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दीप शिखा - 6

दीप शिखा

तमिल उपन्यास

लेखिका आर॰चुड़ामनी

हिन्दी मेँ अनुवाद

एस॰भाग्यम शर्मा

(6)

एक दिन रामेशन आया |

‘उसकी तबियत ठीक नहीं है ऐसा लगता है | उसका इस तरह चिल्लाना, पुकारना, रोना, डॉक्टर हिस्टीरिया बोल रहे हैं....... उसका चेहरा कुम्हलाया हुआ था | कितनी आशा थी कैसे कैसे सपने देखे थे कि प्यारी पत्नी हो, प्यारे बच्चे हों ! प्रेम शांति से गृहस्थ जीवन चले | दोनों आँखों से एक दृष्टि जैसे पति-पत्नी कष्ट में सुख में मिलकर रहें | बीज जैसे पेड़ होता है वैसे ही धीरे-धीरे आगे बढ़कर परिपक्व होकर दोनों अधेड़ अवस्था में पहुंचेंगे ऐसा सोचा और अपेक्षा की | इसमें कोई गलती की क्या ? हर समय घृणा, विरोध.... उसके बच्चे को यामिनी एक बीमारी जैसे देख रही थी । उसमें प्रेम, प्यार मिठास था ही नहीं | कितना दुर्भाग्य है उसका |’

पेरुंदेवी को उसके मौन का रहस्य समझ में आ रहा था | अपने को दोषी मान उसने सिर झुका लिया |

सारनाथन बोले “यदि वह ऐसी है तो कुछ दिनों उसे यहाँ छोड़ दो ना बाबू ! शायद कोई फायदा हो जाए, देखते हैं |” फायदा जरूर होगा उन्हें पता था | पति को देखते ही उसका आवेश बढ़ जाता है | बच्ची पीहर आए तो थोड़ी ठीक होगी |

यामिनी के यहाँ आने के बाद वह एक तरह की शांति में है ऐसालगा | परंतु वह पूर्णत: सामान्य नहीं थी | वह शांति, निराशा का खालीपन था |

कुछ भी बात किए बिना वह घंटों हॉल के झूले में बैठ कर झूलती रहती | खाली आकाश में अचानक कुछ बादल के टुकड़े आ जाते हैं जैसे उस शमशान की शांति में अचानक एक भाव उबलता हुआ आता | आवेश क्रोध और वेदना का खालीपन चेहरे में लिए आँखों में नफरत का तूफान लिए अजीब सी निगाहों से सबको घूरती, दांतों से जीभ को काटती हुई अपने पेट पर दोनों हाथों को रखकर उसे दबा कर देखती | अंदर से ज्वालामुखी फटा हो जैसे निराशा आंसुओं के रूप में बहने लगती |

“अरे यामिनी, ऐसा मत करो बेटी ! अभी क्या ऐसी विचित्र बात हो गई क्या बाढ़ सिर के ऊपर से थोड़ी निकल गई ?” ऐसे अपनत्व व प्रेम से पेरुंदेवी के बोलते ही उसका भयंकर काला चेहरा, उनकी तरफ मुडा, तो और सारे भाव आदि तो पीछे रह गए माँ बुरी तरह से डर गई |

पेरुंदेवी को कुछ भी समझ में नहीं आया | एक दिन शाम को बेटी से बोली “शाम हो गई देखो यामिनी भगवान का दीया जला दो |” यामिनी दरवाजे के पास खड़ी होकर सिर झुका कर धीमी आवाज में बोली “नहीं अम्मा, मुझे दीया जलाने को मत बोलना | भगवान के कमरे में शुद्ध लोग ही तो जा सकते हैं|” ऐसी बात बोलते ही माँ को गहरा सदमा लगा उन्हें ठीक होने में बहुत देर लगी |

सारनाथन जब जब बेटी को देखते अपनी गलती को सुधार न पाने का अफसोस ज्यादा हो जाता | उसको रोते हुए देखने से उनका हृदय भी जख्मी हो जाता | शादी होने पर सब ठीक हो जाएगा ऐसा सोच कर उन्होंने शादी कर दी थी | परंतु अब तो वह हमारी एक छोटी सी बात पर भी विश्वास नहीं कर पाती| शायद बच्चा होने के बाद सबके जैसे सामान्य हो जाएगी? माँ का ममत्व शायद इसकी दवा बन उसके जख्मों को ठीक होने में सहायता करे ? इस विश्वास के साथ ही वे कहने लगे “रो मत बेटी, मेरी बच्ची | सब ठीक हो जाएगा, भगवान भी तो है न |” अपने वात्सल्य से उसे सांत्वना देने का प्रयत्न किया |

लेकिन वह तो बिगड़ी, चिल्लाई, रौद्र रूप धारण किया और फिर मुरझाई सी पड़ गई |

रात हो जाए तो उसमें थोड़ी सी शांति दिखाई देती थी | तारों को देख और फूलों की खुशबूओं के साथ वह बाहर आती थी | पिछवाड़े के बगीचे में खड़े होकर सिर ऊपर कर आकाश को देखती | पेड़ के नीचे जो खुशबूदार फूल बिछे होते जो लाखों नक्षत्रों जैसे दिखते उन्हें निहारती, बाहर की तरफ फैले पौधे व बेल की सुगंध वातावरण को खुशनुमा बना रही थी| विभिन्न फूलों की खुशबूओं से कदंबम (‘कदंबम मालै’ का अर्थ विभिन्न फूलों से गुथा हुआ हार तमिल में) का आभास हो रहा था | पेड़ों और घरों की वजह से आकाश को देखने में रुकावट होने से वह थोड़ी ही देर में ऊपर की खुली छत पर चली गई | वहाँ से खुले आकाश को जी भर चारों तरफ देख सकते थे | उसके गहरे काले रंग की कोई सीमा नहीं | दूसरे रंगों की सीमा होती है| काले रंग की कोई सीमा कहाँ ? पेड़ों और मकानों की ऊंचाई सबको पार कर दूर तक फैला आकाश मीठी गहराई लिए पूरा का पूरा उसके लिए उपलब्द्ध रहता | वह अपने सांवले मुख को ऊंचा कर ताकती रहती है | वह जब मुसकराती है तो गाल में डिम्पल पड़ते है | उसकी ये मुस्कान अब सिर्फ चाँदनी रात में ही खिलती है |

दुबारा फिर उसे पति के घर ले जाने के लिए कोशिश की तो जैसे आँधी तूफान आ गया हो ऐसा ही हुआ | यामिनी का चिल्लाना चीखनासमय के साथ ज्यादा होने लगा | एक बार पीतल के फूलदान को उठा कर पति पर फेंक दिया | उसके बाद उसके इतने उतेजित होने से उसमें बच्चे पर विपरीत असर पड़ेगा | ये सोच रामेशन डर के कारण “बच्चे के होने के बाद ही ले कर जाऊंगा ” कह कर उसे पीहर में रहने के लिए छोड़ दिया | उसके उदास चेहरे पर खत्म न होने वाले फिकर से तड़पती आँखों को देख, पेरुंदेवी को उस पर बहुत ही दया आई, गुस्सा भी आया | उससे भी ज्यादा उसे लगा अपनी लाड़ली एक समस्या बन कर रह गई है | स्वयं भी सुख नहीं पा रही थी औरों को भी दुखी कर रही है| ऐसी बात सोच वह अंदर ही अंदर घुट रही थी | ‘बच्चे है बच्चे |’ पैदा होते समय माँ के शरीर को कितना कष्टदेते हैं | फिर लगातार मानसिक दुख देते ही रहेंगे क्या ?

एक दिन यामिनी घर में नहीं थी तो पेरुंदेवी घबराई बाहर देखा परिवार की पहचान वाली एक डॉक्टर के साथ कार से उतर रही है ।

“इसको अभी से क्या तकलीफ है पेरुंदेवी अम्मा ? ये ही तो इसका पहला है ? मैंने बिल्कुल मना कर इसे लेकर आ गई |” उस महिला के बोलते ही पेरुंदेवी आश्चर्य चकित रह गई | अरे ये पापी लड़की ! तुमने ऐसा प्रयत्न किया ?

इसी तरह चार-पाँच बार बाहर और घर के अंदर भी उसने ऐसे कई प्रयत्न किए | डिलिवरी होने तक उसका ध्यान रखने के साथ रखवाली भी करनी पड़ी |

जो अभी संसार में आया ही नहीं उससे इतना वैर ? पेरुंदेवी जब-जब माँ बनने वाली थी तब-तब स्वयं कितनी खुश रहती थी उसे सोचकर उसने देखा | अभी अपनी बेटी की आँखों में जो विद्रोह का भाव उबल रहा है उसे देख उनका मन काँपने लगा दिनों दिन यामिनी में बदलाव आ रहा था | जब वह परेशान होकर बैठती तो उसमें पहले से ज्यादा ही बदलाव दिखाई देता था ? कोई उसको बुलाए तो वह अनजान बन नफरत से देखना चाहिए ? ये क्या तरीका हुआ ? ये क्या देखना हुआ ?

नाजुक हृदय में चलन कुछ नयापन लिया हुआ होगा ऐसा सोचा? इसके तो हृदय से ही नफरत के भाव प्रकट हो रहे हैं ? अपने अंदर पल रही जान से उसे जो परेशानियाँ हैं वह परेशानियाँ ही उसको ऐसा करने को प्रेरित कर रही है क्या ? या फिर ये किसी नये विस्फोट की ही शुरुआत है ?

आखिर ये विस्फोट हो ही गया |

बच्चा होकर तीसरा दिन |

उसी दिन यामिनी ने अस्पताल में आँखें खोली | पेरुंदेवी अपने हाथ में नाजुक बच्चे को लेकर धीरे से आई | बेटी जाने कैसे प्रतिक्रिया करेगी इसका उसे डर था | फिर भी बच्चे का प्रेम, वात्सल्य में जो शक्ति है उस पर उनको विश्वास था | इन सब से बढ़कर उस नए जीव के मुख को देख उसमें प्रेम उमड़ेगा ऐसा उसने सोचा |

“ये देख यामिनी तुम्हारी बच्ची को कितनी सुंदर है देख | गोरी-गोरी पूर्ण चन्द्र जैसी.....”

रात को ही पूर्ण चंद्र निकलता है | परंतु रात इसे देखता नहीं | काला व गोरा दोनों इतने पास रहने के बावजूद वे एक दूसरे के विरोधी है | वे मिलते ही नहीं |

ये बात कुछ क्षण बाद पेरुंदेवी ने महसूस किया | उसका हृदय बर्फ जैसे जम गया | विश्वास न करने लायक प्रतिक्रिया हुई और पेरूंदेवी दुखी हुई | एकदम से उस वातावरण से निकलकर बाहर न आ पाई | उस नव जीव को छाती से लगाने के बदले वह विरोध प्रकट कर पीछे हटी | उसके सामने ये क्या दृश्य है ?

यामिनी की गहरी काली आँखें बिना हिले स्थिर रहीं | सामान्य तौर पर वह जब अपने मन के विकार में स्थिर रहती है ये वैसा नहीं था | ये जो भ्रम था वह सब कुछ छोड़ने, सब कुछ ठंडा पड़ने इससे ज्यादा विरक्ति भाव क्या होता ?

सामने जो है उस संसार को ही छोड़ देने की बात उन आँखों में झलक रही थी | सब कुछ लुट जाने का विरोध उसकी आँखों में दिखाई दिया |

“अरी यामिनी ये क्या ऐसे कैसे देख रही हो ?” उसकी आवाज उस तक नहीं पहुंची ? जवाब देने लायक उसके चेहरे में कोई भी तो भाव नहीं था उसमें जैसी काली स्लेट में जो भी लिखा सबको मिटा दो तो कैसे साफ हो जाता है वैसे ही ये क्या पूर्ण खालीपन?

“अरे, अय्यो, अय्यो मुझे डर लग रहा है यामिनी !”

सारनाथन और रामेशन दोनों कमरे में आए ! बिस्तर पर पड़ी यामिनी की निगाहें घूमी रामेशन के ऊपर जाकर टिकी | थोड़ी देर वह घूर कर देखती रही | फिर उसके अधर थोड़े हिले, हवा में उसकी आवाज फैली

“अरे बाबू छुपन-छुपाई खेलें क्या ! चेस खेलें |”

कमरे में जैसे बिजली गिरि ? तीनों चेहरे एक क्षण में ही सफेद पड़ गए | ये क्या नया वेश अचानक किसी ने ज़ोर से चांटा मारा जैसे, तीनों तड़प कर खड़े देखते रहे|

दूसरे ही क्षण यामिनी ज़ोर से चिल्लाई उछलकर उठी और दीवार के किनारे जाकर छिपी | कमजोरी के कारण शरीर लडखडाया | सहायिका के पास जाते ही बड़े आक्रोश से उछल कर दूर हुई |

“अरे बाबू, मैं तुझसे शादी नहीं करूंगी पता है न तुमको ? मैं अलग रहने वाली हूँ मुझे मत छूना !”

आघात से जमी हुई निगाहें उस पर जा टिकी | थोड़ी देर उस कमरे में असहनीय शांति थी | फिर रामेशन थोड़ा हिला |सबके मन की बातों का प्रतिनिधित्व करते हुए डर से मिश्रित स्वर में धीरे से बोला “पागल !”

यामिनी की नफरत अभी भी बदली नहीं | अचानक एक तीव्र स्वर में “तुम ही पागल हो !” फिर वह हँसने लगी |

ऐसा लगा जैसे सारे तकलीफ़ों के बोझ को उठा कर फेंक दिया हो | क्या ये हल्की हो गई थी | आँसू बिना सूखे रोने वाली अब बिना रुके हँसती जा रही थी | ये दृश्य बहुत ही करुणामय था |

उसके हँसने से सारनाथन का दिल डूबा जा रहा था | मेरी बच्ची, मेरी यामिनी आखिर में ये ही दशा तुम्हारी होनी थी क्या? हम सब ने मिलकर ये कैसा फैसला कर डाला सब कुछ सत्यानाश कर दिया ?

कालिमा में जो ज्योति थी वो खोगई ? जो रोशनी थी धोखा दे गई ? वह कैसे रह सकती थी ? जिस शादी को सोच वह काँप जाती थी | नफरत से अलग खड़ी होती थी, नहीं चाहिए बहुत चिल्लाई | भगवान ने उसे ऐसा बनाया था तो उसके विरोध में जबरदस्ती करने का नतीजा ये ही होना था | ‘अय्यो, मैंने क्या कर दिया, क्या कर दिया !’ वे तड़पते रहे, वह हँसती रही|

इन सब के बीच पेरुंदेवी का स्वर गूंजा |

“अरी, यामिनी, क्यों ऐसा हँस रही है ?” बड़ी वेदना में भर वह बोली “बाबू तेरा पति है.......”

पति के शब्द के गूँजते ही अचानक हँसी रुकी | यामिनी पलकों को बिना बंद किए घूरे जा रही थी | बिना हिले ही जो मौन पसरा उसका वर्णन नहीं कर सकते पर उसने एक डर पैदा कर दिया | बहुत-बहुत ऊंचे पहुंचे हुए सज्जन जैसे देखते है वैसे ही यामिनी की काली स्थिर निगाहें उन लोगों पर जमी | बहुत गहराई से कुछ शक्तियाँ गंभीर होकर उफनती हुई उठ उस मौन को भरने लगी |

बुद्धि के विघटन से अतीत में जो घटा वह सामने आकर खड़ा हुआ | बाल बिखर गए आँखें फैली शून्य को ताकती, सिर उठा उन लोगों को देख, जो तूफानी वेग में चिल्लाई “मैं कन्या हूँ, मैं कन्या हूँ |” उसका वेग उठता चला गया क्या | थोड़ी देर बाद ही दर्द से हताश हो गई | फिर परेशान हो बिलख बिलख कर रोने लगी |

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