Das Darvaje - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

दस दरवाज़े - 2

दस दरवाज़े

बंद दरवाज़ों के पीछे की दस अंतरंग कथाएँ

(चैप्टर- दो)

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पहला दरवाज़ा (कड़ी -2)

रेणुका देवी : मैं तुझसे मुखातिब हूँ

हरजीत अटवाल

अनुवाद : सुभाष नीरव

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रेणुका देवी। एडवोकेट रेणुका देवी। इन्द्रेश शर्मा के साथ उसकी जूनियर बनकर कचेहरी में आती है। मेरी सीट इन्द्रेश शर्मा के बिल्कुल बराबर है। शर्मा का मुंशी बलदेव बहुत तेज़ लड़का है। शर्मा का ही रिश्तेदार है। वह बताता है कि हमारे परिवार में जो कोई पढ़-लिख जाता है, वकील बन जाता है और जो नहीं पढ़ पाता, वह मुंशी। कचेहरी में इन शर्माओं का ज़ोर है। इन्द्रेश शर्मा चंडीगढ़ भी प्रैक्टिस करता है, तीन दिन चंडीगढ़ और दो दिन यहाँ। रेणुका देवी को उसका कोई परिचित उससे मिलवाता है। राजेश और रेणुका देवी इस शर्मा परिवार के ही किसी घर में किराये पर रहते हैं।

मैं, राणा, जसबीर और अमरीक कचेहरी में ऐसे वकील हैं कि हमने किसी का जूनियर बने बग़ैर ही अपना काम शुरू कर लिया है। शायद यही मेरी गलती है। जसबीर मेरे से करीब एक साल सीनियर है, अमरीक मेरे साथ ही आया है और राणा मेरे से बाद में। हम चारों ही खाली हैं। कुछेक ठगी-चोरियाँ करके थोड़े-बहुत पैसे बना लेते हैं, नहीं तो सारा दिन खाली। जसबीर शीघ्र ही इंग्लैंड चला जाएगा। अमरीक दलित परिवार में से होने के कारण सरकारी वकील या हो सका तो कहीं जज लग जाएगा। रह गए मैं और राणास! वह तेज़ है, अपनी दिहाड़ी किसी न किसी तरह बना लेता है, पर मेरा तो एक किस्म से कचेहरी आना-जाना ही होता है। बार रूम में बैठकर चाय पी ली या ताश खेल ली। मेरा एक रिश्तेदार वकील कहता है -

“अब कुछ नहीं इस काम में, डोंट वेस्ट यूअर टाइम! कहीं बाहर निकल जा।“

बस, मैं कहीं बाहर निकलने की राह तलाश रहा हूँ। अपनी वकालत को, अपने जवान होने को इस काम के लिए ही प्रयोग में लाना चाहता हूँ। बाहर किसी देश में पढ़ने के बहाने चला जाऊँ या कहीं रिश्ता ही हो जाए। मैं लंदन के एक कालेज में दाखि़ले के लिए आवेदन करता हूँ। उनका अनुकूल जवाब आ जाता है। इंग्लैंड में बसता मेरा भाई मेरे लिए हाथ-पैर मार रहा है। वह चाहता है कि अगर मेरा रिश्ता उधर हो जाए तो बेहतर होगा क्योंकि पढ़ाई पर खर्च बहुत आता है। मुझे पता है कि भाई पैसे खर्च करने में बहुत कंजूस है। फिर भी, बाहर निकलने की आशाएँ बंध रही हैं। और कुछ हो या न हो, पर ऐसे सोच-विचार मुझे मेरी प्रैक्टिस में दिल नहीं लगाने दे रहे। ऐसे अवसर पर ही रेणुका देवी का कचेहरी में प्रवेश होता है। इन्द्रेश शर्मा की सीट मेरे साथ होने के कारण मेरे से उसकी मुलाकात होती है। सांवले-से रंग की ढीली-सी औरत है इसलिए मेरे लिए कोई खास आकर्षण नहीं रख रही, पर उसका औरत होना ही क्या ध्यान खींचने के लिए काफी नहीं है? वह हँस-हँसकर बातें करती है। मैं उसको चाय पिलाने सामने वाली अमरचंद की दुकान पर ले जाता हूँ। राणा, जसबीर, अमरीक दूर खड़े मेरी ओर देख रहे हैं और हँस रहे हैं। मैं जानता हूँ कि ईर्ष्या भी कर रहे होंगे।

अब रेणुका देवी रोज़ मिलने लगती है। उसका पति राजेश भी कचेहरी आता है और कितनी कितनी देर साइलों वाले फट्टे पर बैठा रहता है। है तो वह स्कूल मास्टर, पर साधारण-सा व्यक्ति है। राजपूतों वाला रौब उसके चेहरे पर बिल्कुल नहीं है। कभी-कभी वह कचेहरी आ जाया करता है। अपनी पाँचेक साल की बेटी को भी संग ले आता है, पर शीघ्र ही वह समझ जाता है कि कचेहरी की दुनिया के वह बिल्कुल फिट नहीं है और उसका आना रेणुका के काम में रुकावट बन सकता है।

इन्द्रेश शर्मा का मुंशी बलदेव मुझसे कहता है -

“बाबू जी, इस मैडम को आप ही कोई काम सिखा दो। मेरे बाबू जी तो आम तौर पर चंडीगढ़ रहते हैं, ये बेचारे क्या काम सीखेंगे।“

“बलदेव राज, मेरे पास भी कौन-सा इतना काम है!“

“चलो, इन्हें अपने पास रख लो, आपका भी दिल लगा रहेगा।“ कहकर बलदेव आँख दबाता है। मुझे शर्म-सी महसूस होती है।

एडवोकेट जसबीर मुझसे कहता है, “मैडम तो तेरे पर मरी पड़ी लगती है।“

“यूँ ही है यार।“

“कुछ न होने से तो यही सही!“ कहता हुआ वह हँस पड़ता है। उसकी बात सच भी है। बहुत सालों से मेरी किसी औरत के साथ निकटता नहीं रही। बंसी के साथ संक्षिप्त-से नाते के बाद तो मैंने किसी परायी औरत के साथ बात भी नहीं की। मैं रेणुका की ओर बढ़ता हूँ। उसको फिल्म देखने जाने के लिए कहता है। वह भी चाहती है, पर पति से कौन-सा बहाना बनाए। वह कोई बहाना खोज लेती है और यहीं से शुरुआत होती है मेरे और उसके रिश्ते की। हम एक-दूजे के करीब होने लगते हैं। मैं उसको हाथ लगाता हूँ तो उसकी आँखों में नशे के लाल डोरे तैरने लगते हैं। मैं उसको बाहों में भरता हूँ तो कहती है -

“नहीं वकील साहब, ऐसा न करो। मेरे लिए यह ठीक नहीं।“

“मैडम, मुझे तुम्हारे अन्दर की औरत साँस लेती सुनाई दे रही है।“

“इसीलिए मैं कह रही हूँ कि ऐसा न करो, मेरे लिए ठीक नहीं। मुझे मेरे हाल पर रहने दो।“

मैं रुकता नहीं तो वह कहने लगती है -

“मेरे अच्छे-भले जीवन में सपनों का खलल क्यों डाल रहे हो?“

“मैं तुम्हारे में से कोई सुख खोज रहा हूँ जिससे मैं अब तक वंचित हूँ और मुझे लगता है कि तुम भी इस सुख से दूर रही हो।“

वह कुछ नहीं बोलती। सिर झुकाये रखती है।

“कहीं घूमने चलें?“

“कहाँ?“

“कहीं भी... रात किसी होटल में रहें।“

“ना बाबा ना, मेरा पति तो मुझे जान से मार देगा। तुम्हें नहीं पता इन राजपूतों का।“

“मैडम, मिलना भी ज़रूरी है कि नहीं?“

वह मेरी ओर देखती है और गर्दन झुकाकर ‘हाँ’ में सिर हिलाती है।

“मिलने के लिए कोई जगह तो चाहिए।“ मैं कहता हूँ।

“होटल नहीं।“

“फिर कहाँ?“

वह सोचने लगती है और बोलती है -

“तुम मेरे घर आ जाओ। दिन में ये काम पर चले जाते हैं और पिंकी स्कूल में होगी।“

“तुम्हारे अड़ोसी-पड़ोसी?“

“दोपहर में कोई घर में कम ही होता है।“

मैं उसके घर चला जाता हूँ।

यह मेरी ज़िन्दगी का वह दिन है जिसको मैं ईश्वरीय देन समझा करता हूँ। जिसके बारे में मैं सोचता रहा हूँ कि यह दिन ईश्वर किसी-किसी को ही बख़्शता है। मुझे लगता है कि इस दिन को प्राप्त करने में किसी जादू की ज़रूरत है। यह दिन मुझे इतना आनंदित करता है कि मेरे अन्दर की भूख और बढ़ने लगती है। रेणुका देवी भी बहुत खुश है, उसकी चाल ही बदल जाती है। चेहरे पर निखार आ जाता है। अगले दिन पूरा मेकअप करके कचेहरी आती है।

एक दिन वह कहती है -

“जोगी जी, मुझे तुमसे सच में ही प्यार हो गया है। और तुम्हें?“

“शायद मुझे भी। मैं पहली बार किसी औरत के करीब हुआ हूँ इसलिए तुम्हारी तरफ खिंचा आ रहा हूँ, हर शाम तुम्हारे संग बिताना चाहता हूँ।“

“माता देवी ऐसा ही करे!“ वह गले में पहनी तस्वीर को पकड़कर चूमने लगती है।

उसका पति बेटी को उसके माँ-बाप के पास छोड़ने के लिए डेरीआन-सून चला जाता है। रेणुका देवी कुछ दिन के लिए अकेली हो जाती है। वह अपने मकान मालिक को कह जाती है कि छुट्टी वाले दिन वह अपने ससुराल बालमपुर चली जाएगी, पर मेरे साथ चंडीगढ़ के एक होटल में पहुँच जाती है। हम दो रातें वहाँ बिताते हैं।

अब औरत मेरे लिए बुझारत नहीं रहती। मेरे लिए कुछ भी अनजाना नहीं। कुछ भी नया नहीं रहा। परंतु उत्सुकता अभी भी पहले की भाँति ही है। वह बताती है -

“जोगी, मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक नौजवान के साथ मेरी मुलाकात होगी। मैं तो इस काले-कलूटे के साथ उम्र काट लेने के वास्ते तैयार हुई बैठी थी, पर क्या पता, माता देवी को क्या मन्जूर था!“

“मैडम, उम्र तो तुम्हें इसी के साथ काटनी पड़ेगी।“ मैं कहता हूँ।

वह उदास हो जाती है। कहीं दूर सोच के समंदर में खो जाती है। फिर एकाएक कहती है -

“क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम विवाह करवा लें?“

“यह कैसे संभव हो सकता है, तुम्हारी बच्ची है!“

“बच्ची तो मेरी माँ संभाल लेगी।“

“और यह तुम्हारा लल्लू प्रसाद? इसका क्या होगा?“

“इसका क्या होना है। यह कोई दूसरी ले आएगा। राजपूतों का बेटा है, रिश्तों का कोई घाटा नहीं होने वाला।“

वह जैसे पूरी योजना बनाए बैठी हो। कुछ देर बाद पुनः बोली -

“डेरीऑन-सून में मेरे नाम एक प्लाट है, उसे बेचकर हम यहीं घर खरीद सकते हैं।“

“पर मैडम रेणुका देवी, यह मेरी मंज़िल नहीं।“

मेरी बात सुनकर वह मेरी ओर अजीब नज़रों से देखने लगती है और सख़्त सुर में पूछती है -

“फिर यह सब क्या है? यह अपना मेल, यह मेरा तुम्हारी खातिर सारी सीमाओं को लांघना, क्या है यह सब?“

“एक सुख, एक आनंद, एक भटकन को ज़रा-सा ठहराव... मेरे लिए एक पड़ाव। मेरी मंज़िल तो कहीं बहुत दूर है।“

“कहाँ है तुम्हारी मंज़िल?“

“मुझे विदेश जाना है, इंग्लैंड या कहीं ओर।“

“मैं भी तुम्हारे संग चलूँगी। मुझे विदेश जाना बहुत अच्छा लगता है। हमारा एक रिश्तेदार एक बार इंग्लैंड गया था और वहाँ से आकर बहुत बातें सुनाया करता था।“

“ऐसा नहीं होने वाला रेणुका देवी, मेरे विदेश के सफ़र के लिए विवाह एक बाधा बनेगा। मैं तुम्हारे संग बंधकर इस जगह से नहीं बंधना चाहता।“

मैं साफ़-स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ। वह उदास हो जाती है।

अब वह मेरे साथ अधिक बात नहीं करती। ऐसा व्यवहार करती है मानो हमारे बीच कुछ हुआ ही न हो। बात करती भी है तो परायों की तरह। हँसेगी भी तो फीकी-सी हँसी।

एक दिन हम दोनों बैठे बातें कर रहे थे कि एक अन्य वकील देव सरीन आकर उससे पूछता है -

“मैडम, चाय पीने चलोगे?“

रेणुका मेरी तरफ देखने लगती है मानो मुझसे अनुमति मांग रही हो। देव सरीन कहता है -

“एडवोकेट साहिबा, जोगी की ओर क्या देख रहे हो। जोगी का मतलब होता है जो बंदा एक जगह न ठहरे। उड़ते पंछी होते हैं ये। पंछियों के बारे में गाना नहीं सुना - रात को ठहरें तो उड़ जाएँ दिन को।“

मैं हँसता हूँ। रेणुका हँसती है। एक पल सोचकर कहती है -

“सरीन जी, मुझे अभी चाय नहीं पीनी, जोगी जी के साथ ही कुछ देर बाद पिऊँगी।“

“आपकी मर्ज़ी जी, हमारा काम है अगले तो आगाह करना, वार्निंग देना।“

उसके चले जाने के बाद रेणुका कहती है -

“बड़े खराब हैं ये लोग।“

फिर वह गाने लगती है -

“मैं तां जाणा जोगी दे नाल...।“

मुझे चिन्ता हो जाती है कि यह औरत गले ही न पड़ जाए। एडवोकेट जसबीर कहता है -

“यार, लोग तेरी बहुत बातें करने लगे हैं। उसका कुछ बिगड़ेगा नहीं और तेरा कुछ रहेगा नहीं। वह तो उस झुड्डू से छुटकारा पाने के चक्कर में हैं और तेरे सामने तो पूरी लाइफ पड़ी है। अगर तुझे कोई रिश्ता आया तो तेरे इसके रिलेशन वह रिश्ता होने नहीं देंगे।“

मैं चिंतित हो उठता हूँ और ध्यान रखने लगता हूँ। उससे ज़रा दूर रहने लगता हूँ। वह एक दिन मुझे अपने घर पर बुलाती है, पर मैं नहीं जाता, बहाना बना देता हूँ। मैं उससे दूरी बनाने में कामयाब होने लगता हूँ।

इतवार का दिन है। इस दिन मैं गाँव में ही रहा करता हूँ। आज के दिन कोई न कोई ज़रूरतमंद मुझसे मिलने आ जाया करता है। अचानक करीब बारह बजे रेणुका हमारे घर पहुँच जाती है। उसको मैंने अपने गाँव के नाम के साथ-साथ रूट बता रखा है। मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ। मेरी माँ भी हैरान है। वह हाथ में फाइलें थामे इस प्रकार आती है कि लगे जैसे किसी खाम काम से आई हो। मैं डरता भी हूँ कि गाँव के लोग क्या समझेंगे। मैं उसको माँ से मिलवाता हूँ। माँ उसके साथ बातें करते हुए खुश है। किसी समय मेरी माँ भी डेरीऑन-सून में रहती रही है। यह शहर उन दोनों के बीच निकटता पैदा कर रहा है। बातों बातों में वह माँ से पूछती है कि क्या मैं सचमुच ही इंग्लैंड जा रहा हूँ। फिर वह मुझसे मुखातिब होकर पूछती है -

“जोगी, तू मेरे से दूर क्यों भाग रहा है?“

“मैं भाग नहीं रहा। तुम मेरे से कुछ अधिक ही आस रखने लग पड़ी हो। मैं तो सिर्फ़ राह में मिला मुसाफ़िर हूँ। मैं तुम्हारे किसी सपने को साकार नहीं कर सकता।“

“सपनों को मार गोली, सपने ही तो सब कुछ नहीं होते। पहले कौन से मेरे सपने कभी पूरे हुए हैं। तू मिल तो सही।“

“मैं कोर्ट में तुम्हारा या अपना नाम खराब नहीं करना चाहता।“

“ठीक है, कोर्ट में न सही, बाहर ही कहीं सही।“

“ठीक!“

“हमारी रिश्तेदारी में एक विवाह है, होशियारपुर में, मेरे साथ चल।“

“किस रिश्ते की हैसियत से?“

“एक दोस्त की हैसियत से।“

“रेणुका देवी, तुम्हारा दिमाग तो सही है! तुम उस राजपूत परिवार में से हो जहाँ औरतें बेगाने आदमी के सामने भी नहीं आतीं और तुम एक दोस्त को साथ लेकर जाओगी।“

“देख जोगी, मुझे अब जीने का मज़ा आने लगा है।“

“मैडम, यह एक सपना है, नींद खुलते ही टूट जाएगा।“

“मुझे पता है, तुझसे दूर होकर मुझे सपना खत्म होने का अहसास हो जाता है, पर कई बार ऐसा नहीं हुआ करता कि हम वही सपना देखने के लिए दुबारा सोने की कोशिश करने लगते हैं।“

“पर फिर भी वो सच नहीं होता।“

“यह आनंद तो सच है, यह चाव तो सच है, यह तसल्ली तो सच है।“

वह चार घंटे हमारे घर में रहती है। मैं उसको गाँव के बस-अड्डे पर छोड़ आता हूँ। वह कहने लगती है -

“मुझे माता जी ने बता दिया कि तू पढ़ने के लिए इंग्लैंड जा रहा है, पर जब तक तो...।“

“रेणुका जी, सच बात तो यह है कि हमारा यह रिश्ता तुम्हारी मैरीड लाइफ का भविष्य खतरे में डाल सकता है।“

“जोगी, मेरा सच भी सुन ले। ज़िन्दगी के ये थोड़े-से पल जो मैंने तेरे साथ गुज़ारे हैं, ये मैंने पहले कभी देखे ही नहीं थे। मुझे पता ही नहीं था कि लाइफ इतनी खूबसूरत भी हो सकती है। तू मुझे प्यार न कर, पर यह सुख तो मेरे से इतनी जल्दी मत छीन!“

वह चली जाती है। मैं उसके बारे में सोचने लग पड़ता हूँ। मुझे अहसास हो रहा है कि वह सचमुच ही मेरे ऊपर कोई जादू कर रही है। मुझे उस पर मोह आने लगता है।

(जारी…)