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फ्यू -फाइन्ड इटर्निटी विदिन - क्योंकि लाइफ की ऐसी की तैसी न हो - भाग-5

26) दिन भर बारहों घंटे बोलते रहना आसान है, लेकिन बारह मिनट सुनना निहायत कठिन है। बोलने की क्रिया में बुद्धि की कोई विशेष भूमिका नहीं होती। बोलना एक मस्ती है, जबकि किसी को सुनना एक शक्ति है। शब्द का उपयोग शस्त्र की तरह हो, इसकी किसे चिन्ता है? दूसरे की बात को बीच में ही काटकर अपनी वाक्यधार की गंगा बहाते रहना अधिकांश लोगों का शगल है। लेकिन यह अच्छी आदत नहीं है। दुनिया में जिन व्यक्तियों ने कुछ उल्लेखनीय कार्य किया है, उन महापुरुषों व विद्वानों के उदाहरण देखें। ये सभी जितना आवश्यक होता था, मात्र उतना ही बोलते थे। विचारपूर्वक व शांति से जो व्यक्ति बोलते हैं, उनकी बातों में अधिक स्पष्टता व आकर्षकता होती है। उनकी बातों का प्रभाव भी अच्छा पड़ता है। आसपास के लोगों में उस व्यक्ति का मूल्य भी बढ़ जाता है। लेकिन बड़बड़ करने वाले को भला कौन पसंद करता है। जो व्यक्ति किसी बात को समझाने के लिए सवा सौ शब्दों का जाल बुनता है, वही बात एक समझदार व्यक्ति मात्र आठ-दस शब्दों में ही अभिव्यक्त कर देता है। भले आदमी ये क्यों नहीं समझते कि - “तुम्हारे शब्द चुभ जाएंगे तीर बनकर, कुछ विचारों, फिर बोलो गम्भीर बनकर।”

27) भावनाओं का हमारी प्रतिदिन की समस्याओं से गहरा सम्बन्ध होता है। भावनाएँ तृप्त हो जाएँ, तो जीवन में सब ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है। बीस रुपये की मजदूरी प्राप्त करने वाला व्यक्ति भी एक सुखी इंसान हो सकता है, बशर्ते उसमें सकारात्मक भावनाएँ हों और बीस फैक्टरियाँ खोलकर लाखों रुपये रोज कमाने वाला व्यक्ति भी दुःखी महसूस कर सकता है, अगर उसकी भावनाएँ नकारात्मक हैं। भावनाओं में डूबे हमारे विचार यदि समृद्ध हों तो फिर हर तरह की कंगालियत तुच्छ लगेगी। जिस व्यक्ति के विचार समृद्धशाली व सकारात्मक हों, वह सदैव सुखी व संतुष्ट रह सकता है। हम सभी तो भौतिक साधन प्राप्त न होने पर अधमरे जैसे हो जाने वाले लोग हैं, फिर भी हम यह विचार नहीं करते कि साधन की मौजूदगी की अपेक्षा उसकी गैर-मौजूदगी की भावना हमें विकल बनाती है। खयालों में मस्त रहने के लिए खयालों को बदलना भी पड़ेगा। बदलेंगे?

28) जिंदगी की गहराई को कभी भी नहीं जाना जा सकता, बावजूद इसके हर व्यक्ति बेहद समझदार व अनुभवी होने की डींगें मारता रहता है। चाहे जब, जितनी बार, जिस किसी पैमाने से मापें, जिंदगी सदैव, अधूरी, अकल्पनीय व आश्चर्यजनक ही रहने वाली है। किसी नदी में कितने भँवर हैं, यह स्वयं नदी को भी मालूम नहीं होता। जीवन का मामला भी कुछ वैसा ही है। लेकिन इस सत्य को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार करने की यदि आपकी तैयारी नहीं होगी, तो आप जिंदगी को कभी नहीं समझ पाएंगे। मार्शल नामक एक लेखक का कथन है - “कल मैं जीवित रहूँगा, यह तो कोई मूर्ख ही कह सकता है। आज जीने की बात कहें तो बहुत देर ही कही जाएगी, समझदार लोग तो कल जीने की बात सोचकर निश्चिंत हो गए हैं।’ किस प्रकार जिएँ, इस बात की चिन्ता करते हुए हम मूर्ख क्यों कहलाएँ? ऐसी समझ रखने वाले लोगों की छोटी कतार में हमें जुड़ना है?

29) ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक रचना भले ही एक जैसी की हो, बावजूद इसके हर मनुष्य का व्यक्तित्व भिन्न होता है। आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए कि आपकी मौजूदगी से आपके परिवार व मित्र मंडली को विशिष्ट आनन्द प्राप्त हो। ढीला-ढाला प्रभाव रहित व्यक्तित्व का क्या अर्थ है? प्रभावशाली व्यक्तित्व के लिए कई प्रकार की कुशलताओं की जरूरत नहीं होती। बस आप इंसान के रूप में जितना सरल होंगे, आपका व्यक्तित्व उतना ही अधिक मोहक व चेतनायुक्त होगा। यदि आपको दूसरों को अपना बनाना है, तो आपको भी उनकी भावनाओं का सम्मान करना होगा। लोगों के दिलों पर छा जाने के लिए आपने भाँति-भाँति की युक्तियाँ आजमाई होंगी, लेकिन अब और आज से ही सहज-सरल बनने का निश्चय करें। कुछ ही समय बाद आप मानसिक रूप से शायद बहुत हल्का महसूस करने लगेंगे और फिर आपका व्यक्तित्व एक नई आभा से खिल उठेगा।

30) आज का दिन सम्पूर्ण रूप से आज का दिन है और इस पर बीते हुए कल की किसी भी प्रकार की छाया नहीं पड़नी चाहिए। शहर के मशीनी जीवन में हमें भोर का मर्म समझने का मौका नहीं मिलता, लेकिन कभी यदि अवसर मिले तो ऊषा काल के आह्लादक वातावरण का आनन्द उठाने से नहीं चूकें। गगन में उड़ते पंछी, पूर्व दिशा से आती स्वर्णिम रश्मियाँ व हवा की ताजगी से मन प्रफुल्लित हो उठता है। आज शब्द का जो सहज प्रयोग किया गया है, उसके दो अर्थ स्पष्ट रूप से समझने योग्य हैं। एक तो यह कि जो बीते हुए कल का बोझ उठाकर फिर रहे होते हैं, वे आज का आनन्द बिल्कुल नहीं ले सकते और दूसरा यह कि प्रत्येक आज की तरह यह आज भी सहज है, थोड़ा ही है। अतः आज के इस सहज आज को अनोखा आज बनाने के लिए आशावादी व उत्साही बनना पड़ेगा।

31) चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होने का भाग्य सबको प्राप्त नहीं होता। फिर इस प्रकार का भाग्य प्राप्त होने के पश्चात् भी उसे टिकाए रखने के लिए पुरुषार्थ तो करना ही पड़ता है और उधार के सुख-साधन, समृद्धि कभी सोने के नहीं होते। बुजुर्ग बारम्बार कहते हैं कि नमक और रोटी से निर्वाह करने की आदत डालो, लेकिन दूसरे से आधार पाने की अपेक्षा मत रखो। समय खराब होने पर अगर किसी से कोई
छोटी-बड़ी सहायता की जरूरत पड़े, तो वह अलग बात है, लेकिन हमेशा सहायता लेने की प्रवृत्ति नहीं पालनी चाहिए। इससे व्यक्ति असहाय बन जाता है। परावलंबन की दूसरी ओर स्वावलंबन है। और जब तक आप स्वावलंबी नहीं बन जाते, तब तक सफलता कैसी भी मिले, वह सारहीन ही होती है। विधि का विधान है कि यहाँ जो भी किया है, उसका हिसाब यहीं चुकता करना है। प्रकृति के यहाँ किसी भी प्रकार का पक्षपात या क्षमा का कोई स्थान नहीं है। इसलिए प्रकृति के नियम को समझकर यदि जीवन जीते हैं, तो जीवन में समृद्धि भले ही कम प्राप्त होगी, लेकिन संतोष का खजाना आपके पास होगा।

32) दूसरे की बजाय व्यक्ति को सभी कार्य स्वयं करना चाहिए। जब कोई व्यक्ति आत्मबल के आधार पर कुछ करने का निश्चय करता है तो उसके लिए सफलता-असफलता की सम्भावनाएँ एकदम स्पष्ट हो जाती हैं। और यदि निष्फलता को सहन करने का मौका आ जाये तो भी उसका रंज सहन नहीं करना पड़ता। जिस मार्ग पर हमें चलना है, उसके लिए हम दूसरे के पैरों का इस्तेमाल कभी नहीं कर सकते। दूसरे के बल पर जीवन जीने वाले व्यक्ति की आदत समय बीतने के साथ इतनी खराब हो जाती है कि वह आसान काम भी अपने ढंग से नहीं कर पाता। हमारा व्यक्तित्व हमारे लिए ही अप्रिय बन जाए, इस प्रकार की वृत्ति को यथाशीघ्र तिलांजलि देना ही श्रेयस्कर होता है। गुम हो जाने के पश्चात् स्वयं को खोजने की रीति को आजमाना चाहिए।

33) व्यक्ति में नगर, राज्य व देश के कानून का डर होना नितान्त आवश्यक है। रामचरितमानस में भी तुलसीदासजी को लिखना पड़ा - “बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।’’ हमारे देश के पिछड़ेपन व जर्जर सामाजिक स्थिति के लिए किसी हद तक इस भय की गैरमौजूदगी भी जिम्मेदार है। आप खुद देख लीजिए, बहुत कम बरसात वाले देश इजरायल में पानी की एक-एक बूँद को सरकारी सम्पत्ति समझा जाता है। पानी सम्बन्धी कानून वहाँ इतने सख्त बनाये गए हैं कि लोग उनका उल्लंघन करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। यह तो हुई भूतकाल की बात। इस कानून ने इजरायल के नागरिकों में इतनी जागृति फैलाई कि कानून का महत्त्व स्वयमेव कम हो गया और लोग अब अपनी जवाबदारी पर पानी का जतन और उसका उपयोग करते हैं। घर हो या फिर देश, अनुशासन के लिए कुछ भय की जरूरत तो रहती ही है। दरअसल, प्रतिबंध न हो तो समझदार भी बहक जाते हैं।

34) आजादी के पचास वर्षों के बाद भी सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में ऐसे सौ लोगों का भी मिलना कठिन हो गया है, जो देश की कमान सँभाल सकें। सामान्य व्यक्ति को तो देश की दुर्दशा की चिन्ता ही नहीं है। दुःख की बात तो यह है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के राजनेताओं ने ही लोकतंत्र को डुबो डाला है। अब खुद ही फैसला कीजिए कि एक व्यक्ति या एक नागरिक के रूप में मुझे व आपको क्या करना चाहिए? धर्मादा की शुरुआत घर से ही की जानी चाहिए। बात-बात में देश की बुराई करने से कुछ हासिल नहीं होगा। ऐसा भी हो सकता है कि आजादी का शतक देखने का भाग्य अखण्ड भारत को मिले ही नहीं। घर में फर्नीचर को दीमक न लग जाए, इसके लिए सतत सतर्क रहते हुए हमें ये भी देखना है कि कहीं हम खुद ही सम्पूर्ण संस्कृति व सम्पूर्ण इतिहास को दीमक बनकर तो नहीं खा रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। अपनी अंतरात्मा से पूछें कि आपको व मुझे क्या करना है और हाँ अंदर से जो आवाज आए, उसे मान्य करे, वर्ना परीक्षा में हम सभी अनुत्तीर्ण ही माने जाएंगे।

35) भौतिक चमक-दमक के आक्रमण से जब कोई शख्स भ्रमित हो जाता है, तब उसकी अंतरात्मा ऋषित्व धारण कर लेती है और चीत्कार कर उसे जागृत करती है। अंतरात्मा उस व्यक्ति को समझती है कि मूर्ख, तुम कहाँ इन क्षुद्र चीजों के मोहजाल में फँसकर अपनी जिंदगी गँवा रहे हो। दौलत, शोहरत और झूठे आडम्बर से अस्तित्व अनन्य नहीं होगा। इसके लिए आपको इंसान के रूप में इंसान से प्रेम करना होगा। तभी उस भ्रमित का नशा काफूर होता है। कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि आपके पास अथाह सम्पत्ति आ जाए तो ठीक है और यदि न आए तो उसके लिए व्यर्थ उठापटक करने की जरूरत भी नहीं है। दुनिया के लोग अहोभाव देखें तो ठीक है अन्यथा उसके लिए अधिक चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। यदि आप इंसान की तरह प्रेमी व मिलनसार बनकर रहेंगे, तो आपको जिंदगी का अद्भुत आनन्द प्राप्त होगा। एक परम संतोष से जिंदगी को रोशन करने का आनन्द मिलेगा। इतना यदि मिल जाये तो फिर और क्या चाहिए?