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जिस्म और रूह

जिस्म और रूह

मुजीब ने अचानक मुझ से सवाल क्या: “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इन की तक़सीम कर सकते हैं। आने पाई का हिसाब चशम-ए-ज़दन में आप को बता सकते हैं।

इस गुफ़्तुगू के दौरान में मुग़नी ये कह रहा था: “इंग्लिस्तान में एक आदमी है जो एक नज़र देख लेने के बाद फ़ौरन बता देता है कि इस क़ता ज़मीन का तूल-ओ-अर्ज़ किया है रक़्बा कितना है उस ने अपने एक बयान में कहा था कि वो अपनी इस ख़ुदादाद सलाहियत से तंग आ गया है। वो जब भी कहीं बाहर खुले खेतों में निकलता है तो उन की हरियाली और उन का हुस्न उस की निगाहों से ओझल हो जाता है और वो इस क़ता ज़मीन की पैमाइश अपनी आँखों के ज़रिये शुरू कर देता है। एक मिनट के अंदर वो अंदाज़ा कर लेता है कि ज़मीन का ये टुकड़ा कितना रक़्बा रखता है, उस की लंबाई कितनी है चौड़ाई कितनी है, फिर उसे मजबूरन अपने अंदाज़े का इम्तिहान लेना पड़ता है। फीटर स्टेप के ज़रिये से उस क़ता-ए-ज़मीन को मापता और वो उस के अंदाज़े के ऐन मुताबिक़ निकलता। अगर उस का अंदाज़ा ग़लत होता तो उसे बहुत तसकीन होती। बाअज़ औक़ात फ़ातेह अपनी शिकस्त से भी ऐसी लज़्ज़त महसूस करता है जो उसे फ़तह से नहीं मिलती। असल में शिकस्त दूसरी शानदार फ़तह का पेशख़ैमा होती है।

मैंने मुग़नी से कहा: “तुम दरुस्त कहते हो दुनिया में हर क़िस्म के अजाइबात मौजूद हैं ”

मैं कुछ और कहना चाहता था कि मुजीब ने जो इस गुफ़्तुगू के दौरान काफ़ी पी रहा था, अचानक मुझ से सवाल क्या :

“क्या तुम उस आदमी को जानते हो?”

मैं सोचने लगा कि मुजीब किस आदमी के मुतअल्लिक़ मुझ से पूछ रहा है, हामिद नहीं, वो आदमी नहीं मेरा दोस्त है।

अब्बास, इस के मुतअल्लिक़ कुछ कहने सुनने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हो सकती थी। शब्बीर, इस में कोई ग़ैर-मामूली बात नहीं थी। आख़िर ये किस आदमी का हवाला दिया गया था।

मैंने मुजीब से कहा: “तुम किस आदमी का हवाला दे रहे हो?”

मुजीब मुस्कुराया : “तुम्हारा हाफ़िज़ा बहुत कमज़ोर है।”

“भई, मेरा हाफ़िज़ा तो बचपन से ही कमज़ोर रहा है। तुम पहेलियों में बातें न करो बताओ वो कौन आदमी है जिस से तुम मेरा तआरुफ़ कराना चाहते हो।”

मुजीब की मुस्कुराहट में अब एक तरह का असरार था। “बूझ लो!”

“मैं क्या बूझूंगा जबकि वो आदमी तुम्हारे पेट में है।”

आरिफ़, असग़र और मसऊद बे-इख़्तियार हंस पड़े। आरिफ़ ने मुझ से मुख़ातब हो कर कहा:

“वो आदमी अगर मुजीब के पेट में है तो आप को उस की पैदाइश का इंतिज़ार करना पड़ेगा।”

मैंने मुजीब की तरफ़ एक नज़र देखा और आरिफ़ से मुख़ातब हुआ “मैं अपनी सारी उम्र उस मह्दी की विलादत का इंतिज़ार नहीं कर सकता हूँ।”

मसऊद ने अपने सिगरेट को ऐशट्रे के क़ब्रिस्तान में दफ़न करते हुए कहा:

“देखिए साहिबान! हमें अपने दोस्त मिस्टर मुजीब की बात का मज़ाक़ नहीं उड़ाना चाहिए” ये कह कर वो मुजीब से मुख़ातब हुआ “मुजीब साहब फ़रमाईए आप को क्या कहना है हम सब बड़े ग़ौर से सुनेंगे।”

मुजीब थोड़ी देर ख़ामोश रहा। इस के बाद अपना बुझा हुआ चुर्ट सुलगा कर बोला: “माज़रत चाहता हूँ कि मैंने उस आदमी के मुतअल्लिक़ आप से पूछा जिसे आप जानते नहीं।”

मैंने कहा : “मुजीब तुम कैसी बातें करते हो, बहरहाल, तुम उस आदमी को जानते हो ”

मुजीब ने बड़े वसूक़ के साथ कहा! “बहुत अच्छी तरह जब हम दोनों बर्मा में थे तो दिन रात इकट्ठे रहते थे। अजीब-ओ-ग़रीब आदमी था।”

मसऊद ने पूछा! “किस लिहाज़ से?”

मुजीब ने जवाब दिया: “हर लिहाज़ से उस जैसा आदमी आप ने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखा होगा।”

मैंने कहा: “भई मुजीब अब बता भी दो वो कौन हज़रत थे।”

“बस हज़रत ही थे।”

आरिफ़ मुस्कुराया: “चलो, क़िस्सा ख़त्म हुआ वो हज़रत थे, और बस ”

मसऊद ये जानने के लिए बेताब था कि वो हज़रत कौन था। “भई मुजीब, तुम्हारी हर बात निराली होती है। तुम बताते क्यों नहीं हो कि वो कौन आदमी था जिस का ज़िक्र तुम ने अचानक छेड़ दिया!”

मुजीब तबअन ख़ामोशी पसंद था। उस के दोस्त अहबाब हमेशा उस की तबीयत से नालां रहते लेकिन उस की बातें जची तुली होती थीं।

थोड़ी देर ख़ामोश रहने के बाद इस ने कहा: “माज़रत ख़ाह हूँ कि मैंने ख़्वाह-मख़्वाह आप को इस मख़म्मसे में गिरफ़्तार कर दिया बात दर असल ये है कि जब ये गुफ़्तुगू शुरू हुई तो मैं खो गया। मुझे वो ज़माना याद आगया जिस को मैं कभी नहीं भूल सकता।”

मैंने पूछा: “वो ऐसा ज़माना कौन सा था?”

मुजीब ने एक लंबी कहानी बयान करना शुरू कर दी: “अगर आप समझते हों कि उस ज़माने से मेरी ज़िंदगी के किसी रोमान का तअल्लुक़ है तो मैं आप से कहूंगा कि आप कम फ़ह्म हैं।”

मैंने मुजीब से कहा: “हम तो आप के फ़ैसले के मुंतज़िर हैं। अगर आप समझते हैं कि आप कम फ़ह्म हैं तो ठीक है। लेकिन वो आदमी।”

मुजीब मुस्कुराया : “वो आदमी आदमी था लेकिन उस में ख़ुदा ने बहुत सी क़ुव्वतें बख़्शी थीं।”

मसऊद ने पूछा: “मिसाल के तौर पर ”

“मिसाल के तौर पर ये कि वो एक नज़र देखने के बाद बता सकता था कि आप ने किस रंग का सूट पहना था, टाई कैसी थी। आप की नाक टेढ़ी थी या सीधी आप के किस गाल पर कहाँ और किस जगह तिल था। आप के नाख़ुन कैसे हैं। आप की दाहिनी आँख के नीचे ज़ख़म का निशान है। आप की भंवें मुंडी हुई हैं। मौज़े फ़ुलां साख़्त के पहने हुए थे, क़मीस पोपलीन की थी मगर घर में धुली हुई।”

ये सुन कर मैंने वाक़्यता महसूस किया कि जिस शख़्स का ज़िक्र मुजीब कर रहा है अजीब-ओ-ग़रीब हस्ती का मालिक है। चुनांचे मैंने इस से कहा : “बड़ा मार्का ख़ेज़ आदमी था।”

“जी हाँ, बल्कि इस से भी कुछ ज़्यादा उस को इस बात का ज़ोम था कि अगर वो कोई मंज़र कोई मर्द, कोई औरत सिर्फ़ एक नज़र देख ले तो उसे मिन-ओ-अन अपने अल्फ़ाज़ में बयान कर सकता है जो कभी ग़लत नहीं होंगे। और इस में कोई शक नहीं कि उस का अंदाज़ा हमेशा दरुस्त साबित होता था।”

मैंने पूछा “क्या ये वाक़ई दरुस्त था।”

“सौ फ़ीसद एक मर्तबा मैंने उस से बाज़ार में पूछा ये लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है, क्या तुम इस के मुतअल्लिक़ भी तफ़सीलात बयान कर सकते हो?”

मैं इस लड़की से एक घंटा पहले मिल चुका था। वो हमारे हम-साए मिस्टर लोजवाए की बेटी थी। और मेरी बीवी से सिलाई के मुस्तआर लेने आई थी। मैंने उसे ग़ौर से देखा इस लिए बग़र्ज़-ए-इम्तिहान मैंने मुजीब से ये सवाल किया था।

मुजीब मुस्कुराया : “तुम मेरा इम्तिहान लेना चाहते हो।”

“नहीं नहीं ये बात नहीं मैं मैं।”

“नहीं तुम मेरा इम्तिहान लेना चाहते हो। ख़ेर सुनो! वो लड़की जो अभी अभी हमारे पास से गुज़री है और जिसे में अच्छी तरह नहीं देख सका, मगर लिबास के मुतअल्लिक़ कुछ कहना फ़ुज़ूल है इस लिए कि हर वह शख़्स जिस की आँखें सलामत हों और होश-ओ-हवास दरुस्त हों कह सकता है कि वो किस क़िस्म का था। वैसे एक चीज़ जो मुझे उस में खासतौर पर दिखाई दी, वो इस के दाहिने हाथ की छंगुलिया थी। उस में किसी क़दर ख़म है बाएं हाथ के अंगूठे का नाख़ुन मज़रूब था। इस के लिप स्टिक लगे होंटों से ये मालूम होता है कि वो आराइश के फ़न से महिज़ कोरी है।”

मुझे बड़ी हैरत हुई कि उस ने एक मामूली सी नज़र में ये सब चीज़ें कैसे भाँप लीं मैं अभी इस हैरत में ग़र्क़ था कि मुजीब ने अपना सिलसिला-ए-कलाम जारी रखते हुए कहा “उस में जो ख़ास चीज़ मुझे नज़र आई वो उस के दाहिने गाल का दाग़ था ग़ालिबन किसी फोड़े का है।”

मुजीब का कहना दरुस्त था मैंने इस से पूछा। “ये सब बातें जो तुम इतने वसूक़ से कहते हो, तुम्हें क्योंकर मालूम हो जाती हैं?”

मुजीब मुस्कुराया: “मैं इस के मुतअल्लिक़ कुछ कह नहीं सकता। इस लिए कि में समझता हूँ हर आदमी को साहब-ए-नज़र होना चाहिए। साहब-ए-नज़र से मेरी मुराद हर उस शख़्स से है जो एक ही नज़र में दूसरे आदमी के तमाम ख़ुद्द-ओ-ख़ाल देख ले।”

मैंने उस से पूछा:

“ख़द्द-ओ-ख़ाल देखने से क्या होता है?”

“बहुत कुछ होता है ख़ुद्द-ओ-ख़ाल ही तो इंसान का सही किरदार बयान करते हैं”

“करते होंगे। मैं तुम्हारे इस नज़रिए से मुत्तफ़िक़ नहीं हूँ।”

“न हो मगर मेरा नज़रिया अपनी जगह क़ायम रहेगा।”

“रहे मुझे इस पर क्या एतराज़ होसकता है। बहरहाल, मैं ये कहे बग़ेर नहीं रह सकता कि इंसान ग़लती का पुतला है हो सकता है तुम ग़लती पर हो।”

“यार, गलतियां दुरुस्तियों से ज़्यादा दिलचस्प होती हैं”

“ये तुम्हारा अजीब फ़लसफ़ा है।”

“फ़लसफ़ा गाय का गोबर है।”

“और गोबर?”

मुजीब मुस्कुराया: “वो वो उपला कह लीजिए, जो ईंधन के काम आता है।”

हमें मालूम हुआ कि मुजीब एक लड़की के इश्क़ में गिरफ़्तार होगया है पहली ही निगाह में उस ने उस के जिस्म के हर ख़द्द-ओ-ख़ाल का सही जायज़ा ले लिया था। वो लड़की बहुत मुतअस्सिर हुई जब उसे मालूम हुआ कि दुनिया में ऐसे आदमी भी मौजूद हैं जो सिर्फ़ एक नज़र में सब चीज़ें देख जाते हैं तो वो मुजीब से शादी करने के लिए रज़ामंद होगई।

उन की शादी होगई दुल्हन ने कैसे कपड़े पहने थे, उस की दाएं कलाई में किस डिज़ाइन की दस्त लच्छी थी इस में कितने नगीने थे

ये सब तफ़सीलात उस ने हमें बताईं।

इन तफ़सीलात का ख़ुलासा ये है कि उन दोनों में तलाक़ हो गई|