Jab ham musalman the books and stories free download online pdf in Hindi

जब हम मुसलमान थे....!

टटक-डिडक...टटक-डिडक....टटक-डिडक......
ट्रेन के पहियों की इन आवाज़ों के साथ-साथ गौतमी के दिल की धड़कनें भी बढ़ती जा रहीं थीं. बगल में बैठे उसके पतिदेव रामकुमार की भी लगभग यही हालत थी. गौतमी घबराहट के मारे बार-बार राम कुमार की बांह पकड़ लेती थी. और हर बार मन ही मन बेचैन राम कुमार, अपनी बांह पर कसी उसकी हथेली को थपथपा के दिलासा सी देते. मजबूरी ऐसी कि अपनी घबराहट को बोल के भी व्यक्त नहीं कर सकते थे दोनों. . ट्रेन को स्टेशन से छूटे अभी दस मिनट ही हुए होंगे. गौतमी बेसब्री से टीसी का इंतज़ार कर रही थी. एक-एक मिनट घंटों बराबर लग रहा था उसे. अब तक तो आ जाना चाहिये था. हमेशा तो ट्रेन छूटी नहीं, कि टीसी हाज़िर. आज पता नहीं कहां अटक गया! फिर उसे याद आया कि ये स्लीपर क्लास है. यहां शायद देर से आता हो. आखिर तेरह बोगियां लगी हैं स्लीपर कीं. ’घबराओ मत गौतमी........ सब ठीक होगा. डोन्ट वरी..... ओह गॉड.... कहां मर गया टीसी.... हे भगवान!!!!!’ खुद को दिलासा दिये अभी एक मिनट भी न बीता था कि हिंदी/अंग्रेज़ी, दोनों भाषाओं में गौतमी की घबराहट फिर सिर चढ़ के बोलने लगी.
उधर रामकुमार का मन उलझन में नहीं था, ऐसा बिल्कुल नहीं है. गौतमी, उनकी पत्नी तो बीच-बीच में उनसे दिलासा की ख़ुराक ले लेती है, लेकिन रामकुमार को कौन दिलासा दे? वे अगर अपनी घबराहट गौतमी को बतायेंगे तो दिलासा की जगह गौतमी उनसे दोगुनी घबराने लगेगी. वे मन ही मन जाने कितनी मनौतियां मना चुके हैं. ये सफर सकुशल बीत जाये, इसके बाद कभी ऐसी ग़लती न करेंगे. बार-बार कान पकड़ रहे हैं वे. इतनी लम्बी ज़िन्दगी में उन्होंने कभी कोई ग़लत काम नहीं किया है. साठ के होने को आये हैं, लेकिन कभी कोई उन पर ग़लत होने का इल्जाम नहीं लगा पाया है. सिद्धान्तों के पक्के रामकुमार कितनी मजबूरी में ये ग़लत क़दम उठाने पर मजबूर हुए होंगे, समझ रहे हैं न? लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता. इस ग़लती को सुधारना भी चाहें, तो अब कोई चारा ही नहीं. ट्रेन चल पड़ी है और उसका अगला स्टॉपेज एक घंटा पन्द्रह मिनट बाद ही आयेगा. तब तक टीसी आ के चला भी जायेगा. क्या जाने चला जायेगा या....! खुद को कोस रहे हैं, क्योंकर मानी उन्होंने गौतमी की बात? कैसे रज़ामंदी दे दी उसके प्रस्ताव को?
रामकुमार की ही तरह गौतमी भी तो कोस रही खुद को. न उसने ये प्रस्ताव रखा होता, न रामकुमार माने होते, और न आज ये स्थिति हुई होती. अरे अभी क्या हुई स्थिति, जो टीसी के आने के बाद हो सकती है. ये मरा टीसी भी तो नहीं आ रहा. आ ही जाये, तो बला टले. कब से पैर ऊपर करके, आराम से आलथी-पालथी बैठना चाह रही है गौतमी. लेकिन मन में सुकून हो, तब न बैठे आराम से. दिल तो ऐसे धड़क रहा जैसे अभी उछल के बाहर जा गिरेगा. ये जो सामने की बर्थ पर तीन लोग बैठे हैं, ऐसा लगता है कि ये भी उनकी घबराहट समझ रहे हैं. न समझ रहे होते तो बार-बार उसकी तरफ़ देखते क्यों? वो भी टोह लेने के अन्दाज़ में? निश्चित रूप से ये जान गये हैं कुछ.....! कनखियों से सामने वालों के हाव-भाव ताड़ने की कोशिश कर रही है गौतमी. कहां से कहां ऐसा काम करने की सूझी उसे भी....! हालात ही ऐसे बने थे कि न चाहते हुए भी ग़लत काम करना पड़ा था उसे. न जिज्जी ने इतना ज़ोर डाला होता, न उनका ऐसा आनन-फानन कार्यक्रम बना होता. लेकिन जिज्जी ने तो लाड़ में आ के, अधिकार भाव से उन्हें हर हाल में पहुंचने को कहा था. ये थोड़े ही कहा था कि इस तरह........! ज़रा-ज़रा देर में बैठक बदल रही थी गौतमी. दायें पैर को बायें पर, फिर बायें पैर को दायें पर चढ़ा-चढ़ा के थक गयी थी. मन हो रहा था कि उठ के ट्रेन के दरवाज़े तक टहल आये. लेकिन उठ भी नहीं पा रही थी. क्या जाने, वो वहां से निकले और टीसी आ जाये! रामकुमार का क्या भरोसा? जाने क्या निकल जाये उनके मुंह से. चालाकी करना जानते नहीं न! वो ही कहां जानती है चालाकियां! फिर भी इतनी हिम्मत का काम कर बैठी!
परसों शाम की बात है. रामकुमार ऑफ़िस से लौटे ही थे. गौतमी अभी चाय बनाने उठने ही वाली थी कि उसका मोबाइल घनघनाया. देखा तो जिज्जी का फोन था मेरठ से.
“छोटी, वो जो इलाहाबाद से मुन्ना की शादी वाले आये थे न, तो लड़की हमें पसन्द आ गयी है. मुन्ना भी तैयार हो गया है किसी प्रकार. तो हम अब ज़्यादा देर-दार करने के मूड में न हैं. तीन दिन बाद वरीच्छा है. तुम कैसे भी आ जाओ. इसी बहाने अपने नाती को देख तो लोगी. तुमने तो इत्ते साल हो गये, मुन्ना को देखा ही नहीं. पिछली दफ़े कब देखा था? हमें लगता है, तीन साल का रहा होगा मौड़ा. तुम्हें भी लालाजी के कारण कहां आने को मिला हमारे पास. अब तुम भी फुरसत हो, सो टाला-मटोली न करना. अजय और बहू भी तो जाने कबसे बाहर ही हैं. अब जा के दिल्ली पोस्टिंग मिली है अजय को, तो हम ये रस्म फटाफट यहां अपने पैतृक घर से करना चाहते हैं.”
मुन्ना माने जिज्जी का पोता, यानी अजय, जिज्जी के बड़े बेटे का बेटा. गौतमी भी खूब खुश हो गयी थी इस खबर से. चलो इसी बहाने जिज्जी और उनके बच्चों से मिल लेगी. इन बच्चों को कब से नहीं देखा. पहले जब तक बच्चे छोटे थे, तो दोनों बहनें मायके आती थीं, हर साल. लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े हुए, उनकी पढ़ाई ज़्यादा जरूरी हो गयी. सो मायके आना दोनों का ही अनिश्चित सा हो गया. जब जिसे समय मिलता, दो-तीन दिन को हो आतीं अम्मा-बाऊजी के पास. लेकिन इस चक्कर में सालों निकल गये, दोनों बहनें एक साथ न जुट पाईं. अजय, मंगला, रवि तीनों बच्चों की शादियों में गौतमी गयी ज़रूर, लेकिन शादियों में आखिर कितनी मुलाक़ात हो पाती है? मन प्यासा ही रह गया, जिज्जी और बच्चों के साथ रहने के लिये. परिवार के ही जाने कितने रिश्ते के भाई-भतीजे छोटे से बड़े हो गये, गौतमी ने उन्हें देखा तक नहीं. भोपाल आने के बाद अपने इलाके से जैसे पूरी तरह कट ही गयी...! न किसी के शादी-ब्याह में जा पाई, न नातेदारों की ग़मी में. धीरे-धीरे सबकी ख़बर मिलनी भी बन्द हो गयी. लेकिन इस बार जिज्जी ने कहा था कि घर के पहले नाती की शादी है, सो परिवार के अधिकतर रिश्तेदार आयेंगे. वैसे भी अब सब बच्चों की ज़िम्मेदारी से फुरसत हो गये हैं, सो न आ पाने की किसी को मजबूरी नहीं है. गौतमी के मन में भी ललक उठी थी अपने खानदान के सारे भाई-भतीजों, भाभियों से मिलने की. मुन्ना की शादी की खबर ने जैसे उसकी ललक को पूरा करने का मौका दे दिया. उसने रामकुमार को बताया जिज्जी के आदेश बावत. रामकुमार ठहरे अति सज्जन प्राणी. बिना नानुकुर के बोले-
’कल सबेरे तत्काल में टिकट देखनी होगी. डेली में तो बस छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस जाती है, उधर मेरठ तक. उसी में देखेंगे. रिज़र्वेशन मिल जाये तो फिर तैयारी लगाओ.’
लेकिन गौतमी ने रिज़र्वेशन मिलने तक का इंतज़ार न किया. झटपट अपनी साड़ियां निकाल-निकाल के देखने लगी. कौन सी रखे, कौन सी छोड़े? तीन-तीन नई साड़ियां रखी हैं, बिना फ़ॉल लगे. लगे हाथों टेलर को दे आई. टेलर, माने चार घर छोड़ के जो मिसराइन रहती हैं न, वही फ़ॉल-ऑल लगाती हैं. पड़ोसी हैं, सो जल्दी दे भी देंगीं वरना बाज़ार के टेलरों की तो भली चलाई....! मारे खुशी के गौतमी फूली-फूली फिर रही थी. होंठों से गुनगुनाहट हट ही नहीं रही थी. खुशी की बात हो, और उसे वो अपनी सबसे प्यारी दोस्त सदफ़ को न बताये, ऐसा कैसे हो सकता है? केवल खुशी ही क्यों, कोई परेशानी हो, तब भी तो गौतमी सदफ़ को ही याद करती है. यही हाल सदफ़ का है. ऐसा कोई दिन नहीं होता, जब दोनों फ़ुरसत से घंटे भर बतियायें नहीं. उसे ऐसा भी कुछ याद आ रहा था कि सदफ़ और उसके शौहर को ग़ाज़ियाबाद जाना था एकाध दिन में ही, ऐसा सदफ़ ने बताया तो था कुछ. अगर अभी ही ये लोग निकल रहे हों, तो अगर उन्हें तत्काल की टिकट न भी मिले तो क्या? वे वेटिंग का टिकट ले के सदफ़ के साथ हो लेंगे. दिन भर का सफ़र तो बैठे-बैठे ही कट जायेगा. रही बात ग़ाज़ियाबाद के बाद की, तो डेढ़ घंटा ही तो लगता है ग़ाज़ियाबाद से मेरठ तक का. निकाल लेंगे कैसे भी. गौतमी खुद को बहुत देर तक ज़ब्त नहीं कर सकती. फटाक से फोन लगाया उसने सदफ़ को. बातों ही बातों में उसने बताया कि वे लोग परसों ग़ाज़ियाबाद जा रहे थे, लेकिन अचानक ही मंसूर के ऑफ़िस में ज़रूरी काम आ गया है, सो अब वे नहीं जायेंगे.

’येल्लो.... सारा प्रोग्राम मटियामेट कर दिया न मंसूर साब ने? कितना मज़ा आता हम लोग एक साथ सफ़र करते तो...! गौतमी का मन सचमुच बुझ गया था. अचानक ही उसे लगा, कि अब अगर सदफ़ नहीं भी जा रही तो, उसका टिकट तो वे लोग इस्तेमाल कर ही सकते हैं. तुरन्त बोली-
’सदफ़, सुनो तुम लोग अपना टिकट अभी कैंसिल मत करवाना. अगर हमें कल तत्काल में टिकट नहीं मिला, तो हम तुम्हारे टिकट पर आराम से सफ़र कर सकते हैं सदफ़ अख़्तर और मंसूर अख़्तर बन के . क्यों, क्या कहती हो? वैसे ये है तो ग़लत, लेकिन हम किसी को टिकट ब्लैक थोड़े न कर रहे. पैसा चुकता करके टिकट लिया है. वैसे भी एक बार टिकट चैक कर गया टीसी, फिर उसे मतलब नहीं कि अलाना कौन है और फलाना कौन है. है कि नहीं?”
“हां कह तो सही रही हो. हम बोल देंगे मंसूर से कि टिकट कैंसिल न करवायें. वैसे है तो ये ग़लत, लेकिन यदि इससे तुम्हारी समस्या हल होती हो, तो इतना ग़लत भी नहीं. कोई ज़ुर्म नहीं है ये. अगर हम साथ जाते, तब भी तो तुम लोग हमारी ही बर्थ पर सफ़र करते . लेकिन फिर भी देखना, कोई दिक़्क़त न हो जाये कहीं....! अपन लोग लौंडे-लपाड़े तो हैं नहीं कि बेइज़्ज़ती सह जायेंगे, या पोल खुल जाये, तो बेशर्मी से हंस देंगे. सो तुम पहले रामकुमार भाईसाब से बात कर लो. अगर उन्हें ये योजना ठीक लगती है, तो मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है. “ सदफ़ बहुत मुतमइन नहीं लग रही थी, इस प्रस्ताव से. लेकिन मना भी नहीं कर पाई. लगा, गौतमी ये न सोच ले कि टिकट नहीं देना चाहती सदफ़.... अरे एक टिकट क्या, गौतमी पर तो सौ टिकटें न्यौछावर कर सकती है सदफ़.... ज़रूरत पड़े तो अपनी जान भी देने में हिचकेगी नहीं. बहुत पुराना रिश्ता है गौतमी और सदफ़ के परिवारों का. गौतमी की अम्मा, जब बीटीसी की ट्रेनिंग कर रही थीं फतेहगढ़ में, तब सदफ़ के अब्बू ने ही उन्हें किराये से एक कमरा दिया था. बाद में गौतमी के बाबूजी भी अपना ट्रांस्फ़र करा के फ़तेहगढ़ आ गये थे. लेकिन सरकारी मकान मिलने तक वे सदफ़ के घर में ही किरायेदार के रूप में रहे पूरे दो साल. इन दो सालों में सदफ़ और गौतमी, जो तब बहुत छोटी थीं, साथ खेल-खेल के दोस्त बन गयीं. ये दोस्ती बाद के सालों में और पक्की हो गयी. दोनों परिवार एक दूसरे की जान थे जैसे. गौतमी की शादी मध्य प्रदेश में हुई, और गौतमी भोपाल पहुंच गयी. मज़े की बात, एक साल बाद ही सदफ़ भी भोपाल पहुंच गयी. साथ फिर जुड गया...!
गौतमी ने शाम को बड़े उत्साह के साथ रामकुमार को ये खबर सुनाई. रामकुमार को भी ये बहुत सही तो नहीं लगा, कि किसी दूसरे के नाम की टिकट पर सफ़र किया जाये, लेकिन मामला मंसूर-सदफ़ का था, सो बहुत ग़लत भी नहीं लगा उन्हें. बल्कि एक तरह से निश्चिंत ही हुए, कि अब यदि तत्काल में टिकट नहीं भी मिलता है, तो भी ये यात्रा रद्द नहीं होगी. सो वे भी अपने ले जाने वाले कपड़े देखने-दाखने लगे. छोटी-छोटी बहुत सी चीज़ें ऐन मौक़े पर भूल जाते हैं, सो उन्हें ही सहेजने लगे.
अगले दिन वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी. तत्काल में १०-११ वेटिंग आ गया, टिकट बुक होते-होते. ये कन्फ़र्म तो होने से रहा. सो उन्होंने तय यही किया कि सदफ़-मंसूर के कन्फ़र्म टिकट पर ही यात्रा की जाये. कल दोपहर तक वैसे भी स्थिति स्पष्ट हो जायेगी टिकट की. गौतमी ने अपने मोबाइल में सदफ़ से उसके टिकट का मैसेज मंगवा लिया था. सदफ़ ने टिकट का प्रिंट निकलवा के भी भिजवा दिया था. रामकुमार मैसेज पर बहुत भरोसा नहीं करते, जानती थी सदफ़. भरोसा तो वे ईटिकट पर भी बहुत नहीं करते. पूरी याद से उसने अपना पैन कार्ड भी भिजवा दिया था गौतमी के पास. टीसी चैक करेगा, इसलिये. सदफ़ को ये सुकून था, कि गौतमी के हाथों अब वो लाल मिर्च का अचार भिजवा देगी, जो अपनी बड़ी ननद के लिये उसे ले जाना था. कब से इंतज़ार कर रही थीं बड़ी आपी उसके अचार का. लेकिन बना बनाया प्रोग्राम रद्द करना पड़ा. बड़ी आपी का बेटा स्टेशन पर आयेगा अचार लेने, वहीं वो ग़ाज़ियाबाद से मेरठ तक का जनरल टिकट भी ला के रामकुमार को दे देगा. गौतमी और रामकुमार कितने खुश थे इस पूरी व्यवस्था से. पहली बार ऐसी व्यवस्थित यात्रा होने वाली थी. कैसा संजोग जुड़ा! सब प्रभु की माया.... रामकुमार जी मन में ही ये बात दोहरा के प्रत्यक्षत: हाथ जोड़े बैठे हैं. अचानक उनका ध्यान अपने जुड़े हाथों की ओर गया तो,झट नीचे कर लिये. गौतमी देखेगी तो मज़ाक उड़ायेगी. दूसरे लोग भी क्या सोचते होंगे.....!
“और साब! कहां जा रिये हैं?”
“ जी....जी... हम मेरठ जा रहे हैं.” अपनी ओर मुखातिब सहयात्री के सवाल से अचानक हड़बड़ा गये रामकुमार.
“अच्छा मेरठ? यक़ीन मानियेगा हम भी तो मेरठ ही जा रहे जनाब. आपकी तारीफ़?” सहयात्री अब बतियाने के मूड में आ चुका था.
“ जी मैं रा..... जी मेरा नाम मंसूर अख़्तर है. ये मेरी बेग़म सदफ़ अख़्तर हैं.” अचानक तारीफ़ पूछ लिये जाने से हड़बड़ाये राम कुमार के मुंह से रामकुमार का ’रा’ तो निकल ही गया था. भला हो गौतमी का जिसने मौक़े से कोंच दिया बग़ल में. तुरन्त संभल गये राम कुमार कि अब से मेरठ तक वे रामकुमार नहीं मंसूर अख़्तर हैं.
“अरे व्वाह वाह..... अब तो खूब जमेगी भाई , यक़ीन मानियेगा. ख़ाकसार को जुनैद मुस्तफ़ा कहते हैं. सलाम वालेकुम भाभीजान. मैं तो सोच ही रिया था कि शक़्ल से आप ज़ातभाई लग रिये हैं, यक़ीन मानियेगा; लेकिन साब पूछने में थोड़ा तक़ल्लुफ़ तो होता ही है न. है कै नहीं?”

“हां है न. बिल्कुल है.” रामकुमार ने अनमने ढ़ंग से पीछा छुड़ाने के अन्दाज़ में छोटा सा जवाब दिया और खिड़की से बाहर देखने लगे.
“मेरठ में कहां जायेंगे जनाब? किसका घर गुलज़ार करने वाली हैं भाभीजान? मैं तो घंटाघर तक जाउंगा. आपने डी.एन. डिग्री कॉलेज तो देखा ही होगा, बस वहीं है अपना ग़रीबख़ाना.” सहयात्री कुछ ज़्यादा ही लिबर्टी लेता दिख रहा था बातचीत में. रामकुमार को लगा कि ज़ोर से चिल्ला के कहें कि भाभीजान अपना घर ही गुलज़ार कर लें, बहुत है. एक रपाटा कान पर बजाने का मन भी हुआ. और रही बात पते की, तो हम मेरठ के वाशिन्दे नहीं हैं. कैसे जानेंगे डी.एन.डिग्री कॉलेज? लेकिन प्रकटत: केवल मुस्कुरा के रह गये रामकुमार. बात ख़्त्म करने की गरज से बोले-
“हम एक सगाई में शामिल होने जा रहे हैं, ज़ाकिर हुसैन कॉलोनी जायेंगे.” इतना कह के वे फिर खिड़की से बाहर देखने लगे.
“अरे वाह! वैसे भाईजान, किसके यहां है सगाई? उधर ज़ाकिर हुसैन कॉलोनी में तो बहुत से अपने लोग रहते हैं. यक़ीन मानियेगा, हो सकता है, मेरी पहचान वाले लोग हों?” जुनैद मुस्तफ़ा आसानी से पीछा छोड़ने वाले नहीं लग रहे थे. रामकुमार ने उनका ये सवाल अनसुना कर दिया. बाहर कुछ इस तरह देखने लगे, जैसे कुछ बहुत खास दिख गया हो और वे जुनैद साब को सुन ही न पाये हों.
गौतमी कम परेशान थी क्या? जुनैद मुस्तफ़ा की दिलचस्पी, और इतना लम्बा सफ़र!!! या अल्लाह!! गौतमी को पता भी न चला कि कब उसके मुंह से ये बेबस पुकार निकल गयी. चौंकी तो जुनैद मुस्तफ़ा के सवाल पर-
“ अरे क्या हुआ भाभीजान? कोई तक़लीफ़? यक़ीन मानियेगा...” गौतमी के मुंह से ’या अल्लाह’ सुन के जुनैद मुस्तफ़ा अतिरिक्त फ़िक्रमंद हो उठे. अपनी इस बेखयाली पर गौतमी मन ही मन मुस्कुराई, जुनैद के सवाल पर खीझी नहीं. उसे खुशी हुई कि उसके मुंह से ’या अल्लाह’ निकला, वरना आदत तो उसे ’हे भगवान’ कहने की है. अब कम से कम इन सहयात्रियों पर तो उसके सदफ़ होने का ठप्पा लग ही गया. अब बस टीसी और आ जाये.... टिकट की तस्दीक कर ले, बस्स फिर बैठे ज़रा आराम से टेक लगा के. बहुत दिनों बाद स्लीपर में सफ़र कर रही, लेकिन अभी ये भी भूली है गौतमी. उसे केवल टीसी की याद है, बाक़ी कुछ याद करना भी नहीं चाहती फिलहाल. सबेरे सबा छह बजे ट्रेन आ गयी थी, एकदम राइट टाइम. और अभी केवल गंज बासौदा निकला है. आठ बज रहे हैं. लेकिन गौतमी को लग रहा जैसे पता नहीं कितना समय निकल गया. एक-एक मिनट घंटों के समान लग रहे उसे टीसी के इंतज़ार में.
’इतना इंतज़ार भगवान का किया होता, तो शायद वे भी आ गये होते अब तक, हुंह...!’ मन ही मन टीसी को कोसती गौतमी के मुंह से बाद का ’हुंह’ ज़ोर से निकल गया और जुनैद मुस्तफ़ा ने फिर धर लिया.
’क्या बात है भाभीजान? कुछ तो बात है. मैं आपकी समस्या सुलझा सकता हूं, यक़ीन मानियेगा....!’
’कोई समस्या नहीं है भाईसाब. अल्लाह के फ़जल से सब ख़ैरियत है. आप बिल्कुल फ़िक्र न करें. कोई दिक़्क़त होगी भी तो ये हैं न, आपके मंसूर भाईजान.’ गौतमी की आवाज़ से अब खीझ साफ़ झलक रही थी. इन जुनैद मुस्तफ़ा की इतनी दखलंदाज़ी के बाद ज़रूर उसे लगा कि अभी तो बस दो स्टेशन ही निकले हैं. गाड़ी रात ग्यारह बजे मेरठ पहुंचेगी और ये साहब भी वहीं तक जा रहे हैं. कैसे कटेगा सफ़र?? उसका मन फिर ’या अल्लाह’ कहने का हुआ, लेकिन जुनैद मुस्तफ़ा पर निगाह पड़ते ही उसने अपनी इच्छा ज़प्त कर ली.
“क्या ज़माना आ गया है साब..... हिन्दुस्तान को तो इन बाबाओ ने बरबाद करके रख दिया है यक़ीन मानियेगा.... मुझे तो लगता है कि हिन्दुस्तानी तहज़ीब को ये बाबे ही ख़त्म करेंगे.’ क्यों मंसूर साब, क्या कहते हैं? ये देखिये ज़रा....!’ रामकुमार ने , पिछले आधे घंटे से खिड़की की सलाखों पर जबरन टिकाये सिर को सीधा करके ज्यों ही जुनैद मुस्तफ़ा की तरफ़ देखा, तो उनकी रूह अन्दर तक कांप गयी. गला सूखा सा लगने लगा. उन्हें लगा जैसे अब तक की गयी उनकी पूरी पढ़ाई ज़ीरो हो गयी हो. एकदम अनपढ़ सा महसूस करने लगे थे रामकुमार. उनके चेहरे के ठीक सामने जुनैद मुस्तफ़ा उर्दू का कोई अख़बार पूरा खोल के सामने फैलाये, एक ख़बर पर अपनी मोटी से अंगुली टिकाये थे. रामकुमार को लगा कि इस खलनायक के हाथों बेइज़्ज़ती की मौत मरने से तो अच्छा है, कि अल्लाह के दर पर सिर पटक-पटक के मर जायें. किसी प्रकार वे आंखें हैडिंग पर गड़ाने का अभिनय कर ही रहे थे कि गौतमी ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. हड़बड़ाये रामकुमार कुछ समझ पाते उसके पहले ही गौतमी ने सवाल दागा-
’पढ़ पायेंगे ज़ाकिर के अब्बू?’
रामकुमार को काटो तो ख़ून नहीं. ये गौतमी को भी क्या सूझी? अच्छे-भले सदफ़-मंसूर बने हैं....! तब भी अपने आप ही इंकार में उनकी गर्दन हिल गयी.
’न. पढ़ तो नहीं पायेंगे ज़ाकिर की अम्मी.’
जुनैद मुस्तफ़ा की बड़ी-बड़ी आंखें अब और फैल गयीं. कुछ पूछते, उसके पहले ही गौतमी बोली-
’ अरे जुनैद भाईजान, ये अपना पढ़ने का चश्मा घर पर ही भूल आये हैं. याददाश्त कमज़ोर होती जा रही इनकी. मैने कहा भी तो कि चश्मा याद से रख लियो. अब क्या करेंगे वहां, अल्लाह मालिक.’
गौतमी ने बात को जिस तरह सम्भाला, उससे रामकुमार भी खासे प्रभावित हुए लग रहे थे. जुनैद मुस्तफ़ा अब हो-हो करके हंस रहे थे.
’क़ुरान तो पढ़तीं हैं न भाभीजान?’ अब तक दूसरी ओर मुंह फेर के बैठी गौतमी ने जैसे ही जुनैद को हंस के चश्मे बावत बताया, जुनैद मुस्तफ़ा को लगा, अब इन मोहतरमा से बात की जा सकती है. सफ़र में कुछ तो खुशगवारी हो.
’ येल्लो.... कौन मजहबी मुसलमान क़ुरान नहीं पढ़ता होगा? आप भी न...! गौतमी ने जुनैद मुस्तफ़ा पर लानत सी भेजी.
’आपको सबसे अच्छी बात कौन सी लगी क़ुरान में? मुझे तो कई बातें अच्छी लगती हैं यक़ीन मानियेगा...!’ जुनैद अब गौतमी पर अपना अच्छा प्रभाव छोड़ने के इरादे से क़ुरान की बात करने लगे थे शायद. उधर गौतमी सोच रही थी, कि उसे तो राम चरित मानस की अच्छी बातें भी याद नहीं, क़ुरान की क्या ख़ाक बतायेगी?
’भाई साब टिकट दिखाइये’
अचानक ही टीसी की आवाज़ से गौतमी को लगा जैसे अल्लाह ने उसे बचा लिया इस जुनैद मुस्तफ़ा के सवालों से. जुनैद मुस्तफ़ा अपना टिकट निकालने में व्यस्त हो गये. तब तक गौतमी ने भी अपना टिकट और सदफ़ का पैन कार्ड निकाल लिय था. टीसी के मुखातिब होते ही गौतमी ने टिकट बढ़ाया जिसे टीसी ने परे सरका दिया.
’आई कार्ड दिखाइये मैम.’
झट से गौतमी ने सदफ़ का पैन कार्ड बढ़ाया.
’सदफ़ अख्तर, मंसूर अख़्तर’
’जी’
’ये लीजिये’ अपनी लिस्ट में मिलान करके, वहां राइट का टिक लगाते हुए टीसी आगे बढ़ गया.
’उफ़्फ़....’ लम्बी सांस ली गौतमी ने. कितना चैन था इस सांस में, इसे केवल रामकुमार ही समझ सकते थे. अब कैसे भी लेटने-बैठने के लिये आज़ाद थी गौतमी. सबसे पहले उसने रामकुमार को खिड़की के पास से हटाया और आधा चादर बिछा, अपना शॉल ओढ़ के करवट ले, मज़े से लेट गयी. चलो अब जुनैद मुस्तफ़ा के सवालों से भी निजात मिली. ट्रेन ललितपुर क्रॉस कर गयी थी. साढ़े दस बज रहे थे.
’सुनो जी, आप भी बर्थ खोल के लेट ही जाइये. कब तक बैठे रहेंगे.’ गौतमी ने आदेश सा दिया रामकुमार को.
’सोच रहा था ग्यारह बजने ही वाले हैं. खाना खा के फिर आराम से लेटते तो ज़रा नींद भी आती. भूख भी लगी है अब.’ टीसी के इंतज़ार में भूख-प्यास सब ग़ायब थी अब तक रामकुमार की.
’अरे क्या भाईजान.... अभी ग्यारह बजे भी कोई खाने का टाइम होता है? अरे थोड़ी देर गपशप हो, बतोलेबाज़ी हो, तब तो सफ़र का मज़ा है यक़ीन मानियेगा..... कम से कम झांसी-दतिया निकलने दीजिये, तब तक एक बज जायेगा फिर नोश फ़रमाइये.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने भी आदेश सा ही दिया रामकुमार को. मरता क्या न करता? बैग से बिस्किट का पैकेट निकाल के एक बिस्किट ही कुतरने लगे रामकुमार. भूख तो सचमुच लगी थी अब. किसी प्रकार एक बजे झांसी आया. जुनैद मुस्तफ़ा ने अब बर्थ पर ही दस्तरख़्वान बिछाया. क़ायदे से अपने खाने का डिब्बा निकाला. उनकी बेग़म ने सचमुच बड़े सलीके से खाना पैक किया था. परांठे, भरवां बैंगन, मटर फ़्राई चावल, सलाद, अचार. गौतमी को अपनी रोटी-सब्ज़ी और अचार बहुत बेमज़ा दिखाई दिये जुनैद मुस्तफ़ा के शाही लंच के आगे. आखिर इतनी सुबह-सुबह क्या-क्या बनाती गौतमी? अपने सहयात्रियों का रूखा-सूखा खाना देख जुनैद मुस्तफ़ा ने बड़े प्यार से एक डिब्बा खोल उनके आगे बढ़ाया-

’लीजिये भाईजान, ये एग भुर्जी खाइये, बहुत मज़े की बनाती हैं हमारी बेग़म यक़ीन मानियेगा...’
रामकुमार के मुंह का कौर बाहर आने को हुआ. गौतमी ने फिर बात सम्भाली-
’भाईसाब इन्हें अंडे से एलर्जी है न तो नहीं खा पाते अन्डा एकदम ही.’
’अरे तो आप खाइये न. खा के तो देखिये. ओहो... ट्रेन में किसी की चीज़ नहीं खाते शायद आप लोग पर यक़ीन मानियेगा, ये एकदम ही बढ़िया है देखिये मैं पहले खा लेता हूं...’ कहते-कहते जुनैद मुस्तफ़ा ने एक चम्मच भर के मुंह में डाली.
’अरे नहीं भाईसाब. ऐसा कुछ नहीं. कौन कैसा है, ये हम भी पहचानते हैं वो तो बस मुझे एसिडिटी की शिक़ायत है सो फिलहाल हल्का ही खाना खाते हैं. आप आराम से खायें, परेशान न हों.’ गौतमी ने भुर्जी की ओर से नज़र हटाते हुए कहा. किसी प्रकार राम-राम करते दोनों ने अपना खाना ख़त्म किया और रामकुमार लम्बी सांस लेते, बीच की बर्थ खोल, अपना चादर बिछा के जुनैद मुस्तफ़ा की ओर से मुंह फेर के लेट गये. गौतमी ने भी अपनी टांगें सीधी कीं. जुनैद साब भी अब सोने के मूड में थे.
शाम को उठे तो ट्रेन मथुरा जंक्शन पर खड़ी थी. अभी तो बहुत देर है मेरठ आने में....! खैर रामकुमार नीचे उतरे.
’खूब सोये जनाब आप तो यक़ीन मानियेगा.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने चुटकी ली.
’जी ट्रेन में मुझे खूब बढ़िया नींद आती है.’ रामकुमार जबरन बेरुखी अपनाये थे. बैग में से चश्मा निकाल, साथ लाई किताब में डूबने का उपक्रम किया उन्होंने.
’अरे भाईजान! आप तो चश्मा लाये हैं! क्या भाभीजान....आप भी न बुद्धू बन गयीं यक़ीन मानियेगा....’ ठठा के हंसे जुनैद मुस्तफ़ा. गौतमी को काटो तो खून नहीं...!
’अरे हां! चश्मा तो लाये हैं!’ कह के खिसियानी हंसी हंस दिये रामकुमार जैसे कितना बड़ा झूठ पकड़ा गया हो.
ख़ैर...... किसी प्रकार निज़ामुद्दीन पहुंचे. साहिबाबाद और लो, अब ग़ाज़ियाबाद. यहां सदफ़ की बड़ी आपी का बेटा साहिल अचार लेने आने वाला था. गौतमी ने झटपट अचार का डिब्बा निकाला. जुनैद मुस्तफ़ा को सुनाते हुए बोली-
’क्यों जी, बड़ी आपी से बात हो गयी? साहिल आ रहा न?’ खुद को सदफ़-मंसूर साबित करने का एक और मौक़ा. जताने से कैसे चूकती गौतमी?
’हां आ रहा साहिल. हमारी टिकट भी तो लायेगा न.’ रामकुमार ने इत्मीनान से कहा.
ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर लगी ही थी, कि साहिल दौड़ता सा उनकी खिड़की पर पहुंचा. उन्हें देखा और फटाक से बोग़ी के अन्दर.
’सलाम मामूजान, सलाम मुमानी’
’जीते रहो, जीते रहो. ये लो अचार और टिकट दे के तुम उतर जाओ. ट्रेन जाने कब चल पड़े.’ गौतमी को डर था कि कहीं साहिल सदफ़ का ज़िक्र न छेड़ दे, या उनकी टिकट पर सफ़र करने का. साहिल भी जल्दी में ही था, सो अचार ले के झट उतर गया.
’बड़ा प्यारा भान्जा है आपका. क्या कर रहे जनाब अभी?’ जुनैद जो अब तक चुपचाप उनकी बातें सुन रहे थे, बोले.
’पढ़ रहा अभी तो.’ गौतमी ने लापरवाही से कहा. हालांकि उसे बिल्कुल नहीं मालूम था कि साहिल क्या कर रहा अभी.
’असल में मेरी बेटी है. शादी के लायक़ हो गयी है. अच्छे लड़के की तलाश में हूं. वैसे आप.......’
’साहिल तो अभी बच्चा है भाईसाब. पढ़ रहा है. नौकरी करने तक तो उसकी शादी के बारे में हम सोच भी नहीं सकते.’ जुनैद मुस्तफ़ा की बात पूरी होने से पहले ही गौतमी ने काट दी. उसे अंदेशा हो गया था कि अब वे उनका कुल-गोत्र जैसी बातें पूछेंगे तो वो क्या करेगी? अभी गौतमी जुनैद साब के इस झटके से उबर भी न पाई थी कि मेरठ से जिज्जी का फोन आ गया. गौतमी तुरन्त बाहर की तरफ़ निकल गयी.
’अरे छोटी, वो मोदी नगर से रवि का बेटा मोनू चढ़ेगा तुम्हारी ही ट्रेन में, उसे बर्थ नम्बर और बोगी नम्बर बता दिया है. तीन-चार लड़के हैं आज कुछ खरीददारी करने उधर गये थे. तो तुम लोगों को भी साथ ही लेते आयेंगे घर तक.’
’लेकिन जिज्जी, मोनू को तो हमने दो साल का देखा था, अभी पहचानेंगे कैसे? और वो कैसे पहचानेगा?’ गौतमी को चिन्ता हुई.
’अरे पहचानना क्या? तुम्हारा नाम लेता आयेगा न. फिर तुम्हारी बर्थ का नम्बर तो है ही उसके पास.’ जिज्जी ने पूरी व्यवस्था कर रखी थी.
’लेकिन जिज्जी......’ फोन कट गया था उधर से. हे भगवान! अब क्या होने वाला है? ये जुनैद साब भी तो होंगे उस वक़्त सामने ही.... या अल्लाह!! कहीं टीसी भी न आ जाये वहीं...!
गौतमी के चेहरे पर उड़ती हवाइयां देख रामकुमार को लगा मामला कुछ गड़बड़ है.
’कुछ नहीं. वो रवि का बेटा चढ़ेगा मोदीनगर से...’ गौतमी फुसफुसाई.
’तो...?’
’तो क्या? ख़ाक...’ गौतमी को गुस्सा असल में जुनैद मुस्तफ़ा पर आ रहा था. मोदी नगर तो आने ही वाला है....! गौतमी सिर पकड़ के बैठ गयी थी.
’क्या हुआ भाभीजान, सिर में दर्द है? दवाई है मेरे पास यक़ीन मानियेगा...’
’अरे भाईसाब मैं तो कब से आपका यक़ीन ही मान रही हूं लेकिन अभी मुझे किसी अवाई-दवाई की ज़रूरत नहीं है.’ गौतमी की खीझ समझ न पाये जुनैद मुस्तफ़ा. कैसे समझते आखिर?
बाहर चाय...चाय..’ की आवाज़ों ने ध्यान भंग किया गौतमी का. मोदी नगर आ गया था.
’सत्रह-अट्ठारह..... हां यही है बर्थ. अबे रम्मू.... लौट आ बे. मिल गयी बर्थ. तीन लड़के खड़े थे सामने बर्थ के ऐन सामने.
’नमस्ते आंटी जी, अंकल जी. आप मोनू शर्मा के नानी-नाना हैं न?’
एकबारगी गौतमी भूल ही गयी कि वो किसी की नानी भी है. सो एक झटके में बोल गयी-
’नहीं जी. हम किसी मोनू-ओनू शर्मा की नानी नहीं हैं.’
’अरे जनाब. ये तो मंसूर अख़्तर और सदफ़ अख़्तर हैं. तुम कहां मोनू शर्मा-मोनू शर्मा लगाये हो. और हां, अगर यहां बैठने की जुगाड़ में हो, तो आगे निकल लेना क्योंकि ये रिज़र्व डिब्बा है.’ गौतमी के इंकार करते ही जुनैद मुस्तफ़ा बोल पड़े.
’क्यों बे, मोनू कहां रह गया? अबे ये तो मुस्लिम फ़ैमिली है. बर्थ नम्बर सही था न? बोगी नम्बर? किसी और बोगी का सत्रह-अट्ठारह तो नहीं बताया था?’
लड़के आपस में सलाह कर ही रहे थे कि मोनू नाम का लड़का आ गया. तीनों लड़के उसकी तरफ़ हो लिये.
’यार ये तो कोई मुस्लिम फ़ैमिली है. वो तुम्हारे रिश्तेदार कहां हैं? किसी और बोगी में तो नहीं....’
’अबे यार तुम लोग भी अजब पचड़ू हो. हां तो चचाजान आप कहां से चढ़े हैं ट्रेन में? इस बर्थ पर पहले कौन था?’ इस मोनू नाम के लड़के की आवाज़ में ग़ज़ब बद्तमीज़ी थी.
‘बेटा हम लोग तो भोपाल से चढ़े हैं. हमारा टिकट तो ग़ाज़ियाबाद तक का ही था, लेकिन टीसी ने हमारा टिकट एक्स्टेंड कर दिया है मेरठ तक.’ रामकुमार जी शांति से बोले.
’अच्छा.... तो ग़ाज़ियाबाद तक था आपका टिकट. लेकिन इसी बर्थ नम्बर पर हमारे रिश्तेदार भी तो सफ़र कर रहे थे न, इसी बोगी में. अब एक ही नम्बर दो लोगों को तो मिल नहीं सकता. तो जब आप भोपाल से इसी बर्थ पर बैठे हैं तो हमारे रिश्तेदार कहां गये? उन्हें ट्रेन निगल गयी? इतने बूढ़े बुज़ुर्ग लोगों के साथ क्या किया तुम लोगों ने? मोनू अब आप से सीधे तुम पर उतर आया था. उसे बताया गया था कि भोपाल से नाना-नानी आ रहे सो उसके दिमाग़ में बुज़ुर्गों की छवि थी जबकि गौतमी और रामकुमार दोनों ही अपनी उमर से बहुत कम उम्र दिखाई देते हैं, सो नाना-नानी की कैटेगरी में फ़िट न बैठ रहे थे.
’कैसी बातें करते हो बेटा? भला हम तुम्हारे नाना-नानी के साथ क्यों करेंगे कुछ? आख़िर अल्लाह के दरबार में हमें भी जाना है.’ रामकुमार, जिन्हें मोनू के आने की कोई ख़बर न थी, पूरी गम्भीरता से अब तक मंसूर अख़्तर बने हुए थे.
’अगर मेरे रिश्तेदारों का कुछ पता नहीं चला न, तो अल्लाह के दरबार में हम ही पहुंचायेंगे आपको, फिर क़ुबूलते रहियो अपने गुनाह वहीं.’ नीले स्वेटर वाला लड़का कुछ ज़्यादा ही तैश में आ गया था.
’अरे बेटा, ज़रा सुनो तो मेरी बात, इधर आओ ज़रा...’ गौतमी को अचानक ही अपनी ग़लती का भान हुआ और मोनू का नाम भी याद आ गया तो वो मोनू को एक तरफ़ ले जाना चाहती थी ताकि वस्तुस्थिति बता सके.

’क्या इधर आओ. कहीं नहीं जाना हमें. क्या कहना चाहतीं हैं आप? आखिर हमारे लोग गये कहां? आप लोग कान खोल के सुन लीजिये, हमारे लोग नहीं मिले तो आप भी कहीं न उतर पायेंगे. जीना हराम कर देंगे हम. हर जगह कब्जा करना चाहते हैं आप लोग. कहां भगा दिया उन बेचारों को?’ काले कोट वाला कुछ अलग ही विचारधारा का दिखाई दे रहा था.
’भई आपलोग फ़िजूल गुस्से में आ रहे. यक़ीन मानिये ये लोग भोपाल से ही इस बर्थ पर हैं.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने पक्ष लेना चाहा.
’अच्छा तो आप भी इन्हीं लोगों में शामिल हैं.... इन तीनों की मिलीभगत लग रही है हमें तो. दाल में कुछ न कुछ काला तो ज़रूर है मोनू.... ये लोग ऐसे नहीं बतायेंगे. जिस देश का नमक खा रहे उसी देश के लोगों से नमकहरामी.... अभी खींच के एक लगायेंगे न तो सब उगल दोगे तुम लोग.’ नीले कोट वाले ने हाथ ऊपर उठा के थप्पड़ जड़ने के अन्दाज़ में धमकाया.
’भई हमारी टिकट चैक कर लो तुम लोग. किसे खोज रहे ये भी तो पता चले. दिखाओ ज़रा टिकट दिखाओ इन्हें गौ.... सदफ़.’ रामकुमार ने गौतमी कहते-कहते खुद को सम्भाला.
’नहीं देखनी बे टिकट. नमकहराम, ज़ाहिल, देशद्रोही कहीं के. बता कहां हैं हमारे लोग?’ अब काले कोट वाले ने कॉलर पकड़ ली थी रामकुमार की.
’क्या कर रहे हो ये? छोड़ो कॉलर. मैं कहता हूं छोड़ो.... और देशद्रोही किसे कहा तुमने? देशद्रोही होगे तुम और तुम्हारा खानदान... यही सिखाया मां-बाप ने? ऐसे ही बात करते हो अपने मां-बाप से?’ रामकुमार का देशभक्त खून खौल उठा था अब.
’ओय..... खानदान तक पहुंच रहा ये... मां-बाप को गाली दे रहा... चोर कहीं का. देशद्रोही कह रहा हमें.. ले मज़ा चख अब. बहुत लिहाज कर लिया बुड्ढे..’ एक ज़ोरदार थप्पड़ गूंज गया था शोर-गुल के बीच भी. रामकुमार इस घट्ना के लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे. अचानक हुए हमले से वे पीछे को गिर पड़े. लड़के ने दोबारा हाथ उठाया लेकिन जुनैद मुस्तफ़ा ने उसका उठा हुआ हाथ पकड़ लिया.
’क्या कर रहे हो बरखुरदार.... सारा मामला टीसी से क्लियर क्यों नहीं करते? इस तरह मार-पीट...’
’अच्छा तो तुम्हें भी चाहिये क्या? बड़े देशप्रेमी बनते हो, तो बोलो वंदेमातरम...’ नथुने फुलाते काले कोट वाले लड़के ने रामकुमार से कहा.
रामकुमार जो अब बहुत बौखला चुके थे, और भूल चुके थे कि वे मंसूर अख़्तर हैं, इसलिये उनका देशप्रेम टेस्ट हो रहा, चिल्लाये-
’नहीं बोलूंगा. तुम कौन होते हो हमारी देशभक्ति जांचने वाले?’
’देखा? समझ में आ गया न इनका देशप्रेम? अब देखो बेटा. वन्देमातरम बोलोगे भी और गाओगे भी...’ वही लड़का फिर लपका रामकुमार के ऊपर. इस पूरे मामले के चलते लड़के अपने रिश्तेदारों का मामला भी भूले से लग रहे थे.
इधर मामला गम्भीर होता देख, उसी बोगी का एक यात्री, टीसी को खोज लाया था. टीसी जीआरपी के दो जवानों सहित आया.
’टीसी साहब, अब ज़रा इन लड़कों को बतायें कि ये लोग कौन हैं, और उन लोगों को भी खोज दें, जिन्हें ये ढूंढ रहे.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने दर्ख्वास्त की. टीसी ने अपनी पूरी लिस्ट निकाली.
’किसे खोज रहे आप?’
’जी रामकुमार शर्मा और गौतमी शर्मा को.’
अपने नाम सुन के रामकुमार चौंके. गौतमी की ओर देखा, वो पहले ही आंसू बहाती उन्हें देख रही थी. टीसी ने नाम चैक करने शुरु किये. तीन लिस्ट पूरी देख डालीं. अब तक बाक़ी दो टीसी भी बुला लिये गये थे. सबने अपनी-अपनी लिस्ट चैक कीं. न. रामकुमार और गौतमी शर्मा का नाम कहीं नहीं था.
’भई तुम लोग आखिर कैसे इन दो नामों को खोज रहे हो जबकि इन नामों का कोई व्यक्ति सफ़र कर ही नहीं रहा. कोई और ट्रेन तो नहीं?’ टीसी भी इस फ़िजूल नौटंकी से झल्ला गया था.
लड़के अब भी रामकुमार और गौतमी को शक़ की निगाह से देख रहे थे. टीसी चला गया था, लेकिन लड़के वहीं अड़े खड़े थे. दो लड़कों ने तो उन्हीं की बर्थ में बैठ के अपनी जगह भी बना ली थी.
’ठीक है. नाम नहीं है न? कोई बात नहीं. लेकिन वे आ रहे थे इसी ट्रेन से और इसी बर्थ पर. तो उन्हें बोगी तो निगल नहीं गयी. न ही अचानक वे इन दोनों में तब्दील हो गये. मामला कहीं न कहीं संदिग्ध है. गड़बड़ इन लोगों ने ही की है तो अब स्टेशन पर उतर के ये कहीं नहीं जा सकते जब तक सही बात न बता दें.’
मोनू ने फ़ैसला सुनाया. बाक़ी लड़कों ने भी सहमति में सिर हिलाया.
’आप लोग समझने की कोशिश कीजिये. हमारी बात तो सुनिये.....’
’चोप्प...... कोई बात नहीं सुननी हमें. पुलिस ही उगलवायेगी अब सही बात. इन लोगों की तो लगता है हड्डी-पसली तोड़ के......’ लड़के की बात पूरी होने के पहले ही गौतमी के मोबाइल पर ’पंख होते तो उड़ आती रे....’ की रिंग टोन बजने लगी. जिज्जी का फोन था.
’ जिज्जी रे..........’ गौतमी बुक्का फाड़ के रो पड़ी. गौतमी ने जिज्जी की कोई भी बात सुने, अपनी कहे वग़ैर ही मोबाइल मोनू नाम के लड़के की ओर बढ़ा दिया. मोनू के कान में क्या कहा गया ये तो नहीं पता लेकिन अब उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.’
’उफ़्फ़..... हद्द है लेकिन...... इतनी देर से बहस हो रही, झगड़ा हो रहा, तब आपने बताया क्यों नहीं नानी? अरे रुक जाओ बे. यही हमारे नाना-नानी हैं, जिन्हें इतनी देर से खोज रहे हम.’ मोनू ने पलट के, ताव खाते अपने दोस्तों से कहा. लड़के मुंह बायें, उसके पहले ही जुनैद मुस्तफ़ा की बड़ी-बड़ी आंखें और बड़ी हो गयीं.
नानी!!! नाना!! हें!!!! जुनैद मुस्तफ़ा ख़ासे हैरत में पड़ गये थे.
’अरे जनाब मंसूर अख़्तर साब, ये क्या हो रिया है? क्या कह रिया ये लौंडा? अमां इस क़दर क्यों झूठ बोलना.... मुसलमान हैं तो हैं. इनके डर से क्या रामकुमार बन जायेंगे ?’
जुनैद मुस्तफ़ा की मासूमियत पर रामकुमार उठे और लपक के जुनैद मुस्तफ़ा के गले में बांहें डाल, फूट-फूट के रो पड़े. ऐसी रुलाई तो उन्हें थप्पड़ खाने के बाद भी नहीं आई थी. रुंधे कंठ से, हाथ जोड़ बोले-
’मुस्तफ़ा साहब, असल में मैं रामकुमार ही हूं. मंसूर अख़्तर क्यों बना, ये लम्बी कहानी है. लेकिन इस बनने-बनाने ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया, बहुत कुछ दिखा दिया. इस सफ़र में आपका साथ भुलाये नहीं भूलेगा. मुझसे या इन बच्चों से कोई ग़लती हो गयी हो, तो माफ़ कीजियेगा....’
’ तौबा तौबा भाईजान... ये क्या कर रिये हैं आप....आपकी क्या ग़लती? और रही बात बच्चों की, तो देर-सबेर सब ठीक हो जायेगा, यक़ीन मानियेगा....!’
अब तक चुप गौतमी के चेहरे पर भी अचानक ही जुनैद मुस्तफ़ा के ’यक़ीन मानियेगा’ कहते ही मुस्कुराहट दौड़ गयी .
तीनों लड़के अब सदफ़ अख़्तर- मंसूर अख़्तर का सामान, सिर झुकाये उतार रहे थे.
वन्दना अवस्थी दुबे
केयर पब्लिक स्कूल
मुख्त्या’क्या इधर आओ. कहीं नहीं जाना हमें. क्या कहना चाहतीं हैं आप? आखिर हमारे लोग गये कहां? आप लोग कान खोल के सुन लीजिये, हमारे लोग नहीं मिले तो आप भी कहीं न उतर पायेंगे. जीना हराम कर देंगे हम. हर जगह कब्जा करना चाहते हैं आप लोग. कहां भगा दिया उन बेचारों को?’ काले कोट वाला कुछ अलग ही विचारधारा का दिखाई दे रहा था.
’भई आपलोग फ़िजूल गुस्से में आ रहे. यक़ीन मानिये ये लोग भोपाल से ही इस बर्थ पर हैं.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने पक्ष लेना चाहा.
’अच्छा तो आप भी इन्हीं लोगों में शामिल हैं.... इन तीनों की मिलीभगत लग रही है हमें तो. दाल में कुछ न कुछ काला तो ज़रूर है मोनू.... ये लोग ऐसे नहीं बतायेंगे. जिस देश का नमक खा रहे उसी देश के लोगों से नमकहरामी.... अभी खींच के एक लगायेंगे न तो सब उगल दोगे तुम लोग.’ नीले कोट वाले ने हाथ ऊपर उठा के थप्पड़ जड़ने के अन्दाज़ में धमकाया.
’भई हमारी टिकट चैक कर लो तुम लोग. किसे खोज रहे ये भी तो पता चले. दिखाओ ज़रा टिकट दिखाओ इन्हें गौ.... सदफ़.’ रामकुमार ने गौतमी कहते-कहते खुद को सम्भाला.
’नहीं देखनी बे टिकट. नमकहराम, ज़ाहिल, देशद्रोही कहीं के. बता कहां हैं हमारे लोग?’ अब काले कोट वाले ने कॉलर पकड़ ली थी रामकुमार की.
’क्या कर रहे हो ये? छोड़ो कॉलर. मैं कहता हूं छोड़ो.... और देशद्रोही किसे कहा तुमने? देशद्रोही होगे तुम और तुम्हारा खानदान... यही सिखाया मां-बाप ने? ऐसे ही बात करते हो अपने मां-बाप से?’ रामकुमार का देशभक्त खून खौल उठा था अब.
’ओय..... खानदान तक पहुंच रहा ये... मां-बाप को गाली दे रहा... चोर कहीं का. देशद्रोही कह रहा हमें.. ले मज़ा चख अब. बहुत लिहाज कर लिया बुड्ढे..’ एक ज़ोरदार थप्पड़ गूंज गया था शोर-गुल के बीच भी. रामकुमार इस घट्ना के लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे. अचानक हुए हमले से वे पीछे को गिर पड़े. लड़के ने दोबारा हाथ उठाया लेकिन जुनैद मुस्तफ़ा ने उसका उठा हुआ हाथ पकड़ लिया.
’क्या कर रहे हो बरखुरदार.... सारा मामला टीसी से क्लियर क्यों नहीं करते? इस तरह मार-पीट...’
’अच्छा तो तुम्हें भी चाहिये क्या? बड़े देशप्रेमी बनते हो, तो बोलो वंदेमातरम...’ नथुने फुलाते काले कोट वाले लड़के ने रामकुमार से कहा.
रामकुमार जो अब बहुत बौखला चुके थे, और भूल चुके थे कि वे मंसूर अख़्तर हैं, इसलिये उनका देशप्रेम टेस्ट हो रहा, चिल्लाये-
’नहीं बोलूंगा. तुम कौन होते हो हमारी देशभक्ति जांचने वाले?’
’देखा? समझ में आ गया न इनका देशप्रेम? अब देखो बेटा. वन्देमातरम बोलोगे भी और गाओगे भी...’ वही लड़का फिर लपका रामकुमार के ऊपर. इस पूरे मामले के चलते लड़के अपने रिश्तेदारों का मामला भी भूले से लग रहे थे.
इधर मामला गम्भीर होता देख, उसी बोगी का एक यात्री, टीसी को खोज लाया था. टीसी जीआरपी के दो जवानों सहित आया.
’टीसी साहब, अब ज़रा इन लड़कों को बतायें कि ये लोग कौन हैं, और उन लोगों को भी खोज दें, जिन्हें ये ढूंढ रहे.’ जुनैद मुस्तफ़ा ने दर्ख्वास्त की. टीसी ने अपनी पूरी लिस्ट निकाली.
’किसे खोज रहे आप?’
’जी रामकुमार शर्मा और गौतमी शर्मा को.’
अपने नाम सुन के रामकुमार चौंके. गौतमी की ओर देखा, वो पहले ही आंसू बहाती उन्हें देख रही थी. टीसी ने नाम चैक करने शुरु किये. तीन लिस्ट पूरी देख डालीं. अब तक बाक़ी दो टीसी भी बुला लिये गये थे. सबने अपनी-अपनी लिस्ट चैक कीं. न. रामकुमार और गौतमी शर्मा का नाम कहीं नहीं था.
’भई तुम लोग आखिर कैसे इन दो नामों को खोज रहे हो जबकि इन नामों का कोई व्यक्ति सफ़र कर ही नहीं रहा. कोई और ट्रेन तो नहीं?’ टीसी भी इस फ़िजूल नौटंकी से झल्ला गया था.
लड़के अब भी रामकुमार और गौतमी को शक़ की निगाह से देख रहे थे. टीसी चला गया था, लेकिन लड़के वहीं अड़े खड़े थे. दो लड़कों ने तो उन्हीं की बर्थ में बैठ के अपनी जगह भी बना ली थी.
’ठीक है. नाम नहीं है न? कोई बात नहीं. लेकिन वे आ रहे थे इसी ट्रेन से और इसी बर्थ पर. तो उन्हें बोगी तो निगल नहीं गयी. न ही अचानक वे इन दोनों में तब्दील हो गये. मामला कहीं न कहीं संदिग्ध है. गड़बड़ इन लोगों ने ही की है तो अब स्टेशन पर उतर के ये कहीं नहीं जा सकते जब तक सही बात न बता दें.’
मोनू ने फ़ैसला सुनाया. बाक़ी लड़कों ने भी सहमति में सिर हिलाया.
’आप लोग समझने की कोशिश कीजिये. हमारी बात तो सुनिये.....’
’चोप्प...... कोई बात नहीं सुननी हमें. पुलिस ही उगलवायेगी अब सही बात. इन लोगों की तो लगता है हड्डी-पसली तोड़ के......’ लड़के की बात पूरी होने के पहले ही गौतमी के मोबाइल पर ’पंख होते तो उड़ आती रे....’ की रिंग टोन बजने लगी. जिज्जी का फोन था.
’ जिज्जी रे..........’ गौतमी बुक्का फाड़ के रो पड़ी. गौतमी ने जिज्जी की कोई भी बात सुने, अपनी कहे वग़ैर ही मोबाइल मोनू नाम के लड़के की ओर बढ़ा दिया. मोनू के कान में क्या कहा गया ये तो नहीं पता लेकिन अब उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.’
’उफ़्फ़..... हद्द है लेकिन...... इतनी देर से बहस हो रही, झगड़ा हो रहा, तब आपने बताया क्यों नहीं नानी? अरे रुक जाओ बे. यही हमारे नाना-नानी हैं, जिन्हें इतनी देर से खोज रहे हम.’ मोनू ने पलट के, ताव खाते अपने दोस्तों से कहा. लड़के मुंह बायें, उसके पहले ही जुनैद मुस्तफ़ा की बड़ी-बड़ी आंखें और बड़ी हो गयीं.
नानी!!! नाना!! हें!!!! जुनैद मुस्तफ़ा ख़ासे हैरत में पड़ गये थे.
’अरे जनाब मंसूर अख़्तर साब, ये क्या हो रिया है? क्या कह रिया ये लौंडा? अमां इस क़दर क्यों झूठ बोलना.... मुसलमान हैं तो हैं. इनके डर से क्या रामकुमार बन जायेंगे ?’
जुनैद मुस्तफ़ा की मासूमियत पर रामकुमार उठे और लपक के जुनैद मुस्तफ़ा के गले में बांहें डाल, फूट-फूट के रो पड़े. ऐसी रुलाई तो उन्हें थप्पड़ खाने के बाद भी नहीं आई थी. रुंधे कंठ से, हाथ जोड़ बोले-
’मुस्तफ़ा साहब, असल में मैं रामकुमार ही हूं. मंसूर अख़्तर क्यों बना, ये लम्बी कहानी है. लेकिन इस बनने-बनाने ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया, बहुत कुछ दिखा दिया. इस सफ़र में आपका साथ भुलाये नहीं भूलेगा. मुझसे या इन बच्चों से कोई ग़लती हो गयी हो, तो माफ़ कीजियेगा....’
’ तौबा तौबा भाईजान... ये क्या कर रिये हैं आप....आपकी क्या ग़लती? और रही बात बच्चों की, तो देर-सबेर सब ठीक हो जायेगा, यक़ीन मानियेगा....!’
अब तक चुप गौतमी के चेहरे पर भी अचानक ही जुनैद मुस्तफ़ा के ’यक़ीन मानियेगा’ कहते ही मुस्कुराहट दौड़ गयी .
तीनों लड़के अब सदफ़ अख़्तर- मंसूर अख़्तर का सामान, सिर झुकाये उतार रहे थे.
वन्दना अवस्थी दुबे