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औकात

कहानी-

राजनारायण बोहरे

औकात

जिस दिन से दिनेश अहमदाबाद आये, मन का चैन छिन गया।

एक लम्बे अरसे से वह उससे दूर रहे आये हैं और उन्होंने मन में यही तय किया था कि आयन्दा जीते जी वह उसकी शकल भी नही देखेगे। लेकिन यहां तो वह भी उसी छत के नीचे रह रही है जहां अगले दस दिन उन्हें रहना है। हां पूरे दस दिन ! बेटू ने कहा था कि पापा आप इस बार की नवरात्रि यही गुजारिये , यहां के गरबा की सारे हिन्दुस्तान मे धूम है। हर मैरिज गार्डन और स्टेडियम में यहां गरबा का मण्डप बनाया जाता है जिनमें रात दो -दो बजे तक खूब गरबा होता है, लोग बहुत फ्री हो के आते हैं और अपना सब कुछ भुला कर गरबा में डूब जाते हैं। माता की भक्ति और संगीत का जादू मन में ऐसा उल्लास जगाता है कि जिसने कभी डांस न किया हो उसके पांव भी थिरक उठते हैं।'

'' अरे बेटा इस उमर में अब गरबा कहां ?'' वे आदतन संकोच में थे।

'' ये उमर और वो उमर क्या होती है पापा! आप पैंतालीस साल में ही अपने आपको बूढ़ा मानने लगे क्या? आप तो एवरयंग मैन हैं। पता आपको यहां के गरबा में सिक्सटी और सेविनटी तक की आंटी लोग डांस करती हैं। जिनका ऐसा मेकअप कि बाप रे, उनकी उमर का भी पत्ता भी ना लगे '' हँसते हुए बेटू ने बताया था '' पता पापा एक बार हमारे सीनियर ऑफीसर वहां डांस कर रहे थे और उनकी पार्टनर यानि उनकी वेस्ट हाफ थिरकते हुए जाने किस कोने में चली गयी तो उन्होंने पास में डांस करती एक महिला पर ध्यान दिया था जो पूरी मस्ती और उल्लास से नाच रही थी। मेरे सर उधर बढ़े और उनके साथ जोड़ी बना के डांस करने लगे । आखिरी में जब संगीत बंद हुआ तो सर ने उनसे कहा कि आपमें खूब स्टेमिना है,....आप बहुत अच्छा नाचती हैं!....यह भी पूछा कि क्या नाम है आपका ......और कहां रहती है। तो उस महिला ने कहा था कि षवधाम सोसायटी में किसी से भी पूछ लो बता देगा कि कमला बा कहां रहती है। मेरे सर चौंके '' कमला बा'' ! तो उन्होंने बताया था कि हां बेटा अपने पति के साथ रहती हूं वहां । सोसायटी के लोगों की मुंहबोली मां हूं मैं। हम सत्तर साल के डोकरा-डोकरी को कभी नही लगाता कि हमारे तीन बेटे और छह जवान नाती पोते हैं। जो विदेश में हैं ।''

पता नहीं बेटू उनका मूड हल्का कर रहा था, उन्हें दस दिन तक अपने पास बुलाने के लिए झूठ सच सुना रहा था या उनके मन के सो चुके पुरूष मन को ललचा रहा था। उन्होंने हामी भर दी थी यह सोच कर कि वे इंदौर में करते भी क्या हैं, फुरसत सी ही तो रहती है अब दिन रात ।

लेकिन ये पता थोड़ी था कि बेटू के पास वो भी मौजूद होगी। वे हैरान थे कि ये कहां से आ गइ ! सहसा वे द्वंद्व में आ गये , पता नही ये भी दस दिन के लिए यहां आइ या हमेशा के लिए वापस आ गई है।

अब, जब वे हताश हो चुके थे सारे जतन करके कि ये वापस नही आने वाली तब ये लौटी है। इस बीच थोड़ी मुटा गई है कमर और सीने के आस पास। चेहरा भर गया है और चेहरे पर चमक भी दिखने लगी है । इस चमक और गदरायेपन की वजह से घड़ी भर को मोहित से होने लगे वे, कि सहसा खुद को रोका, अरे रहने दो, इस मोहनी ने बहुत सताया है मुझे। इसी मोहनी सूरत के चक्कर मे क्या से क्या बन गया हूँ। सारे रिश्तेदार हँसने लगे हैं मुझ पर। बच्चे-बच्चे की जुबान पर चर्चा है मेरी । सामने कोई कुछ नही कहता लेकिन मेरे पीठ फेरते ही फिस्स से हँस पड़ते हैं सब। बहुत जग हँसाई हो गई इसके चक्कर में अब नही कराना ।

सुबह जब तक बेटू रहता है तभी तक घर में रहते हैं फिर उसके साथ ही घर से बाहर निकलते हैं तो इस मंदिर में और उस मंदिर में सारा दिन यूंही बिता देते हैं। सांझ होते ही किसी गरबा मण्डप में जा पहुंचते हैं और देर तक जगमगाती रोशनी और झनझनाते संगीत में डूबे रहते हैं । फिर 11 बजते-बजते जब बेटू सेल फोन पर फोन लगाके घर लौट आने को कहता हैं तो वापस आते हैं और डाइनिंग टेबिल पर रखा खाना खा के अपने बिस्तरे पर जा लेटते है। थकान की वजह से नींद में गाफिल होते है तो सुबह ही जागते हैं सीधे।

आज वे जिस मण्डप में गरबा देख रहे थे, वहां दर्शकों की खूब खातिरदारी की जा रही थी, पानी की थैली, चाय और बिस्कुट के छोटे छोटे पैकेट। मना करते-करते भी चार-पांच चाय पी ली उन्होंनेसो नींद नहीं आ रही है ।

बेटू ने 'टू बी एच के' यानि दो बेड रूम , एक हॉल और किचन वाला सुइट ले रखा है जिसके एक बेडरूम में बेटू होता है, दूसरे में वो और हॉल-कम-ड्रांईग रूम में वे लेटते है। बुंदेलखण्ड में नींद लेने के लिए 'सो जाना' शब्द शुभ नही माना जाता, सोना यानी ऑंख मूंदना और ऑंख मूंदना यानि मर जाना, सदा के लिए सो जाना ना मान लिया जाय सो नींद लेने के लिए यानि सोने के लिए लेटना कहा जाता है। पता नहीं उस को खूब प्यास लगने लगी है या और कोई बात है कि वह रात में तीन-चार बार अपने बिस्तर से उठ कर किचन में जाती है और पानी पीती है फिर हर बार वाश रूम होते हुए हॉल में भी आती है। वे दम साधे लेटे रहते हैं। कुछ देर खड़ी रह कर वह अपने गाउन को लहराती गुस्सा होती वापस बेड रूम में चली जाती है। उसके पांव की आवाज से समझ जाते है कि वह नाराज है या प्रसन्न।

पच्चीस साल पहले की बात है, उनका ब्याह होकर आया तो चित्रा को देख कर पूरा मोहल्ला चकित था '' देखो तो इस सांवरे और चेचकरू चेहरे वाले दिनेश को कैसी गोरी-नारी और कितनी खबसूरत दुलहन मिली। जरूर किसी गरीब घर की विपदा की मारी है तभी तो इस बेरोजगार को ब्याही गयी है।''

बिपदा की मारी तो नहीं गरीबी की मारी जरूर थी उसकी दुलहिन । झाँसी से सटे एक गाँव में रोज सुबह पहुंच कर परचूनी की छोटी सी दुकान करने वाले त्रिलोकी पंसारी की सात बेटियों में चित्रा सबसे छोटी थी जिसके ब्याह का समय आते-आते त्रिलोकी सेठ दिवालिया हो चुके थे और थक भी चुके थे बुरी तरह। सो अपनी बिरादरी में यह पहला लड़का देखने घर से निकले तो सगाई पक्की करके ही वापस हुये थे। उन्होंनेअपनी बिटिया की तुलना में न तो लड़का का रंग रूप देखा ना ही उसकी रोजी रोटी।

यार-दोस्तों ने देखा , तो बोले थे '' खूब हाथ मारा तुमने यार। कित्ती खुबसूरत बीवी मिली ।''

भाभियां और फुफेरी-ममेरी बहनें भी चुहल कर उठी थी '' भैया जी, आपके हिसाब से कुछ ज्यादा ही नाजुक है, जरा ठीक से संभालना अपनी दुलहिन को। दूध सी सफेद हैं कोई दाग मत लगा देना। ''

सब के छेड़ने का असर था कि वे रोज ही अपनी नवौढ़ा पत्नी को कस्बे की सबसे अच्छी मिठाई लाने लगे। हालांकि ये बड़ा कठिन काम था। हलवाई की दुकान से मिठाई लेते वक्त कोई परिचित न मिल जाये यह ध्यान रखने से लेकर पेंट की जेब में मिठाई का दोना छिपा कर लाना बड़ा दुश्कर कार्य था। तीसरे चौथे दिन चित्रा ने मना किया कि वे काहे को फालतू की फॉर्मेलिटी मे पड़ते हैं उन्हें मिठाई खाने का कोई शा क नही है।

पांचवे दिन उन्होंनेमनिहारी की दुकान से एक लिपिस्टिक खरीदी और जेब में डाल कर ले आये थे । चित्रा को दी तो वे दबे स्वर में गुस्सिया रही थी '' तुम भी गजब करते हो।ये होंठ लाल करके मैं कहां जाऊंगी ? मुझे तो इस घर में रहना है दिन भर । न किसी बाजार मे जाना और न किसी मेले ठेले में। मत लाया करो एसे सिंगार पटार के कोई सामान।''

... और वे आज भी मानते हैं कि चित्रा के द्वारा कहा गया ' मत लाया करो एसे सिंगार पटार के कोई सामान।' का यह वाक्य उनकी जीवन का मूल वाक्य हो गया था जिसके असर में उन्होंनेकभी भी चित्रा को ऐसी कोई चीज ला कर नही दी जो आज की हर महिला के लिए जरूरी होती है। कुछ दिन उन्होंनेकस्बे में एक परचूनी की दुकान चलाई फिर एक सरकारी निगम में एडहॉक पर बाबू के पद पर बहाली पा ली थी जिसे ज्वाइन करने वे ग्वालियर चले आये थे । ग्वालियर नगर तीन हिस्सो मे बंटा है - लश्कर, ग्वालियर और मुरार। मुरार का विकास अपेक्षाकृत कम हुआ था उन दिनों सो वह सस्ता भी था और कस्बाई माहौल वाला भी । दिनेश मुरार के भीतरी इलाके में एक कमरा और रसोई वाला मकान किराये पर ले कर रहने लगे थे वे। आगे के दिनों में उनका जीवन बेहद शांत गति से चलने लगा था। गिनी चुनी तनख्वाह थी और नाम मात्र के खरचे। चित्रा का कोई नखरा नहीं और उनका कोई शौक न था। साल में एक बार दो जोड़ी नये कपड़े बनवाते जो तीन चार साल तक चलाते। साइकिल से पूरा ग्वालियर नाप लेते। इतवार को जब सैर करने का मन होता वे दोनों ग्वालियर किला, चिड़ियाघर या सूर्य मंदिर हो आते।

वे दिन भर दफतर मे रहते और चित्रा घर में अकेली। कम आमदनी मे भी किसी आगत अभ्यागत या मेहमान की हैसियत अनुकूल खातिरदारी में चित्रा कभी पीछे नही रही। हर आये-गये को चाय और नाष्ता से आव भगत करती उनकी चित्रा इतना मीठा बोलती कि आने वाला सबकुछ भूल कर प्रसन्न मन से वापस जाता। घर मे रहती तो तीन साल पुराने घिसे कपड़े पहने उनकी चित्रा हमेशा प्रसन्न और मस्त दिखाई देती । खूब मजाक करती और फिल्मी गीत गुनगुनाती रहती जो कि वह अपने घर से लाई पुराने ट्रांजिस्टर पर दिन भर मे सुना करती थी। न उनके घर मे टेलीविजन था ना मिक्सी, ओवन और फ्रिज की कोन कहे। एक एक कर उनके यहां दो बच्चे हुये बड़ा बेटा था बिट्टू, छोटी बेटी थी चिंकी । वे भी मन लगा कर पूरी ईमानदारी से अपना काम करते । किसी का भी काम उनके दफतर मे अटकता वे भिड़ जाते बाहर के आदमी के काम निपटाने में। काम वाला लाख लालच देता लेकिन दिनेश कभी भी अपने रास्ते से नही डिगते और पूरी ईमानदारी से काम निपटाते।

उन दिनों की बात है जब कि देश मे चायना मेड माल का आगमन हुआ। चप्पल जूता और बच्चों के खिलौनों से लेकर मोबाइल, टेलीविजन तक चायना मेड आने लगे जिनकी कीमत बेहद सस्ती थी।

चित्रा की सबसे बड़ी बहन जबलपुर से ग्वालियर आई थी। किसी रिश्तेदार के यहां शादी थी जिसमे आई थी वो, कि छोटी वहन के यहां आने का मन बना उसका। दोनों बहनों को आपसी आर्थिक हालात अच्छी तरह से पता थे। बड़ी बहन के पति छोटे मोटे काम करते हुए आज प्रोपर्टी बिजनेस में लाखों कमा रहे थे वही छोटी के पति बहुत मामूली हैसियत के आदमी थे इसलिये एक दूसरे के यहां आना जाना कतई न था। लेकिन बहनों का प्रेम उमड़ा और बहनें आपस में मिलीं तो बड़ी ने कहा '' काहे बहन तुम दिन भर घर में बैठी बोर होती रहती हों क्यों नही एक चायना मेड टीवी ले लेतीं। या फिर कोई पुराना टीवी खरीद लो आज कल हर आदमी एल ई डी ले रहा है सो पुराना टीवी सस्ता मिल जायेगा। उसमें दिन भर गाने और नये नये किस्से कहानी चलते रहते है जिनमें तुम्हारा मन लगा रहेगा ।

छोटी ने दीदी से सिर्फ इतना कहा ' जिया, हमे बिलकुल शौक नही है टीवी इवी देखवे को। फिर जे मोड़ी मोड़ा बड़े हो रये हैं इनकी पढ़ाई फे बी असर पड़ेगो सो काहे के लाने नये तेनार (झंझट) खड़े करो। हम भले हमारी टूटी फूटी गिरस्थी भली।'

लेकिन मन ही मन चित्रा को बात लग गई थी सो उसने घर लौटते ही दिनेश से कहा ' देखो तो तुम हम औरन खों कैसी गरीबी में राख रये हो। आज घर-घर में कित्ती सुविधा की चीजें भरी पड़ी हैं और कछू नई तो कोई पुरानो टीवी खरीद लाओ कहीं से। हम दिन भर मन बहलात रहेगे।'

दिनेश ने बात टाल दी थी। बात आई गई हो गई थी कि एक दिन उनके ऑफिस में एक सरपंच आया जिसके पास से दिनेश के ऑफिस से गया हुआ कोई लैटर खो गया था। आते ही वह दिनेश से चिरोरी करने लगा कि फाइल में से निकाल कर वह सरपंच के लैटर की फोटो कॉपी करा दे। दिनेश पहले टालता रहा फिर जाने क्या सोच कर फोटो कॉपी करा के उन्हें हांथोंहाथ पकड़ दी। सहसा उन्हें याद आया कि सरपंच की पंचायत में सौर ऊर्जा से काम कराने के लिए पांच लाख का आबंटन प्रदेश सरकार की ओर से आया है तो दिनेश ने सरपंच को रोका और आबंटन आदेश ढूढ़ कर सरपंच को सोप दिया जिसे देख कर सरपंच तो खुश से उछल पड़ा। उन्हें सपने में भी आशा न थी कि उसका गांव सौर ऊर्जा के लिए चुना जायेगा। खुश में डूबे सरपंच ने जेब में हाथ डाला और जो भी हाथ आया बिना गिने ही दिनेश के हाथ मे रख दिया। दिनेश ने सख्ती से मना करते हुए सारे रूप्ये उन्हें वापस करना चाहे लेकिन लहीम-शहीम सरपंच ने उसका हाथ जकड़ कर पैसा दिनेश के टेबल की दराज में पटके और तेज कदमो से वहां से चला गया।

दिनेश दिन भर अवाक सा बैठ रहे। वे समझ नही पा रहा था कि इन रूप्यों का क्या करें। जिंदगी में पहला मौका था उसका रिश्वत लेने का। सो पचासों डर सता रहे थे उन्हें। सरपंच के पीछे पीछे लोकायुक्त वाले न आ धमकें कहीं । या फिर कलेक्टर या एस डी एम आके न तलाशी ले डालें उसके टेबल की दराज की। ये सरपंच लोग भी बहुत चालू होते हैं, यहां जबरन रूपया थमा गये और बाहर जा के िशकायत न ठोंक देवें।

राम-राम करके दिन बीता। सांझ छै बजे जब घर को चले तो उन्होंनेअखबार का एक पन्ना उठाया और सरपंच के छोड़े गये रूपयों का लपेटते हुए एक पुड़िया से बना दी। वह पुड़िया पुराने रिकॉर्ड के एक बस्ते में खोंसी फिर मन में ढेर सारे भय और आशकाओं के साथ घर चले गये उस रात उन्होंने आधा पेट खाना खाया। चित्रा चिंतित हुई तो उससे कुछ न कहा। रात को नींद भी नहीं आई दिनेश को । अधनीदे सपने देखते रहे जिनमें अधिकांश दु:स्वप्न थे और उनमें दिनेश को अपनी दुर्गति होती दिखती थी।

सुबह एक घण्टे पहले ही ऑफिस जा पहुचे वह। देखा, बस्ते में पुड़िया सुरक्षित थी। फिर तो सात दिन तक वह पुड़िया वहीं रही और दिनेश की दिनचर्या में पुड़िया की खोज खबर लेना शामिल हो गया। आठेक दिन बाद हिम्मत करके वह पुड़िया खोली और रूपये गिने तो देख सौ -सौ के बीस नोट थे वे-पूरे दो हजार।

सोचा कि इस अप्रत्यािशत आमदनी का क्या करेंगे ?

मन में आया-किसी को दान दे दें।

मंदिर के चढ़ावे की पेटी मे पटक आयें।

सरपंच को ढूढ़ कर जबरन वापस कर दें।

मन एक भी उपाय को स्वीकार नही कर रहा था। फिर बुझे मन से पुड़िया बनाकर अपनी जेब के हवाले की और सांझ को घण्टा भर पहले ही ऑफिस से निकल आये। बिना किसी काम के बाजार की ओर कदम बढ़ गये उनके। सोचा चलो बच्चों को कपड़े लेते हैं। चित्रा को भी कपड़े ले सकते हैं।

वे जहां अपनी साइकिल पर पांव टिका कर खड़े थे उसके सामने ही टेलीविजन की मरम्मत करने वाले एक मैकेनिक की दुकान थी। सहसा याद आया कि चित्रा ने पुराने टैलीविजन की इच्छा जताई थी आठ दस दिन पहले । उनके कदम दुकान की तरफ बढ़ गये।

डरते डरते उन्होंने मैकेनिक से पूछा कि क्या उसके पास कोई पुराना टीवी बिकाऊ है तो मैकेनिक ने झट से एक छोटा सा रंगीन टेलीविजन उठा कर उनके सामने रख दिया था, जिसकी कीमत सिर्फ अठारह सौ रूप्ये बताई थी उसने।

दियाबत्ती होते वक्त वह टेलीविजन उनके घर पहुंच चुका था जिसे मोहल्ले की केबिल नेट वर्क वाले ने दस मिनट में ही लाइन से जोड़ दिया था और टीवी चालू करके एक फिल्मी गाना चलाकर मैकेनिक वापस लौट आया था। चित्रा बहुत प्रसन्न थी और कई तरीकों से दिनेश के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रही थीं ।

रात देर तक वे दोनों टीवी देखते और झिलमिलाते पर्दे पर नाचते फिल्मी सितारों को ताकते रहे जो हर दो चार गीत के बाद के बिश्राम में घर में काम आने वाली किसी न किसी चीज को खरीदने का इसरार भी करते नजर आ जाते थे। चित्रा के साथ वे भी चकित थे कि बहुत सारी चीजों के बारे में उन्हें पता ही न था। उन लोगों को पता ही न था कि बर्तन मांजने का कोई अलग साबुन भी आता है, यह भी कि ठंण्डा पेय पदार्थ पीने से बदन की गर्मी हवा हो जाती है, या पिपरमेंट जैसा कोई टेलकम पावडर भी आता है जिसे छिड़कने से बदन की सारे घमोरियां गायब हो जाती है। सफेद रंग के टूथ पेस्ट के अलावा रंग बिरंगे ऐसे टूथ पेस्ट भी आते है जिनमें पिपरमेट, नमक और विटामिन सी मिला रहता है। जो चीजें उनके सामने आ रही थीं जिनमें चित्रा के काम की ज्यादा थी । उसके घर के काम में मदद करने वाली चीजें भी और उन्हें सुंदर दिखाने वाली चीजें भी। उन्हें देख चित्रा पुलकित थी।

दो चार दिन बाद एक सुबह चित्रा ने धीरे से कहा कि सारी जिंदगी बीत गई हमने आपसे कुछ नहीं मांगा लेकिन अब हम चाहते है कि घर में पुराना ही काहे न हो एक छोटा सा फ्रिज तो होना ही चािहये जिसमें पानी ठण्डा करके पिया जा सके और साग सब्जी ताजी रखी जा सकें, कभी कभार बच जाने वाले भिगोये आटे की पींड़ रखी जा सके और घर के दूध की बनी आइसक्रीम जमाई जा सके। ' मेरी हैसियत कहां है चित्रा कि ये सब ले सकें' कह कर अपनी सीमित आमदनी का हवाला देकर दिनेश बाहर चले गये लेकिन उनके मन में भी फिल्मी सितारे की वह सिफारिस जाग उठी थी जिसमे वह कहता था कि फलां कंपनी का फ्रिज सालों साल चलता है और पानी खूब खूब ठण्डा करता है।

पखवारा भी न बीता था कि एक दिन बड़े ऑफिस से एकाउण्टेंट आया जिसने दिनेश का अपना साल भर का यात्रा भत्ता का रूपया एक साथ उन्हें सोंपा। उस दिन भी ऑफिस समय से एक घण्टा पहले निकल कर उनके पांव बिना प्रयास ही पुराने फ्रिज बेचने वाली दुकान पर जा पहुंचे थे। फिर उसी सांझ उनके घर पर फ्रिज आ चुका था जिसे पा कर उनकी चित्रा खुशी से उछल ही तो उठी थी।

उस रात पहली बार उन्होंने चित्रा से पूछा '' तुम अब तक मन मार के इन चीजों के बारे में नही बता रही थी मुझे या तुम्हारी कोई इच्छा ही न थी?''

'' मुझे आपकी हालत पता है और जैसा जो भी है मै उससे संतुष्ट हूं । मुझे कभी नही लगा कि आपसे कुछ मांगना है या मुझे किसी चीज की जरूरत है।'' चित्रा ने बहुत भरोसे के साथ बताया था जिसे सुन कर उनका मन बहुत संतुष्ट हुआ था।

घर में कोलाहल रहने लगा। नये नये प्रोडक्ट और नये नये फेसन की परेड दिनेश और चित्रा के सामने चौबीसो घण्टे सजने लगी थी जिसके प्रचार और गुण गायन सुन सुन कर वे दोनों मंत्र मुग्ध से टेलीविजन के सामने बैठे रह जाते थे। दिन मे जब दिनेश ऑफिस मे होता उसकी चित्रा हमेशा की तरह नींद नही लेती थी बल्कि टेलीविजन पर सीरियल देखती थी । एकदम नये नये सीरियल , जिनमें बहुत सुंदर और सलीकेदार स्त्रीयां होती थीं जो बहुत मीठी और चिकनी चुपड़ी भाषा में पराये मर्दो से बात करती थीं , जिनकी उम्र चाहे कुछ भी हो लेकिन वे अपने पति के अलावा किसी दूसरे से भी प्यार करती थीं। सीरियलों में देवी जैसी सासें थीं और बाप से ज्यादा लाढ़ लढ़ाने वाले ससुर। एक अजीब, सुखमयी, जादू भरी और रोमांचक दुनिया देख रही थी दिनेश और चित्रा उस पुराने अठारह सौ रूप्ये के रंगीन टेलीविजन की खिड़की से । जिसके लिए केबिल वाला हर महीने पचास रूप्ये ले जाता था।

घर में टेलीविजन चलता था फिर भी बेटू के कोई पेपर नही बिगड़े। हर परीक्षा में वह अव्वल दरजे में पास होता था जबकि बेटी का रिजल्ट हर इग्जाम मे खराब होता था। बाद में तो पता लगा कि वह मंदबुध्दि भी थी और फेशन परस्त भी। दिनेश ने माथा ठोंक लिया था।

दिनेश घर लौटते तो फिल्मी गीत देखते । अपनी पंसद के फिल्मी गीत, जो अब तक या तो ट्रांजिस्टर पर सुन पाते थे या फिर पूरी फिल्म देखने पर ही मिल पाते थे अलग से कहीं न मिलते थे। कभी कभार वे फिल्म का चेनल लगा के फिल्म भी देखते। टेलीविजन उनकी दुनिया मे बहुत से सुख लाया था । बहुत सा ज्ञान भी। बहुत सी महत्वकांक्षाये भी तो बहुत सा रोमांस भी। वे अपनी चित्रा से उसी तरह पेश आते थे जैसे वह उनकी प्रेमिका हो। उनका बाहर जाना और सैर करना बहुत बढ़ गया था उन दिनों। चित्रा ने किसी सस्ती दुकान से सलवार सूट और गाउन के साथ मैक्सी खरीद ली थी । कहती थी पांच गज की साड़ी में गर्मी लगती है हमे सो गाउन डाल लिया करेंगे गर्मियो में। सर्दियों में चित्रा का तर्क था कि साड़ी में चारों ओर से हवा आती है सो ठण्ड लगती है अब सलवार सूट पहनेंगे तो हवा और ठण्ड बचेगी। उसने महीना भर का ब्यूटी पार्लर का कोर्स किया था और घर पर कुछ क्र्रीम पावडर लागर अपने चेहरे का बनाव श्रृंगार किया करती थी।

वे कुछ न बोलते थे चित्रा को मुग्ध भाव से देखते रहते थे।

उन्ही रोमांस के दिनों में उनके घर में फिर खुिशयां आईं । चित्रा ने बहुत लम्बे अंतराल के बाद तीसरी संतान यानी एक और बेटे को जन्म दिया। नाम रखा गया दिव्य उर्फ दिव्वू।

सुख से रहने की चाहत जगी थी तो घर में नई नई चीजों की जरूरत पैदा होने लगी थी तो उसके लिऐ पैसे की जरूरत भी दिखने लगी थी और दिनेश ने जरूरत के पैसों के लिए दफतर में उल्टे सीधे काम करना भी शुरू कर दिया था। घर मे कूलर भी आ गया था तो हीटर भी।

इस बीच उन्होंने मुरार के पुराने इलाके से मकान बदला और ग्वालियर शहर में नयी बनी एक कॉलोनी मे चले आये थे। जहां चित्रा ने एक ब्यूटी पार्लर में काम करना शुरू किया था कि एक एक्स्ट्रा आमदनी होने लगे। नये मकान का मालिक प्राय: उनके यहां चला आता कि चाय पिलाइये दिनेश जी और जम के बैठ जाता तो वे खुद चाय बनाने लगते उसके लिए। लेकिन वह घुमा फिरा के कहता था कि चाय तो भाभी जी बहुत बढ़िया बनाती हैं । एक बार ऐसा भी हुआ कि दिनेश की अनुपस्थिति में मकान मालिक चाय पीने आ गया ओर जाने क्या क्या बोलने लगा तो चित्रा ने उन्हें चले जाने को कहा था और घर आने पर दिनेश को साफ कह दियाथा िक वह इस मकान मे नही रहेगी तुरंत ही मकान खाली करेंगी।

अगले दिन ही मकान बदला गया। वहां भी पड़ौस मे रहने वाले एक सज्जन जब तब आके दिनेश से गप्पे मारने लगे और एक दिन चित्रा से बोलने लगे कि भाभी आपके हाथ मे जादू है जो छू लेती हो स्वादिष्ट हो जाता है। दिनेश के कान खड़े हुये, जो देखो सो चित्रा की तारीफ क्यों करने लगता है ? बहुत विचार करने के बाद वे जान सके कि इस तारीफ के पीछे उनकी चित्रा का एवरग्रीन बना रहना बहुत बड़ा कारण है। जाने क्या जादू है कि उनकी चित्रा दिनोंदिन जवान होती जा रही है और वे प्रौढ़। जवान हो रही है तो उसके शौक भी बढ़ रहे हैं और टेलीविजन के सीरियलों के प्रति दीवानगी भी। वह अपने कपड़ें और बाल भी वैसे ही बनाने लगी थी जैसे कि सीरियलों पर आने वली महिलायें बनाती है।

चित्रा के कहने से वह मकान भी बदला गया।

फिर तो कई मकान बदलना पड़े उन्हें अंत में एक ऐसा मकान खोजा गया जिसमें न कोई पड़ौसी था न ही मकान मालिक। उनकी गृहस्थी नििश्चतता और आराम से चलने लगी। लड़का बेटू तब एक सरकरी कॉलेज से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था और उनकी मंदबुध्दि बेटी ग्यारहवें दर्जा मे पढ़ रही थी।

कि घर पर गाज गिरी । पंद्रह साल से चली आ रही दिनेश की नौकरी एक झटके से छुड़ा दी गई थी। सरकार ने वह उपक्रम ही बंद कर दिया था जिसमें दिनेश नौकरी करते थे। परिचितों, रिश्तेदारी में यह दुर्घटना छिपा कर रखी गई और बहाना बनाया कि उनका तबादला नक्सल इलाके में किया जा रहा है सो वे नौकरी छोड़ने का मन बना रहे है। इस तरह का माहौल बनाते हुए वे लगातार सोचते रहे कि आगे रोजी रोटी कैसे चलेगी और अंत में निर्णय किया कि वे परचूनी की एक छोटी सी दुकान डाल लेते है। युवावस्था में किया गया यह व्यापार उन्हें नया नही लगेगा और कोई दिक्कत भी नही होगी।

चित्रा के खानदानी जेवर, अपने बैंक में बचा कर रखा रूपया और कुछ उधारी के सहारे उन्होंनेमुरार जा के एक छोटी सी दुकान डाल ली। प्रेम पूर्ण व्यवहार और चोखा माल बेचने के कारण दिनेश जल्दी ही अपनी दुकान मे सफल हो गये और रोज की पांच सात हजार सिलक उठाने लगे जिसमें उन्हें पांच सात सौ बच जाते थे।

अब वे जल्दी से जल्दी बेटी के हाथ पीले करना चाहते थे सो अपने नाते रिश्तेदारों के मार्फत कोई ऐसा लड़का ढूढ़ना शुरू कर दिया जो किसी गरज के चलते अब तक कुंवारा बैठा हो भले ही उसकी उमर पैतीस साल हो गई हो और उससे आधी उमर की लड़की को ब्याहना पड़े।

उनकी खोज के दौरान इन्दौर में एक लड़के का पता लगा था । निशक्त जनों के लिए निकाली गई सरकारी भर्ती योजना में एक सरकारी विभाग मे बाबू बना था वह लड़का। इंटरसिटी एक्सप्रेस में बैठ कर ग्वालियर से इंदौर भागे आये दोनो पति चित्रा। स्टेशन पर फ्रैस होकर सुबह नौ बजे लड़के के घर पहुंचे तो घंटी बजाने पर एक गोरे चिटठे, स्वस्थ दिखने वाले आदमी ने दरवाजा खोला, जिसकी याद आते ही मुंह कसैला हो हो जाता है दिनेश का इतने बाद आज भी। उस आदमी यानि शंकर ने बताया कि वह लड़के के पिता हैं जो परिवहन विभाग यानी आरटीओ ऑफिस में बाबू हैं और उनकी चित्रा साल भर पहले स्वर्गवासी हो चुकी हे। आने का मंतव्य जान वे बहुत खुश हुये और अपने बेटे को बैठक में बुला लिया उन्होने। लड़की का फोटो देख कर शंकर संतुष्ट दिखे। फिर दिनेशकी रिश्तेदारियो की जानकारी मिलते ही वे ज्यादा आत्मीयता से बात करने लगे। ग्वालियर का मेला, कड़ाके की ठण्ड और वहां के लोगों के गर्म स्वभाव की चर्चा होते होते इंदौर के मौसम पर आ गई फिर यकायक चित्रा ने बोलना शुरू किया तो बोलती ही चली गयी। चित्रा के सवाल अनंत थे, वह पूछ रही थी शंकर से कि उनका खानदानी मकान कहां है, ...घर में क्या क्या सामान है, ....गाड़ी है या नही है, ....वे खुद कहां रहते है, ...देश मे क्या क्या घूम रखा है उन्होने।

और इस बीच दोपहर के बारह बज गये तो दिनेश ने उठ कर विदाई मांगी।

सहसा शंकर ने एक अप्रत्यािशत बात कही ' हम तो यह नाता स्वीकार करते हैं और आपको आज से ही रिश्तेदार मानते हैं। आप इस वक्त कहां जायेगें , खाना खा के जाइये।'

'अरे नही हम गुरू कृपा वाले के यहां खाना....'

दिनेश की बात काट कर शंकर बोला ' अरे कहां किसी भोजनालय में खाते फिरेंगे ये इत्ता बड़ा घर तो है आपका। हमारा किचेन भरा पड़ा है भोज सामग्री से । आपको समधिन के हाथ का खाना अच्छा लगता है ना तो उन्ही से बनवाये लेते हैं।'

ताज्जुब हुआ दिनेश को कि उनकी चित्रा सिर्फ एक वाक्य से इतनी उत्साहित हुई कि एकदम से उठ खड़ी हुई और लड़के से बोली ' चलो बेटा दिखाओ कहां है तुम्हारा किचेन ।'

वे दोनों भीतर गये तो शंकर और दिनेश फिर से मौसम और राजनीति की बातें करने लगे। कुछ देर बाद ही शंकर को बैचेनी सी होने लगी और वह उठता हुआ बोला '' पता नहीं समधिन जी को किचन में कोई सामान मिल रहा होगा कि नही। देखता हूं मदद करता हू कुछ उनकी।''

अगले दो घण्टे किचन में से चित्रा और शंकर की ऊंचे स्वरों में बात करने की आवाजें आती रहीं और बैठक मे दिनेश झुंझलाता सा बैठा रहा। जाने क्यों उन्हें अजीब सा अहसास हो रहा था। वह कल्पना कर रहा था कि इस घर में उसकी बेटी कितनी खुश रहेगी।

खाने की टेबल पर थाली लगा कर चित्रा ने उन्हें बुलाया और बड़े सहज भाव से सबके साथ खाना खाने बैठ गयी। शंकर खाने की तारीफ कर रहा था और समधिन पर बलिहारी हुआ जा रहा था जबकि उसका बेटा गुपचुप बैठा निवाले पर निवाले अपने मुह मे ठूंसे जा रहा था, दिनेश को खुटका सा हुआ कि यह लड़का भी मंदबुध्दि तो नही है। जब बाप बेटे खाने के बाद वाश बेसन पर हाथ धो रहे थे तो चित्रा दिनेश को बता रही थी देखो कितना बड़ा घर है, कैसी शान से रहते है। अपनी बेटी राज करेगी यहां। इस बहाने कभी कभार अपन लोग भी ये राजसुख भोग लेंगे। तुम्हारे राज में तो जीवन भर नौ खायें तेरह की भूख बनी रही। सुना कर दिनेश अवाक था, अचानक चित्रा ने क्या कह दिया ये?

भोजन के बाद लड़के के दफतर तक भी शंकर अपनी कार में बिठा कर ले गया उन्हें और उन्हें मुतमइन करा दिया कि लड़का पक्की नौकरी में है।

दिनेश संतुष्ट था घर और वर से। अब शंकर की बारी थी। दिनेश ने कहा ' आप ग्वालियर आ जाओ किसी दिन और हमारी लड़की देख लो।'

'किसी दिन क्या आपको असुविधा न हो तो आज शाम आपके ही साथ चलते हैं। भले काम मे देरी किसी बात की। ' शंकर ने अप्रत्यािशत बात कही।

फिर वही हुआ । शंकर उनके साथ ही इंदौर से ग्वालियर आया और फॉर्मेलिटी सी की । लड़की देख कर नाता फायनल कर दिया। सारी बातें दिनेश के बजाय चित्रा ने करीं शंकर से। लेन-देन की बात पर वह बोला कि मुझे कुछ नही लेना। आप जैसे भोले और भले लोगों से नाता हो रहा है यही बहुत बड़ा दहेज है मेरे लिये। सिर्फ एक शर्त है मेरी !'

' क्या ?' वे लोग शर्त को बीच में उपस्थित देख कर चौंके।

' मेरी शर्त सिर्फ इतनी सी है कि समधिन जी को बीच बीच में हमारे घर आकर बच्ची को घर संभालना सिखाना होगा क्यों कि आपकी बच्ची अभी अल्हड़ है। घर संभालने का शऊर नही है उन्हें। '

सुनकर दिनेश को थोड़ा असहज लगा लेकिन चित्रा ने फटाक से जवाब दिया 'समधीजी, ये कौन बड़ी शर्त नही है। हम तैयार हैं।'

दिनेश को कल्पना भी न थी कि लड़की की शादी ऐसी आसानी से निपट जायेगी। इंदौर में में शंकर ने बहुत अच्छा मैरिज गाडन किया था जहां दोनों पक्षों के रिश्तेदारों को ठहराने और खिलाने पिलाने का अच्छा इंतजाम किया गया था। दिनेश ने बहुत निकट के अपने जैसी हैसियत वालों अपने नाते रितेश्तेदारों को ग्वालियर बुलाया , बाकी सबको इंदौर पहुंचने का निवेदन किया और वे सब सीधे इंदौर के मैरिज गार्डन पहुंचे सो उनकी आव भगत से भी मुक्त हो गये वे। वहां तो जैसे वे वैसे ही दिनेश और उनकी चित्रा थी।

शादी में सारे इंतजामात इतने जबर्दस्त थे कि सारे रिश्तेदार ईष्या करने लगे दिनेश से कि देखो तो कैसा जादू चलाया शंकर पर जो लड़के का बाप होने के बाद भी लड़की वाले रिश्तेदारों के सामने कैसा झुका झुका फिर रहा है और हरेक को खाने पीने का इसरार कर रहा है-ईश्वर ऐसे रिश्तेदार सबको दे। दिनेश को कुल मिला कर यह खुशी थी कि मंदबुध्दि लड़की की समस्या आसारी से सुलझ गई।

विदा कराके समघी अपने घर को निकले तो दिनेश वापस ग्वालियर की तैयारी करने लगे थे। हलवाइयों को निर्देश थे कि जो भी मेहमान मेरिज गार्डन से वापस जाये उन्हें खाने का तैयार पेकेट दे दिया जाये सो दिनेश और उसके साथ रवाना हुये दस रिश्तेदारों को कुल मिला कर पंदह पैकेट मिल गये थे और वे बड़ी नििशचतता के साथ ट्रेन मे सवार हो गये थे। ग्वालियर आने के लिऐ उन्होंने मालवा एक्सप्रेस चुनी जो बारह बजे इंदौर से चलती है।

गाड़ी अभी देवास भी पार न कर पाई थी कि मोबाइल फोन बजा। दिनेश ने अपना मोबाइल चित्रा को दे रखा था इसलिये फोन उसने ही उठाया और हल्लो नमस्ते कहते हुए सबके बीच से उठ कर कंपार्टमेंट के उस हिस्से की ओर चली गयी जहां वाश केविन बना होता है। वहां खड़ी रह कर वह देर तक हँसते हुए बतियाती रही फिर देर बाद जब वापस लौटी तो दिनेश ने पूछा किसका फोन था तो बोली ' बिटिया का मन नही लग रहा ससुराल में, उसी का फोन था।'

फिर हर आधे घंटे बाद फोन बजता और चेहरे पर एक अजीब से मीठी लालिमा लिये चित्रा उठ कर कंपार्टमेंट के एक या दूसरे कोने की ओर वढ़ जाती थी। रासते भर यही होता रहा। एक बार रहा नही गया तो दिनेश भी बहाने से उसके पास जा पहुंचा तो हां हूं करते हुए चित्रा ने फोन काट दिया था। दिनेश ने फिर पूछा किसका फोन था तो हँसते हुऐ बोली थी बेटी और दामाद का फोन था , पास मे समधी साहब भी बैठे थे।

देर रात गाड़ी ग्वालियर पहुंची तो सब जाकर गहरी नींद सो गये। सुबह दिनेश उठे तो देखा चित्रा अपने बिस्तर पर न थी , उन्हें दया आई कि थकी हारी आई है और नींद पूरी भी नही करी कि सुबह जल्दी उठ कर काम में लग गई बेचारी। उठ कर उन्होंने किचेन मे झांका, नल के पास देखा लेकिन चित्रा कही न थी। किचेन मे झूठे बर्तन भिनक रहे थे तो बाशरूम मे गंदे गीले कपड़े बदबू दे रहे थे।अरे कहां गई ! ढूढ़ते हुए वे नीचे के दरवाजे तक आये और वापस ऊपर चढ़ कर छत पर पहुंचे तो लम्बी सांस ली, सीड़ियों की तरफ पीठ किये खड़ी चित्रा चहकते हुए किसी से बतिया रही थी। बिना आवाज किये दिनेश उसके पास पहुंचे तो सिर्फ उसके द्वारा कहे जा रहे यह वाक्य सुनाई पड़े-

...आ जाओ आपका घर है।

...हां हम भी इंदौर आयेंगे।

...आपके ही घर रहेंगे और आपके ही साथ।

...हां समधिन के कपड़े पहनेंगे ना ।

...ना ना समधिन के बेड रूम मे नही सोयेगे जी।क्या पता आप हमे.....

दिनेश फिर परेशान कि किससे चहक कर बतिया रही है ये। तनिक दूर वापस आकर उसने ऊंचे स्वर में कहा ' अरे सुनो, मेहमानों को वापस जाना है, नीचे चल कर चाय वाय बनाओ उन्हें।'

वो मुड़ी और बाद में बात करती हूं कह कर उनके पास आ गई थी ।

मेहमान लोग अपने घरों को निकले तो उन्होंने अपनी दुकान संभाली। वे प्राय: अनुभव करते कि उनके घर से निकलते ही चित्रा इंदौर को फोन लगाती है और देर तक बतियाती है। जाने क्या बातें होती हैं समधी से कि न इन दोनों का मन भरता न बातें पूरी होती। इस उमर में प्यार व्यार होने की तो कोई आशंका नही है हां नाता जरूर मजाक का पड़ता है सो जानते बूझते वे ज्यादा नही टोकते। लेकिन सावधानी के नाते अपना मोबाइल वापस ले लिया उन्होने। अब देखो कैसे बात करती है।

सात आठ दिन हुए थे कि एक दिन शाम को उनके मोबाइल पर शंकर का फोन आया । उन्होंने उठाया तो वे बड़े गुस्से में थे, ' समधी जी ठीक से सुनो, आपकी लड़की बहुत बेशऊर है, ना रहने का लिहाज है न बोलने चालने की तमीज। आप तो ले जाइये इसे हमारे यहां नही चल पायेगी ये।'

कांप उठे वे, 'अरे ये क्या हुआ?' समधी जी नाराज क्यों होते हैं। आपकी बच्ची जैसी है वो। हमने पहले ही बताया था कि बहुत तेज नही है।'

' तेज क्या होता है जी, वो तो नॉर्मल भी नही है।'

' आपने तो खुद अपनी आंखों से देखा था उन्हें।'

' हमने तो समधिन को देख कर नाता किया है.....। कहां भी था कि उन्हें तमीज सिखाने समधिन को महीना दो महीना के लिए साथ रहना पड़ेगा।'

' हां तो महीना भर तो होने दो । भेज देंगे उसकी मां को।'

' महीना भर कैसे कटेगा उसके साथ, अभी सब लोग नई बहू को देखने आ रहे हैं और उन्हें देख कर सब हमारी हँसी उड़ा रहे हैं कि पैसे के चक्कर में कैसी पागल लड़की ब्याह लाये। पैसा तो आपने क्या दिया ठीक से जानते ही होंगे। इसलिये अगर भेजना है तो अभी ज्यादा जरूरत है समधिन की । आपको नाता रखना है तो अभी भेजो उन्हें।'

' जी कल ही भेजता हूं।' उन्होंने हथियार डाल दिये थे।

अगले दिन चित्रा अपना छोटा सा बैग ले के इंदौर रवाना हो गई थी और दिनेश को छोड़ गई थी छोटे बेटे दिव्वू को खाना बनाने खिलाने बर्तन मांजने और नहलाने धुलाने की सारी जिम्मेदारी देके। वह रात दिन दिव्वू में ही लगा रहता। दुकान पर जाना मुहाल हो गया था दिनेश का।

इंदौर स्टेशन पर पहुंच के तो चित्रा ने फोन किया िक वह आ गई है और समधी जी लेने आ रहे हैं, लेकिन फिर अगले चार दिन तक कोई फोन नही आया। दिनेश फोन लगाता तो घण्टी जाने के बजाय टूं टूं की ध्वनि आती और अपने आप फोन कट जाता। दिनेश भारी चिंता में था कि पांचवें दिन रात दस बजे के करीब फोन लग गया । उधर से दामाद की आवाज थी ' पापा जी नमस्कार! हम लोग सिरडी आये हैं, मम्मी पापा भी साथ हैं। इस वक्त हमलोग होटेल में है और वे लोग अभी पिक्चर देखने गये हैं । सुबह आपकी बात करायेंगे।''

वे हैरान थे कि समधी के बुलाने पर इंदौर में नये रिश्तेदारों के सामने लड़की के बेहतर परफारमेंस और घर चलाने में मदद करने के वास्ते गई थी चित्रा! फिर सिरडी कैसे पहुंच गये ये लोग।

अगले कई दिन तक कोई फोन नही आया। दसेक दिन बाद दामाद के ही नंबर से फोन आया चित्रा का '' समधी जी कह रहे है कि लड़की को पगफेरे की रस्म के लिए ग्वालियर लिवा ले जाओ ।'

' अरे तुम तो वही हो ना, लिवा लाओ ना'' बेरूखी दबाते हुए वे बोले।

' वे कह रहे हैं कि रिवाज के मुताबिक बेटू को आना चाहिये।'

' रिवाज के मुताबिक तो बहुत कुछ नही होना चाहिये ' वे झुंझलाये ' फिर भी नहीं हो रहा है। रिवाज गया भाड़ में । तुम लिवा लाओ अगर जरूरी हो तो। नही तो अकेली वापस चली आओ।' उन्होंने खुद फोन कोट दिया।

और फिर बेटी को लिवा कर चित्रा खुद चली आई थी। इन दस दिनों में तो जलवे ही बदल गये चित्रा के। बड़ी महंगी साड़ियां थी उसकी अटैची मे तो बदन पर लगभग उतने ही जेवर जितने नव ब्याहता बेटी के पास।

बेटी को लिवाने तीन दिन बाद ही समधी जी खुद आ धमके थे। आकर सीधे ही एक बड़े होटेल मे कमरा लिया और रिवाज निभाने के लिए उनके घर आये । खाना खाते हुए बोले थे ' समधी जी तो अपने धंधे में बिजी होंगे , समधिन जी आप ही हमें ग्वालियर घुमा दो।'

चित्रा की आंखे चमक उठी थी। फिर तीन दिन समधी रूके तो पहले दिन सुबह से शाम तक दोनों जन घूमते ही रहे ग्वालियर का सूर्य मंदिर, किला, जय विलास पैलेस, बाड़ा, थीम रोड। ...और दूसरे दिन आगरा गये वे लोग तो तीसरे दिन झांसी ।

इंटरसिंटी के ए सी सेकेंड क्लास मे बहू को लेकर समधी रवाना हुये तो स्टेशन पर छोड़ने गये दिनेश के सामने ही वे चित्रा से सट कर बात करते रहे थे और जब गाड़ी चल पड़ी तो बोले थे ' तीन दिन बाद आप आ जाइये इंदौर । घर की हालत बेहद खराब है।'

बेसाख्ता दिनेश के मुंह से समधी को गालियां निकल गई थी। लेकिन खुद को रोक लिया था उन्होंनेजबरन।

घर पहुंचते ही बम सा फटा। दिनेश ने चीखते हुए उसने सारा घर सिर पर उठा लिया '' ये क्या बेहयाई कर रहे हो तुम लोग?''

'' क्या हो गया'' चित्रा शांत थी।

'' तुम्हे पता नही कि क्या हो गया ? तुमने बेटी की विदा की है या उस घर को खुद विदा हो गई हो।''

'' कित्ते बेशर्म हो तुम। सच्ची में गरीबी मे रहते रहते पागल हो गये हो अब। समधी का नाता है तो थोड़ी सी हँसी मजाक कर लेते हैं हम लोग, तुमने तो सीधे ही मेरे चाल चलन पर उंगली उठा दी। अरे , नाशपिटे वो दिन याद करो जब अधपेटे रहती थी मैं तुम्हारे घर और किसी की गलत नजर भी नही सहन करती थी। अब मै क्या ऐसी छिनाल हो गयी कि ....''

'' वो ही तो दुख है मुझे। जो चित्रा किसी पराये मर्द की एक गलत बात से नाराज हो जाती थी वो आज सरे आम....''

'' तुम्हारी नजर का धोखा है ये ''

'' तो ठीक है,। अब मत जाओ तुम उस घर में ।''

'' पागल हो गये हो क्या? समधी नाराज हो जायेगे और तुम्हारी पागल मोड़ी को भगा देंगे वे। रख पाओगे क्या उन्हें सारी जिंदगी अपने घर।''

'' तो बेटी का भविष्य बचाने के लिए खुद को दांव पा लगा दोगी क्या ?''

'' तुम तो सठिया गये हो। मै नही समझा पाऊंगी तुम्हें '' कहती चित्रा की आंखों में न किसी प्रकार की अपराध भावना थी न ही संकोच।

बस उसी क्षण दिनेश बौरा गये थे यकायक और सामने पड़ी कपड़ा कूटने की कुटनी उठा कर चित्रा पर हमला ही कर दिया था। बेटू अब तक सब सुन रहा था चुप बैठा हुआ। पापा को क्रुध्द होते देख वह फुर्ती से उठा और उनका हाथ पकड़ के दूर ले गया '' पापा शांत रहो काहे को तमाशां दिखाते हो।''

'' बेटू तुम बताओ मैं तमाशां दिखाता हूं या ये दिखा रही है।'' वे कातर होकर लगभग रो उठे थे।

और घर बिखर गया था उस क्षण से।

बिफर उठी चित्रा रात में ही इंदौर के लिए रवाना हो गयी थी और बेटू अपनी नौकरी के लिए अहमदाबाद। घर मे रह गए थे वे तनहा और उदास। दिव्वू की जिम्मेदारी संभालते हुए।

महीना भर में बेहाल हो उठे वे। बीस साल की विवाहित जिंदगी मे चित्रा से इत्ता प्यार करने लगे ऐसा पहली बार महसूस हुआ। चित्रा के बिना सबकुछ व्यथ्र लगने लगा था उन्हें। मन मार के समधी को फोन लगा या तो उसने उठाया ही नही। दामाद को लगा के कहा कि बेटा अपनी सास को वापस ग्वालियर भेज दे तो बोला था कि आप बड़े लोग हो हम बच्चे क्या जाने?

फिर बैचेनी ज्यादा बढ़ी तो चित्रा की बहनों से संपर्क करना षुरू किया था दिनेश ने जिनसे अभी तक अपने दीन भाव के कारण कभी कोई नाता नही रखा था उन्होने। सबने चित्रा को फोन किया और समझाया भी लेकिन चित्रा नही आई।

एक दो रिश्तेदार तो इंदौर भी पहुंचे उन्हें समझाने तो चित्रा ने उनकी ऐसी आव भगना की मानो उसी का घर हो । पता नही उसने किससे क्या कहा कभी किसी रिश्तेदार ने लौट कर उन्हें कोई संदेश नही दिया। किसी ने कोई मदद नही की उनकी।

आते जाते लोगों से पता लगता कि चित्रा के मुंह पर कोई दिनेश का नाम लेता है तो वो पानी पी पी के गालियां देती है। बददुआये करती है। बेटी के घर में ठाठ से रहती है। हर महीने जाने कहां कहां घूमने जाते हैं चारों लोग। चित्रा हमेशां समधिन के बड़े मंहगे और फेशनेबल कपड़े पहनती है और समधी के साथ हक पूर्वक उनके बेट रूम मे सोती है।

दिनेश को विश्बास नही होता था इन बातों पर, सो वह जब भी खाली होता फोन लगाता रहता। एक बार संयोग से फोन लगाया तो चित्रा ने उठा लिया डूबती आवाज में उन्होंने सिर्फ इतना कहा '' मै इतना बुरा हो गया चित्रा कि तुम छोड़ के ही चली गई।''

'' नहीं, लेकिन मैं वहां नही आ पाऊगी अब। तुमने इत्ती बदनामी कर दी मेरी कि ग्वालियर के सारे जान पहचान वाले थूकेंगे मेरे मुंह पर।''

'' फिर ,,,? फिर मैं क्या करूं ?''

'' तुमको कभी कभार मिलना है तो इंदौर आ जाओ।''

'' वहां क्या करूंगा मैं, रोजी रोटी कैसे चलेगी अपनी?''

'' जो आज करते हो। यही परचूनी की दुकान यहां कर लेना।''

यह कहते हुए बात बंद कर दी थी चित्रा ने।

उसी रात दिनेश ने दुकान बंद करने का मनसूबा बना लिया था । धीरे धीरे करके उसने दुकान का सारा सामान बेचना शुरू किया और छोटे बेटे दिव्वू के स्कूल से उसका लिविंग सर्टीफिकेट इश्यू कराने की काय्रवाही शुरू कर दी। महीना भर के भीतर वे इंदौर में थे।

जूनी इंदौर में एक छोटा सा मकान किराये पर लेकर परचूनी की दुकान खोल ली थी उन्होंनेलेकिन चित्रा से मिलना अब भी दूभर था। एक बार वे बेटी के धर तक भी गये तो छत पर खड़ी चित्रा ने उन्हें वापस जाने को कह दिया था। उन्होंनेपूछा भी था कि अब जब मैं इंदौर आ गया हूं तो भी...।;''

'' अब ये फैसला मैं नही कर सकती उनसे मैं इंजाजत लेकर मिल पाऊंगी मैं आपसे।'' दो टूक बात कह दी थी चित्रा ने।

''तो मैं दिव्वू को अकेला कैसे संभालता रहूं ?''

''उन्हें मेरे पास छोड़ दो तुम। मैं संभाल लूंगी।''

बेटू के मार्फत चित्रा से बात हुई और यही फैसला हुआ कि दिव्वू अपनी मम्मी के पास रहेगा सो एक दिन दिव्वू को उसकी महतारी के पास छोड़ आये थे वे और खुद किसी साधु वैरागी से हो कर रहने लगे थे। मन में वैराग्य सा आ गया था उन्हें। भगवान से लड़ते रहते अपने भाग्य को लेके। आस पास के लोग उन्हें सनकी मानने लगे थे।

ऐसे ही दिन कट रहे थे कि बेटू ने जाने कब यह लीला रच डाली , उन्हें नवरात्रि के बहाने से अहमदाबाद बुला लिया और अपनी मां यानी चित्रा को भी। जिसे देख उनके मन में आग सी जल रही थी लगातार।

सुबह हो रही थी और सारी रात जागते हुए बीती थी दिनेश की सो सिर मे दर्द महसूस हो रहा था।

रोज की तरह बेटू उनके पास आया ''आपने चाय पी ली पापा!''

' नही पी। लेता हूं अभी। सिरदर्द हो रहा है मेरा।''

बेटू ने मां को चाय लाने को कहा और जब वे चाय लेकर आयीं तो हाथ पकड़ कर बैठा लिया उन्हें। अब दिनेश असहज हो रहे थे।

'' आज आप दोनों एक गरबा मे साथ साथ जाओगे। मैं कल रात को ही आप लोगों के लिए वहां के पास और आप दोनों के कपड़े ले आया हूं।'' बेटू ने एकाएक दोनों को सकते में डाल दिया।

लाख मना करने पर भी दोनों को गरबा मे जाना पड़ा और वहां मौजूद प्रििशक्षक ने जब उन्हें नाचने के दो चार स्टेप सिखाये तो बाद में दोनों साथ साथ नाचे भी।

चित्रा ने कितनी बार प्रयास किया लेकिन दिनेश ने एक लफज भी नही बोला उससे।

अगले दिन जब दिनेश रोजाना की तरह बाहर जाने को तैयार हो रहे थे तो अचानक कॉलवेल बजी। दरवाजा खोला तो सूट बूट पहने एक आदमी दिखाई दिया। दिनेश के मुंह से सहज ही निकला 'नमस्कार कहिये !'

' जी मैं रामदयाल गुप्ता ! भोपाल से हूं। आपसे ही मिलना था।'

आइये आइये कहते दिनेश को माजरा समझ नही आ रहा था।

भीतर बैठ कर रामदयाल बोले ' दिनेशजी, मैं आपके बेटे विकास से अपने अपनी बच्ची के रिश्ते की बात करने आया हूं।'

' जी, वो ये सब बातें तो खुद विकास ही....' दिनेश हिचक रहे थे।

' आपका बेटा बहुत संस्कारी है दिनेशजी, उसने कहा है कि ये सारी बातें मेरे पापा ही तय करेंगे। इसलिये आपका ही इंतजार हो रहा था। नवरात्रि के दिन इन कामों के लिए बहुत पवित्र होते हें। मेरी बेटी यहीं अहमदाबाद में एक कंपनी में इंजीनियर है, जब आप कहें उन्हें देख लीजिये।'

उनकी बातें चल ही रही थीं कि चित्रा ने हाथ में ट्रे लेकर ड्रांईगरूम में प्रवेश किया 'नमस्कार'

' जी नमस्कार! मैं रामदयाल गुप्ता भोपाल से आया हूं आपके बेटे के लिये'

' हां बेटू ने मुझे बताया था।' दिनेश ने देखा कि चित्रा मे एक अजीब सा निर्पेक्ष सा भाव आ गया था। इंतने दिन भोतिक सुखो से भरपूर जीवन व्यतीत करने के अनिवार्य प्रभाव उसके चेहरे के भाव, आवाज की अति औपचारिकता और हर समय बने ठने रहने में साफ झलकती थी।

उन्हें लगा कि बेटू और चित्रा को सब बातें पता है लेकिन उन्हें अंधेरे मे रखा गया। एक क्षोभ का भाव उनके मन में उभरा। वे उठ जाना चाहते थे यहां से ताकि बाकी की सारी बातें चित्रा कर सके। उन्हें अनुभव हो चुका है संभावित समधियो से बतियाने का । लेकिन अगले ही पल वे रूक गये। बेटू क्या सोचने लगेगा अभी हाल कि मेरे ब्याह की बात आई तो पापा फालतू ईगो पालने लगे। वे चुप बैठे रहे वहां । चित्रा बड़े स्मार्ट लहजे में रामदयाल से बात करे जा रही थी उन्हें बोलने की जरूरत भी नही थी वहां।

कुछ देर बाद बेटू बैठक में आया और नमस्कार कर वही बैठ गया। रामदयाल पूर्व से परिचित थे उससे , सो वे लोग आपस मे बतियाने लगे। बीच बीच मे चित्रा के सवाल अभी भी जारी थे, वह पूछ रही थी रामदयाल से कि उनका मकान कहां है, ...घर मे क्या क्या सामान है, ....गाड़ी है या नही है, ....वे खुद कहां रहते है- भोपाल या अहमदाबाद, देश मे क्या क्या घूम रखा है उन्होने।

दो चार दिनों में पिघलने सी लगी रिश्ते की बर्फ एक बार फिर सख्त होती महसूस की दिनेश ने। उन्हें भीतर से बहुत तेज हिकारत का भाव आया चित्रा के लिए, वे तुरंत उठ जाना चाहते थे वहां से लेकिन बेटू के लिहाज में बैठे रहे। एक अजीब सी उकताहट महसूस होने लगी थी उन्हें । अपने आपको फंसा हुआ सा अनुभव कर रहे थे वे। घबराहट तेज बढ़ी तो असहय हो उठी कुछ बोलने का प्रयास किया उन्होंनेकि मुह से कोई आवाज ही नही निकली। उठने का प्रयास किया तो लगा कि बदन में लकवा सा लग गया है। उठने का प्रयास करते दिनेश सोफे पर ही लुढ़क गये।

कुंद होती चेतना के बीच उन्होंने सुना चित्र बुदबुदा रही थी ' ये असगुनिया, हर जगह असगुन करेगा। बेटे के रिश्ते की बात के बीच भी नही मान रहा। कैसे ठनगन कर रहा है। बेटू से मना किया था कि मत बुलाओ इसे लेकिन माना नही बेटू। अपनी औकात से बाहर नहीं आता कभी निगोड़ा फटीचर!'

बेटू को खुद लग रहा था कि उसके ऑफिस जाने का समय हो चुका है और पापा एन वक्त पर ये क्या मक्कर बना बैठे है।

रामदयाल भी किंकर्तव्य विमूढ़ बैठा था।

....और वे बेहोश हो चुके थे।

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