई ना जाएं तो बेहतर है।" पिता ने कहा।

"आप को भी लोगों ने बुरा-भला कहा था। उस समाज ने आज तक आपको और मुझे स्वीकार नहीं किया।" माँ ने कहा।

"तुम क्यों गड़े मुर्दे...." पिता कहते-कहते ठिठकते है। कमरे की ओर देखते हैं। कमरे के दरवाजे के पास राधिका खड़ी है। नए कपड़े पहने हुए है। चेहरे पर ताज़गी और विजेता के भाव। दरवाजे के पास आकर सैंडल पहनती है। पिता और माँ हैरत से उसकी ओर देखते है।

"जो मैंने अभी सुना वो सब मैं भूल जाउंगी।" राधिका ने मुस्कुराते हुए कहा।

"कहा जा रहीं है तू।" माँ ने पूछा।

राधिका कुछ पल दोनों को देखती रहीं। एक लंबी खामोशी के बाद राधिका ने कहा

"जवाब सुनना चाहेंगे आप लोग।"

दोनों की नज़रे कुछ क्षणों बाद ही आहिस्ता-आहिस्ता नीचे को होने लगी। वातावरण को अपने हाल पर छोड़कर राधिका तेज कदमों से बाहर की ओर चल देती है।

समाप्त