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खुशियों की आहट - 11

खुशियों की आहट

हरीश कुमार 'अमित'

(11)

''उठो बेटू, खाना खा लो.'' मोहित की नींद मम्मी के इन शब्दों से खुली. मम्मी उसका कंधा झिंझोड़कर उसे जगा रही थीं.

मोहित बिस्तर से उठ बैठा और मम्मी से कहने लगा, ''पढ़ते-पढ़ते थक गया था मम्मी. थोड़ा आराम करने लेटा तो नींद ही आ गई.''

''कोई बात नहीं बेटू, चलो खाना खा लो.'' मम्मी ने पुचकारते-से स्वर में कहा.

''बनाया क्या है, मम्मी?'' मोहित पूछने लगा.

''भिण्डी बनाई है शांतिबाई ने.'' जवाब देते हुए मम्मी की आवाज़ हलकी-हलकी-सी काँप रही थी, क्योंकि उन्हें मालूम था कि एक तो मोहित को भिण्डी अच्छी नहीं लगती और दूसरे, शांतिबाई के हाथ की बनी कोई भी चीज़ उसे नहीं भाती.

''आप खुद नहीं बना सकते थे कोई अच्छी-सी सब्ज़ी?'' मोहित का स्वर नाराज़गी भरा था.

''बेटू, मैं ब्यूटी पार्लर गई थी न. देर हो गई वहाँ पर.'' मम्मी ने कहा, मगर मोहित मम्मी के इस जवाब से सन्तुष्ट नहीं था. मम्मी अगर चाहतीं तो सब्जी बनाकर भी ब्यूटी पार्लर जा सकती थीं.

शांतिबाई के हाथों बनी भिण्डी का नाम सुनकर ही मोहित की भूख आधी रह गई थी. तभी उसे लगा कि अगर मम्मी यहाँ उसके कमरे में हैं, तो रोटी जरूर शांतिबाई ही बना रही होगी. फिर भी पूरी तसल्ली करने के लिए उसने मम्मी से पूछ ही लिया, ''रोटी भी शांतिबाई ने ही बनाई हैं क्या?''

''हाँ बेटू, वही बना रही है रोटी भी.'' मम्मी ने जवाब दिया. फिर दो-चार पल रूककर कहने लगीं, ''तुम्हें पता तो है बेटू, आज तो बिल्कुल टाइम नहीं है मेरे पास. चलो, आओ. ठण्डा हो रहा है खाना.'' मम्मी ने मोहित की बाँह पकड़कर उठाते हुए कहा तो उसे उठना ही पड़ा.

हाथ धोकर वह डाइनिंग टेबल पर आया. पहले तो उसने प्लेट में सलाद के टुकड़े रखे और उन पर नींबू निचोड़ दिया. फिर थोड़ी-सी सब्जी ली और एक रोटी लेकर खाना खाने लगा. मम्मी गरमा-गरम रोटी लेकर आई तो उसने और रोटी लेने से मना कर दिया. मम्मी ने जबरदस्ती रोटी उसकी प्लेट में डाल दी और कहने लगीं, ''एक रोटी से पेट भरता है भला. कम-से-कम दो रोटियाँ तो खाओ बेटू.'' मम्मी को पता था कि सब्जी अच्छी लगे तो मोहित तीन रोटियाँ भी खा लेता था.

तभी अचानक मम्मी को कुछ याद आया और वे कहने लगीं, ''अरे मोहित, लीचियाँ भी तो लाए थे न पापा रात को! खाना खा लो तो फ्रिज से निकालकर देती हूँ ठण्डी-ठण्डी लीचियाँ.''

लीचियों का नाम सुनते ही मोहित ख़ुश हो गया. लीचियाँ उसे बहुत अच्छी जो लगती थीं.

उसने खाना ख़त्म किया ही था कि मम्मी ने उसके सामने लीचियों से भरी प्लेट रख दी. फिर थोड़ा जल्दी-जल्दी बोलीं, ''लो खा लो बेटू. अब मै भी जल्दी से खाना खा लूँ तो जाने की तैयारी करूँ.''

मोहित को हैरानी हो रही थी कि आखिर शाम के आठ-साढे आठ बजे तक मम्मी को शादी में जाने के लिए इतनी क्या तैयारी करनी है. पापा को किसी शादी-ब्याह में जाना हो, तो वे तो आधे-पौने घंटे में ही तैयार हो जाते हैं. मम्मी के पास टाइम होता तो वे हिन्दी के टैस्ट में उसकी कुछ मदद करवा देतीं. जो कुछ वह याद करता, उसे सुन भी सकती थीं वे. इससे उसकी तैयारी अच्छी तरह हो जाया करती है, पर मम्मी के पास टाइम है ही कहाँ. मम्मी क्या, पापा के पास भी उसके लिए टाइम नहीं है. इन्हीं ख़यालों में खोए-खोए उसने लीचियाँ ख़त्म कीं और फिर कुल्ला करने बाथरूम की तरफ़ चल पड़ा.

बाथरूम की ओर जाते हुए उसने देखा कि मम्मी अपने कपड़ों की अलमारी खोलकर बड़े ध्यान से कुछ देख रही हैं. मोहित समझ गया कि मम्मी शादी में पहने जाने वाले कपड़े चुन रही होंगी.

कुल्ला करके कुछ देर आराम करने के लिए अपने बिस्तर पर लेटने से पहले उसने म्यूज़िक सिस्टम पर अपने मनपसन्द फिल्मी गाने लगा दिए. फिर वह बिस्तर पर लेट गया. आज उसने पक्का सोचा हुआ था कि दोपहर को सोना नहीं है. एक बार सो गए तो साढ़े चार-पाँच बजे से पहले नींद खुलनी नहीं, और अगर वह उसके बाद शाम के छह बजे क्रिकेट खेलने भी जाए, तब तो टैस्ट की तैयारी के लिए उसे बहुत कम टाइम मिलेगा. इस बार तो टैस्ट में अच्छे मार्क्स लेकर ही दिखाने हैं.

बिस्तर पर लेटे-लेटे कहीं नींद न आ जाए, इसलिए उसने अपने मोबाइल फोन में आधे घंटे बाद यानी कि साढ़े तीन बजे का अलार्म लगा दिया और आँखें बन्द करके करवट बदल ली.

हालाँकि उसने पक्का सोच रखा था कि आज दोपहर को सोना नहीं है, पर बिस्तर पर लेटने के बाद गाने सुनते-सुनते उसकी पलकें भारी होने लगीं. कुछ ही देर में वह गहरी नींद ले रहा था.

साढ़े तीन बजे जब फोन पर अलार्म बजा तो वह इतनी गहरी नींद में था कि उसे अलार्म बजने का पता ही नहीं चला और वह सोता ही रहा. दस मिनट बाद अलार्म जब दोबारा बजा तो उसकी नींद खुल गई, मगर उससे उठा नहीं गया. उसने हाथ बढ़ाकर अलार्म को बन्द कर दिया और आँखें बन्द करके लेटा रहा.

वह बिस्तर पर लेटा तो हुआ था, पर उसके दिमाग़ पर अगले दिन होने वाले हिन्दी टैस्ट का भूत छाया हुआ था. पाँच-सात मिनट तक लेटे रहने के बाद वह बिस्तर में उठकर बैठ गया. उसे बहुत सुस्ती-सी लग रही थी. उसका जी कर रहा था कि थोड़ी देर और सो जाए, पर टैस्ट का ध्यान आते ही उसकी नींद धीरे-धीरे ग़ायब होने लगी और वह बिस्तर से उतरकर खड़ा हो गया.

कुछ देर बाद मुँह हाथ धोकर स्टडी टेबल पर बैठा वह हिन्दी टैस्ट की तैयारी कर रहा था. सन्धि-विच्छेद की तैयारी करते-करते वह एक शब्द पर अटक गया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस शब्द का सही-सही सन्धि-विच्छेद क्या होगा. उसने सोचा कि मम्मी से ही इस बारे में पूछ लिया जाए.

वह अपनी पुस्तक और कॉपी लेकर मम्मी-पापा के कमरे की ओर गया. उसने देखा मम्मी बिस्तर पर अधलेटी-सी होकर फोन पर किसी से बातें कर रही थीं. उनकी पीठ दरवाज़े की ओर थी, इसलिए उन्होंने मोहित को नहीं देखा और उसी तरह बातें करती रहीं.

मोहित ने सुना, मम्मी फोन पर कह रही थीं, ''समझ ही नहीं आ रहा सुषमा कि क्या पहनकर जाऊँ शादी में. सारी अलमारी छान मारी है, पर कोई भी साड़ी पसन्द नहीं आ रही. पहले तो सोचा था कि कोई बढ़िया-सा सूट पहनकर चली जाऊँगी. सारी अलमारी छान लेने पर एक सूट पसन्द आया भी था, पर उस सूट से मैच करता पर्स नहीं निकला मेरे पास. इसलिए साड़ी पहनकर ही जाने की सोच रही हूँ.'' मम्मी लगातार कहे जा रही थीं.

उधर से सुषमा आंटी कुछ कहने लगी होंगी, तो मम्मी कुछ देर के लिए चुप हुईं. उसके बाद मम्मी फिर से फोन पर बोलने लगीं.

मोहित को लगा कि मम्मी की बातचीत इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं है. पता नहीं मम्मी कितनी देर तक बातें करती रहें सुषमा आंटी से. यही सोचकर वह वापिस अपने कमरे की ओर चल पड़ा. कमरे में आकर वह फिर से पढ़ाई करने लगा.

पढ़ाई करते-करते आधा घंटे के करीब हो गया, तो मोहित को थकावट-सी लगने लगी. उसने सोचा कि मम्मी ने अब तक तो यह फैसला कर ही लिया होगा कि शाम को टिंकी की शादी में कौन सी साड़ी पहन कर जानी है. वह अपनी पुस्तक और कॉपी लेकर फिर से मम्मी-पापा के कमरे में गया. अब उसे सन्धि-विच्छेद के एक नहीं तीन शब्दों के बारे में पूछना था मम्मी से. उसके पास हिन्दी की तीन-तीन गाइडें भी थीं, पर इन तीनों शब्दों के हल उसे किसी भी गाइड में नहीं मिले थे.

मोहित मम्मी के कमरे में पहुँचा तो मम्मी अपनी साड़ियों में ही उलझी हुईं थीं. पलंग पर उन्होंने बहुत-सी साड़ियाँ फैला रखी थीं और वे एक साड़ी को हाथ में पकड़कर बड़े ध्यान से देख रही थीं. फिर उन्होंने एक और साड़ी उठा ली और दोनों साड़ियों को साथ-साथ रखकर देखने लगीं. मोहित समझ गया कि मम्मी अभी तक कोई साड़ी चुन नहीं पाईं हैं. यह बात भी उसके दिमाग़ में आई कि अगर साड़ी चुनने में ही इतनी देर लग रही है, तो शादी में जाने के लिए तैयार होने में तो न जाने कितना समय लग जाएगा.

मोहित दो-तीन पल तो खड़ा रहा. फिर वह आगे बढ़ा और अपनी किताब खोलकर मम्मी के सामने कर दी. उसके बाद वह बोला, ''मम्मी, इस शब्द का संधि-विच्छेद बता दो.''

मोहित की बात सुनकर भी मम्मी का ध्यान हाथ में पकड़ी साड़ियों की तरफ़ ही रहा. फिर वे बग़ैर उसकी ओर देखे कहने लगीं, ''बेटू, अभी तो चलेगा नहीं मेरा दिमाग़. मैं ज़रा कोई साड़ी चुन लूँ शाम के लिए. थोड़ी देर बाद बता दूँगी जो पूछोगे. अभी जरा चुनने दो मुझे कोई साड़ी.''

मम्मी का इशारा साफ़ था कि वह उनके कमरे से चला जाए. वह अपने कमरे में जाने के लिए वापिस मुड़ा. तभी मम्मी को जैसे कुछ याद आ गया. वे कहने लगीं, ''शांतिबाई से कहो कि तुम्हें दूध दे दे और मुझे कड़क-सी चाय बना दे.''

मोहित का मन खाली दूध पीने का नहीं कर रहा था. उसका जी कर रहा था कि मैंगोशेक पिया जाए. पर शांतिबाई के हाथ का बना मैंगोशेक वह पीना नहीं चाहता था. वह तो चाहता था कि मम्मी के हाथ का बना मैंगोशेक पीने को मिले, लेकिन मम्मी के पास टाइम ही कहाँ था मैंगोशेक बनाने के लिए. उसने कुछ देर सोचा और फिर शांतिबाई को आवाज़ देकर अपने लिए ठंडा दूध और मम्मी के लिए कड़क चाय लाने के लिए कह दिया. उसके बाद वह फिर से अपने कमरे में आ गया.

उसे थकावट-थकावट-सी लग रही थी. उसने दीवार घड़ी की ओर देखा. पाँच बजने वाले थे. वह आरामकुर्सी पर बैठ गया. तभी शांतिबाई उसके लिए ठंडा दूध ले आई. वह घूँट-घूँट करके दूध पीने लगा.

अचानक उसके दिमाग़ में आया कि उसने अजय को तो यह बताया ही नहीं कि वह आज भी क्रिकेट खेलने नहीं आएगा. कल जब उसने अजय को फोन करके क्रिकेट न खेलने के लिए आने की बात कही थी, तो उसे यह याद ही नहीं रहा था कि अगले दिन भी न आने की बात कह दे. उसे लग रहा था कि जब वह अजय को फोन करेगा, तो वह आज भी क्रिकेट खेलने के लिए न आने की बात पर बहुत नाराज़ होगा, मगर उसकी भी मजबूरी थी. कल के हिन्दी टैस्ट की बहुत सारी तैयारी करनी अभी बाकी थी.

उसने अपना मोबाइल फोन उठाया और अजय का नम्बर मिला दिया. फोन उठाते ही वह कहने लगा, ''यार मोहित, लगता है तू आज भी नहीं आएगा.''

अजय की बात सुनकर एक-दो पल तो मोहित चुप रहा. फिर थोड़ी दबी हुई-सी आवाज़ में कहने लगा, ''हाँ, यार अजय. आज भी नहीं आ पाऊँगा. कल क्लास टैस्ट है न हिन्दी का.''

''यार, कभी तूने टैस्ट की तैयारी करनी होती है, कभी होमवर्क का चक्कर होता है और कभी कुछ और बात होती है. रोज तो ऐसे चलेगा नहीं.'' अजय की आवाज़ से नाराज़गी झलक रही थी.

''क्या मतलब? क्या नहीं चलेगा?'' मोहित पूछने लगा.

''यार, ऐसे हर दूसरे दिन एक जना कम हो, तो ढंग से खेला ही नहीं जाता. चार-पाँच लड़के ही तो हैं अपने ग्रुप में.'' अजय था.

''ऐसा है कि आज तो मैं किसी भी हालत में नहीं आ पाऊँगा. कल देखता हूँ.'' मोहित कहने लगा.

''यार, कभी-कभार ना आना तो चल जाता है, पर इस तरह रोज-रोज छुट्टी करोगे तो कुछ सोचना पड़ेगा.'' अजय ने गम्भीर आवाज़ में कहा.

''आऊँगा यार, कल से हर रोज़ आया करूँगा.'' कहते हुए मोहित ने बात समाप्त की, लेकिन वह समझ गया था कि इस तरह अगर हर दूसरे दिन वह क्रिकेट खेलने जाने से मना करता रहा, तो उसकी जगह किसी दूसरे लड़के को अपनी टोली में वे लोग ज़रूर शामिल कर लेंगे.

मोहित का मन बुझ-सा गया. उसका दिल तो हर रोज़ क्रिकेट खेलने का करता है, पर वह करे भी तो क्या. हर रोज़ स्कूल से इतना सारा होमवर्क मिलता है जिसे पूरा करना कोई आसान बात नहीं होती. और फिर ऊपर से हर सोमवार को एक विषय का क्लास टैस्ट. अब वह होमवर्क पूरा करे, क्लास टैस्ट की तैयारी करे या क्रिकेट खेलने जाए. स्कूल से आकर कुछ आराम भी तो करना होता है. इन सबके अलावा एक बड़ी बात यह है कि उसके मम्मी और पापा बस रात को ही घर में होते हैं. दिन में ज़्यादातर समय तो वे अपने-अपने कामों में लगे होते हैं. जब-जब वे लोग घर में होते हैं, तब भी उनके पास टाइम नहीं होता उसके लिए. वे लोग उसकी पढ़ाई में कुछ मदद करें, तो उसका होमवर्क कुछ जल्दी पूरा हो जाया करे और उसमें वे सब ग़लतियाँ न हों जिनके कारण टीचर उसकी कॉपियों पर न जाने क्या-क्या लिख दिया करती हैं और क्लास में सबके सामने उसे डाँट दिया करती हैं.

आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे मोहित यही सब बातें सोचता रहा. अचानक उसका ध्यान टूटा, तो उसकी नज़र दीवारघड़ी पर पड़ी. साढ़े पाँच बजने वाले थे. उसे अगले दिन के क्लास टैस्ट की बात याद आ गई. उसने एक अँगड़ाई ली और आरामकुर्सी से उठकर खड़ा हो गया.

बाथरूम से मुँह-हाथ धोकर वह लौटा और स्टडी टेबल पर बैठकर फिर से टैस्ट की तैयारी करने लगा. सन्धि-विच्छेद वाला उसका पाठ अभी पूरा ख़त्म नहीं हुआ था. वह उसी को पूरा कर रहा था, मगर एक जगह उसे रूक जाना पड़ा. एक और सन्धि-विच्छेद उसे सही तरह से आ नहीं रहा था. उसने अपनी सभी गाइडों में भी देखा, पर किसी में उसका उत्तर मौजूद नहीं था.

उसने सोचा कि मम्मी के पास एक बार फिर से जाया जाए. अब तक उन्होंने शादी में पहनकर जाने वाले अपने कपड़े, सैंडिल और पर्स वगैरह चुन ही लिए होंगे. यही सोचकर उसने अपनी पुस्तक और कॉपी उठाई और मम्मी-पापा के कमरे की ओर चल पड़ा.

मगर कमरे में जाते ही मोहित को निराशा का सामना करना पड़ा. मम्मी अब भी बुरी तरह व्यस्त थीं. पलंग पर कपड़ों का ढेर और बहुत से पर्स पड़े थे और फर्श पर दसियों सैंडिल बिखरे थे. मम्मी ख़ुद पलंग के एक कोने में बैठकर अपने पैरों के नाखूनों पर नेल पॉलिश लगा रही थीं. मोहित को कमरे में आया देखकर भी मम्मी चुपचाप अपने काम में लगी रहीं. मोहित को लगा कि मम्मी को उसका आना अच्छा नहीं लगा.

तभी मम्मी कहने लगीं, ''बोलो, बेटू, क्या बात है?''

मम्मी के मुँह से ये शब्द सुनकर मोहित को कुछ हिम्म्त बँधी. उसने आगे बढ़कर अपनी हिन्दी की किताब मम्मी के सामने कर दी और कहने लगा, ''मम्मी, ये तीन-चार सन्धि-विच्छेद आ नहीं रहे.''

मोहित की बात सुनकर मम्मी कुछ देर चुपचाप कुछ सोचती रहीं, फिर कहने लगीं, ''यह नेल पॉलिश लगा लूँ. फिर तुम्हारे कमरे में आकर बता देती हूँ.''

''ठीक है, मम्मी.'' कहते हुए मोहित अपने कमरे में जाने के लिए मुड़ा. तभी उसके मन में न जाने क्या आया कि वह जाते-जाते रूक गया और मम्मी से पूछने लगा, ''तैयारी हो गई मम्मी शादी में जाने की?''

''अरे कहाँ बेटू. बड़ी मुश्किल से तो साड़ी, सेंडिल और पर्स चुने हैं. अभी ज्वैलरी (गहने) चुननी हैं. तैयारी होने और मेकअप करने में भी तो लगेगा टाइम. आठ-सवा आठ बजे घर से निकलने का सोचा है.'' मम्मी ने एक साथ बहुत कुछ बता दिया मोहित को.

मम्मी की बात सुनकर मोहित ने कोई जवाब नहीं दिया. बस एक-दो पल उस कमरे में खड़ा रहा और फिर वापिस अपने कमरे में आकर स्टडी टेबल पर बैठ गया. उसके बाद उसने टैस्ट की तैयारी फिर से शुरू कर दी.

पढ़ते-पढ़ते दस-बारह मिनट ही बीते थे कि मम्मी उसके कमरे में आ गईं. उन्होंने जल्दी-जल्दी मोहित को वह सब समझा दिया, जो वह उनसे पूछना चाहता था. फिर मम्मी जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर जाने लगीं. तभी जैसे उन्हें कुछ याद आ गया और वे रूककर कहने लगीं, ''रात के खाने में जो खाना चाहते हो, बता दो शांतिबाई को. पापा तो वहीं शादी में आएँगे.''

मम्मी की बात सुनते ही मोहित ज़िद-भरे स्वर में बोला, ''आप ख़ुद नहीं बनाकर जा सकते खाना?''

''अभी मेरे पास टाइम कहाँ है बेटू. साँस लेने की तो फुर्सत है नहीं. आज तो खा लो बेटू शांतिबाई के हाथ का. कल रात को तुम्हें बढ़िया-सा खाना खिलाऊँगी ख़ुद बनाकर.'' मम्मी ने मोहित को समझाने-के-से स्वर में कहा.

मगर मम्मी के समझाने का भी मोहित पर कोई असर नहीं हुआ. वह नाराज़गी-भरी आवाज़ में कहने लगा, ''दोपहर को खा ली शांतिबाई के हाथ की बनी भिण्डी और रोटी. अब उसके हाथ का बना रात का खाना मैं नहीं खाऊँगा.'' कुछ रूककर वह फिर से कहने लगा, ''मैं रात को खाना खाऊँगा ही नहीं. मुझे भूख नहीं है. भूख लगेगी भी तो कुछ फ्रूट खा लूँगा.''

मम्मी थोड़ी देर मोहित को देखती रहीं. फिर बोलीं, ''चलो, ऐसा कर लो, पिज़्ज़ा मँगवा लो अपने लिए.''

''और शांतिबाई? उसे भी तो खाना है न खाना.'' मोहित कहने लगा.

''अरे, तुम उसकी चिन्ता न करो. वह बना लेगी अपने लिए कुछ. तुम बस अपने लिए मँगा लेना जब जी चाहे.'' कहते-कहते मम्मी कमरे से बाहर निकल गईं.

मोहित ने दीवार घड़ी की ओर देखा. साढ़े छह बज चुके थे. उसने सोचा कि सात बजे के बाद पिज़्ज़ा मँगाने के लिए फोन करेगा. उसके बाद वह फिर से अपनी पढ़ाई में लग गया.

***