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खूँटे - 1

खूँटे

भाग - 1

कुसुम भट्ट

‘‘मुझे हवा के घूँट पीने हैं....’’ आवाज झमक कर चेतना में गिरती है... सफेद पिलपिले हाथों से चेहरा घुमाने लगा है बेताल - सीधे..... ‘‘लिजलिजे स्पृश के बोझ तले दबी मेरी गर्दन टीसने लगी है... चल ही तो रही हूँ जाने कब से... जाने कहाँ... अंधेरी सुरंग कभी समाप्त ही नहीं होती...! मकान खंडहर में तब्दील हो चुका होगा या थोड़ा बचा होगा साबुत... गोया मेरी स्मृति जस की तस... इसे क्यों नहीं पोंछ पाया वक्त अपने सूखे रूमाल से...?

‘‘अब क्या बचा है वहाँ...? खंडहर हुए घरांे में चमगादड़ सी फड़फड़ाती यादें...’’ पीछे से आक्रमक होती आवाज...! मुझे पीछे नहीं देखना... बेताल कन्धे पर बैठा है ठसक के साथ...

‘‘खोजने से फायदा? काल के पहिये के बीच बह चुका जो वापस नहीं न आता...’’ पीछे से खींचती आवाज पर ठहरने को होती हूँ... सब कुछ फायदे के लिये ही नहीं न देखना होता है... कुछ चीजें फायदे की परिधि में नहींे आती हो बेशक... फिर भी अपने वक्त के आइने में जरूरी होती हैं देखनी... परखना... जरूरी होता है एक वक्त से दूसरे वक्त को..., बेताल के लिजलिजे स्पृश के बीच न चाहते हुए भी...

अंधेरी खोह में भी सीढ़ी खोजी थी... पर चढ़ने नहीं दिया...! पावों को खींच लिया पीछे... हवा में लटका रह गया मेरा सवाल...? बह चुकी मान्यताओं को वक्त के पानी से बटोर कर आइना न दिखाया गया तो अंधेरा अपने फैलते हुए साम्राज्य पर इठलाता रहेगा... तब मैं सो नहीं पाऊँगी एक रात भी चैन की नींद...?

‘हो... हो’ बेताल ने और कस ली है गर्दन...! और मेरी आँख में उंगली डाल मुझसे सवाल करने पर आमादा है! रास्ते पर चलते... चलते... ठिठकी थी... बस यूँ ही उठी आँख पीपल के बूढ़े पेड़ पर फिसलती नीचे इस घर पर..., घर था या कारा थी तन-मन की...! पल प्रतिपल बहते वक्त से चेतना में वह अनगिन पत्थरों का गिरना... सबकी गठरी बाँधे चलती आई हूँ... किसको दिखाऊँ पांव के छाले...?

‘‘लौट आ नंदिनी... आगे खतरा है खंडहर में जहरीले जीव लौट आ...’’ शिवा पगडंडी पर अड़सी अपनी गोल थुल थुल देह को सहला रही है - घुटने दुखते हैं नंदिनी...’’ कैसा शौक पाला तूने धरती की कोख में दबे चेहरों को उघाड़ना... मेरी तरह जिया कर... खाओ-पीओ ऐश करो... मस्त रहो... गढ़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं न होगा...‘‘ वह अपनी देह से मोह की आँख टिकाये सोच रही है - इस देह ने उसे सुख से लबरेज किया है आत्मा-चेतना की बातें उसकी समझ से परे हैं, मैं पांव आगे बढ़ाती हूँ, चैक में सड़े गले पीपल के पत्तों के ढे़र पर चर्र....मर्र आवाज... गोया एक-एक कदम पर कुचले जा रहे हां सडियल विचार...! ‘‘हे हे... उडने लगी है हवा में...? तेरे बस का है - ?’’

बेताल ने फिर टीस दे दी..., हार मान लूँ...? तब भी कहाँ मानी थी फिर अब क्यांेे...? चर्र... मर्र .... चर्र... मर्र की आवाज पर चेतना की कौन सी परत उघड़ती जा रही है... आगे... और... आगे क्या तलाश रही हूँ यहाँ इन खंडहर हुए घरांे में...? पर मन भी तो सीधी सड़क नहीं कि आराम से हो चलते हुए यात्रा पूरी... मन की इस उलझी गुत्थी के बीच जाने पल पल कितनी दुनिया बसती है...! अलग-अलग दुनिया के अलग-अलग चेहरे... गोया पूरी पृथ्वी मेरी मेरी हथेली में...! सोखना चाहती हूँ इसकी रिसती टीसें... मगर कैसे...? कोई बता पायेगा मुझे...? चैक का पुश्ता सही सलामत! नीचे उसके घर की पठालें उघड़ी हैं लाल बलुई मिट्टी समय की बारिष से धुंधला गई दीवार पर अल्पना के चिन्ह झांक रहे हैं धार की जून (चाँद) ‘जैसे झाँक रही हो बीत चुके वक्त की ओट से...! हिमालय की तलहटी में बसे गाँव से उडा लाया था उसे अधेड़ दरोला शिवानन्द! एक गऊ सी स्त्री के होते-गाढ दिया खूँटा इतना गहरा कि भूल गई थी वह हिमालय की सात्विक चमक...! दरोले की दारू पकाते औटाते बेचते खपा दी जिन्दगी!

‘‘आह!’’ मेरा पांव किसी चीज से टकराया है ठोकर लगी है लड़खड़ाते हुए गिरने से बचा पाई हूँ खुद को... पीड़ा की टीसती लहर शिवा से लिथड़ी है - खा लिया जख्म... तुड़ा ली है न टाँग...? बोला था न खतरा है - आगे... ‘‘वह लपक कर पत्तों का ठेर हटाती है उसे सांप बिच्छू का खतरा टोह रहा है...

मैं लड़खड़ाते हुए आगे जा रही हूँ...

शिवा चिहुँकती है - नंदिनी देख - इसी से टकराया है तेरा पांव... देख नंदिनी देख - कितना बड़ा खूँटा! ऊपर से कहाँ दिखता सड़े पत्तों का ढे़र... इसी के नीचे दबा था कमबख्त!’’ शिवा रोष में उसे खींचने लगी है - इस बूढ़े पीपल को भी अब तक उखड़ जाना चाहिये था...।’’ खूँटा उखाड़ने में जुटी शिवा की हालत खस्ता हुई जा रही है... पर खूँटा उखड़ने की हामी नहीं भर रहा कमबख्त! इसी खूँटे पर फँस गई थी कौंसी दीदी की लाल साड़ी! मेरे बड़े मामा की बड़ी बेटी चैदह वर्ष की दुलहन! मंगल स्नान के वक्त भी इस बूढ़े पेड़ से यों ही झरते रहे थे पीले बेजान सड़े पत्ते हे राम! तब गुठार में अनगिन खूँटे थे भेड़, बकरियों, गाय, भैंस, बैलों के अलग-अलग... छोटे.... बड़े....खूँटे छोटी-बड़ी मोटी-पतली रस्सियों से लिपटे...! सीढ़ी से नीचे थोड़ी दूरी पर जुगाली करती गाय जिसका बड़ा सा थन दूध से ठसाठस भरा दिखता..., मंगल स्नान के बाद पीला दुशाला उठाते हुए मामी ने दिखाया था कौंसी को खूँटा... समझाया था रस्सी का मतलब... धीरे से फुसफुसा कर कान में घोला था जाने कौन सा मन्त्र कि कौंसी दीदी के मासूम चेहरे का रंग हल्दी की आभा में सफेद पड़ गया था वह देर तक थर थर थरथराती रही थी...! साल भर बाद उसे बघेरा उठा ले गया! ऐसी खबर आई थी! खूटों से किसी ने जवाब तलब नहीं किया! हे राम! मेरे भीतर की कोठरी धुँए से भर रही है... आँखांे में यातना का पानी डबक... डबक भरने लगा है...! इस पानी का कोई मोल नहीं... कितना बह चुका वक्त की हथेली से इतिहास की जमीन पर...! फिर भी उर्वरक नहीं हो पाया- पठार अधलिखा था... पठार ही रहा... खिलती कलियाँ चींधता रहा पंखुड़ी... पंखुड़ी... तब भी... आज भी... बस्स दृश्य बदल गये...!

‘‘कहा था न.. खूँटों से सुरक्षित रहती है जिन्दगी..’’अंधेरी गुफा से कोई शब्दों के पत्थर फेंकने लगा है.

सामने सीढ़ियाँ दिखती हैं...

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