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बड़ी मां

बड़ी मां

दफ्तर जाते समय सुधा जब मुझे दरवाजे तक छोडऩे आई तो मेरे साथ उसकी नजर भी उस मुस्कराते चेहरे पर जा टिकी जो एकटक मंद-मंद मुस्कान के साथ मुझे निहार रहा था। इस तरह सार्वजनिक रूप से एक युवा महिला का मेरी पत्नी के सामने ही मुझे निहारना विकट स्थिति उत्पन्न कर गया। कोई और मौका होता तो शायद मैं भी उस मधुर मुस्कान का जवाब इसी तरह मुस्कराते हुए देता लेकिन पत्नी पास होने के कारण मैं झेंपकर रह गया। इसके विपरीत सुधा का चेहरा तमतमा गया। वह मुस्कराकर मुझे विदा करना भूलकर बड़बड़ाने लगी, 'बड़ी बेशर्म औरत है! दूसरों के पति को यूं निर्लज्जता से घूर-घूर कर देखती है, मानो कब्जा करना चाहती है।

मैंने धीमे स्वर में उसे डांटते हुए कहा, 'अमां यार, तुम भी इन मामूली बातों को लेकर परेशान हो जाती हो। वह देखती है तो तुम क्यों परेशान होती हो, मैं तो उसे नहीं देखता न! इस तरह सड़क पर बड़बड़ाकर तमाशा करना अच्छी बात थोड़े ही है। अब गुस्सा छोड़ो और मुस्कराओ ताकि दफ्तर में मेरा मन लगा रहे और तुम्हारा मुस्कराता चेहरा याद आता रहे।

मेरी बात सुनकर सुधा बेमन से मुस्कराई और दरवाजा बंद कर लिया। मैंने भी अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और दफ्तर आ गया।

दफ्तर में आने के बाद मेरी आंखों में बार-बार एक मुस्कराता चेहरा आता रहा। वह चेहरा मेरी पत्नी सुधा का नहीं, पड़ोस में रहने वाली उस महिला का था जो रोज सुबह मेरे दफ्तर जाते समय अपने घर के बाहर खड़ी एकटक मुझे निहारा करती थी। उसका इस तरह मुझे निहारना वैसा ही लगा था जैसा कि स्वाभाविक रूप से एक पुरुष को स्त्रियोचित्त आकर्षण से लगता है यानी सुखद और आनंददायक।

मुझे लगा कि घर से बाहर टाइमपास के लिए एक प्रेम कहानी चल सकती है, लेकिन उसका इस तरह लगातार निहारना ज्यादा दिन तक सुधा से छुपा नहीं रह सका और वह प्रेम कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई। बाहरवाली के चक्कर में घरवाली ही नाराज रहने लगी। इस बात को लेकर अक्सर सुधा का मूड खराब हो जाता और वह अपनी आदत के अनुसार घर का सारा काम-काज छोड़कर दिन भर कोप भवन में पड़ी सुबक-सुबक कर रोती रहती।

मैं इस मौहल्ले में पिछले तीन साल से रह रहा हूं। मेरे घर के ठीक सामने भाटिया जी के मकान के बाहरी हिस्से में वे लोग दो साल से किराए पर रह रहे हैं। मैंने पता लगाया कि उसका पति रामदरस जिला चिकित्सालय के पास कहीं चाय की थड़ी लगाता है। वह मुंह अंधेरे घर से चला जाता है और देर रात को लौटता है। रामदरस दो साल पहले ही उसे अपने बिहार प्रदेश के किसी गांव से ब्याह कर यहां लाया था और उसी घर में ठहरा था। ये लोग दो साल से यहां रह रहे थे, कभी कोई समस्या नहीं आई। अब पिछले दो महीने से उसने जाने मुझमें क्या देखा कि वह मुझे अपलक निहारने लगी थी।

कई बार मुझे लगता कि बेचारी का पति उसे पर्याप्त समय नहीं दे पाता होगा, इस कारण वह मुझे लिफ्ट देने का प्रयास कर रही है। इसका लाभ उठाना चाहिए। लोग तो मछली को फंसाने के लिए जाने कैसे-कैसे कांटे डालते हैं, और यहां मछली खुद ही चलकर कांटे में फंसने को तैयार बैठी है। फिर मन में ख्याल आता कि इस तरह पराई स्त्री के बारे में सोचना न सिर्फ धर्म के विरुद्ध है, बल्कि सुधा के प्रति भी अन्याय है पर दूसरे ही पल उस सुंदर स्त्री की मुस्कान मुझे अपने मोहपाश में जकड़ लेती और मन कहने लगता, 'क्या-पाप और क्या पुण्य! इस आनंद सागर में गोते लगाने का मौका मिला हो और कोई बच पाया हो, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता। स्वयं देवता और ऋषि-मुनि भी इस आकर्षण से नहीं बच पाए। फिर तुम तो साधारण इनसान हो!

'ल...ल... लेकिन आत्मा फिर इस दलदल में गिरने से रोकती, 'तुम एक साहित्यकार हो। समाज को नई दिशा देने का काम करते हो। अगर तुम ही रास्ता भटक जाओगे तो समाज? तुम्हारी रचनाएं ढकोसला मात्र बनकर न रह जाएंगी?

'साहित्यकार! ऊंहूं! मुस्कान के तीर से बींधा हुआ मन कहता, 'साहित्यकारों की हकीकत तुम नहीं जानते क्या? कोई अपनी भाभी के प्रेमपाश में बंधा था और कोई अपनी मौसी की बेटी यानी बहन पर जान छिड़कता था। किस साहित्यकार ने अपनी बेटी की उम्र की लड़की से शादी नहीं की थी और कौन दो-तीन जगह मुंह मारकर भी आदर्श लेखक नहीं बना रहा। लेखन और व्यक्तिगत जीवन को जोड़कर चलोगे तो दुख पाओगे। लेखन अपनी जगह, आनंद अपनी जगह। किसी मुखौटे से डरने की जरूरत नहीं। जब तक चुग्गा है, चुग लेना। फिर उड़ जाना।

मन की चंचलता के चलते शुरू में एक-दो बार उसके मुस्कराने पर मैं भी थोड़ा मुस्कराया लेकिन मेरी यह मुस्कान ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई। एक दिन सुधा ने मुझे उसकी तरफ देखकर मुस्कराते देख लिया था और उसने मायके जाने की धमकी दे दी। मुझे लगा कि पराई आग में कहीं मैं अपना तिनका-तिनका कर बसाया घर न जला बैठूं। यही सोचकमर मैने उसकी तरफ देखना बन्द कर दिया और दफ्तर जाते समय मैं नजर चुराते हुए निकलने का प्रयास करने लगा। फिर भी जब कभी मौका मिलता और चोर नजरों से उसे देखता तो वह मेरी ही तरफ ताकती महसूस होती।

नजरों की इसी लुका-छिपी में चार-पांच माह बीत गए। अचानक मुझे लगने लगा कि उसका शरीर कुछ भरा-भरा रहने लगा है। पेट भी कुछ बड़ा हो गया है। मुझे जैसे झटका लगा- जरूर यह पेट से है!

मैं सोचने लगा, इसका पति समय देता नहीं। मैंने आज तक कुछ किया नहीं, फिर यह पेट से कैसे हो गई। कोई और फांस लिया होगा। हो सकता है भाटिया जी ने ही उसकी मनोकामना पूरी कर दी हो। आखिर घर की बात घर में ही निपट जाए तो सबसे अच्छी मानी जाती है। सोचते-सोचते ही मुझे उस मधुर मुस्कान से नफरत होने लगी। फिर यह ख्याल भी आता कि जब उसकी मनोकामना पूर्ण हो ही गई और उसे अपने घर में यार मिल गया है तो यह अब भी मुझे क्यों निहारती है। फिर मेरे मन में पनप रहा शक का दानव फुसफुसाकर कहता-अरे ऐसी कुलटाओं का एक से मन थोड़े ही भरता है, ये तो जब तक पांच-सात घाट का पानी न पी लें, इन्हें चैन ही नहीं पड़ता!

मैं बेचैन हो जाता। कई बार रात को बिस्तर पर आते ही सुधा भी उसका जिक्र छेड़ देती, उसे छठा महीना चल रहा है। फिर भी दरवाजे पर खड़ी होकर तुम्हें देखना नहीं छोड़ा। आखिर वह चाहती क्या है? फिर स्वयं ही कहती, 'कुछ भी चाहती हो, तुम उसकी तरफ मत देखना जी! तुम्हें मेरी कसम!

समय बीतने के साथ-साथ उसकी मुस्कान मुझे बड़ी बीभत्स प्रतीत होने लगी थी। जैसे-जैसे उसके दिन पूरे हो रहे थे, मुझे उसका खूबसूरत शरीर बेडोल और भद्दा लगने लगा। उसे देखने को मेरा मन ही नहीं करता था। मैं दफ्तर जाते समय उस तरफ नजर नहीं उठाता। परन्तु अनजाने में उसे देखने की आदत की वजह से जब भी देखता, वह मुझे मुस्कराते हुए निहारते नजर आती।

एक दिन वह अपने दरवाजे पर नजर नहीं आई। दूसरे दिन दफ्तर से लौटा तो उसके घर से महिलाओं द्वारा कोई लोकगीत गाने की आवाज आ रही थी। घर आया तो पत्नी ने बताया कि उस कुलटा ने पुत्र को जन्म दिया है। इस खुशी में सोहर गाया जा रहा है। फिर कई दिन बाद सुधा ने बताया कि आज सामने वाली के बेटे का नामकरण संस्कार है, पूरे मौहल्ले के साथ हमें भी बुलाया है।

'मैं क्या करूंगा जाकर... मैंने टालने के लिए कहा, 'गली की औरतों के साथ जाकर तुम ही शगुन दे आना।

मुझे नहीं जाना था, नहीं गया। उस अनदेखे बच्चे से भी जाने क्यों मुझे नफरत सी हो गई थी। शायद इसलिए कि मेरा दिल उसे हराम की औलाद करार दे रहा था। मुझे पूरा विश्वास था कि यह बच्चा उसके पति का नहीं होकर भाटिया का है। सच तो यह है कि मन में एक टीस भी थी कि यह बच्चा उसे भाटिया से ही क्यों मिला। अगर यह सौभाग्य वह मुझे देती तो कितना अच्छा होता।

बाद में पत्नी ने बताया कि वह नामकरण संस्कार में गई थी और इक्यावन रुपए के साथ अपने बिट्टïू के जन्म के समय आए दो नए सूट, जो अब उसके काम नहीं आ सकते थे, भी उसे दे आई है। मैंने डरते-डरते सुधा से पूछा, क्या बच्चे की शक्ल भाटिया से मिलती है?

'बिल्कुल नहीं! सच कहूं! मुझे तो वह आप जैसा दिखाई देता था। वह पूछ भी रही थी कि आप क्यों नहीं आए? वह चाहती थी कि आप एक बार उसके बच्चे को आशीर्वाद दे जाएं! फिर शरारत से मुस्कराकर सुधा ने पूछा, 'कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं।

मैं हैरान था कि उसका जिक्र चलते ही तमतमाने वाली सुधा आज मुस्करा क्यों रही है? मैंने बात को अधिक तूल देना उचित नहीं समझा और करवट बदलकर सो गया।

इस घटना के लगभग एक महीने बाद सुबह जब दफ्तर जाने से पहले नहा धोकर मैं सुधा के साथ नाश्ते की मेज पर बैठा तो हम दोनों ही दंग रह गए। वह अपने बच्चे को गोद में उठाए बेधड़क हमारी तरफ बढ़ी चली आ रही थी। जापे के बाद उसका शरीर फिर खूबसूरत और आकर्षक नजर आ रहा था।

मैं अभी हैरान-परेशान उसे देख ही रहा था कि उसने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, 'भाई साहब नमस्ते।

अपने लिए 'भाई साहब सम्बोधन सुनकर मैं कुछ झेंपा लेकिन सुधा के चेहरे पर राहत के चिह्नï नजर आए। उसने पास आकर बच्चा जबरन मेरी गोदी में डाल दिया और मुस्कराकर बोली, 'हम बहुत गरीब और छोटे लोग हैं भाईसाहब! मगर मेरी तमन्ना थी कि मेरा बेटा आपकी तरह नाम कमाने वाला बड़ा और अच्छा आदमी बने! मैंने अखबार में आपकी कहानियां पढ़कर सोची थी कि आप जैसा मेरा बेटा हो। इसलिए मैं 'उन दिनों में भगवान राम या कृष्ण की तस्वीर को देखने के बजाय आपको देखती थी। क्योंकि बड़े-बुजुर्ग कहते हैं, 'उन दिनों जैसे लोगों को देखते हैं, वैसा ही शिशु होता है। इसके जन्म पर तो आप आए नहीं, इसलिए मैं ही चली आई। आप इसे आशीर्वाद दें कि यह बड़ा होकर आप जैसा बन सके।

मैं अपराध बोध से घिरा उस मां को देखता रह गया जो न जाने मेरे किस गुण से प्रभावित होकर मुझे बड़ा आदमी समझ बैठी थी। मुझे लगा कि अपने बच्चे को कुछ बनाने के लिए सोचने वाली मां सचमुच बहुत बड़ी है।

मुआवजा-विवाह

अंधकार ने अपना फन फैलाया। अंधेरे का काला सर्प रेंगा और शाम के धुंधलके पर कुण्डली मारकर बैठ गया। इसी के साथ सूरज ने क्षितिज में मुंह छुपा लिया। शायद वह भी मीनू के दुख को और अधिक समय तक देख पाने में असमर्थ था। भानू का शव अग्नि को समर्पित करके लौटे सब रिश्तेदार और पड़ोसी अपने घरों को लौट गए थे। जवान मौत पर शोक जताने के लिए आने वाले लोगों का तांता अब कुछ थम सा गया था। आंगन में बिछी दरी पर बड़े भैया शंकर, पापा, चाचा, मामा और बाहर से आए मौसा व फूफा के बड़े लड़के बैठे थे। घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं भी अब उनके बीच आ बैठी थीं।

'दूसरा मरने वाला कौन था? मरघटी सन्नाटे को तोड़ते हुए फूफा के बड़े लड़के महेश ने पूछा।

'वह किसी पेस्टीसाइड्स कम्पनी का एजेंट था। पापाजी के कुछ कहने से पहले ही मामाजी ने जवाब देकर बातचीत को आगे बढ़ाया।

'फिर तो उसके परिवार वालों को कम्पनी की तरफ से भी क्लेम मिलेगा। महेश ने बताया तो बड़े भैया शंकर को अफसोस हुआ कि भानु भी किसी पेस्टीसाइड्स कम्पनी का एजेंट क्यों नहीं हुआ, परंतु वे खामोशी से बैठे रहे।

'भानु की जेब से टिकट तो बरामद कर लिया था न? महेश ने फिर पूछा।

'हां! पापा पहली बार बोले थे, 'उसके पास बैठे तीन-चार यात्रियों को भी गवाही के लिए राजी कर लिया था। क्या पता कब उनकी गवाही की जरूरत पड़ जाए।

'गवाही की तो ज्यादा जरूरत नहीं होती, बस एक्सीडेंट केस में। महेश ने ज्ञान बघारते हुए कहा, 'मगर यात्री के पास टिकट जरूर होना चाहिए, ताकि सरकार को लगे कि मुआवजा लेने वाले परिवार का मृतक सदस्य बस में टिकट लेकर बैठा था। वह कोई मुफ्तखोर नहीं, बल्कि वास्तविक यात्री था।

'भानु का बीमा-वीमा तो होगा ही! मौसा जी ने पूछा।

'नहीं! शंकर ने जवाब दिया, 'इसकी कभी जरूरत ही महसूस नहीं की। न भानु ने इस बारे में सोचा, न मीनू या परिवार वालों ने!

'सोचना चाहिए था भाई! मौसा जी ने जैसे सम्पूर्ण परिवार को फेल करार देते हुए कहा, 'आज के जमाने में $िजन्दगी का भरोसा क्या है? फिर भानु को तो रोज बसों में सफर करना पड़ता था। बसों का सफर ही जान को हथेली पर लेकर चलना होता है। भई मुझे आप लोगों से ऐसी उम्मीद नहीं थी। आखिर जवान मौत हो गई। अब उसकी पत्नी का भी तो कुछ गुजारा होना चाहिए था न! हमारे पड़ोस में वर्मा जी का बेटा हार्ट अटैक से मर गया। घर वालों को पांच लाख रुपए मिल गए। बीवी और बच्चों को अब अपने भविष्य की कोई फिक्र नहीं रही।

मौसा जी बीमा करवाने के लाभ गिनवा रहे थे और बड़े भैया सोच रहे थे कि इस बारे में किसी ने पहले क्यों नहीं बताया। उन्होंने मन ही मन निर्णय किया- भानु की तेरहवीं होते ही सबसे पहले पापा जी का लाख-दो लाख का बीमा करवाएंगे। आखिर $िजन्दगी का कोई भरोसा थोड़े ही है!

'शंकर थाने गया था, न? मौसा जी ने नया सवाल किया, 'क्या बना?

सबकी नजरें बड़े भैया की ओर घूम गईं।

'थानेदार ने रिपोर्ट लिख ली है। ट्रक और बस को थाने के बाहर सीज करके रखवा दिया गया है। शंकर ने बताया।

'और ड्राइवर?

'ट्रक ड्राइवर फरार है, और बस का चालक अस्पताल में भर्ती है। उसे काफी चोटें आई हैं। शंकर ने बताया।

'ट्रक के मालिक पर भी केस करना था। कुछ न कुछ क्षतिपूर्ति राशि उसे भी देनी पड़ेगी। महेश ने कहा।

'उसके खिलाफ भी मुकदमा दर्ज करवाया है। अब देखो क्या होता है? शंकर ने बताया।

'मेरे ख्याल से दोनों जगह से डेढ़ लाख रुपए तो मिल ही जाने चाहिएं। महेश ने फिर कहा, 'रोडवेज की बस में एक्सीडेंट से मरे यात्री को एक लाख रुपए सरकार देती है। करीब 50 हजार रुपए ट्रक मालिक को देने पड़ेंगे।

'डेढ़ लाख रुपए! बड़े भैया और पापा दोनों के गम$जदा चेहरे पर एक क्षण के लिए चमक उभरी। परन्तु दिखावे के लिए बड़े भैया ने कहा, 'रुपए का हमने क्या करना है? बस किसी तरह भानु की बीवी और उसके होने वाले बच्चे की जिन्दगी बन जाए। इसीलिए हमने थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है और मुआवजे की मांग की है।

एक कोने में शून्य को ताक रही मीनू ने बड़े भैया की बात सुनी तो उसकी आंखों में आंसुओं का सैलाब उतर आया। भानु के बिना उसकी क्या जिन्दगी बनेगी, सोचकर ही उसकी रुलाई फूट पड़ी। उम्र भर साथ निभाने का वादा करने वाला भानु वैवाहिक जीवन के तीसरे वर्ष में ही उसका साथ छोड़ गया था। कितने सुहाने सपने बुने थे उसने भानु के साथ मगर मौत के क्रूर पंजों ने उसके सपनों को मसल डाला था। तिनका-तिनका जोड़कर जमा की गई उसकी खुशियां एक ही झटके में बिखर गई थीं। भानु कपड़े की एक होलसेल फर्म में सेल्समैन था। बसों में सफर करते हुए उसे वर्षों बीत गए थे। रोज सफर में रहने के कारण सब ड्राइवर-कण्डक्टर उसके मित्र थे। इसी मित्रता के चलते अक्सर वह टिकट नहीं लेता था और तनख्वाह के अलावा टी.ए. से बड़ी रकम बचा लेता था। भानु अक्सर मजाक में मीनू से कहा करता था, 'अपना तो जीवन इन बसों में गुजरना है। यही अपनी जिन्दगी का सफर है।

मगर मीनू कहां जानती थी कि जिन बसों को भानु अपना जीवन मान रहा था, वही बसें उसकी जिन्दगी पर मौत की मोहर लगा देंगी। फर्म के काम से भानु बस में सवार होकर नजदीक के कस्बे में जा रहा था कि एक खतरनाक मोड़ पर सामने से आ रहे बेलगाम ट्रक ने बस को टक्कर दे मारी थी। इस भीषण दुर्घटना में बस के दो यात्रियों की मौत हो गई थी और एक दर्जन सवारियां घायल हुई थीं। मरने वालों में भानु भी शामिल था। इसी के साथ मीनू की खुशहाल दुनिया उजड़ गई थी।

दुनिया के बीहड़ जंगल में भानु ने उसका साथ छोड़ा तो उसके पेट में दो माह की नन्ही जान विकसित हो रही थी। शोक व्यक्त करने आने वाले लोगों की बातों से मीनू का दिल तार-तार हो जाता। उनकी बातों में दुख को नियति समझकर स्वीकार कर लेने की सलाह के अलावा जो सारतत्त्व छिपा होता, उसका छोर मुआवजे पर आकर ही समाप्त होता था। सब यही दर्शाते थे कि मुआवजे में डेढ़ लाख रुपए मिल जाने के बाद मीनू और उसके होने वाले बच्चे की जिन्दगी संवर जाएगी। लोगों की बातें सुनकर मीनू का जी चाहता कि चिल्ला-चिल्लाकर उनसे पूछे, 'मुआवजा, मुआवजा, मुआवजा! ये मुआवजा उसके दुख से ज्यादा बड़ा हो गया है। उसके भानु पर भी हावी हो गया है ये मुआवजा! आखिर मिलेगा क्या मुआवजे में, डेढ़ लाख रुपए ही तो? क्या एक औरत अपनी जिन्दगी डेढ़ लाख रुपए के सहारे गुजार सकती है? क्या डेढ़ लाख रुपए बच्चे को पिता का प्यार दे सकते हैं? क्या इन रुपयों से वह भानु के संग गुजारे हुए क्षण खरीद सकती है? मगर चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कह पाती थी। सांत्वना के नाम पर मुआवजे की बातों में लिपटे नश्तर झेलने को विवश थी वह। किसी ने भी उसके दर्द को समझने की कोशिश नहीं की थी।

भानु की मौत को चार महीने गुजर गए। मीनू ने अब तक खुद को काफी हद तक संभाल लिया था। वह घर गृहस्थी का सारा काम करने लगी थी। परंतु एकांत में जब भी उसे भानु की याद आती तो उसका रोम-रोम जल उठता था। गीली लकड़ी की तरह सुलगते हुए वह अपने भाग्य को कोसती। फिर वह अपने पेट में पल रही भानु की निशानी के बारे में सोचने लगती। बिना बाप के बच्चे की जिन्दगी कैसी होती है, उसके प्रमाण वह गलियों में लावारिस घूमते बच्चों में देख चुकी थी। इस दौरान एक पल के लिए भी मुआवजे ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था। रोज मुआवजे को लेकर बातें होती थी। शुरू-शुरू में बड़े भैया जल्दी मुआवजा मिलने की बात दोहराते थे। मगर धीरे-धीरे उनका धैर्य जवाब देने लगा था। अदालत में केस की तारीखें भुगतते-भुगतते वे परेशान हो गए थे। हर माह की तारीख पर वे बड़ी उम्मीद के साथ कोर्ट जाते थे मगर मुआवजे के बजाय नई तारीख लेकर लौटते। कई बार तो बड़े भैया खींझ कर कहते थे, 'क्या करें। सब अफसर रिश्वतखोर हैं। रोडवेज के अधिकारियों को अगर 25 प्रतिशत रिश्वत दे दें तो अपना काम आज हो जाए। अब रिश्वत के लिए एक साथ इतने रुपए लाएं कहां से?

इन दिनों एक और मुश्किल सामने आ गई थी। मीनू की उम्र को देखते हुए उसके माता-पिता को चिंता थी कि मीनू पहाड़ जैसी जिन्दगी का सफर अकेले कैसे तय कर पाएगी। वे चाहते थे कि कोई अच्छा सा लड़का देखकर उससे मीनू की शादी कर दी जाए। दूर की रिश्तेदारी में एक लड़का उन्हें जंचा भी था। इसलिए मीनू के पिता द्वारकाप्रसाद उसके पुनर्विवाह के लिए आग्रह कर रहे थे। मगर भानु के माता-पिता को फिक्र थी कि अगर मीनू का पुनर्विवाह कर दिया गया तो उन्हें मुआवजा नहीं मिलेगा।

उन्हें यह भी चिंता हुई कि कहीं मीनू नया घर बसाने के बाद उन्हें भूल गई तो मुआवजे के रूप में तो कुछ मिलना नहीं है, भानु की आखिरी निशानी जो मीनू की कोख में पल रही है, भी उनसे छिन जाएगी।

भानु के पापा चाहते थे कि एक बार मुआवजा मिल जाए तो मीनू चाहे जहां रहे, उन्हें कोई एतराज नहीं था। वह नया घर बसाए या उनके घर में ही रहे। वे हर तरह से तैयार थे, लेकिन मुआवजा मिले बगैर वे कुछ भी करने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें देश की अदालतों पर भी गुस्सा आता कि वे मामलों को आखिर इतना लम्बा क्यों खींचती हैं! दादा मुकदमा करता है और अदालत मुआवजा उसके पोते के जवान होने पर देती है। कई मामलों में तो परिवादी मुआवजे के इन्तजार में ही खुदा को प्यारा हो जाता है और फिर उसकी आत्मा अदालतों के ईर्द-गिर्द मंडराती रहती है।

भानु के पापा अपने भाग्य के साथ देश की न्यायपालिका को भी कोसते और उन्हें एक अज्ञात भय सताता कि कहीं मीनू के मन में भी पुनर्विवाह का ख्याल न आ जाए। इसलिए वे पुनर्विवाह की चर्चा से ही सिहर उठते थे।

दूसरी तरफ द्वारका प्रसाद का दबाव बढ़ता जा रहा था। उन्हें डर था कि मुआवजा मिलने में देर होना तो स्वाभाविक है, जो लड़का अभी मीनू से विवाह करने को तैयार है, अगर वह हाथ से निकल गया तो फिर बहुत मुश्किल हो जाएगी।

काफी न-नुकर के बावजूद जब द्वारकाप्रसाद नहीं माने तो भानु के पापा ने यह कहकर उन्हें आश्वस्त करना चाहा कि मुआवजा मिलने के बाद वे मीनू की शादी भानु के छोटे भाई संजय से कर देंगे। परंतु द्वारका प्रसाद को संदेह था कि मुआवजा मिलने के बाद संजय विवाह से इनकार कर सकता है। कहीं बाद में संजय मुकर जाए और जो लड़का अब मान रहा है, उसका अन्यत्र विवाह हो गया तो मुश्किल हो जाएगी।

इस बात को लेकर घर में काफी हंगामा मचा था। अंतत: जीत द्वारका प्रसाद की हुई। भानु के पिता मीनू की शादी संजय से तुरंत करने के लिए मान गए थे। मगर शर्त यह रखी गई थी कि अदालत के सामने मीनू को विधवा ही पेश किया जाएगा। कहीं अदालत में मीनू की दूसरी शादी की बात उजागर हो गई तो मुआवजा नहीं मिलेगा। फिर कुछ खास रिश्तेदारों की मौजूदगी में संजय और मीनू ने मंदिर में माला डालकर एक दूसरे को पति-पत्नी स्वीकार कर लिया था।

मीनू फिर सुहागिन बन गई थी। कुछ समय बाद उसने पुत्र को जन्म दिया, परन्तु मुआवजे के चक्कर में विवाहित होकर भी कानून की नजर में वह विधवा थी। बड़े भैया, संजय और पापा की लाख कोशिशें अभी तक मुआवजा पाने में सफल नहीं हो सकी थीं। मुआवजे के इंतजार में विवाहित मीनू विधवा की जिन्दगी गुजारने को विवश थी। कई बार उसे लगता कि मुआवजे ने उसका विवाह के बाद भी पीछा नहीं छोड़ा और उसे दूसरी बार विधवा बना रखा है।

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