Mannu ki vah ek raat - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 3

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 3

"मुझे तुमसे बहुत शिकायत है मुन्नी " वह मुझे मुन्नी ही कहती थीं। अचानक कही गई उनकी इस बात से मैं एकदम हक्का-बक्का हो गई, मैंने डर से थर-थराते हुए धीरे से कहा,

’अनजाने में कोई गलती हुई हो तो माफ कर दीजिए अम्मा जी।’

"अब जाने में कुछ हो या अनजाने में यह तो तुम्हीं जानो। मैं तो नौ महीने में ही पोते को खिलाना चाहती थी। तुम से जाते समय कहा भी था मगर साल बीत गए पोता कौन कहे कान खुशखबरी भी सुनने को तरस गए। माना कि तुम लोग नए जमाने के हो। फैशन के दिवाने हो। मगर लड़का-बच्चा समय से हो जाएं तो ही अच्छा है।"

मैं उनका गुस्सा उनका व्यंग्य समझ गई। और सच कहूँ तो मैंने भी बच्चे के बारे में पहले ध्यान ही नहीं दिया था। एक-दो बार बात मन में आई ज़रूर पर खुदी सोचा अभी नहीं। एक-दो साल बाद सोचेंगे। हॉस्टल में बहुत सी लड़कियां जब बतियाती थीं तो शादी-ब्याह बच्चों आदि को भी लेकर बातें होती थीं। और सच बताऊं इन बातों का असर मुझ पर भी था। शादी के साल बीत जाने के बावजूद इन्होंने भी कभी कोई बात नहीं की थी। और सास ने एकदम से बच्चे की बात बोल कर मेरे होश उड़ा दिए थे। किसी तरह संभाला खुद को और सास को सफाई देते हुए कहा,

‘नहीं अम्मा जी ऐसी बात नहीं है।’

"अब चाहे जैसी बात हो बच्ची हमें तो जो दिख रहा है हम वही कह रहे हैं। अरे! फैशन करो मगर कुछ लिहाज-शर्म तो होनी ही चाहिए न। हम लोग भी कभी बहू थीं। मगर कभी ऐसा कुछ नहीं किया कि सास-ससुर या किसी को कुछ कहने का अवसर मिला हो।"

अम्मा के तानों के साथ-साथ नंदों और बाकी लोगों के व्यंग्य बाण भी मुझे छलनी करने लगे। मैं एकदम पस्त हो गई। पहले मायके से इस तरह घंटे भर में वापसी और फिर यहां आकर तानों व्यंग्यों को सुन कर लगा कि लोग जो कहते हैं कि ससुराल एक जेल है तो गलत नहीं कहते। मगर जब सासू मां खाना-पीना हो जाने के बाद फिर आकर बैठीं मेरे पास तो सभी को हटा दिया। सब सो गए। लेकिन वह हमसे बतियाती रहीं रात दो बजे तक। मैं उनके हाथ-पैर दबा रही थी मगर उसके लिए भी उन्होंने कुछ ही देर में मना कर दिया। वह चाह रही थीं कि मैं उनकी बात सुनती रहूँ बस। और फिर मैंने यही किया। उनकी बात सुन कर मेरे मन में उनके तानों के कारण जो थोड़ा गुस्सा था वह न सिर्फ़ खत्म हो गया बल्कि मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मुझे ऐसी सुलझी हुई समझदार सास मिली। उनकी चिंता अपने और मेरे दोनों के लिए थी। कह रही थीं,

"देखो तुम लोगों की शादी पहले ही बहुत देर से हुई है। कब बच्चे होंगे ? कब बड़े होंगे ? कब पढ़ेंगे-लिखेंगे ? कब उन सबका शादी-ब्याह होगा।" ऐसी न जाने क्या-क्या बातें उन्होंने कहीं, उनकी हर बातों में जोर सिर्फ़ इस बात पर था कि हमारा जीवन कैसे सुंदर बढ़िया खुशहाल हो। इसी की चिंता थी उन्हें। वह बराबर पूछती रहीं कि हम दोनों के बीच संबंध कैसे हैं। और यह भी समझाती रहीं कि उनका बेटा बहुत अक्खड़ है। इसलिए तुम्हीं समझ कर रहना। जब वह सो गईं तो मुझे लगा कि मां की ममता क्या होती है यह मां बनने के बाद ही जाना जा सकता है। उनकी बातों से मुझे इतनी राहत, इतना सुकून मिला कि उनके सोते ही मैं भी गहरी नींद में सो गई।’

‘सही कह रही हो, मां की ममता ही तो थी कि हम सब की शादी हो गई थी। इस बात से अम्मा बड़ी खुश थीं लेकिन तुम्हारी बात आते ही वह रो पड़ती थीं । कहती थीं, "पता नहीं मन्नूआ कैसी है। उसके साथ हमने अच्छा नहीं किया। न जाने क्या कमी है कि लड़के बच्चे भी नहीं हो रहे। कैसे कटेगी उसकी जिंदगी।"

‘ज़िन्दगी रुकती कहां है बिब्बो, चाहे जो हो वह कट ही जाती है। आखिर मेरी भी कट ही गई न। भले ही तमाम उबड़-खाबड़ रास्ते आए लेकिन अभी तक जिए तो जा रही हूं न। खैर अगले दिन सुबह उठते ही मेरे मन में आया कि चलो मायके में न सही ससुराल में ही रह लूंगी कुछ दिन। लेकिन मेरी किस्मत में मेरे मन का कुछ हो ऐसा लिखा ही नहीं था। इसलिए सुबह होते ही इनके एक फरमान ने मुझे ही नहीं पूरे घर को तनाव में डाल दिया। सवेरे का चाय-नाश्ता चल ही रहा था कि बहुत रूखे स्वर में इन्होंने एक घंटे में वापस लखनऊ चलने की तैयारी कर लेने को कह दिया। किसी ने जब इनकी बात को काटने की कोई खास कोशिश नहीं की तो मैं समझ गई कि इनकी आदत के सामने सब विवश हैं। बस सास और ससुर ने इतना कहा, "भइया कुछ दिन रुक जाते तो अच्छा था। शादी के साल भर बाद आए हो, ऐसे चले जाओगे तो मोहल्ले वाले क्या कहेंगे।" मगर इन्होंने ऑफ़िस का बहाना बना कर सबको निरुत्तर कर दिया। आते वक़्त सास का रोना मुझ से देखा नहीं जा रहा था। उनके और घर भर के आंसू देख कर मुझे इन पर गुस्सा आ रहा था कि घर वालों का मन रखने के लिए क्या एक दिन को नहीं रुक सकते। आते वक़्त सास के पैर छूने लगी तो गले से वह ऐसे घुट-घुट कर रोने लगीं जैसे कि वह अपनी सगी बिटिया को शादी के बाद बिदा कर रही हों। रोते-रोते न जाने क्या-क्या कह डाला। और आज इतने बरस बाद भी उनका यह कहा मुझे ज़्यों का त्यों याद है कि,

"मुन्नी जब तुम लोग खुद मां-बाप बनोगे तब समझोगे इन आंसुओं का मोल।" और कि "मैंने बेटा तुम्हारे सुपुर्द कर दिया है। ध्यान रखना उसका। गुस्सैल बहुत है लेकिन दिल का बहुत अच्छा है।"

मैंने कहा ‘कैसी बात करती हो अम्मा तुम्हारा बेटा तुम्हारा ही रहेगा। पहला हक तो सदैव तुम्हारा ही रहेगा।’

"झूठी दिलासा मत दो मुन्नी। मैं अपनी मां की बात आज तक नहीं भूली हूं कि बेटा मां से जीवन में दो बार अलग होता है। पहली बार तब जब जन्म के बाद उसकी नाल कटती है। और दूसरी बार तब जब बेटे की शादी होती है। फिर वह पूरी तरह से मां से अलग होकर पत्नी का, अपने परिवार का हो जाता है। और आज भइया की बात सुन कर मां की बात मेरे कान में बार-बार गूंज रही है। इसी लिए मैं कह रही हूं कि अब मेरा बेटा तुम्हारे हवाले है। ध्यान रखना उसका।"

‘इतने कठोर थे जीजा कि मां-बाप के आंसुओं से भी नहीं पसीजते थे ?’

‘मैंने कहा न कि अपनी बातों के आगे यह किसी की सुनते ही न थे। उस दिन भी नहीं सुना। सास की बातों का भारी बोझ मन पर लिए, उन्हें रोता कलपता छोड़ कर हम लखनऊ वापस आ गए। रास्ते भर इनका व्यवहार देख कर एक बार भी यह नहीं लग रहा था कि इन पर मां के आंसुओं का कोई असर है। उनका यह व्यवहार मुझे अंदर तक छीले दे रहा था। ऊपर से सिगरेट का धुआं, मुझे लग रहा था कि जैसे मेरा दम घुट जाएगा।

घर वापस आए हफ्ता भर बीत गया था लेकिन मेरे मन में सास की बातें ऐसी उथल-पुथल मचाए हुए थीं कि मैं सामान्य नहीं हो पाई। मेरी स्थिति को भांप कर एक दिन यह बोले,

"बहुत हो गया सास प्रेम, यही रोनी सूरत बनाए रखनी है तो वहीं रहो सास के पास।" यह सुन कर मैं हैरत में पड़ गई।

खैर रहना था इनके साथ सो हो गई इन्हीं के जैसी। मन हो या न हो यह जैसा चाहें हमें वही करना था। और मैं करती भी रही। मगर बच्चे को लेकर अब मेरे मन में भी तड़प पैदा हो गई थी, जो तेज़ी से बढ़ती जा रही थी। एक-एक दिन करके दो साल बीत गए। मगर इनके व्यवहार के चलते मैं एक बार भी यह न कह सकी कि डॉक्टर से चेकअप करा लें। इसी बीच इनके शक्की स्वभाव की परत दर परत रोज खुलती रही। जब यह लंबे समय तक घर नहीं जा रहे थे तो सास-ससुर देवर को भेजते रहते। बीच वाला देवर ही ज़्यादा आता था। वह बहुत हंसमुख और मजाकिया स्वभाव का था। या कहें कि बहुत फ्रैंक स्वभाव का था। इसलिए आता तो बहुत मजाक करता। यह मजाक कभी-कभी बडे़ ओपन भी होते थे, एक सेकेण्ड को भी चुप न बैठता। उसके मजाक के चलते मेरी दबी हंसी उसकी खिल-खिलाहट का साया पाकर खिल-खिला उठती। मगर जल्दी ही पता चला कि यह इनको अच्छा नहीं लगता। एक बार तो इसी बात पर वह फट ही पड़े। उस दिन देवर शाम को ही वापस घर गए थे, दो दिन रहने के बाद। उसके जाने के बाद मैं कुछ गंभीर हो गई थी। आखिर हंसती-बोलती भी तो किससे। इनको तो इस सब से नफरत ही थी। मगर उस दिन मेरी इस हालत को देख उन्होंने कहा,

"खसम चला गया तो हंसी भी साथ ले गया क्या ? जो मातमी सूरत बन गई। वापस बुला लो उसको।"

उनकी बात सुन कर मुझे काटो तो खून नहीं। उस दिन मैं भी बिफ़र पड़ी। दो बरस बाद मैं पहली बार विरोध कर रही थी। परिणाम था कि इन्होंने बिना किसी हिचक के दो-तीन थप्पड़ मुझे जड़ दिए। लेकिन मैं भी उस दिन चुप न रही जो मेरे मन में था मैंने बोल दिया। मैंने कह दिया कि आपकी नजरों में किसी की भावना का कोई मूल्य नहीं है। आपने बेवजह सबके विषय में वहम पाल रखा है। निरर्थक शक करते हैं। वो भी अपने सगे भाई पर। मगर मेरी किसी बात का उनपर कोई असर नहीं था। हां जब ज़्यादा बोली तो उन्होंने उठाई अपनी छड़ी और जड़ दी कई़। मेरा मन एकदम टूट गया। मैं रोती पड़ी रही रात भर। सोचा इससे अच्छा तो बिन ब्याही रहती। जिसे देवता मान पूज रही हूं वह मुझे गुलाम समझ पीट रहा है। मगर अगले दिन मैंने सुबह उठकर फिर पूर्ववत् चाय-नाश्ता खाना बना कर दिया। मगर फिर भी यह एक शब्द न बोले। बिना खाए-पिए मुझे दो दिन बीत गए मगर मुझसे इन्होंने एक शब्द न पूछा। मैं भी जिद कर बैठी कि जब-तक पूछेंगे नहीं मैं कुछ नहीं खाऊंगी। चाहे जान चली जाए।

आखिर चौथे दिन मैं इनको खाना देते समय गश खाकर गिर पड़ी। मुझे एकदम लस्त-पस्त अर्ध-बेहोशी की हालत में इन्होंने कैसे जमीन से उठाया, बिस्तर पर कैसे लिटाया यह इन्होंने अंतिम सांस तक नहीं बताया। मगर उनकी हालत को ध्यान में रख कर उनको हुई कठिनाई का अंदाजा लगा कर मैं बाद में खुद पर बहुत क्रोधित होती रही। मुझे इन्होंने सिर्फ़ इतना बताया कि जब काफी पानी वगैरह चेहरे पर छिड़कने के बाद मुझे पूरी तरह होश न आया तब इन्होंने अपने किसी मित्र को फ़ोन कर बुलाना चाहा तो फ़ोन डी0पी0 से ही खराब था। तब न चाहते हुए भी पड़ोसी को बुला कर लाए, फिर वह किसी डॉक्टर को लेकर आए उसने जो भी दवा वगैरह दी उससे मैं बड़ी जल्दी होश में आ गई, फिर डॉक्टर ने पड़ोसी को हटा कर कुछ पूछा और इतना ही कहा कि इन्हें अभी जूस या फिर कोई हल्का-फुल्का तरल पदार्थ दीजिए। फिर थोड़ा-थोड़ा खाना-पीना शुरू करें। कई दिन से कुछ न खाने की वजह से ऐसा हुआ। फिर अगले दिन यह ऑफ़िस नहीं गए। और दिन भर खाना-पीना करने के बाद रात होते-होते जब मैं काफी हद तक सामान्य हो गई तब रात-भर जितना ऊट-पटांग मुझे कह सकते थे कहा। मैं कुछ न बोली। ऐसे ही कई हफ़्ते बीत गए, मेरे लाख प्रयासों के बाद भी मुझसे बात न की। फिर संयोगवश ही बिना किसी सूचना के सास-ससुर देवर के साथ आ गए। और करीब दस दिन रुके रहे। इस बीच इन्होंने कभी सही बात जाहिर नहीं होने दी। ऐसा व्यवहार करते रहे जैसे कि हमारे बीच कुछ हुआ ही नहीं।’

मन्नू ने एक नजर बिब्बो पर डालते हुए पूछा ‘बिब्बो तुझे नींद तो नहीं आ रही।’

‘नहीं दीदी तुम्हारी इतनी और इस तरह की बातें सुनने के बाद तो सवाल ही नहीं उठता। वैसे भी नींद आती कहां है। मैं परेशान हूं यह जानकर कि तुम्हारे साथ यह सब हो रहा था और घर पर तुमने भनक तक न लगने दी।’

‘बिब्बो हालात देख कर मुझे लगता नहीं था कि कहने से कोई फ़र्क़ पड़ेगा। बल्कि तुम सब भी परेशान होते इसलिए मैंने कभी कुछ नहीं बताया।

सास-ससुर के रहते इन्होंने जो बातचीत शुरू की थी, वह फिर उनके जाने के बाद भी चलती रही। स्थिति सामान्य देख मैंने एक दिन बच्चे को लेकर बात उठाई। कहा कि,

‘हमारी शादी के ढाई साल होने जा रहे हैं। अब लोग बच्चे को लेकर पूछते हैं। मैं सोच रही हूं कि किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा लूँ ।’

‘तुम्हारे पास बच्चे के अलावा सोचने या करने को कुछ नहीं है क्या ?’

‘लेकिन ढाई साल का वक़्त कम नहीं होता। सही समय पर बच्चे हो जाते हैं तो उनकी परवरिश, पढ़ाई-लिखाई सब कुछ कायदे से हो जाती है। नहीं तो बड़ी दिक़्क़त होती है।' मैंने सास की कही बात दोहरा दी तब यह बोले,

‘तो मैं क्या करूं ? बहुत सी चीजें अपने चाहने से नहीं होतीं।’

‘आप सही कह रहे हैं, इसीलिए तो मैं डॉक्टर के पास जाने की सोच रही हूं। यदि कोई कमी होगी तो दवा से ठीक हो जाएगी। किसी के बच्चे को देख कर कब तक मन मसोसती रहूंगी।’

‘तुम्हारा जो मन आए करो ..... । मगर इसके लिए मुझसे कहीं आने-जाने के लिए न कहना।’

इनकी इस बात से मुझे बड़ी राहत मिली। एक तरह से इन्होंने इज़ाज़त दे दी थी डॉक्टर के पास जाने की। इसके पहले बहुत सी रातें मैंने तरह-तरह की पीड़ा के चलते रोते-जागते बिताई थी। लेकिन शादी के बाद यह पहली रात थी, जिसे मैंने सुकून के आंसू बहाते हुए जाग कर बिताई। अगली सुबह अच्छी रही। ऑफ़िस जाते वक़्त शादी के बाद पहली बार जब मैंने अति उत्साह में इन्हें चूम लिया तो उन्होंने हल्की मुस्कुराहट के साथ मेरे गाल पर हौले से एक चपत लगा दी। उस क्षण जो खुशी मैंने महसूस की उसको बताने के लिए सही शब्दों का चयन मैं आज तक न कर पाई।

..... बिब्बो लेकिन यह सब मैं तुमकों क्यों बताए जा रही हूं। मुझे तो सिर्फ़ अपना अनर्थ ही बताना है न, जो मैंने किया।’

‘दीदी यह सब तुम बता नहीं रही हो। यह तो बरसों से जो तुम्हारे मन में भरा है वही मौका पाकर एकदम से फूट पड़ा है। उसका आखिरी कतरा भी बाहर आने को उतावला है। इसलिए रोकने की कोशिश न करो। आज अपने ऊपर से सारा बोझ उतार दो , बहुत राहत मिलेगी।’

‘ए ... बिब्बो बात तो तुम भी बहुत बड़ी-बड़ी करने लगी हो। मैं तो सोच रही थी तुम्हें नींद आ रही होगी इसलिए बात खत्म करूं फिर कभी करेंगे।’

‘अरे! दीदी नींद कहां है आंखों में। मैंने पहले ही कहा कि इतना सुनने के बाद तो रही-सही नींद भी खत्म हो गई।’

बिब्बो की बात सुन कर मन्नू के चेहरे पर तनाव कुछ और बढ़ गया। वह असमंजस में थी कि आगे सारी बातें कहे या टाल जाए। दिन में भावना में बह कर कहा तो था अनर्थ जो हुआ वह बताने को लेकिन अब कहीं मन में हिचक थी। मगर बिब्बो का आग्रह कुछ ऐसा था कि इंकार करने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी। उठकर एक गिलास पानी पिया। और वापस बेड पर लेट गई। कुछ देर बाद बोली,

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