Mannu ki vah ek raat - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 8

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 8

‘सही कह रही हो तुम। घर-परिवार लड़कों-बच्चों में अपना सब कुछ बिसर जाता है। मगर ये मानती हूं तुम्हारी याददाश्त पर कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ा है। इसलिए छत वाली घटना तुम्हीं बताओ मेरे दिमाग में तो बात एकदम नहीं आ रही है।’

‘अच्छा तो याद कर वह जेठ की दोपहरी ...... । और सामने वाले घर का चबूतरा। जहां मुहल्ले के उद्दंड लड़के छाया के नीचे अ़क्सर बैठ कर ताश वगैरह खेलते रहते थे, या बैठ कर गप्पे मारा करते थे। आए दिन सब आपस में भिड़ भी जाते थे। उस समय तू यही कोई नवीं या दसवीं में रही होगी।’

‘हां .... याद आया। मुहल्ले के लड़कों का अड्डा था वह’

‘और छत पर तुम जो कर रही थी वह याद आया।’

‘कहा न दीदी अब कुछ याद नहीं रहा। ..... इनके न रहने के बाद तो लगता है दिमाग रह ही नहीं गया। इसलिए तुम्हीं सब बता दो।’

‘अच्छा ....... उस दिन ऐसा हुआ कि गेहूं धोकर छत पर डाला गया था। दोपहर में तुम से अम्मा ने कहा ऊपर जाकर गेहूं चला दो। तुम चली गई ऊपर। जब ऊपर गई तो मैं नीचे कपड़े धो रही था। जिन्हें उस समय सिर्फ़ खंगालना भर रह गया था। कुछ देर में जब खंगाल कर कपड़े लेकर ऊपर पहुंची तो देखा तुम बाऊंड्री के पीछे छिप कर बैठी जाली से बाहर देख रही थी। तुम अपने में इतनी खोई हुई थी कि मेरे आने पर भी तुम्हारा ध्यान टूटा नहीं। मुझे उत्सुकता हुई कि आखिर तुम कर क्या रही हो। मैंने चुपचाप कपड़े कोने में रखे और तुम्हारे पीछे आकर जिधर तुम देख रही थी उधर देखा। वहां सिर्फ़ चार-पांच लड़कों के सिवा कुछ नहीं दिखा। कुछ देर तो मैं कुछ नहीं समझ पाई, तब-तक तुम ने मुझे देख लिया और एकदम हक्की-बक्की सी गेहूं चलाने लगी। तुम्हारी हालत देख कर मैं समझ पाई कि तुम उन लड़कों को देख रही थी। मैंने उस समय बजाय तुम्हें कुछ कहने के सिर्फ़ इतना कहा ’चल नीचे’ और तुम जैसे इसी बात का इंतजार कर रही थी। बिजली की सी फूर्ती से तुम नीचे भाग गई। उसके बाद मैं तुम्हारी हरकतों पर अक़्सर निगाह रखती।’

‘हां ...... याद आया। तुम सही कह रही हो। उस दिन मैं वाकई उन लड़कों को ही देख रही थी। उनमें से एक लड़का मुझे न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता था। बस उसको देखते रहने का मन करता था। नाम तो उसका याद नहीं है लेकिन मेरे दिमाग में वह कुछ इस कदर समाया था कि जब मैं अकेले होती तो सोचने लगती उसके बारे में। मगर तुम्हारी निगरानी, बाबूजी की नजरें, भाइयों का सख्त रूप सब कुछ ऐसा था कि उसे छिप-छिप कर देखने के अलावा मेरे वश में कुछ न था। फिर धीरे-धीरे कुछ समय के बाद यह सब खत्म हो गया।

दीदी तुमने अच्छा याद दिलाया। बचपन की दुनिया एकदम सामने आ गई है। न किसी चीज की चिंता न फिक्र बस अपने में मस्त, अपने हसीन ख़्वाबों में डूबते-उतराते रहना। पर एक बात थी कि मां से ज़्यादा हम भाई-बहनों पर तुम नज़र रखती थी। इसी लिए हम लोग बाबूजी के बाद मां के बजाय तुम से ज़्यादा डरते थे। तुम आए दिन किसी न किसी की चोरी पकड़ ही लेती थी। लेकिन तुम्हारी कोई गलती हम लोगों की नजर में नहीं आती थी। तुम्हारी शिकायत पर जब बाबूजी या अम्मा डांटती हम लोगों को तो तुम पर बड़ा गुस्सा आता था। पर जब बड़े हुए, समझदार हुए तो लगा तुम जो करती थी वह ठीक था। अगर अंकुश न होता इतना तो शायद हम लोग बहक भी सकते थे।

तुम्हारे रहने से अम्मा को हर काम में बहुत आसानी थी। इसका अहसास तो हम सबको तब हुआ जब तुम पढ़ने के लिए हॉस्टल में लखनऊ चली आई। तब अम्मा गुस्सा होती तो यही चिल्लाती कि '‘मन्नुआ तुम लोगों को ठीक किए रहती थी। जब से गई है तुम सबका दिमाग खराब हो गया है।'’

सच में घर में तुम्हारे रहने की अहमियत हमें सही मायने में तब पता चली थी। अम्मा पर तुम्हारा प्रभाव इतना था कि जब एक बार तुम हॉस्टल से घर वापस आई और मैं उत्सुकतावश चुपके से तुम्हारा सामान देख रही थी कि शायद तुम लखनऊ से मेकअप वगैरह का कुछ खास सामान ले आई होगी। पर मेकअप का कोई सामान नहीं था बैग में, तुम्हारे कपड़ों के एकदम नीचे एक अंग्रेजी पत्रिका नजर आई। वैसी पत्रिका जीवन में पहली बार देख रही थी। कवर पर एक युवा जोडे़ की तस्वीर थी जिसमें वह बिल्कुल निर्वस्त्र थे। यह सब मेरी कल्पना से परे था। मैं एकदम हतप्रभ थी। जीवन में पहली बार किसी युवा जोड़े को निर्वस्त्र देख रही थी।

मैंने एक नजर झटके से इधर-उधर डाली कि कोई देख तो नहीं रहा। फिर आश्वस्त होकर मैंने मैगज़ीन बाहर निकाली और एक-एक पन्ना जल्दी-जल्दी देखने लगी। हर पन्ने पर निर्वस्त्र युवा लड़कियों की अजीब-अजीब मुद्राओं में फोटो थीं। बीच-बीच में कई पुरुषों की भी लड़कियों के साथ मैथुनी मुद्रा में फोटो थी। फोटो देख-देख कर मैं पसीने-पसीने हो गई थी। उन पन्नों को बार-बार देखने का मन हो रहा था। लेकिन तभी किसी की आहट सुन कर मैगज़ीन उसी तरह वापस रख कर बाहर आ गई। मगर दिमाग से मैगज़ीन न निकाल पाई। उसे देखने का ऐसा मन हो रहा था कि बता नहीं सकती। उसके पहले शायद ही किसी चीज के लिए इतनी उत्सुकता पैदा हुई हो मन में। मैं मौका निकाल-निकाल कर उसे कई दिन देखती रही। उन फोटुओं ने मेरी अजीब सी मनःस्थिति कर दी थी।'

‘कैसी ?’

‘अब क्या बताऊं, तुम अभी बोल ही चुकी हो कि उम्र के इस दौर में अपोजिट सेक्स को लेकर बहुत ज़्यादा आकर्षण होता है। सो उन फोटुओं को देखकर मन में अजीब से ख़याल आते, पहले दिन तो रात में सोचते-सोचते ख्यालों में खोए-खोए ही आधी रात बीत गई। और हां एक बात और बताऊं बल्कि ये कहूं कि अपना पाप बताऊं कि उन ख्यालों में वह लड़का भी बार-बार आता रहा जिसे मैं पसंद करती थी, और उस दिन छत पर से उसे देख रही थी। उस वक्त मैं न जाने उसके साथ कौन-कौन सी कल्पनाओं में डूब गई थी। अगले दिन अवसर पाते ही मैंने फिर मैगज़ीन निकाल कर घंटे भर तक देखा। या यों कहें कि तब तक देखती रही जब तक कि किसी की आहट नहीं मिली। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक करीब हफ्ते भर बाद मां ने रंगे हाथों पकड़ नहीं लिया। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मां को शांत न करा सकी। उन्होंने मुझे कई थप्पड़ मारे। पास पंखा पड़ा हुआ था उससे भी मारा।

मुझसे बार-बार पूछती रहीं कि '‘कहां से लेकर आई।'’ पहले मैंने सोचा न बताऊं, किसी तरह बात यहीं समाप्त हो जाए लेकिन अम्मा कहां मानने वाली थीं। यह अप्रत्याशित घटना थी उनके लिए, आपे से बाहर हुई जा रही थीं। जब उन्होंने बाबूजी को बताने की बात कही तो मैंने एकदम घबरा कर सही बता दिया। तुम्हारा नाम सुनते ही मां को एक बार फिर धक्का लगा। मगर मेरी बात पर वह यकीन नहीं कर पा रही थीं। मेरे कसम खाने पर वह यकीन कर पाईं। फिर तुरंत उस मैगज़ीन को ले जाकर चूल्हे में जला दिया। उसी दिन तुम बड़के भईया के साथ दो-तीन दिन के लिए मामी के यहां गई थी। नहीं तो गुस्सा देख कर तो यही लग रहा था कि वह तुम्हें भी मारतीं। मगर गालियां खूब दीं और कहा,

‘'आने दो, कमीनी के हाथ-पैर तोड़ के बिठा दूंगी। बहुत हो गई पढ़ाई। कमीनी वहां आवारागर्दी करने गई है। हरामजादी मुंह में कालिख पुतवाएगी। अरे! तुम सब पैदा होते ही मर जातीं तो अच्छा था।'’

खैर तुम जब मामी के यहां से लौटी तब तक उनका गुस्सा कुछ कम हो चुका था। खतम नहीं। शायद तुम्हें याद हो कि वह तुम्हें वापस लखनऊ जाने के लिए मना कर रही थीं। एकदम जिद पर अड़ गई थीं कि तुम नहीं जाओगी। मगर न जाने क्यों वह मैगज़ीन वाली बात पी गईं। मगर तुम भी जाने के लिए अड़ी रही। खाना-पीना बंद कर दिया। तुम्हारा रोना-धोना चालू रहा। तुमने तर्क दिए पढ़ाई की इंपॉर्टेंस, दुनिया में लड़कियों के आगे बढ़ने आदि के। लेकिन वह टस से मस न हुई अंततः बाबू जी के हस्तक्षेप करने पर ही तुम जा पाई थी। मगर इसके बाद चाहे जैसे हो वह हर महीने एक बार बाबूजी या फिर भइया, चाचा को भेजने का पूरा प्रयास करतीं।

खैर तुम चली गईं लेकिन मैं लंबे समय तक दिमाग से वह मैगज़ीन न निकाल पाई। और आज भी देख रही हूं कि न जाने कितनी बातें याद करने पर भी याद नहीं आतीं लेकिन यह बात जरा सी शुरू होते ही सब ऐसे याद आ गई मानो जैसे सब अभी-अभी घटा हो। मुझे तो लगता है पिछले जन्म में जैसा किया भगवान ने वैसा ही इस जन्म में बना दिया।'

‘पिछले जन्म या इस जन्म के संबंधों पर तो विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन मेरे बैग में वैसी मैगज़ीन थी और अम्मा मुझे इस वजह से लखनऊ नहीं आने दे रही थीं यह तो मुझे अब पता चला।’

‘कैसी बात कर रही हो। यह कैसे हो सकता है कि तुम्हें मैगज़ीन के बारे में पता ही नहीं था। हम तो यही सोच रहे थे कि तुम वैसी मैगज़ीन घर लेकर क्यों आई थी? तुम्हें डर नहीं था कि घर पर कोई देख लेगा।’

‘बिब्बो सच यही है कि मेरे बैग में वैसी कोई मैगज़ीन थी यह तो मैं आज जान पाई। मुझे तो पता नहीं था कि यह सब भी हुआ था। हां यह काम किसने किया होगा इसका अंदाजा क्या विश्वास के साथ यह कह सकती हूं कि यह काम रुबाना ही ने किया होगा। हॉस्टल में वो और उसकी पक्की सहेली काजल इन सब तरह की खुराफातों में सबसे आगे थीं। काजल को सब काकी बोलते थे। यह दोनों पढ़ने-लिखने में तो कुछ ख़ास नहीं थीं। मगर खुराफातों में युनिवर्सिटी के लड़कों को मात देती थीं। उसी जमाने में वह दोनों सिगरेट पीती थीं। कोर्स की किताबें पढ़ने में तो दोनों की कोई रुचि नहीं थी लेकिन अश्लील साहित्य पढ़ना उनका शगल था। तमाम ऊट-पटांग किताबों के अलावा वह दोनों मंटो, सीमोन बोउवार, डी0एच0 लारेंस, ब्लादिमीर नोबाकोय, इस्मत चुगताई, अमृता प्रीतम जैसे लेखक-लेखिकाओं की प्रबल समर्थक थीं। रुबाना तो जब-तब यही कहती कि वह अमृता प्रीतम जैसा जीवन जीना चाहती है।’

‘क्यों उनका जीवन कुछ ख़ास तरह का था क्या ?’

‘हां कह सकते हैं कि हम सब जैसा तो नहीं ही था। मैंने जितना सुना है उसके हिसाब से तो अपने पति के अलावा कई लोगों से खुले आम संबंध रखती थीं। इमरोज जो कि उनसे उम्र में बहुत छोटे थे उनसे आखिरी समय तक संबंध थे।’

‘अच्छा तो ऐसा जीवन चाहती थी जिसमें जैसा चाहो वैसा करो कोई रोक-टोक न हो।’

‘कहा न वह दोनों न जाने क्या-क्या करती थीं। कभी सीमोन के जीवन का बखान करतीं तो कभी कहतीं भारत की सीमोन तो प्रभा खेतान हैं काश हमें ऐसे ही जीने दिया जाए।’

‘बड़ी तेज़ थीं दोनों।’

‘तेज़ - अरे! यह कहो क्या नहीं थी दोनों।’

‘चलो छोड़ो ऐसे लोगों की बात क्या करना तुम अपना बताओ न कौन सा अनर्थ तुमने कर डाला था। और चीनू तुम्हारे लिए अहम क्यों हो गया था।’

गहरी सांस लेकर मन्नू बोली ‘हां चीनू ...... वह भी तो कहीं से कम नहीं था रुबाना और काकी से। जब वह इग्ज़ाम के लिए रुका था यहां तो उसे यह सोच कर मैंने ऊपर तीसरी मंजिल के कमरे में रोका कि वह आराम से वहां इग्ज़ाम की तैयारी करेगा। कोई डिस्टर्बेंस नहीं होगा। मगर मेरा यह सोचना गलत था। यह तो उसे मनमानी करने की आज़ादी देने जैसा था। वह रुबाना से आगे की चीज था। उसकी सहूलियत को ध्यान में रख कर मैं चाय-नाश्ता ऊपर ही दे आती थी। वह चाय बहुत पीता था तो उससे पूछे बिना ही दो-ढाई घंटे बाद चाय दे आती थी। उस दिन वह पेपर देकर आया था। मैंने पूछा कैसा हुआ तो बड़ा खुश होकर बोला ‘चाची पेपर अच्छा हुआ।’

‘अगला कब है?’

‘अब चार दिन बाद है।’

‘तब तो तुम्हें तैयारी का अच्छा वक़्त मिल जाएगा।’

‘..... हां सो तो है।’

‘अच्छा तुम हाथ मुंह धो लो मैं खाना निकालती हूँ ।’

उस दिन मैंने उसके लिए दाल भरा पराठा, मखाना और आलू की सब्जी बनाई थी। यह उसके पसंद की चीजें थीं। खाना खाकर वह ऊपर जाने लगा तो मैंने पूछा,

‘चाय पिओगे’ तो बोला '‘नहीं, अभी नहीं चाची अभी कुछ देर सोऊंगा उसके बाद उठ कर पढूंगा।’ मैंने कहा ठीक है जब उठना तो बता देना, चाय बना दूंगी। उसके जाने के बाद मैंने भी खाना खाया। इसके बाद ज़िया का फ़ोन आया काफी देर तक बात हुई। उन्होंने चीनू के बारे में पूछा, मैंने बता दिया बढ़िया है। खा-पी कर ऊपर गया है।

खा-पी कर मैं भी आराम करने लगी। शाम को यह आए तभी चीनू भी नीचे आ गया। उसने इन्हीं के साथ नाश्ता किया। फिर रात को खाना भी साथ खाया। उसे साथ खाते देख मैं एकदम रो पड़ी कि यदि समय से मेरे भी संतान हो जाती तो आज वह भी ऐसे ही खाना खा-पी रहा होता। मेरी आंखों का तारा होता। ...... फिर मैं इन पर मन ही मन गुस्सा होती रही कि यदि डॉक्टर के यहां चलते तो मेरे भी बच्चा होता। जो सिर्फ़ इनके असहयोग के चलते नहीं हुआ। और जो बरसों से अपना समय दुनिया भर की किताबों को पढ़ने में गुजार रही हूं वह अपने बच्चे के साथ गुजारती। उसके कामों में मेरा वक़्त बीतता। बड़ा क्रोध आ रहा था मुझे। उस दिन मैं शांति से खाना न खा सकी। शायद उस दिन इनकी तबियत कुछ खराब थी, मूड बड़ा उखड़ा सा लग रहा था। यह उस दिन खा-पी कर दस बजे तक लेट गए। मैंने भी सारा काम निपटाया और बीच वाली मंजिल में अपने कमरे में आकर लेट गई।

तुम्हें बता ही चुकी हूं कि काफी समय से हम लोगों के बिस्तर अलग-अलग हो गए थे। चार-छः महीने में ही कभी एक साथ सोना होता था। वह भी ज़्यादातर पहल इन्हीं की तरफ से होती थी। क्योंकि इतने दिनों से बराबर चली आ रही किच-किच इनके विवाहेतर संबंधों और अन्य आदतों ने मुझे हिला कर रख दिया था। बिस्तर पर इनका साथ अब न जाने क्यों मुझे उत्साहित नहीं कर पाता था। बस जैसे एक मज़बूर मशीन सी पड़ी रहती इनके आगे। मुझे लगता कि न जाने कितनी औरतों की गंध इनके शरीर में समा गई है। ऐसा लगता मानों हम दोनों के बीच और कई औरतें भी लेटी हैं। और वे बार-बार मुझे बाहर को ठेल रहीं हैं। मैं अपनी सारी इच्छाओं अपनी ज़रूरतों को अपने में समाए या यह कहो ठूंसे जाती थी। और शरीर मेरा ऐसी ही बातों से भर जाता, अकुलाता रहता।

खैर कमरे में आकर मैंने रेडियो खोला पुराने फ़िल्मी गाने आ रहे थे। लेट कर सुनती रही मगर नींद नहीं आ रही थी, फिर लगा गाने भी असर नहीं डाल पा रहे तो अपनी किताबों को खंगाला, उसमें से कुछ भी समझ में नहीं आ रही थीं या ये कहें खिन्न मन के सामने सब बेकार लग रही थीं। जब कुछ समझ में न आया तो एक पुरानी धर्मयुग मैगज़ीन उठा ली। उसमें राज कपूर के बारे में सिम्मी गरेवाल ने बड़ी ही रोचक बातें लिखीं थीं। उसे पढ़ना शुरू किया तो उसमें मन लग गया। बड़ा लेख था मगर बहुत ही रोचक।

मैं पहली बार जान पाई कि एक रेस्त्रां में राजकपूर और सिम्मी मिले थे। बतौर प्रशंसिका सिम्मी उन्हें फ़ोन करती रहती थीं इन्हीं बातों के बाद दोनों मिले। लेख पढ़ने के बाद न जाने क्यों मैं अपने को बड़ा हल्का महसूस कर रही थी। कुछ और पढ़ने का मन हो रहा था। तो शिवानी का एक कहानी संग्रह उठा लिया। पर तभी चीनू की तरफ ध्यान गया। उसको चाय बना कर देनी थी। देर रात तक पढ़ने की उसकी आदत थी। चाय बनाने के लिए नीचे आने लगी तो जंगले से ऊपर देखा वहां से उसके कमरे के रोशनदान दिखाई देते थे। लाइट जलती देख कर मैं समझ गई कि अभी वो पढ़ रहा है। मुझे लगा कि उसे चाय देने में देर कर दी। रात के करीब साढ़े ग्यारह बजने वाले थे। मैंने नीचे आकर उसके और अपने लिए एक-एक कप चाय बनाई और लेकर ऊपर आ गई। अब तक इनके खर्राटे सुनाई देने लगे थे। अपनी चाय अपने कमरे में रखने के बाद मैं चीनू के कमरे के पास पहुंची तो कुछ अजीब सी आवाज़ सुनी। उत्सुकतावश मैं खिड़की के पास रुक गई। जिसके दरवाजे काफी हद तक बंद थे। थोड़ी सी जगह से जब नजर अंदर डाली तो उसकी हरकत देख कर में हक्की बक्की रह गई। ठगी सी कुछ क्षण खड़ी रही। तय नहीं कर पा रही थी कि अंदर जाऊं या जैसे आई हूं वैसे ही दबे पांव लौट जाऊं।’

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