Nara in Hindi Short Stories by Saadat Hasan Manto books and stories PDF | नारा

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नारा

नारा

उसे यूं महसूस हुआ कि इस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उस के काँधों पर धर दी गई हैं।

वो सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी करके नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उस के चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गया। जब वो मकान के मालिक से मिलने के लिए ऊपर चढ़ रहा था। तो उसे महसूस हुआ था कि उस का कुछ बोझ हल्का हो गया है और कुछ हल्का हो जाएगा। इस लिए कि उस ने अपने दिल में सोचा था। मालिक मकान जिसे सब सेठ के नाम से पुकारते हैं उस की बिप्ता ज़रूर सुनेगा। और किराया चुकाने के लिए उसे एक महीने की और मोहलत बख़्श देगा..... बख़्श देगा!...... ये सोचते हुए उस के ग़रूर को ठेस लगी थी लेकिन फ़ौरन ही उस को असलीयत भी मालूम हो गई थी.... वो भीक मांगने ही तो जा रहा था। और भीक हाथ फैला कर, आँखों में आँसू भर के, अपने दुख दर्द सुना कर और अपने घाओ दिखा कर ही मांगी जाती है......!

उस ने यही कुछ किया। जब वो इस संगीन इमारत के बड़े दरवाज़े में दाख़िल होने लगा। तो उस ने अपने ग़रूर को, उस चीज़ को जो भीक मांगने में आम तौर पर रुकावट पैदा करती है। निकाल कर फुटपाथ पर डाल दिया था।

वो अपना दिया बुझा कर और अपने आप को अंधेरे में लपेट कर मालिक मकान के उस रोशन कमरे में दाख़िल हुआ। जहां वो अपनी दो बिल्डिंगों का किराया वसूल किया करता था। और हाथ जोड़ कर एक तरफ़ खड़ा हो गया। सेठ के तिलक लगे माथे पर कई सलवटें पड़ गईं। उस का बालों भरा हाथ एक मोटी सी कापी की तरफ़ बढ़ा। दो बड़ी बड़ी आँखों ने उस कापी पर कुछ हुरूफ़ पढ़े और एक भद्दी सी आवाज़ गूंजी।

“केशव लाल..... खोली पांचवीं, दूसरा माला....... दो महीनों का किराया........ ले आए हो क्या?”

ये सुन कर उस ने अपना दिल जिस के सारे पुराने और नए घाओ वो सीढ़ियां चढ़ते हूए कुरेद कुरेद कर गहरे कर चुका था। सेठ को दिखाना चाहा। उसे पूरा पूरा यक़ीन था कि उसे देख कर उस के दिल में ज़रूर हमदर्दी पैदा हो जाएगी। पर...... सेठ जी ने कुछ सुनना न चाहा। और उस के सीने में एक हुल्लड़ सा मच गया।

सेठ के दिल में हमदर्दी पैदा करने के लिए उस ने अपने वो तमाम दुख जो बीत चुके थे। गुज़रे दिनों की गहरी खाई से निकाल कर अपने दिल में भर लिए थे और इन तमाम ज़ख़्मों की जलन जो मुद्दत हूई मिट चुके थे। उस ने बड़ी मुश्किल से इकट्ठी अपनी छाती में जमा की थी। अब उस की समझ में नहीं आता था कि इतनी चीज़ों को कैसे सँभाले?

उस के घर में बिन बुलाए मेहमान आ गए होते वो उन से बड़े रूखेपन के साथ कह सकता था। जाओ भई मेरे पास इतनी जगह नहीं है कि तुम्हें बिठा सकूं और न मेरे पास रुपया है कि तुम सब की ख़ातिर मदारात कर सकूं। लेकिन यहां तो क़िस्सा ही दूसरा था। उस ने तो अपने भूले भटके दुखों को इधर उधर से पकड़ कर अपने आप सीने में जमा किया था। अब भला वो बाहर निकल सकते थे?

अफ़रातफ़री में उसे कुछ पता न चला था। कि उस के सीने में कितनी चीज़ें भर गई हैं। पर जैसे जैसे उस ने सोचना शुरू किया। वो पहचानने लगा कि फ़ुलां दुख फ़ुलां वक़्त का है और फ़ुलां दर्द उसे फ़ुलां वक़्त पर हुआ था। और जब ये सोच बिचार हुई तो हाफ़िज़े ने बढ़ कर वो धुन्द हटा दी। जो उन पर लिपटी हुई थी। और कल के तमाम दुख दर्द आज की तकलीफें बन गए और उस ने अपनी ज़िंदगी की बासी रोटियां फिर अंगारों पर सेंकना शुरू कर दीं।

उस ने सोचा, थोड़े से वक़्त में उस ने बहुत कुछ सोचा। उस के घर का अंधा लैम्प कई बार बिजली के उस बल्ब से टकराया जो मालिक मकान के गंजे सर के ऊपर मुस्कुरा रहा था। कई बार उस पैवंद लगे कपड़े इन खूंटियों पर लटक कर फिर उस के मैले बदन से चिमट गए। जो दीवार में गढ़ी चमक रही थीं। कई बार उसे उन दाता भगवान का ख़याल आया जो बहुत दूर न जाने कहाँ बैठा अपने बंदों का ख़याल रखता है। मगर अपने सामने सेठ को कुर्सी पर बैठा देख कर जिस के क़लम की जुंबिश कुछ का कुछ कर सकती थी। वो इस बारे में कुछ भी न सोच सका। कई बार उसे ख़याल आया। और वो सोचने लगा। कि उसे क्या ख़याल आया था। मगर वो उस के पीछे भाग दौड़ न कर सका। वो सख़्त घबरा गया था। उस ने आज तक अपने सीने में इतनी खलबली नहीं देखी थी।

वो इस खलबली पर अभी ताज्जुब ही कर रहा था। कि मालिक मकान ने गुस्से में आकर उसे गाली दी..... गाली....... यूं समझिए कि कानों के रास्ते पिघला हुआ सीसा शाईं शाईं करता उस के दिल में उतर गया। और उस के सीने के अंदर जो हुल्लड़ मच गया। उस का तो कुछ ठिकाना ही न था जिस तरह किसी गर्म-गर्म जलसे में किसी शरारत से भगदड़ मच जाया करती है। ठीक इसी तरह उस के दिल में हलचल पैदा हो गई। उस ने बहुत जतिन किए कि उस के वो दुख दर्द जो उस ने सेठ को दिखाने के लिए इकट्ठे किए थे। चुपचाप रहें। पर कुछ न हो सका। गाली का सेठ के मुँह से निकलना था कि तमाम दुख बेचैन हो गए। और अंधा धुंद एक दूसरे से टकराने लगे। अब तो वो ये नई तकलीफ़ बिलकुल न सह सका। और उस की आँखों में जो पहले ही तप रही थीं आँसू आ गए जिस से उन की गर्मी और भी बढ़ गई और उन से धूवां निकलने लगा।

उस के जी में आई कि इस गाली को जिसे वो बड़े हद तक निगल चुका था। सेठ के झुर्रियों पड़े चेहरे पर क़ै कर दे मगर वो इस ख़याल से बाज़ आगया कि उस का ग़रूर तो फुटपाथ पर पड़ा है। अपोलो बंदर पर नमक लगी मूंगफली बेचने वाले का ग़रूर...... उस की आँखें हंस रही थीं। और उन के सामने नमक लगी मूंगफली के वो तमाम दाने जो उस के घर में एक थैले के अंदर बरखा के बाइस गीले हो रहे थे, नाचने लगे।

उस की आँखें हंसीं, उस का दिल भी हंसा, ये सब कुछ हूआ पर वो कड़वाहट दूर न हूई। जो उस के गले में सेठ की गाली ने पैदा कर दी थी। ये कड़वाहट अगर सिर्फ़ ज़बान पर होती तो वो उसे थूक देता मगर वो तो बहुत बुरी तरह उस के गले में अटक गई थी। और निकाले न निकलती थी। और फिर एक अजीब क़िस्म का दुख जो उस गाली ने पैदा कर दिया था। उस की घबराहट को और भी बढ़ा रहा था। उसे यूं महसूस होता था कि उस की आँखें जो सेठ के सामने रोना फ़ुज़ूल समझती थीं। उस के सीने के अंदर उतर कर आँसू बहा रही हैं। जहां हर चीज़ पहले ही से सोग में थी।

सेठ ने उसे फिर गाली दी। उतनी ही मोटी जितनी उस की चर्बी भरी गर्दन थी। और उसे यूं लगा कि किसी ने ऊपर से उस पर कूड़ा करकट फेंक दिया है। चुनांचे उस का एक हाथ अपने आप चेहरे की हिफ़ाज़त के लिए बढ़ा पर उस गाली की सारी गर्द इस पर फैल चुकी थी..... अब उस ने वहां ठहरना अच्छा न समझा। क्योंकि क्या ख़बर थी...... क्या ख़बर थी...... उसे कुछ ख़बर न थी...... वो सिर्फ़ इतना जानता था कि ऐसी हालतों में किसी बात की सुधबुध नहीं रहा करती।

वो जब नीचे उतरा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि इस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें इस के कंधों पर धर दी गई हैं।

एक नहीं, दो गालियां..... बार बार ये दो गालियां जो सेठ ने बिलकुल पान की पैक के मानिंद अपने मुँह से उगल दी थीं जो उस के कानों के पास ज़हरीली भिड़ों की तरह भिनभिनाना शुरू कर देती थीं और वो सख़्त बेचैन हो जाता था। वो कैसे उस .... उस .... उस की समझ में नहीं आता था कि इस गड़बड़ का नाम क्या रख्खे, जो उस के दिल में और दिमाग़ में इन गालियों ने मचा रखी थी। वो कैसे उस तिप को दूर कर सकता था। जिस में वो फुंका जा रहा था। कैसे?..... पर वो सोच बिचार के काबिल भी तो नहीं रहा था। उस का दिमाग़ तो उस वक़्त एक ऐसा अखाड़ा बना हूआ था जिस में बहुत से पहलवान कुश्ती लड़ रहे हों। जो ख़याल भी वहां पैदा होता। किसी दूसरे ख़याल से जो पहले ही से वहां मौजूद होता भिड़ जाता। और वो कुछ सोच न सकता।

चलते चलते जब इका ईकी उस के दुख के की सूरत में बाहर निकलने को थे उस के जी में आई। जी में क्या आई, मजबूरी की हालत में वो उस आदमी को रोक कर जो लंबे लंबे डग भरता उस के पास से गुज़र रहा था। ये कहने ही वाला था। “भय्या मैं रोगी हूँ” मगर जब उस ने उस राह चलते आदमी की शक्ल देखी तो बिजली का वो खम्बा जो उस के पास ही ज़मीन में गढ़ा था। उसे उस आदमी से कहीं ज़्यादा हस्सास दिखाई दिया। और जो कुछ वो अपने अंदर से बाहर निकालने वाला था। एक एक घूँट करके फिर निगल गया।

फुटपाथ पर चौकोर पत्थर एक तर्तीब के साथ जुड़े हूए थे। वो इन पत्थरों पर चल रहा था। आज तक कभी उस ने उन की सख़्ती महसूस न की थी। मगर आज उन की सख़्ती उस के दिल तक पहुंच रही थी। फुटपाथ का हर एक पत्थर जिस पर उस के क़दम पड़ रहे थे। फस के दिल के साथ टकरा रहा था..... सेठ के पत्थर के मकान से निकल कर अभी वो थोड़ी दूर ही गया होगा कि उस का बंद बंद ढीला हो गया।

चलते चलते उस की एक लड़के से टक्कर हुई। और उसे यूं महसूस हुआ। कि वो टूट गया है। चुनांचे उस ने झट उस आदमी की तरह जिस की झोली से बैर गिर रहे हूँ। इधर उधर हाथ फैलाए और अपने आप को इकट्ठा कर के हौले-हौले चलना शुरू किया।

उस का दिमाग़ उस की टांगों के मुक़ाबले में ज़्यादा तेज़ी के साथ चल रहा था चुनांचे कभी कभी चलते चलते उसे ये महसूस होता था। कि उस का निचला धड़ सारे का सारा बहुत पीछे रह गया है। और दिमाग़ बहुत आगे निकल गया है। कई बार उसे इस ख़याल से ठहरना पड़ा कि दोनों चीज़ें एक दूसरे के साथ साथ हो जाएं।

वो फुटपाथ पर चल रहा था जिस के इस तरफ़ सड़क पर पों पों करती मोटरों का तांता बंधा हुआ था। घोड़े गाड़ियां, ट्रालें, भारी भरकम ट्रक, लारियां ये सब सड़क की काली छाती पर दनदनाती हुई चल रही थीं। एक शोर मचा हूआ था। पर उस के कानों को कुछ सुनाई न देता था। वो तो पहले ही से शाईं शाईं कर रहे थे। जैसे रेलगाड़ी का इंजन ज़ाइद भाप बाहर निकाल रहा है।

चलते चलते एक लँगड़े कुते से उस की टक्कर हुई। कुते ने इस ख़याल से कि शायद उस का पैर कुचल दिया गया है। “चाऊं” किया और परे हट गया। और वो समझा कि सेठ ने उसे फिर गाली दी है......... गाली...... गाली ठीक इसी तरह उस से उलझ कर रह गई थी जैसे बेरी के कांटों में कोई कपड़ा। वो जितनी कोशिश अपने आप को छुड़ाने की करता था। उतनी ही ज़्यादा उस की रूह ज़ख़्मी होती जा रही थी।

उसे उस नमक लगी मूंगफली का ख़याल नहीं था जो उस के घर में बरखा के बाइस गीली हो रही थी और न उसे रोटी कपड़े का ख़याल था। उस की उम्र तीस बरस के क़रीब थी। और इन तीस बरसों में जिन के परमात्मा जाने कितने दिन होते हैं। वो कभी भूका न सोया था। और न कभी नंगा ही फिरा था। उसे सिर्फ़ इस बात का दुख था। कि उसे हर महीने किराया देना पड़ता था। वो अपना और अपने बाल बच्चों का पेट भरे। उस बकरे जैसी दाढ़ी वाले हकीम की दवाईयों के दाम दे। शाम को ताड़ी की एक बोतल के लिए दव्वई पैदा कर ले। या उस गंजे सेठ के मकान के एक कमरे का किराया अदा करे। मकानों और किरायों का फ़ल्सफ़ा उस की समझ से सदा ऊंचा रहा था। वो जब भी दस रुपय गिन कर सेठ या उस के मुनीम की हथेली पर रखता तो समझता था कि ज़बर दस्ती उस से ये रक़म छीन ली गई है। और अब अगर वो पाँच बरस तक बराबर किराया देते रहने के बाद सिर्फ़ दो महीने का हिसाब चुकता न कर सका तो क्या सेठ को इस बात का इख़्तियार हो गया। कि वो उसे गाली दे? सब से बड़ी बात तो ये थी जो उसे खाए जा रही थी। उसे उन बीस रूपों की पर्वा न थी जो उसे आज नहीं कल अदा कर देने थे। वो उन दो गालियों की बाबत सोच रहा था। जो इन बीस रूपों के बीच में से निकलती थीं। न वो बीस रुपय का मक़रूज़ होता और न सेठ के कठाली जैसे मुँह से ये गंदगी बाहर निकलती।

मान लिया वो धनवान था। उस के पास दो बिल्डिंगें थीं। जिन के एक सौ चौबीस कमरों का किराया उस के पास आता था। पर इन एक सौ चौबीस कमरों में जितने लोग रहते हैं। उस के ग़ुलाम तो नहीं और अगर ग़ुलाम भी हैं तो वो उन्हें गाली कैसे दे सकता है?

ठीक है उसे किराया चाहिए। पर मैं कहाँ से लाऊं पाँच बरस तक उस को देता ही रहा हूँ। जब होगा, दे दूंगा। हालाँकि मुझे इस से कहीं ज़्यादा होलनाक गालियां याद हैं। पर मैंने सेठ से बार-हा कहा। कि सीढ़ी का डंडा टूट गया है। उसे बनवा दीजिए। पर मेरी एक न सुनी गई। मेरी फूल सी बच्ची गिरी। उस का दाहिना हाथ हमेशा के लिए बेकार हो गया। मैं गालियों के बजाय उसे बद-दुआएं दे सकता था। पर मुझे इस का ध्यान ही नहीं आया...... दो महीने का किराया न चुकाने पर मैं गालियों के काबिल हो गया। उस को ये ख़याल तक न आया। कि उस के बच्चे अपोलो बंदर पर मेरे थैले से मुट्ठियाँ भर भर के मूंगफली खाते हैं।

इस में कोई शक नहीं कि उस के पास इतनी दौलत नहीं थी जितनी कि इस दो बिल्डिंगों वाले सेठ के पास थी। और ऐसे लोग भी होंगे जिन के पास इस से भी ज़्यादा दौलत होगी, पर वो ग़रीब कैसे हो गया..... उसे ग़रीब समझ कर ही तो गाली दी गई थी। वर्ना इस गंजे सेठ की क्या मजाल थी। कि कुर्सी पर बड़े इत्मिनान से बैठ कर उसे दो गालियां सुना देता। गोया किसी के पास धन दौलत का न होना बहुत बुरी बात है। अब ये उस का क़सूर नहीं था। कि उस के पास दौलत की कमी थी। सच्च पूछिए। तो उस ने कभी धन दौलत के ख़्वाब देखे ही न थे वो अपने हाल में मस्त था। उस की ज़िंदगी बड़े मज़े में गुज़र रही थी। पर पिछले महीने इका ईकी उस की बीवी बीमार पड़ गई और उस के दवा दारू पर वो तमाम रुपय ख़र्च हो गए जो किराए में जाने वाले थे। अगर वो ख़ुद बीमार होता तो मुम्किन था कि वो दवाओं पर रुपया ख़र्च न करता लेकिन यहां तो उस के होने वाले बच्चे की बात थी जो अभी अपनी माँ के पेट ही में था। उस को औलाद बहुत प्यारी थी जो पैदा हो चुकी थी और जो पैदा होने वाली थी। सब की सब उसे अज़ीज़ थी वो कैसे अपनी बीवी का ईलाज न कराता?......क्या वो इस बच्चे का बाप ना था?...... बाप पिता....... वो तो सिर्फ़ दो महीने के किराए की बात थी। अगर उसे अपने बच्चे के लिए चोरी भी करना पड़ती तो वो कभी न चूकता.......

चोरी नहीं नहीं वो चोरी कभी न करता..... यूं समझिए कि वो अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी करने के लिए तैय्यार था। मगर वो चोर कभी न बनता..... वो अपनी छिनी हूई चीज़ वापस लेने के लिए लड़ मरने को तैय्यार था। पर वो चोरी नहीं कर सकता था।

अगर वो चाहता तो उस वक़्त जब सेठ ने उसे गाली दी थी। आगे बढ़ कर उस का टेंटवा दबा देता और उस की तिजोरी में से वो तमाम नीले और सब्ज़ नोट निकाल कर भाग जाता। जिन को वो आज तक लाजवंती के पत्ते समझा करता था..... नहीं नहीं वो ऐसा कभी न करता। लेकिन फिर सेठ ने उसे गाली क्यों दी?...... पिछले बरस चौपाटी पर एक गाहक ने उसे गाली दी थी। इस लिए कि दो पैसे की मूंगफली में चार दाने कड़वी चले गए थे। और उस के जवाब में उस की गर्दन पर ऐसी धूल जमाई थी कि दूर बंच पर बैठे आदमियों ने भी उस की आवाज़ सुन ली थी। मगर सेठ ने उसे दो गालियां दीं और वो चुप रहा...... केशव लाल खारी सींग वाला। जिस की बाबत ये मशहूर था। कि वो नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देता.... सेठ ने एक गाली दी और वो कुछ न बोला........ दूसरी गाली दी तो भी ख़ामोश रहा जैसे वो मिट्टी का पुतला है...... पर मिट्टी का पुतला कैसे हूआ। उस ने इन दो गालियों को सेठ के थूक भरे मुँह से निकलते देखा जैसे दो बड़े बड़े चूहे मोरियों से बाहर निकलते हैं। वो जानबूझ कर ख़ामोश रहा। इस लिए कि वो अपना ग़रूर नीचे छोड़ आया था..... मगर उस ने अपना ग़रूर अपने से अलग क्यों किया? सेठ से गालियां लेने के लिए?

ये सोचते हुए उसे इका ईकी ख़याल आया कि शायद सेठ ने उसे नहीं किसी और को गालियां दी थीं...... नहीं, नहीं, गालियां उसे ही दी गई थीं। इस लिए कि दो महीने का किराया उसी की तरफ़ निकलता था। अगर उसे गालियां न दी गई होती तो इस सोच बिचार की ज़रूरत ही क्या थी। और ये जो उस के सीने में हुल्लड़ सा मच रहा था। क्या बग़ैर किसी वजह के उसे दुख दे रहा था? उसी को दो गालियां दी गई थीं।

जब उस के सामने एक मोटर ने अपने माथे की बत्तियां रोशन कीं। तो उसे मालूम हुआ कि वो दो गालियां पिघल कर उस की आँखों में धँस गई हैं...... गालियां...... गालियां ..... वो झुँझला गया...... वो जितनी कोशिश करता था। कि इन गालियों की बाबत न सोचे उतनी ही शिद्दत से उसे उन के मुतअल्लिक़ सोचना पड़ता था। और ये मजबूरी उसे बहुत चिड़चिड़ा बना रही थी। चुनांचे इसी चिड़चिड़ेपन में उस ने ख़्वाह-मख़्वाह दो तीन आदमियों को जो उस के पास से गुज़र रहे थे। दिल ही दिल में गालियां दीं। “यूं एकड़ के चल रहे हैं जैसे उन के बावा का राज है!”

अगर उस का राज होता तो वो सेठ को मज़ा चखा देता जो उसे ऊपर तले दो गालियां सुना कर अपने घर में यूं आराम से बैठा था जैसे उस ने अपनी गद्देदार कुर्सी में से वो खटमल निकाल कर बाहर फेंक दिए हैं..... सचमुच अगर उस का अपना राज होता तो चौक में बहुत से लोगों को इकट्ठा करके सेठ को बीच में खड़ा कर देता। और उस की गंजी चन्दया पर इस ज़ोर से धप्पा मारता कि बिलबिला उठता, फिर वो सब लोगों से कहता कि हंसो, जी भर कर हंसो और ख़ुद इतना हँसता कि हंसते हंसते हंसते उस का पेट दुखने लगता पर उस वक़्त उसे बिलकुल हंसी नहीं आती थी .... क्यों? .... वो अपने राज के बग़ैर भी तो सेठ के गंजे सर पर धप्पा मार सकता था। उसे किस बात की रुकावट थी? ...... रुकावट थी....... रुकावट थी तो वो गालियां सुन कर ख़ामोश हो रहा।

उस के क़दम रुक गए। उस का दिमाग़ भी एक दो पल के लिए सस्ताया और उस ने सोचा कि चलो अभी इस झंझट का फ़ैसला ही कर दूं...... भागा हूआ जाऊं और एक ही झटके में सेठ की गर्दन मरोड़ कर उस तिजोरी पर रख दूं। जिस का ढकना मगरमच्छ के मुँह की तरह खुलता है...... लेकिन वो खंबे की तरह ज़मीन में क्यों गड़ गया था? सेठ के घर की तरफ़ पलटा क्यों नहीं था?..... क्या इस में जुर्रत न थी?

इस में जुर्रत ना थी..... कितने दुख की बात है कि उस की सारी ताक़त सर्द पड़ गई थी.... ये गालियां..... वो इन गालियों को क्या कहता..... इन गालियों ने उस की चौड़ी छाती पर रोलर सा फेर दिया था.... सिर्फ़ दो गालियों ने.... हालाँकि पिछले हिंदू मुस्लिम फ़साद में एक हिंदू ने उसे मुस्लमान समझ कर लाठियों से बहुत पीटा था और आध मोवा कर दिया था और उसे इतनी कमज़ोरी महसूस न हूई थी। जितनी कि अब हो रही थी....... केशव लाल खारी सींग वाला जो दोस्तों से बड़े फ़ख़्र के साथ कहा करता था। कि वो कभी बीमार नहीं पड़ा। आज यूं चल रहा था जैसे बरसों का रोगी है...... और ये रोग किस ने पैदा किया था?..... दो गालियों ने!

गालियां..... गालियां....... कहाँ थीं वो दो गालियां? उस के जी में आई। कि अपने सीने के अंदर हाथ डाल कर वो उन दो पत्थरों को जो किसी हीले गलते ही न थे। बाहर निकाल ले और जो कोई भी उस के सामने आए उस के सर पर दे मारे, पर ये कैसे हो सकता था..... उस का सीना मुरबे का मर्तबान थोड़ी था।

ठीक है। लेकिन फिर कोई और तरकीब भी तो समझ में आए जिस से ये गालियां दूर दफ़ान हूँ.... क्यों नहीं कोई शख़्स बढ़ कर उसे दुख से नजात दिलाने की कोशिश करता? क्या वो हमदर्दी के काबिल न था?..... होगा। पर किसी को उस के दिल के हाल का क्या पता था। वो खुली किताब थोड़ी था। और न उस ने अपना दिल बाहर लटका रहा था। अंदर की बात किसी को क्या मालूम?

ना मालूम हो!......... परमात्मा करे किसी को मालूम न हो..... अगर किसी को अंदर की बात का पता चल गया। तो केशवलाल खारी सींग वाले के लिए डूब मरने की बात थी..... गालियां सुन कर ख़ामोश रहना मामूली बात थी क्या?

मामूली बात नहीं बहुत बड़ी बात है ...... हिमालया पहाड़ जितनी बड़ी बात है। इस से भी बड़ी बात है। उस का ग़रूर मिट्टी में मिल गया है। उस की ज़िल्लत हूई है। उस की नाक कट गई है..... उस का सब कुछ लुट गया है चलो भई छुट्टी हुई। अब तो ये गालियां उस का पीछा छोड़ दें....... वो कमीना था। रज़ील था। नीच था। गंदगी साफ़ करने वाला भंगी था, कुत्ता था...... उस को गालियां मिलना ही चाहिए थीं। नहीं नहीं, किसी की क्या मजाल थी कि उसे गालियां दे और फिर बग़ैर किसी क़ुसूर के, वो उसे कच्चा न चबा जाता.....अमां हटाओ ये सब कहने की बातें हैं...... तुम ने तो सेठ से यूँ गालियां सुनीं। जैसे मीठी मीठी बोलियां थीं।

मीठी मीठी बोलियां थीं, बड़े मज़ेदार घूँट थे, चलो यही सही..... अब तो मेरा पीछा छोड़ दो वर्ना सच्च कहता हूँ। दीवाना हो जाऊंगा..... ये लोग जो बड़े आराम से इधर उधर चल फिर रहे हैं। मैं इन में से हर एक का सर फोड़ दूंगा भगवान की क़सम मुझे अब ज़्यादा ताब नहीं रही। मैं ज़रूर दीवाने कुत्ते की तरह सब को काटना शुरू कर दूंगा। लोग मुझे पागल-खाने में बंद कर देंगे। और मैं दीवारों के साथ अपना सर टकरा टकरा कर मर जाऊंगा......मर जाऊंगा। सच्च कहता हूँ, मर जाऊंगा.... मर जाऊंगा। सच्च कहता हूँ, मर जाऊंगा। और मेरी राधा विध्वा और मेरे बच्चे अनाथ हो जाऐंगे...... ये सब कुछ इस लिए होगा कि मैंने सेठ से दो गालियां सुनीं और ख़ामोश रहा। जैसे मेरे मुँह पर ताला लगा हूआ था। मैं लूला, लंगड़ा, अपाहिज था.....परमात्मा करे मेरी टांगें उस मोटर के नीचे आकर टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं...... मैं मर जाऊं ताकि ये बकबक तो ख़त्म हो ..... तौबा ....... कोई ठिकाना है इस दुख का.... कपड़े फाड़ कर नंगा नाचना शुरू कर दूं..... इस ट्राम के नीचे सर दे दूं, ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने शुरू कर दूं..... क्या करूं क्या न करूं?

ये सोचते हुए उसे इका ईकी ख़याल आया कि बाज़ार के बीच खड़ा हो जाये, और सब ट्रैफ़िक को रोक कर जो उस की ज़बान पर आए बकता चला जाये। हत्ता कि उस का सीना सारे का सारा ख़ाली हो जाये। या फिर उस के जी में आई कि खड़े खड़े यहीं से चिल्लाने शुरू कर दे। मुझे बचाओ.... मुझे बचाओ!

इतने में एक आग बुझाने वाला इंजन सड़क पर टन टन करता आया और उधर उस मोड़ में गुम हो गया। उस को देख कर वो ऊंची आवाज़ में कहने ही वाला था। ठहरो..... मेरी आग बुझाते जाओ। मगर न जाने क्यों रुक गया।

इका ईकी उस ने अपने क़दम तेज़ कर दिए। उसे ऐसा महसूस हुआ था कि उस की सांस रुकने लगी है और अगर वो तेज़ न चलेगा तो बहुत मुम्किन है कि वो फट जाये। लेकिन जूंही उस की रफ़्तार बढ़ी। उस का दिमाग़ आग का एक चक्कर सा बन गया। इस चक्कर में उस के सारे पुराने और नए ख़याल एक हार की सूरत में गंध गए...... दो महीने का किराया, उस का पत्थर की बिल्डिंग में दरख़ास्त लेकर जाना...... सात मंज़िलों के एक सौ बारह ज़ीने, सेठ की भद्दी आवाज़, उस के गंजे सर पर मुस्कुराता हुआ बिजली का लैम्प और..... ये मोटी गाली..... फिर दूसरी..... और उस की ख़ामोशी..... यहां पहुंच कर आग के इस चक्कर में तड़ तड़ गोलीयां सी निकलना शुरू हो जातीं और उसे ऐसा महसूस होता कि उस का सीना छलनी हो गया है।

उस ने अपने क़दम और तेज़ किए और आग का ये चक्कर इतनी तेज़ी से घूमना शुरू हूआ। कि शालों की एक बहुत बड़ी गेंद सी बन गई। जो उस के आगे आगे ज़मीन पर उछलने कूदने लगी।

वो अब दौड़ने लगा। लेकिन फ़ौरन ही ख़्यालों की भीड़ भाड़ में एक नया ख़याल बुलंद आवाज़ में चिल्लाया। तुम क्यों भाग रहे हो? किस से भाग रहे हो? तुम बुज़दिल हो!

उस के क़दम आहिस्ता आहिस्ता उठने लगे। ब्रेक सी लग गई। और वो हौलेहौले चलने लगा..... वो सचमुच बुज़दिल था....... भाग क्यों रहा था? ........ उसे तो इंतिक़ाम लेना था.... इंतिक़ाम........ ये सोचते हूए उसे अपनी ज़बान पर लहू का नमकीन ज़ायक़ा महसूस हूआ। और उस के बदन में एक झुरझुरी सी पैदा हूई। लहू..... उसे आसमान ज़मीन सब लहू ही में रंगे हूए नज़र आने लगे....... लहू....... इस वक़्त उस में इतनी क़ुव्वत थी कि पत्थर की रगों में से भी लहू निचोड़ सकता था।

उस की आँखों में लाल डोरे उभर आए। मुट्ठियाँ भिंच गईं। और क़दमों में मज़बूती पैदा हो गई..... अब वो इंतिक़ाम पर तुल गया था! वो बढ़ा।

आने जाने वाले लोगों में से तीर के मानिंद अपना रास्ता बनाता। आगे बढ़ता रहा। आगे...... आगे!

जिस तरह तेज़ चलने वाली रेलगाड़ी छोटे छोटे स्टेशनों को छोड़ जाया करती है। इसी तरह वो बिजली के खंबों, दूकानों और लंबे लंबे बाज़ारों को अपने पीछे छोड़ता आगे बढ़ रहा था। आगे...... आगे...... बहुत आगे!

रास्ते में एक सिनेमा की रंगीन बिल्डिंग आई। उस ने उस की तरफ़ आँख उठा कर भी न देखा। और इस के पास से बे-परवाह, हवा के मानिंद बढ़ गया।

वो बढ़ता गया

अंदर ही अंदर उस ने अपने हर ज़र्रे को एक बम बना लिया था। ताकि वक़्त पर काम आए मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से ज़हरीले साँप के मानिंद फंकारता हुआ वो अपोलो बंदर पहुंचा....... अपोलो बंदर.... गेट वे आफ़ इंडिया के सामने बेशुमार मोटरें क़तार दर क़तार खड़ी थीं। उन को देख कर उस ने ये समझा कि बहुत से गिद्ध “पर” जोड़े किसी की लाश के इर्दगिर्द बैठे हैं। जब उस ने ख़ामोश समुंद्र की तरफ़ देखा। तो उसे ये एक लंबी चौड़ी लाश मालूम हूई...... इस समुंद्र के उस तरफ़ एक कोने में लाल लाल रोशनी की लकीरें हौलेहौले बल खा रही थीं। ये अकाली शान होटल की पेशानी का बर्क़ी नाम था। जिस की लाल रोशनी समुंद्र के पानी में गुदगुदी पैदा कर रही थी।

केशवलाल खारी सींग वाला इस आलीशान होटल के नीचे खड़ा हो गया।

इस बर्क़ी बोर्ड के ऐन नीचे क़दम गाड़ कर उस ने ऊपर देखा..... संगीन इमारत की तरफ़ जिस के रोशन कमरे चमक रहे थे और....... उस के हलक़ से एक नारा...... कान के पर्दे फाड़ देने वाला नारा पिघले हूए गर्मगर्म लावे के मानिंद निकला। “हत तेरी....... ! ”

जितने कबूतर होटल की मुंडेरों पर ओंघ रहे थे डर गए और फड़फड़ाने लगे।

नारा मार कर जब उस ने अपने क़दम ज़मीन से बड़ी मुश्किल के साथ अलाहिदा किए और वापस मुड़ा। तो उसे इस बात का पूरा यक़ीन था। कि होटल की संगीन इमारत उड़ा उड़ा धम नीचे गिर गई है।

और ये नारा सुन कर एक शख़्स ने अपनी बीवी से जो ये शोर सुन कर डर गई थी। कहा। “पगला है!”