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फ्यू -फाइन्ड इटर्निटी विदिन - क्योंकि लाइफ की ऐसी की तैसी न हो - भाग-4

१८) जितनी उंगलियाँ, उतनी अंगूठियाँ। घर से निकले तो मुहूर्त देखना, किसी भी काम को प्रारम्भ करने के लिए खुद पर नहीं, न्यूमरोलॉजिस्ट पर ज़्यादा भरोसा रखना। लोगों को ये क्या हो गया है? किस्मत टटोलने, खोलने, बदलने वाले शास्त्र अपनी जगह पर हैं और किस्मत बदलने के लिए कर्मप्रवृत्त होना दूसरी बात है। वैसे देखें तो कौन-सी अंगूठी पहनें, या पहले दायाँ कदम उठाएँ या बायाँ, ये पूछने का कष्ट उठाना भी तो कर्म ही है। कर्म करेंगे तो कम त्रस्त होंगे। किस्मत की क्लीनिंग कर सकने वाली कई लॉन्ड्री भगवान ने नहीं बनाई है। सफल, सुखी और संतुष्ट लोगों में किस्मत काउन्सलिंग कराने वालों की मात्रा सचमुच बहुत कम है। बेहतर होगा कि आप अपना समय अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में गुजारें, अच्छे कार्य करें, पौष्टिक भोजन खाएँ, जीवन में सच को अपनाएँ और निश्चिंत होकर रोज रात को सो जाएँ। इस निर्णय के बाद शायद ही आपको मुहूर्त के चक्कर में पड़ने की आवश्यकता महसूस हो।

१९) सबसे ईमानदार प्रार्थना क्या हो सकती है? वो प्रार्थना, जिसमें भगवान से कभी कुछ भी मांगा न जाए, बस जीवन का तोहफा देने के लिए उसके प्रति आभार प्रदर्शित किया जाए। उससे एक कदम आगे की प्रार्थना है, जीवन को उसी ईमानदारी के साथ जीना। ऊपर वाले ने जन्म देने के साथ ही जीने की पूरी आजादी दी है कि जाओ, जीवन को अपने तरीके से जियो। मान्यता चाहे जो भी हो, लेकिन ऊपर वाला किसी जीव को परेशान नहीं करता। तो फिर कोई उसे परेशान करे, ये मांगे या वो मांगे, ये योग्य नहीं है। खाली हाथ आये, खाली हाथ जाएँ, यानी जब जाएँ, उसको वापिस उपहार नहीं देना है। तो फिर, हे भगवान! मुझे ये दे दो, मुझे उससे बचा लो, मेरा ये सपना पूरा कर दो, ऐसा सब करके उसे परेशान करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। इसलिए जीवन में जो भी मिला है, हम उसके लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करें। फिर स्वतः भगवान के साथ हमारा सच्चा रिश्ता बन जाएगा।

२०) जिसको राजनीति का “र” अक्षर भी पता नहीं होता, वह भी देश के हर नेता के बारे में भला-बुरा बोलता रहता है। खुद कभी दस मिनट मैच नहीं खेला होगा, पर क्रिकेटर की आलोचना करता रहता है। अमर्त्य सेन की एक पुस्तक के नाम का सरल भाषांतर है - दलीलबाज़ भारतीय। चाहे किसी भी मुद्दे पर चर्चा छिड़ जाए, भारतीय बिना जानकारी के उसपर बकबक करने का सामर्थ्य रखते हैं। कितनी ऊर्जा, कितनी शक्ति ऐसी दलीलों पर खर्च हो जाती है। पान की गद्दी पर, गली-नुक्कड़ पर, ट्रेन की भीड़ में... हर जगह चर्चा चलती ही रहती है, पर हासिल कुछ नहीं होता। पश्चिम के लोग कह सकते हैं, “मुझे पता नहीं, आप बताएँ।” लेकिन यहाँ ऐसा शायद ही सुनने को मिलता है। कम ज्ञान को स्वीकार करना शर्मनाक बात कभी नहीं हो सकती। स्वीकार करने से कुछ नया जानने की जिज्ञासा का आनन्द तो बढ़ता ही है, सामने वाले की नज़रों में सम्मान भी बढ़ जाता है। सबसे अच्छी बात ये है कि रात की नींद और दिन का कार्य, दोनों का संतोष प्राप्त होता है।

२१) अमेरिका को आजादी मिली। संविधान बना, राज्य बने। राजधानी तय करने का भी समय आया। नीति निर्धारकों ने कहा, “हर राज्य की राजधानी उसका नम्बर वन या नम्बर टू नहीं, बल्कि नम्बर तीन शहर होगा।” उनके ऐसा करने से कई लाभ हुए। श्रेष्ठ शहर अपने आप विकास करता रहा और नम्बर टू शहर उससे बराबर होने की प्रतियोगिता करता रहा। तीसरे नम्बर का शहर, जिसे विकास के लिए आधारभूत संरचना, आयोजन, योजना आदि की आवश्यकता थी, वो सभी चीजें आसानी से उसे प्राप्त करायी गईं। नतीजा कमाल का रहा, एक साथ तीन शहर विकास की दौड़ में आगे निकल गए। भारत में हर राज्य के श्रेष्ठ शहर को उसकी राजधानी बनाने की नीति अपनायी गई। नतीजा चिन्ताजनक रहा। बड़े शहर की आबादी बेहिसाब बढ़ गई, पूरा प्रबंध अस्त-व्यस्त हो गया। छोटे शहरों को विकास के लिए आवश्यक चीजों का साथ नहीं मिला। उसके नागरिकों में अंदर ही अंदर लघु-ग्रंथि पनपती रही। नीति ठीक, निर्णय ठीक, तो हर काम ठीक। छोटी हो या बड़ी, पर जीवन की हर नीति दूरगामी ही होनी चाहिए, यह सदा याद रखो।

२२) बड़ी अजीबो-गरीब है, हमारे यहाँ की सामाजिक व्यवस्था। हम भगवान को मानते हैं, लेकिन उसपर अपने धर्म की मुहर लगाने के बाद। हम रोमांस और सेक्स की बात करने से कतराते हैं, लेकिन गौरतलब बात है कि इंटरनेट पर सेक्स सर्च करने में विश्व का नम्बर वन देश भारत ही है। हम प्रामाणिकता की हिमायत करते हैं, लेकिन छोटे-बड़े हर काम को निपटाने के लिए बेझिझक रिश्वत देते हैं। दोगली व्यवस्था, दारुण स्थितियों से घिरा देश। आगे ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। साफ-सुथरी सोच, साफ-सुथरा जीवन, साफ-सुथरा नियम। दोगलेपन से हमें अंत में कुछ भी नहीं मिलने वाला। कितनी पीढ़ियाँ क्या कुछ नहीं भुगतती रहीं, अपने इसी दोगलेपन की नीति के कारण। बस एक कोशिश करनी है, खुद को हर दोगलेपन से पूरी तरह मुक्त रखने के लिए। इससे हमें अत्यधिक खुशी मिलेगी, दूसरों के प्रति आदर और सम्मान बढ़ेगा साथ ही आपको लगेगा कि मैंने क्यों इतने सालों तक इस सीधी-सादी बात को नहीं समझा?।

२३) बचपन में तैरायी गई कागज की नाव और उन्हें बहा ले जाने वाले बारिश के पानी तक की सभी यादें अत्यन्त मूल्यवान होती हैं। उम्र व समझ बढ़ने के साथ ही हम संकुचित मन के मालिक बनने लगते हैं। बचपन में अल्प साधन-सामग्री के बावजूद हमें अमीरी का अनुभव होता है। बड़े होने पर शोफर, ड्राइवर, कार व दो मंजिला घरों तथा सात-आठ आँकड़ों वाले बैंक-बैलेंस के पश्चात् भी अभाव महसूस होता रहता है। सुख विस्तृत करने की लालसा में हम हमेशा दुःख को ही विस्तार देते रहते हैं। बड़ा होने के बाद भरा-पूरा होने का आनन्द तो शायद ही हम कभी महसूस कर पाते हैं। लेकिन हमारी इस समस्या का समाधान एक ही है। बस जो मिला है, जैसा भी मिला है, उसका उत्सव हम मनाते रहें और अभाव को अपने मन की सरहद से सात सौ योजन दूर रखें। सुखी रहने के लिए यही हमारी पहली शर्त है। यह काम कुछ मुश्किल अवश्य है, लेकिन इसे करने की यदि ठान लें तो फिर नामुमकिन कुछ भी नहीं है। फिर तो जिंदगी के साथ सौदे में लाभ ही लाभ है।

२४) अपने आसपास घट रही घटनाओं पर यदि हम शांतिपूर्वक विचार करें तो पाएंगे कि मौजूदा स्थिति के लिए हम खुद कितने जिम्मेदार हैं। दरअसल, पात्रता है नहीं और भूल से पढ़ाई कर ली। डिग्री मिल गई, तो समाज में धमाल मचा रखा है। नतीजा “थोथा चना बाजे घना’ वाली हालत निर्मित हो गयी है। बहू यदि कर्कश हो, तो स्वाभाविक है कि ससुराल के सभी लोग उससे नाराज रहेंगे। लेकिन वही बहू यदि पुत्र को जन्म दे दे, तो फिर उसके सारे दुर्गुणों को विवश होकर सहन करने लगते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि तब बहू का पारा सातवें आसमान पर पहुँच सकता है। विद्या की शोभा विनय से होती है, इसे हमें स्वीकार करना ही होगा। वृक्ष जब फल से लदा होता है, तब वह झुक जाता है। पढ़े-लिखे इंसान को भी विनम्रता से झुक जाना चाहिए, लेकिन यह कथन कुछ लोगों पर लागू नहीं होता। वे तो ऐसा समझते हैं, मानो अमरत्व पा लिया हो। इस समाज में मिलजुलकर काम करने से उसके मधुर व मृदु फल प्राप्त होते हैं, यह बात आज भले ही समझ में न आए, लेकिन कल अवश्य आएगी, परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

२५) महर्षि वेदव्यास के अनुसार लोभ समुद्र की तरह है। नदियों का चाहे जितना भी पानी सागर में मिलता रहे, फिर भी वह तृप्त नहीं होता। ठीक इसी तरह लोभी व्यक्ति को चाहे जितना भी धन मिल जाए, वह कभी संतुष्ट नहीं होता। लोभ व मितव्ययता के बीच कई बार असमंजस की स्थिति निर्मित हो जाती है। मितव्ययी व्यक्ति से यदि थोड़ी भी असावधानी हो, तो वह लोभी बन जाता है।