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लंकापति रावण


रावण बुद्धिमान था, ऋषिपुत्र था, पंडित था, वेदों का ज्ञाता था, देवाधिदेव महादेव का भक्त था. उन्हें अपना गुरु मानता था फिर क्या कारण था कि उसका और उसके पक्ष में खड़े कुल कुटुंब का विनाश हो गया ? इसका सर्वमान्य जवाब यही है कि वह अभिमानी था . पर केवल अभिमान के कारण व्यक्ति का ज्ञान विवेक खत्म नही हो जाता. उसके पतन के और भी कारण थे ,जो आपके हमारे जीवन में भी दिखाई देते हैं, जिसके कारण हम गलत निर्णय लेकर अपना नुकसान करते हैं .

अभिमान के अलावा रावण को अपनी शक्ति के विषय में अतिआत्मविश्वास था. उसे लगता था कि अपने तप बल से उसने वो सब हासिल कर लिया है, जिससे उसे पराजित कर पाना नामुमकिन है .और इस भाव के चलते वो चाहता था कि संसार की जितनी भी शक्तियाँ हैं, वो उसकी गुलाम बन कर रहे . उसके सामने सर न उठा सके और इस सर्व विजयी होने की महत्वाकांक्षा के कारण उसने सबको चुनोती देना शुरू कर दिया .

सवाल उठता है कि रावण जैसा ज्ञानी ,ब्राहमण आखिर राक्षस राज या राक्षस रावण क्यों कहलाने लगा . इसलिए कि जब देवताओं को हराना हो, ऋषि मुनियों की साधना सिद्धि को पराजित करना हो तब उन्हें सात्विकता से या ब्राह्मण रहकर तो कभी नही हराया जा सकता . नीचता के सागर में उतर कर विवश किया जा सकता है और तब उसने आसुरी वृत्ति को , नकारात्मक शक्तियों को साधना शुरू किया. इसलिए उसकी वृत्ति राक्षसी हो गयी .और इस वृति का काम यही है, राह में कोई भी बाधा बने उसे एन केन प्रकारेन हटा दिया जाय, उसके अलावा कोई दूसरा सुखी न होने पावे, यदि सामने वाला सुखी और निश्चिंत हो जायेगा तो वो उसे क्यों स्वीकारेगा . उसे कष्ट में, दुःख में, तनाव में रखो तब वो अधीनता स्वीकार करेगा और इसके लिए जिस हद तक नीचे जाना पड़े जाया जाय. उसकी इस वृत्ति के पोषक थे खर दूषण ,मारीच, सुबाहु , सूर्पनखा, आदि, किन्तु विभीषण उसके सगे भाई होने के बावजूद उसकी इस अनीति और अन्याय के साथी नहीं बने .

रावण अपने कर्मो से राक्षस बना वो जन्मजात राक्षस कुल का नही था यदि होता तो उस वृत्ति से विभीषण कैसे अलग हो गये . अभिमान के साथ अंतहीन महत्वाकांक्षा ने उसे कहीं का नही रखा . जब ये दोनों सर पर सवार हो जायं तो फिर साथ में कितने भी अच्छे साथी,गुरु और सलाहकार हों कोई फर्क नही पड़ता . उसके सलाहकार मंत्री थे सगे भाई विभीषण साथ में उसकी विदुषी पत्नी मन्दोदरी थी . पर इनकी सलाह उसने कभी नहीं मानी. यहाँ तक कि भगवान राम से लड़ते लड़ते पानी जब सर से ऊपर बहने लगा तब भी उसने किसी की नहीं सुनी . उसे लगता कि अंतिम बाजी मेरी ही होगी . युद्ध में भाई कुम्भकरण मर गया, पुत्र मर गया पर उसे लगा कि वो जो कर रहा है वही सही है .

वस्तुतः सदाचरण, नियम, संयम ,त्याग,अनुशासन और निरभिमानता के साथ जीना एक साधना है और यह लम्बे समय तक जब तक आदत न बन जाय अभ्यास में रहने कि अनिवार्य आवश्यकता है. कुम्भकरण जान गये थे कि जीवन भर भोग विलास और आसुरी भोजन ग्रहण करते रहने से एक बार में सात्विकता और संयम नही आने वाला . वे जानते थे कि रावण गलत है ,पर उनकी मजबूरी बन गयी उसकी ओर से लड़ना. वे जान गये थे कि इस देह को सहेज कर किया भी क्या जा सकता है? इसे तो किसी तपस्वी के हाथो सौंप देने में ही भलाई है . उन्हें लगा कि जिन्दगी भर इस देह को सहेजता रहा, दूसरों को मारकर खाता रहा, तो अब इसे दंड मिलना ही चाहिए . तो क्यों न उस पवित्र हाथो में इसे सौंप दिया जाय, जो इसे नष्ट कर इसे पवित्र करे . विभीषण जान गये थे कि जीवन में कौन सा मार्ग उनका कल्याण कर सकता है, वे उस रास्ते पर आरम्भ से चल पड़े, उन्हें पाने के लिए अभ्यास करते रहे , उन्होंने संसार को जीतने के बजाय खुद को खुद से जीतने में लगाया ,वे अभ्यासी थे लम्बी साधना ने उन्हें पवित्र कर दिया था, इसलिए उन्हें रावण के राज्य का सुख और वैभव त्यागने में जरा भी वक्त नही लगा. रावण के अपमानित करने पर वे सब कुछ त्याग कर हर्षित होकर वहां से चले गये . गोस्वामी जी कहते हैं कि उनके लंका त्यागते ही रावण सहित सब लोग आयुहीन हो गये . जब हमारे जीवन से अच्छे मित्र,सलाहकार और सद्गुरु हट जायं तो समझना कि अब दुर्गति तय है .

रावण एक बार भी अपने आराध्य ,गुरु भगवान शिव से जाकर उचित अनुचित नही पूछता . वो उनसे केवल अपनी लड़ाई के लिए अनुकूलता मांगता है, वो जो चाहता है उसे पूरा करवाना चाहता है . अपने परिजनों के मर जाने के बाद भी वो सलाह नही मांगता, मांगता है तो बस यही कि हर कोई उसके इस अनीति और अन्यायपूर्ण काम का समर्थन करे,उसकी लड़ाई में सहायक बने और जो ऐसा नहीं करता उसे उसकी लात खानी पड़ती . उसने मारीच के सामने शर्त रखी कि तुझे स्वर्णमृग बनकर सीताजी को भरमाकर श्री राम को भटकाना होगा यदि वो ऐसा नहीं करता तो रावण के हाथों मरना पड़ता . तब उसने विचार किया कि जिन्दगी भर गलत का साथ देकर मैंने जीवन को बर्बाद किया अब अपनी मौत को क्यों निरर्थक करना और तब उसनें निश्चय किया एक अन्यायी के हाथों मरने से अच्छा है भगवान के हाथों मरना.

इसलिए जब लगे कि जीवन में सार्थक कुछ भी नही किया केवल अपने स्वार्थ को प्रधानता देता रहा तब शरणागती और त्याग ही उस मानसिक कष्ट से मुक्ति पाने का उपाय है. धन संग्रह करने में, साधनों को इकठा करने में और मान सम्मान पाने के पीछे भागते हम न जाने कितनो को रौंदते आगे निकल जाते है, किन्तु वहां पहुँच कर एक खालीपन ही महसूस होता है, तब लगता है चैन और सुकून कैसे मिले, मरकर या खुद के भीतर के रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ और सोने की लंका को छोड़कर.. ....?
इसलिय संत तुलसीदास जी कहते है ,,,,,
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ||
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग ||
{ हे तात, स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाय तो भी ये सब मिलकर दुसरे पलड़े पर रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते जो लव {क्षण } मात्र के सत्संग से होता है ....}
भजमन राम शरण सुखदायी ........