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सुरसा आंटी

जून की कड़क गर्मी थी | आसमान से लगता था की सूर्यदेव अग्नि की वर्षा करने में मग्न थे | आमतौर पर जून किसी के लिए सुखदायक हो ना हो पर बच्चो के लिए तो ये वक़्त जी भर के जीने का होता है | आखिर गर्मियों की छुट्टियां जो होती हैं | सड़क पर क्रिकेट खेलते लड़के और बैडमिंटन खेलती लडकियां यूँ ही नज़र आते थे | कुछ मोहल्लों में तो उपद्रवी बच्चों का ऐसा हुजूम घूमता था की मोहल्ले की महिलाएं बंदरों से ज्यादा उन बच्चों के समूहों से डरने लगी थी | मानो बच्चे न हो चंगेज़ खां की सेना हो |

इन्ही परेशान महिलाओं में से एक थी मिसिस सक्सेना | मिसिस सक्सेना एक अकेली विधवा थी, बच्चे थे , पर उनके दर्शन स्काइप या उसी किसी इंटरनेट चैटिंग पर ही संभव थे | बेहतर नौकरिओं की तलाश में दोनों अमेरिका जा बसे थे | दोनों माँ को घर खर्च या यूँ कहें की एक मुआवजे की रकम हर महीने भेज दिया करते थे और माँ करती भी क्या बच्चों को कंप्यूटर स्क्रीन पर खिलखिलाते देख कर हंस लेती पर बाद में फूट फूट कर रोती |

मोहल्ले की महिलाओं में सक्सेना आंटी की गहरी पैठ थी | हर किसी के सुख दुःख में उनके साथ खड़े होने का ज़ज़्बा उन्हें मोहल्ले की महिलाओं का अघोषित प्रमुख बनता था | अभी कुछ ही दिन पहले जब शर्मा जी का स्कूटर उनके घर के आगे ही ख़राब हुआ तो सक्सेना आंटी नें टायर बदली करवाने में पूरा सहयोग दिया | जब मदद करने की बारी आती तो सक्सेना आंटी भूल ही जातीं थीं की वो एक महिला हैं | कुल मिलाकर एक अच्छी मिलनसार सामाजिक महिला थीं सक्सेना आंटी |
पर न जाने गली में खेलते बच्चों को देख के उनके ऊपर भूत सा सवार हो जाता | लट्ठ लेकर दौड़ पड़तीं थीं लड़को के हुजूम के पीछे | हालाँकि सक्सेना आंटी को लड़कियों से कोई आपत्ति नहीं थी | पूछने पर कहतीं की लडकियां ऊधम नहीं करतीं ना | लड़के हल्ला मचाते हैं , चीजें तोड़ देते हैं | मैं अक्सर अपनी बालकनी में खड़ा होकर उनके चण्डिका वाले रूप को देखा करता था | और बच्चे भी कहाँ कम थे जितना वो चिढ़ती थी उतना ही बच्चे उनको चिढ़ाते भी थे | बच्चों की नज़र में तो सक्सेना आंटी डायन थी | नाम भी रखा था उनका, सुरसा आंटी और कभी कभी बच्चे उनके मुँह पर ही उनको सुरसा आंटी कह कर भाग जाते थे |

सक्सेना आंटी के व्यक्तित्व के यह दो चेहरे मेरी समझ से पर थे | एक दिन अपने आँगन में लगे आम के पेड़ को कटवा रहीं थीं | मैंने गुज़रते हुए पूछ लिया ,"आंटी आम का पेड़ है इतने अच्छे आम देता है , इसे कटवा क्यों रहीं हैं ?" "बेटा सारे आम बच्चे तोड़ कर ही ले जाते हैं मेरे तो काम ही नहीं आते तो सोचती हूँ इसे कटवा ही दूँ | " आंटी का ये जवाब मुझे तर्कविहीन सा लगा | मैंने कभी भी आंटी को आम चूसते नहीं देखा था | डालियाँ भर कर आम आते थे उस पेड़ पर और आंटी सारे ही बाँट देती थी | हाँ जब अंकल और बच्चे थे तब कुछ अचार के लिए और कुछ बच्चों के खाने के लिए ज़रूर रख लेती थी पर बाद में तो कई साल आंटी आम के पेड़ से परोपकार ही करती रहीं | खैर मुझे क्या आंटी का पेड़ और उन्ही का फैसला |

आधा पेड़ कट चुका था | पर आज सुबह से कोई आवाज़ ही नहीं आ रही | मैं सुबह ९ बजे अपनी बालकनी में निकल कर आया | "कल तो ८ बजे ही लेबर लग गई थी और आज नौ बजे तक सन्नाटा | शायद आंटी भी आज संडे मना रहीं हैं |" मैं नाश्ता तैयार करने के लिए अंदर चला गया | १२ बजे के लगभग एक जोर की आवाज़ हुई | मैं बाहर निकला तो देखा आम तोड़ने के चक्कर में कुछ बच्चों नें पत्थर आंटी के शीशे पर दे मारा था | पर सुरसा आंटी अभी भी शांत थी | बच्चे भाग चुके थे | मैं फिर से अलसाई हुई आँखें मलते हुए अपने टीवी के आगे बैठ गया |

बच्चों के शोर आज चरम पर थे पर आंटी ? मैं दिल में प्रश्न लिए नीचे उतर आया और अपने ही घर से उचक उचक कर आंटी के घर की ओर ताकने लगा | बगल के घर से मित्तल साहब निकले और बोले "अरे विकास बाबू क्या ताड़ रहे हो | ये टाइम तो लड़कियों के घर में झाँकने का है और तुम सुरसा के घर में तांक झांक कर रहे हो " | मुझे मित्तल साहब का मज़ाक अच्छा सा नहीं लगा फिर भी मैंने बात बढ़ाते हुए कहा ,"नहीं मित्तल साब , आज सुबह से आंटी दिखी नहीं | तो ज़रा पता सा लगा रहा था कि हैं कहाँ |" "लगाओ लगाओ पता लगाओ | और पता चले तो हमें भी बता देना हाँ |" मित्तल साहब से मुझे इस तरह की बात की अपेक्षा तो नहीं थी | जब मित्तल साब टूर पर गए थे और इनकी बीवी को लेबर पेन शुरू हुआ था तो आंटी ही थी जिसने आगे बढ़ कर मदद की थी | वास्तव में इंसान की याददाश्त बहुत कमज़ोर होती है |

मुझे सोच में डूबा देख ८ साल का अर्चित , जो आंटी को परेशान करने में सबसे आगे रहता था , पूछ बैठा ," भैया , आंटी के बारे में सोच रहे हो ना |" मैंने हामी भरी आँखों से उसे देखा | "मैं भी |" त्वरित ही उसके मुंह से निकला | "भैया पर आज आंटी एक बार भी बाहर नहीं आई | मुझे बहुत चिंता हो रही है |रुको मैं दीवार से छत पर जाकर दरवाज़ा खोलता हूँ |" और इतना बोलने के साथ ही अर्चित आम के पेड़ से होता हुआ आंटी की छत पर जा पहुंचा और नीचे उतर गया | मेरा दिल ज़ोर से धड़क रहा था | वहीँ संवेदना थी जैसे किसी बड़ी परीक्षा का परिणाम आने वाला हो | धीरे धीरे मोहल्ले के कई लोगों का हुजूम वहाँ इकठ्ठा हो गया था |

तभी दरवाज़े ने खट की आवाज़ के साथ अपना मुंह खोला | मेरी सांसे थम रही थीं कि जाने अर्चित क्या समाचार लाएगा | वो चंद सेकंड इतने भारी लग रहे थे कि मेरी जान मेरे मुंह को आ रही थी | दरवाज़ा खुला और सामने आंटी खड़ी मुस्कुरा रहीं थीं | मैं भागा और आंटी के दरवाजे पर जा कर उनके हाथ थाम लिए | "क्या हुआ बच्चा , क्या लगा कि बुड्ढी मर गई होगी | अरे ये सुरसा बहुत सख्त जान है इतनी जल्दी नहीं मरने वाली |" इतने में अर्चित निकल कर आया, हाथ में एक नोटबुक लिए हुए | मैंने अर्चित के हाथ से नोटबुक छीन ली तो पता चला कि ये आंटी कि डेली डायरी है | चंद पन्ने पलटे तो सारी कहानी साफ़ हो गई |

"गुरूवार
मेरे दोनों बेटे मुझे मुझ पर पैसे भेज कर अहसान सा करते हैं ताकि मैं चुप रहूँ और उनसे वापस आने को ना कहूँ | पर वो क्या जाने कि घर बच्चों से बसता है पैसों से नहीं | मुझे नफरत है लड़कों से | काश मेरे एक बेटी होती | कम से कम दिल को ज़ख्म तो नहीं देती | "

शुक्रवार
मेरे घर का ये पेड़ उन्होंने बोया था ताकि उनके बच्चे और पोते पड़पोते इसके मीठे आमों का स्वाद ले सकें | पूरा घर इसकी छाँव के नीचे बैठे और खुशियां बढ़ती रहें | पर ना आज वो हैं ना बच्चे | ये आम का पेड़ मुझे उनकी याद दिलाता है |

शनिवार
आज मैंने पेड़ कटवाना शुरू कर दिया है | पर सामने के घर में रहने वाला एक लड़का एक ऐसा सवाल कर गया कि शायद अब मुझसे यह पेड़ नहीं कट सकेगा |

रविवार
मैं आम का पेड़ नहीं कटवाउंगी और नाहक मोहल्ले के बच्चों पर चिल्लाऊंगी भी नहीं | आखिर मैं उनपर इसीलिए चिल्लाती हूँ क्यों कि उनमें मुझे अपने बच्चों का अक्स दिखता है और इस पेड़ में अपने पति का | और अगर मैं अक्स को सच्चाई मान लूँ तो मेरे दर्द का इलाज हो जाता है | क्या हुआ जो मेरे बुढ़ापे में मेरे बच्चे मेरे साथ नहीं हैं तो क्या हुआ उनके मोहल्ले के इन बच्चों के सहारे मैं अपनी ज़िन्दगी काट लूंगी और ये पेड़ मुझे उनकी कमी महसूस नहीं होने देगा I"