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सोच और संघर्ष

अरे आज भी तुम ये छोटी छोटी मछलियां पकड़ लाये , कितनी बार समझाया की समुद्र में थोड़ी दूर तक जाओ , थोड़ी बड़ी मोटी मछली लाओ ,कुछ आमदनी बढे और कुछ हमारा रहन सहन ऊंचा हो, कब तक इस झोपड़ नुमा घर में रहेंगे, ये पुराने पुराने कपडे और बर्तन ही हमारी ज़िंदगी में दिखेंगे,तुम पता नहीं कैसे संतोषी जीव हो , ऊंची सपने देखना तो दूर उनको सोचते भी नहीं हो.संतोष परम धर्म बेशक हो पर कब ये धर्म अपनाना है इसका एक समय और एक स्तर तो हो. अब नौशीन और अब्दुल दोनों स्कूल जाने लगे है, बेचारे रोज़ वही खाना ले जाते है, बच्चो के जीवन में कुछ विविधता आये ऐसा हर माँ चाहती है मैं भी चाहती हूँ इसलिए रोज़ तुमको कहती हूँ थोड़ी अपनी मछली पकड़ने की क्षमता को बढ़ाओ ,पर तुम्हारे कानो पर तो जैसे जो नहीं रेंगती. परेशान हो गयी हूँ में और सोचती हूँ कोई हुनर मैं ही सीख लूँ थोड़ी आर्थिक सहायता हो जाएगी और अल्लाह ने चाहा तो हम लोग एक बार हज पर भी जा पाएंगे.

घर पहुंचते ही थके हुआ रशीद के लिए अपनी बेगम नज्माँ का ये लेक्चर सुनना रोज़ की बात थी। ठीक है जो करना है करो , हम को तो अल्लाह ने जो हुनर और ताकत दी है उसी हिसाब से अपना गुज़र करेंगे. अच्छा ठीक है, मुझे पता था अल्लाह को बीच में लाये बिना तो तुम्हारी बात ही पूरी नहीं होती. जाओ हाथ मुँह धो लो , आज मैंने मीठा चावल और कोरमा बनाया है, तुम्हे तो याद भी नहीं आज हमारी निकाह का दसवा साल पूरा हुआ.

इंशा अल्लाह अच्छी बात है रशीद बोला और उठ कर हाथ धोने चला गया.

अब्बू जान इस इतवार में भी आप की साथ मछली पकड़ने चलूँगा , ८ साल के अब्दुल ने अब्बू से कहा..,नहीं बेटा अभी तुम बहुत छोटे हो और नाव में तुम्ही में समुद्र की बीच नहीं ले जा सकता। पर अब्बू इतवार को मुझे कहीं तो ले चलो, वह समुद्र किनारे की बाजार में में आपका इंतज़ार करूंगा , थोड़ा घूम लेंगे अम्मी और हम और फिर शाम को आप के साथ घर लौट आएंगे. चलो ठीक है, अब इतनी ज़िद कर रहे हो तो आने वाले इतवार का प्रोग्राम रहा. अब्दुल और उसकी छोटी बहिन नौशीन खुशी से चिल्लाये.हमारे प्यारे अब्बू. नज़मा बिचारी चिंता में पड़ गयी, बच्चे सारा दिन समुद्र के किनारे क्या करेंगे, खाने पीने में अलग पैसा खर्च हो जाएगा, कम से कम ५० रुपये

,ये सोचते सोचते नजमा काम करने लगी.अगले दिन शुक्रवार था, नमाज़ उस दिन ख़ास होती , सोफिर बाहर गयी बकरियों को अंदर बाँधने और मुर्गी बाड़े में देखने कोई अंडा तो नहीं है , कुछ नहीं मिला फिर उसकी नज़र केले के पेड़ पर गयी,कच्चे केलो केलों के छह आठ झुण्ड देख कर खुश हो गयी।

अगले दिन सब को काम पर भेजने की बाद बगल की सलमा फूफी के पास गयी , सलमा फूफी अपनी टोकरी तैयार कर रही थी , वो अपने करारे चटपटे केले के चिप्स के लिए जानी जाती थी ,पर थी थोड़ी करकर्ष, ज्यादा बात करती नहीं थी , सुबह सुबह ही अपना चिप्स का टोकरा उठा बाजार की तरफ निकल पड़ती , दोपहर तक उनके सारे चिप्स बिक जाते और शाम को वो नाज़ दरजी की दूकान पर सिलाई तुरपाई करती. से पिछले १५ सालो से यही सिलसिला था उनकी जिंदगी का, जब से उनके शौहर तौफ़ीक़ मछली पकड़ने गयी और समुद्र तूफ़ान में में खो गये , सलमा फूफी अकेली ही अपनी बेटी तपस्सुम को पाल रही है.ईद पर उनकी सेवइयां और तपस्सुम का सूंदर शरारा या ग़रारा सब को पसंद आता है

आदाब फूफी , कैसे मिज़ाज़ है आपके ,. मैं तो ठीक हूँ नज़मा ,गुज़र हो रही है, बस अल्लाह तपस्सुम की निकाह तक ज़िंदगी और ताकत दे, अपनी जिम्मेदारी पूरी कर के ही कब्र में जाना चाहती हूँ, तुम आज सुबह सुबह क्यों चली आई , मुझे देर हो रही है, बस दो रोटी खा कर निकलती हूँ

क्या बताऊँ फूफी , बच्चो ने ज़िद पकड़ी है इतवार को अब्बू के साथ समुद्र किनारे दिन गुज़ारने की , अब आप तो जानती हो दो छोटे बच्चो के साथ बाहर दिन गुज़ारना , मतलब ५० रुपये तो कम से कम खर्च होंगे, सोचा आप से थोड़ा चिप्स बनाना पूछ लू तो बच्चो के लिए हो जाएंगे और अगर कुछ बिक गए तो उस पैसे से बच्चो को खिलौना वगैरह ले लुंगी, यही सोच कर आप से चिप्स बनाने का तरीका पूछने आयी थी. फूफी जल्दी में थी बोली ऐसा है अभी तो में कुछ बता नहीं सकती तू कल मुझे एक केले का गुच्छा दे जाना में बच्चो के लिए चिप्स बना दूंगी उनसे जब अपने लिए बनाऊँगी, अभी तू जा मुझी देर हो रही है.

बेचारी नजमा सोचते सोचती वापस आ गयी, क्या जा रहा था फूफी का, इतना तो बोल रही थी तरीका ही बता देती चिप्स बनाने का, बड़ी आयी मुझे केले दे देना , मैं ना दूंगी, क्यों दूँ, और कुछ सोचती हूँ ये सब बड़बड़ाते हुए नजमा घर लौट गयी.

इतवार का दिन आ गया, बच्चे खूब खुशी खुशी तैयार हुए, अबू ने कहा आज में जल्दी आ जाऊँगा फिर हम सब समुद्र के किनारे खेलेंगे और में तुम्हे एक एक खिलौना भी ले कर दूंगा. नजमा को थोड़ा गुस्सा आ गया, बोली जल्दी आ जाओगे तो क्या मछलिया उड़ के तुम्हारी टोकरी में आएंगी, पूरा काम कर के ही आना, बच्चो को में देख लुंगी

राशिद कुछ नहीं बोला, उसी पता था नजमा की बड़बोलेपन में बहुत प्यार और चिंता छुपी है, पर वह समझ नहीं पाता इतनी सामान्य परिवार और परिवेश में रह कर नजमा की सपने बिखरती नहीं, सोचती बहुत ऊंचा ऊंचा अच्छा अच्छा ही है

नजमा ने एक डब्बे में रोटियां और मिर्च का सालन रख लिया, अब्दुल के लिए थोड़ी चीनी भी. सब चल पड़े , समुद्र को देख सब को एक अजीब सा सुकून मिला,राशीद नाव में चला गया और नजमा ने बच्चो के लिए एक नारियल के पेड़ के नीचे कपडा बिछा लिया , बच्चे सीप इकठे करने लगे, रेत का घरोंदा बनाते तोड़ते। ऐसी हे दोपहर हो गयी , बच्चो को भूख लग गयी , नजमा बोली आओ उस दूकान के पास स्टॉल है वहां बैठ कर खाना खाते है, फिर तीन बजे तक अब्बू आ जाएंगे तो बाजार में घूम लेंगे. जिस दूकान के बाहर वो बैठ कर खाना खाने जा रही थे वो एक ढाबा था , इडली डोसा,तो मिल ही रहा था लोग रोटी भी खा रहे थी कोई चिकन के साथ और कोई तली मछली के साथ. एक सरदार जी अपनी बीबी और चार बच्चो के साथ ंबैठे थे , बड़ी ही लम्बे मोटे , जोर से ढाबे वाले को बोले अबे बाबा. जल्दी जल्दी ला रोटियां, ये क्या आराम आराम से बेली जा रहा है, रोटी की स्पीड नहीं है बनाने की तो बोर्ड क्यों लगा लिया , डोसा इडली ही खिलाता,. जल्दी ला। नजमा ने देखा बिचारा ने ७०-७५ साल का बुजुर्ग जो रोटी बना रहा था वाकई बहुत धीरे बना रहा था , उसने थोड़ी देर सोचा , फिर उसके पास गयी और बोल "बाबा. अगर आप इजाजत दे तो में आप की मदद कर सकती हूँ, में जल्दी जल्दी रोटी बना दूंगी, में इसी गाँव की हूँ आप मुझ पर यकीन करे, वह बुजुर्ग कुछ बोलता इस से पहलेउस ने चकला बेलन ले लिया और जल्दी जल्दी रोटी बनाने लगी , सरदार खुश हो गया...ये हुई ना बात , जब तेरे ढाबे में इतनी तेज रोटी बनाने वाली काम कर रही है, तो तुझे क्या ज़रुरत है वहां अपनी कला दिखाने की, तू सब्जी दोसे इडली का काउंटर संभाल ले, अरे हम सरदारों से कुछ बिज़नेस टिप्स ले लो बाबा जी, हमारे अमृतसर के ढाबे आ के देखो कभी , क्या स्पीड है फुल्कों पराठो दी. सरदार जी बोले जा रही थी गरम गरम रोटी खाते हुए और वह ढाबे वाला चकरा रहा था. बेचारा सोच रहा था कैसे समझाए सारदार को की किस मजबूरी में ढाबा चला रहे है , खैर सरदार जी खा कर चले गए , तो ढाबे वाला नजमा से बोला " आज तुमन मेरी मदद की , शुक्रिया पर , तुम कहाँ की हो, और क्या करती हो, ये प्यारे बच्चे कौन है. नजमा ने अपने बारे में सब बताया , राशिद के बारे में बच्चो के बारे और अपने घर के बारे में. ढाबे वाला सुनता रहा फिर बोला अल्लाह ने भी क्या संसार बनाया है, ,, मैं इस उम्र में अपने पोता पोती के लिए ये ढाबा चलाता हूँ ,मेरा बेटा और बहु दोनों पिछली साल की बाढ़ में लापता हो गए थे, बहुत दिनों बाद उनकी लाश यहाँ से चार मील दूर एक पेड़ पर फंसी मिली , अपनी दस साल की पोती गुलनाज और ८ साल के पोते महताब को में आज तक समझा नहीं पाया की उनके अम्मी अब्बू कहाँ चले गए, सब अल्लाह की मर्ज़ी है। उन दोनों ने देखा की नौशीन अब्दुल गुलनाज और महताब तो खेलने में ऐसे मस्त है, दरअसल वह एक ही स्कूल में पढ़ रहे थे , उनकी गप्पे ही ख़तम ना हो जैसी बरसो से एक दुसरे को जानते हो, ढाबा वाले ने इतनी दिनों बाद बच्चू को इतना खुश देखा. तभी नौशीनं चिल्लाई अब्बू आ गए अब्बू आ गए , अब हम घूमेंगे और खिलौना खरीदेंगे , ढाबे वाले ने राशिद से हाथ मिलाया और बोला बहुत नेक परिवार है तुम्हारा. नजमा ने अपने डिब्बे से अपने शौहर को खाना दिया , ढाबे वाले ने थोड़ी सब्जी भी दी.. खाने के बाद सब ने बाते की और तय किया की ढाबे वाला राशिद से रोज़ मछली खरीदेगा, नजमा दिन में ११ बजे से २ बजे तक ढाबे में रोटी बनाएगी, और २ बजे से शाम तक

बजे तक अपने दोनों बच्चो की साथ साथ ढाबे वाले के पोता पोती का भी ख्याल करेगी,

अब शम्म ढल गयी थी और घर जाने का समय था, सब ने एक दुसरे को टा टा बोला और चल पड़े. सब बहुत खुश थे , राशिद ने कहा अच्छा किया बच्चों की बात मान कर, बच्चे खुदा की नेमत है, उनकी मर्ज़ी को भी तवज़ु देना चाहिए जब अपने बस में हो . बच्चे खुश थे अम्मी अब हम रोज़ साथ खेल पाएंगे और तुम उन दोनों को भी पढ़ा देना, उनकी दादा हम को भी कभी कभी खिलौना दिलवाएंगे

राशिद भी खुश था , मुझे भी मछली बेचने के लिए बहुत नहीं भटकना पड़ेगा , थोड़ी मछली रोज़ ढाबे वाले बाबा खरीदेंगे, नजमा बोली में भी ढाबे में रोटी बना कर कुछ पैसा कमाऊंगी , हज की लिए बचत हो पाएगी.

रास्ते में सलमा फूफी भी दिखी अपना खाली टोकरा उठाये हुए अच्छा ही हुआ फूफी ने चिप्स बनाने नहीं सिखाये कुछ ऐसा सोचती नजमा गुनगुनाती हुई चली जा रही थी, रुक जाना नहीं तू कहीं हार के , कांटो से निकल के मिलेंगे साये बहार के ,राही ओ राही , राशिद और बच्चे पीछे पीछे चले जा रहे थे. दूर घर दिख रहा था